नई पौध के तहत 10 ग़ज़लें
प्रखर मालवीय 'कान्हा' की क़लम से
1.
वो मिरे सीने से आख़िर आ लगा
मर न जाऊं मैं कहीं ऐसा लगा
रेत माज़ी की मेरी आँखों में थी
सब्ज़ जंगल भी मुझे सहरा लगा
खो रहे हैं रंग तेरे होंट अब
हमनशीं ! इनपे मिरा बोसा लगा
लह्र इक निकली मेरे पहचान की
डूबते के हाथ में तिनका लगा
कर रहा था वो मुझे गुमराह क्या?
हर क़दम पे रास्ता मुड़ता लगा
कुछ नहीं..छोड़ो ..नहीं कुछ भी नहीं ..
ये नए अंदाज़ का शिकवा लगा
गेंद बल्ले पर कभी बैठी नहीं
हर दफ़ा मुझसे फ़क़त कोना लगा
दूर जाते वक़्त बस इतना कहा
साथ ‘कान्हा’ आपका अच्छा लगा
2.
रो-धो के सब कुछ अच्छा हो जाता है
मन जैसे रूठा बच्चा हो जाता है
कितना गहरा लगता है ग़म का सागर
अश्क बहा लूं तो उथला हो जाता है
लोगों को बस याद रहेगा ताजमहल
छप्पर वाला घर क़िस्सा हो जाता है
मिट जाती है मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू
कहने को तो, घर पक्का हो जाता है
नीँद के ख़ाब खुली आँखों से जब देखूँ
दिल का इक कोना ग़ुस्सा हो जाता है
3.
ख़ला को छू के आना चाहता हूँ
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ
मेरी ख़्वाहिश तुझे पाना नहीं है
ज़रा सा हक़ जताना चाहता हूँ
तुझे ये जान कर हैरत तो होगी
मैं अब भी मुस्कुराना चाहता हूँ
तेरे हंसने की इक आवाज़ सुन कर
तेरी महफ़िल में आना चाहता हूँ
मेरी ख़ामोशियों की बात सुन लो
ख़मोशी से बताना चाहता हूँ
बहुत तब्दीलियाँ करनी हैं ख़ुद में
नया किरदार पाना चाहता हूँ
4.
तीरगी से रौशनी का हो गया
मैं मुक़म्मल शाइरी का हो गया
देर तक भटका मैं उसके शह्र में
और फिर उसकी गली का हो गया
सो गया आँखों तले रख के उसे
और ख़त का रंग फीका हो गया
एक बोसा ही दिया था रात ने
चाँद तू तो रात ही का हो गया ?
रात भर लड़ता रहा लहरों के साथ
सुब्ह तक ‘कान्हा’ नदी का हॊ गया !!
5.
सितम देखो कि जो खोटा नहीं है
चलन में बस वही सिक्का नहीं है
यहाँ पर सिलसिला है आंसुओं का
दिया घर में मिरे बुझता नहीं है
यही रिश्ता हमें जोड़े हुए है
कि दोनों का कोई अपना नहीं है
नये दिन में नये किरदार में हूँ
मिरा अपना कोई चेहरा नहीं है
मिरी क्या आरज़ू है क्या बताऊँ?
मिरा दिल मुझपे भी खुलता नहीं है
कभी हाथी, कभी घोड़ा बना मैं
खिलौने बिन मिरा बच्चा नहीं है
मिरे हाथोँ के ज़ख्मों की बदौलत
तिरी राहों में इक काँटा नहीं है
सफ़र में साथ हो.. गुज़रा ज़माना
थकन का फिर पता चलता नहीं है
मुझे शक है तिरी मौजूदगी पर
तू दिल में है मिरे अब या नहीं है
तिरी यादों को मैं इग्नोर कर दूँ
मगर ये दिल मिरी सुनता नहीं है
ग़ज़ल की फ़स्ल हो हर बार अच्छी
ये अब हर बार तो होना नहीं है
ज़रा सा वक़्त दो रिश्ते को ‘कान्हा’
ये धागा तो बहुत उलझा नहीं है
6.
इश्क़ का रोग भला कैसे पलेगा मुझसे
क़त्ल होता ही नहीं यार अना का मुझसे
गर्म पानी की नदी खुल गयी सीने पे मेरे
कल गले लग के बड़ी देर वो रोया मुझसे
मैं बताता हूँ कुछेक दिन से सभी को कमतर
साहिबो ! उठ गया क्या मेरा भरोसा मुझसे
इक तेरा ख़्वाब ही काफ़ी है मिरे उड़ने को
रश्क करता है मेरी जान परिंदा मुझसे
यक ब यक डूब गया अश्कों के दरिया में मैं
बाँध यादों का तेरी आज जो टूटा मुझसे
किसी पत्थर से दबी है मेरी हर इक धड़कन
सीख लो ज़ब्त का जो भी है सलीक़ा मुझसे
कोई दरवाजा नहीं खुलता मगर जान मेरी
बात करता है तेरे घर का दरीचा मुझसे
बुझ गया मैं तो ग़ज़ल पढ़ के वो जिसमें तू था
पर हुआ बज़्म की रौनक़ में इज़ाफ़ा मुझसे
7.
पिछली तारीख़ का अख़बार सम्हाले हुये हैं
उनकी तस्वीर को बेकार सम्हाले हुये हैं
यार इस उम्र में घुँघरू की सदायें चुनते
‘आप ज़ंजीर की झंकार सम्हाले हुये हैं’
हम से ही लड़ता-झगड़ता है ये बूढा सा मकां
हम ही गिरती हुई दीवार सम्हाले हुये हैं
यार अब तक न मिला छोर हमें दुनिया का
रोज़े-अव्वल ही से रफ़्तार सम्हाले हुये हैं
जिनके पैरों से निकाले थे कभी ख़ार बहुत
हैं मुख़ालिफ़ वही, तलवार सम्हाले हुए हैं
लोग पल भर में ही उकता गये जिससे ‘कान्हा’
हम ही बरसों से वो किरदार सम्हाले हुए हैं
8.
मैं भी गुम माज़ी में था
दरिया भी जल्दी में था
एक बला का शोरो-गुल
मेरी ख़ामोशी में था
भर आयीं उसकी आँखें
फिर दरिया कश्ती में था
एक ही मौसम तारी क्यों
दिल की फुलवारी में था ?
सहरा सहरा भटका मैं
वो दिल की बस्ती में था
लम्हा लम्हा ख़ाक हुआ
मैं भी कब जल्दी में था ?
9.
सवाल दिल के इसी बात पर रखे रौशन
कभी तो होंगे जवाबों के सिलसिले रौशन
कभी जो लौट के आयेंगे वो मिरी जानिब
चराग़ मुंतज़िर आँखों के पायेंगे रौशन
सभी की शक्ल चमकदार ही नज़र आये
रखो न शह्र में इतने भी आइने रौशन
कहो सुनो भी किसी रात अपनी-मेरी बात
करो कभी तो हमारे ये रतजगे रौशन
वगरना दिन के उजाले में खो भी सकते हो
रखो चराग़ हर इक वक़्त ज़ह्न के रौशन
रदीफ़ छुप रही है जा के एक कोने में
ग़ज़ल में बांधे हैं हमने भी क़ाफ़िये रौशन
न कर सकेगा अँधेरा कोई तुझे अँधा
‘क़लम सम्हाल अँधेरे को जो लिखे रौशन ‘
10.
कहीं जीने से मैं डरने लगा तो….?
अज़ल के वक़्त ही घबरा गया तो ?
ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है
अगर मैं ज़ब्त करके रह गया तो….?
ख़ुशी से नींद में ही चल बसूंगा
वो गर ख़्वाबों में ही मेरा हुआ तो…
ये ऊंची बिल्डिंगें हैं जिसके दम से
वो ख़ुद फुटपाथ पर सोया मिला तो….?
मैं बरसों से जो अब तक कह न पाया
लबों तक फिर वही आकर रूका तो….?
क़रीने से सजा कमरा है जिसका
वो ख़ुद अंदर से गर बिखरा मिला तो ?
लकीरों से हैं मेरे हाथ ख़ाली
मगर फिर भी जो वो मुझको मिला तो ?
यहां हर शख़्स रो देगा यक़ीनन
ग़ज़ल गर मैं यूं ही कहता रहा तो…..
सफ़र जारी है जिसके दम पे `कान्हा
अगर नाराज़ वो जूगनू हुआ तो?
(रचनाकार-परिचय :
जन्म : चौबे बरोही , रसूलपुर नन्दलाल , आज़मगढ़ ( उत्तर प्रदेश ) में 14 नवंबर 1992 को ।
शिक्षा : प्रारंभिक आजमगढ़ से हुई. बरेली कॉलेज बरेली से बीकॉम और शिब्ली नेशनल कॉलेज आजमगढ़ से एमकॉम।
सृजन : अमर उजाला, हिंदुस्तान , हिमतरू, गृहलक्ष्मी , कादम्बनी इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ। 'दस्तक' और 'ग़ज़ल के फलक पर ' नाम से दो साझा ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित।
संप्रति : नोएडा से सीए की ट्रेनिंग और स्वतंत्र लेखन।
संपर्क : prakhar29@outlook.com )
प्रखर मालवीय 'कान्हा' की क़लम से
1.
वो मिरे सीने से आख़िर आ लगा
मर न जाऊं मैं कहीं ऐसा लगा
रेत माज़ी की मेरी आँखों में थी
सब्ज़ जंगल भी मुझे सहरा लगा
खो रहे हैं रंग तेरे होंट अब
हमनशीं ! इनपे मिरा बोसा लगा
लह्र इक निकली मेरे पहचान की
डूबते के हाथ में तिनका लगा
कर रहा था वो मुझे गुमराह क्या?
हर क़दम पे रास्ता मुड़ता लगा
कुछ नहीं..छोड़ो ..नहीं कुछ भी नहीं ..
ये नए अंदाज़ का शिकवा लगा
गेंद बल्ले पर कभी बैठी नहीं
हर दफ़ा मुझसे फ़क़त कोना लगा
दूर जाते वक़्त बस इतना कहा
साथ ‘कान्हा’ आपका अच्छा लगा
2.
रो-धो के सब कुछ अच्छा हो जाता है
मन जैसे रूठा बच्चा हो जाता है
कितना गहरा लगता है ग़म का सागर
अश्क बहा लूं तो उथला हो जाता है
लोगों को बस याद रहेगा ताजमहल
छप्पर वाला घर क़िस्सा हो जाता है
मिट जाती है मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू
कहने को तो, घर पक्का हो जाता है
नीँद के ख़ाब खुली आँखों से जब देखूँ
दिल का इक कोना ग़ुस्सा हो जाता है
3.
ख़ला को छू के आना चाहता हूँ
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ
मेरी ख़्वाहिश तुझे पाना नहीं है
ज़रा सा हक़ जताना चाहता हूँ
तुझे ये जान कर हैरत तो होगी
मैं अब भी मुस्कुराना चाहता हूँ
तेरे हंसने की इक आवाज़ सुन कर
तेरी महफ़िल में आना चाहता हूँ
मेरी ख़ामोशियों की बात सुन लो
ख़मोशी से बताना चाहता हूँ
बहुत तब्दीलियाँ करनी हैं ख़ुद में
नया किरदार पाना चाहता हूँ
4.
तीरगी से रौशनी का हो गया
मैं मुक़म्मल शाइरी का हो गया
देर तक भटका मैं उसके शह्र में
और फिर उसकी गली का हो गया
सो गया आँखों तले रख के उसे
और ख़त का रंग फीका हो गया
एक बोसा ही दिया था रात ने
चाँद तू तो रात ही का हो गया ?
रात भर लड़ता रहा लहरों के साथ
सुब्ह तक ‘कान्हा’ नदी का हॊ गया !!
5.
सितम देखो कि जो खोटा नहीं है
चलन में बस वही सिक्का नहीं है
यहाँ पर सिलसिला है आंसुओं का
दिया घर में मिरे बुझता नहीं है
यही रिश्ता हमें जोड़े हुए है
कि दोनों का कोई अपना नहीं है
नये दिन में नये किरदार में हूँ
मिरा अपना कोई चेहरा नहीं है
मिरी क्या आरज़ू है क्या बताऊँ?
मिरा दिल मुझपे भी खुलता नहीं है
कभी हाथी, कभी घोड़ा बना मैं
खिलौने बिन मिरा बच्चा नहीं है
मिरे हाथोँ के ज़ख्मों की बदौलत
तिरी राहों में इक काँटा नहीं है
सफ़र में साथ हो.. गुज़रा ज़माना
थकन का फिर पता चलता नहीं है
मुझे शक है तिरी मौजूदगी पर
तू दिल में है मिरे अब या नहीं है
तिरी यादों को मैं इग्नोर कर दूँ
मगर ये दिल मिरी सुनता नहीं है
ग़ज़ल की फ़स्ल हो हर बार अच्छी
ये अब हर बार तो होना नहीं है
ज़रा सा वक़्त दो रिश्ते को ‘कान्हा’
ये धागा तो बहुत उलझा नहीं है
6.
इश्क़ का रोग भला कैसे पलेगा मुझसे
क़त्ल होता ही नहीं यार अना का मुझसे
गर्म पानी की नदी खुल गयी सीने पे मेरे
कल गले लग के बड़ी देर वो रोया मुझसे
मैं बताता हूँ कुछेक दिन से सभी को कमतर
साहिबो ! उठ गया क्या मेरा भरोसा मुझसे
इक तेरा ख़्वाब ही काफ़ी है मिरे उड़ने को
रश्क करता है मेरी जान परिंदा मुझसे
यक ब यक डूब गया अश्कों के दरिया में मैं
बाँध यादों का तेरी आज जो टूटा मुझसे
किसी पत्थर से दबी है मेरी हर इक धड़कन
सीख लो ज़ब्त का जो भी है सलीक़ा मुझसे
कोई दरवाजा नहीं खुलता मगर जान मेरी
बात करता है तेरे घर का दरीचा मुझसे
बुझ गया मैं तो ग़ज़ल पढ़ के वो जिसमें तू था
पर हुआ बज़्म की रौनक़ में इज़ाफ़ा मुझसे
7.
पिछली तारीख़ का अख़बार सम्हाले हुये हैं
उनकी तस्वीर को बेकार सम्हाले हुये हैं
यार इस उम्र में घुँघरू की सदायें चुनते
‘आप ज़ंजीर की झंकार सम्हाले हुये हैं’
हम से ही लड़ता-झगड़ता है ये बूढा सा मकां
हम ही गिरती हुई दीवार सम्हाले हुये हैं
यार अब तक न मिला छोर हमें दुनिया का
रोज़े-अव्वल ही से रफ़्तार सम्हाले हुये हैं
जिनके पैरों से निकाले थे कभी ख़ार बहुत
हैं मुख़ालिफ़ वही, तलवार सम्हाले हुए हैं
लोग पल भर में ही उकता गये जिससे ‘कान्हा’
हम ही बरसों से वो किरदार सम्हाले हुए हैं
8.
मैं भी गुम माज़ी में था
दरिया भी जल्दी में था
एक बला का शोरो-गुल
मेरी ख़ामोशी में था
भर आयीं उसकी आँखें
फिर दरिया कश्ती में था
एक ही मौसम तारी क्यों
दिल की फुलवारी में था ?
सहरा सहरा भटका मैं
वो दिल की बस्ती में था
लम्हा लम्हा ख़ाक हुआ
मैं भी कब जल्दी में था ?
9.
सवाल दिल के इसी बात पर रखे रौशन
कभी तो होंगे जवाबों के सिलसिले रौशन
कभी जो लौट के आयेंगे वो मिरी जानिब
चराग़ मुंतज़िर आँखों के पायेंगे रौशन
सभी की शक्ल चमकदार ही नज़र आये
रखो न शह्र में इतने भी आइने रौशन
कहो सुनो भी किसी रात अपनी-मेरी बात
करो कभी तो हमारे ये रतजगे रौशन
वगरना दिन के उजाले में खो भी सकते हो
रखो चराग़ हर इक वक़्त ज़ह्न के रौशन
रदीफ़ छुप रही है जा के एक कोने में
ग़ज़ल में बांधे हैं हमने भी क़ाफ़िये रौशन
न कर सकेगा अँधेरा कोई तुझे अँधा
‘क़लम सम्हाल अँधेरे को जो लिखे रौशन ‘
10.
कहीं जीने से मैं डरने लगा तो….?
अज़ल के वक़्त ही घबरा गया तो ?
ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है
अगर मैं ज़ब्त करके रह गया तो….?
ख़ुशी से नींद में ही चल बसूंगा
वो गर ख़्वाबों में ही मेरा हुआ तो…
ये ऊंची बिल्डिंगें हैं जिसके दम से
वो ख़ुद फुटपाथ पर सोया मिला तो….?
मैं बरसों से जो अब तक कह न पाया
लबों तक फिर वही आकर रूका तो….?
क़रीने से सजा कमरा है जिसका
वो ख़ुद अंदर से गर बिखरा मिला तो ?
लकीरों से हैं मेरे हाथ ख़ाली
मगर फिर भी जो वो मुझको मिला तो ?
यहां हर शख़्स रो देगा यक़ीनन
ग़ज़ल गर मैं यूं ही कहता रहा तो…..
सफ़र जारी है जिसके दम पे `कान्हा
अगर नाराज़ वो जूगनू हुआ तो?
(रचनाकार-परिचय :
जन्म : चौबे बरोही , रसूलपुर नन्दलाल , आज़मगढ़ ( उत्तर प्रदेश ) में 14 नवंबर 1992 को ।
शिक्षा : प्रारंभिक आजमगढ़ से हुई. बरेली कॉलेज बरेली से बीकॉम और शिब्ली नेशनल कॉलेज आजमगढ़ से एमकॉम।
सृजन : अमर उजाला, हिंदुस्तान , हिमतरू, गृहलक्ष्मी , कादम्बनी इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ। 'दस्तक' और 'ग़ज़ल के फलक पर ' नाम से दो साझा ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित।
संप्रति : नोएडा से सीए की ट्रेनिंग और स्वतंत्र लेखन।
संपर्क : prakhar29@outlook.com )
1 comments: on "मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू "
Bahut bahut shukriya :)
Kanha
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी