बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 30 मार्च 2015

कोई अश्क आँख से ढल गया, कोई आरज़ू सी मचल गयी















अभिषेक श्रीवास्तव की क़लम से


1.

एक सरापा जुस्तज़ू और कुछ करम हासिल ना हो
मेरी क़िस्मत ये जहाँ तक शौक़ हो मंज़िल ना हो

ज़िंदगी की ग़ालिबन तफ़सील ही मुश्किल में हैं
और मुश्किल ये कि मुश्किल हो अगर मुश्किल ना हो

वो कि बेजा कशमकश में अब तलक है मुब्तिला
मेरी तब थी इल्तजा  अब क्या पता कि दिल ना हो

एक ये आशिक़ कि जीते जी उसे संगदिल कहें
एक वो बामन कि उसका संग भी संगदिल ना हो

चल पड़े हम सर झुकाये बात आधी छोड़कर
सर को उसने भी झुकाया यूँ कि वो ग़ाफ़िल ना हो


2.

अजब ये दर्द के मारों की दुनिया
अना के चंद बीमारों की दुनिया

यहाँ हर शय के दाम तयशुदा है
यहाँ हर गाम बाज़ारों की दुनिया

डराते हो मुझे क्यूँ आख़िरत  से
यहीं क्या कम है आज़ारों की दुनिया

हर एक भगवान् को प्यारी लगे है
डरे सहमे से लाचारों की दुनिया

अना के साथ जीने की सज़ा है
हमारे हक़ पे इन्कारों की दुनिया


3.
वो आये मगर जाने किधर देखते रहे
हम ग़ौर  से बस उनकी नज़र देखते रहे

हाँ बात वो अंजाम तक पहुँची नहीं मगर
हम उसका हशर सारी उमर देखते रहे

हौले से मुस्कुरा दिये जो हमने यूँ कहा
क्या हम नहीं थे आप जिधर देखते रहे

जो चुप रहे तो हाल-ए-जिगर पूछते रहे
जो कह दिया तो तल्ख़ नज़र देखते रहे


4.
ख्वाब का बह गया महल शायद
लौट आँखों मे आया जल शायद

फिर उसी इक सवाल पे अटके
सबसे मुश्किल है जिसका हल शायद

हाय वो पल हमारे मिलने का
अब मिलेगा नहीं वो पल शायद

बात जिस कल पे मुल्तवी कर दी
हो गया मुल्तवी वो कल शायद

रात आँखों से खून आया था
हसरतों का है ये अमल शायद

आस्तां पे तुम्हारे बैठे हैं
हमको आयेगा इससे कल शायद

5.
और जो चाहा किये थे पा गये
जुस्तजू से पर तेरी उकता गये

इक वो पहले इश्क़  की तशना-लबी
और कुछ हम फ़ितरतन घबरा गये

थरथराते लब थे झुकती सी नज़र
पास जितने लोग थे धुँधला गये

एक मोमिन यूँ हुये दिल आशना
बस निगाहों से करम फ़रमा गये

उम्र भर के तजरुबे सब इक तरफ
इक तरफ तुम शेख जी टकरा गये

6.
हमने जाँ पर बेतरह पाले हैं ग़म
बस गए हैं रूह पर जाले हैं ग़म

ज़िंदगी जो ज़िंदगी थी क्या हुई
सिर्फ काली रात है काले हैं ग़म

हम ग़मों से भागकर जायें कहाँ
जीते जी जाने कहाँ वाले हैं ग़म

कैद में मैं ज़िंदगी की मर गया
बाब पर लटके हुए ताले हैं ग़म

इल्तेज़ा मिन्नत गुज़ारिश क्यूँ करें
इन सदाओं ने कहाँ टाले हैं ग़म


7.

सोचते हैं कि भूल जायें उसे
सोच के भूल कैसे पायें उसे

उसको भूले तो किस तरह भूलें
आप जब ज़िंदगी सा चाहें उसे

आप गर आप हैं तो मुमकिन है
आप एक रोज़ याद आयें उसे

इश्क करिये मगर ये ख़तरा है
खो भी दें और कभी ना पायें उसे

हम तो सब कुछ लुटा के आयें हैं
आप जायें, खरीद लायें उसे


8.
किसी हसरत पे, दिल को प्यार से, फुसला दिया जाये,
बड़ा मायूस हो बैठा, चलो समझा दिया जाये

दवा उसकी यही होगी, जो गुमसुम है खयालों में,
उसी का दर्द, उसके मुहं से अब कहला दिया जाये

मैं मुंसिफ उस अदालत का, जहाँ ये हाल है हरद
मेरे हालात का मुजरिम मुझे ठहरा दिया जाये

वो ज़िंदा है तेरे बिन, और इतनी उम्र है बाकी
सिवा इसके तेरे मुजरिम पे क्या फतवा दिया जाये

यहाँ हर शख्स की आंखों में इक मंज़र उदासी का
बड़े महंगे हैं चारागर, इन्हें समझा दिया जाये

किसी के नर्म हाथों से, किसी के दीदा-ए-तर से
मेरे ज़ख्मों की ख्वाहिश है, उन्हें सहला दिया जाये

अगर साहिब की मर्जी हो, अगर हज़रत इजाज़त दें
कतल तो हो चुका हूँ मैं ,मुझे दफना दिया जाये

9.
यूँ बहार अबकी गुज़र गयी, कि खिज़ा ही रंगत बदल गयी
मेरे ग़म अगर्चे ना कम हुये, और वस्ल की रात भी ढल गयी

तेरे ग़म से जब था आशना, तुझे क्यूँ मैं करता कुछ बयाँ
तू शमा थी, बाइस-ए-नूर थी, जो दयार-ए-गैर में जल गयी

जो विसाल में मेरा हाल था, तेरे बिन तो जीना मुहाल था
तुझे दिल में ऐसे बसा लिया, घड़ी मुश्किलात की टल गयी

जो पढ़ा किये वो किताब थी, तू गये जनम का सवाब थी
जो लकीर थी मेरे हाथ की, वो लकीर कैसे बदल गयी

मेरा हाल कोई बुरा नहीं, तेरा नाम सुनके हुआ यही
कोई अश्क आँख से ढल गया, कोई आरज़ू सी मचल गयी

10.

बड़े मायूस रहते हैं, बड़े खामोश रहते हैं
चलो बेहतर कि अब सदमों से हम बेहोश रहते है

कभी नज़रों से मेरी उसको देखो तब ये जानोगे
कि बस एक मय नहीं हैं , जिसमें सब मदहोश रहते हैं

मैं मुद्दत से खुशी की बात पे भी खुश नहीं होता
मेरी आँखों में कुछ दरिया हैं, जो रू-पोश रहते हैं

वो बचपन में मेरे मिट्टी के कुछ घर तोड़ गया था
वगरना लोग मेरी उम्र के पुर-जोश रहते हैं

फिराक़-ओ-ग़ालिब-ओ-मख़दूम से बचपन की निस्बत है
मेरे कूचे में अब तक फ़ैज़ हसरत जोश रहते है

(रचनाकार-परिचय
जन्म : २० जून, १९८०
शिक्षा : सांख्यिकी और गणित में स्नातक, लखनऊ विश्वविद्यालय, एमसी एए बीटीआई कानपुर
सृजन : वर्चुअल स्पेस में सक्रिय लेखन 
संप्रति :  गुडगाँव में निजी संस्थान में सॉफ्टवेर डिज़ाइन प्रोफेशनल
संपर्क : abhihbti@yahoo.com )




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5 comments: on "कोई अश्क आँख से ढल गया, कोई आरज़ू सी मचल गयी"

suresh swapnil ने कहा…

वाक़ई, क़ाबिले-तारीफ़ हैं ये ग़ज़लें। एक-दो हिज्जे की गड़बड़ें हैं, कहीं-कहीं सक्ता भी आ रहा है, बहरहाल, उम्दा ग़ज़लें ।

Unknown ने कहा…

इनायत सुरेश भाई, बदकिस्मती से ग़ज़ल के बारे में मेरा ज्ञान रदीफ़, काफ़िये और बहर तक महदूद है "सक्ता" से आपकी क्या मुराद है

شہروز ने कहा…

भाई मैं दरअसल कंटेंट पर ज़्यादा ध्यान देता हूँ. वरना बहर में ग़ज़ल कहना मेरे बूते में नहीं। बहरक़ैफ़ सक्ता का आशय बहर की रुकावट से है. मेरी अदना सी समझ यही कहती है. यही फ़्लो या रवानी कहीं-कहीं बाधित हो रही है. लेकिन ऐसा आपकी कुछ ग़ज़लों में है. यह अभ्यास से दुरुस्त हो जाएगा।

Unknown ने कहा…

ये जानते हुये भी कि बहर से हटना शोरा के नज़दीक गुनाह-ए-अज़ीम है, मैंने ये गुनाह कई बार किया है शहरोज़ भाई, ख़ासकर शुरुआती ग़ज़लों में, इसीलिए अपने आप को पूरा शायर नहीं मानता, सुधरने की कोशिश जारी है

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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