मुनीश्वर बाबू अपनी लाडली बिटिया प्रीति (लेखिका) के साथ |
प्रीति सिंह की क़लम से
एक बार फिर सामने हूं अपने बाबूजी की कुछ यादें लेकर। वो यादें जो मुझे हर पल आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं । अगर आपको कोई राह दिखाने वाला हो, तो जीवन कितना सुगम बन जाता है. यह वही जान समझ सकता है जिसे जीवन पथ पर किसी अपने का साथ मिला हो। आज जब लोग किसी का काम बिना जान-पहचान के करने को तैयार नहीं होते। वैसी दुनिया में बाबूजीजी ने कितने अंजान लोगों की सहायता की है। उनका कहना था कि हम सिर्फ निमित्त होते हैं, मदद करने वाला तो ईश्वर होता है और जब ईश्वर ने जब हमें किसी को पास सहायता के लिए भेजा है तो फिर हम उसकी मदद नहीं करके ईश्वर का अपमान करेंगे। इसीलिए हर किसी की मदद को वो हर क्षण प्रस्तुत रहते थे।
जब मोटरसाइकिल हुई खराब, बाबूजी ने दी बेटी-पिता को लिफ़्ट
उम्दा शख्सियत वाले बाबू जी का दिल दूसरों के लिए भी कितनी दया और सहानुभूति से भरा हुआ था, इसे बताने के लिए एक कहानी काफी होगी। एक बार देर रात हाजीपुर से किसी मीटिंग में हिस्सा लेकर बाबूजी घर लौट रहे थे। उनकी पुरानी एम्बेसडर कार को भैया चला रहा था। साथ में सरकार की ओर से मिला बॉडीगॉर्ड भी था। गांधी सेतु पर उन्होंने एक मोटरसाइकिल चालक को अपनी गाड़ी घसीटते देखा। उनके साथ दो लड़कियां भी थीं। ये देखकर बाबूजी को ये समझते देर नहीं लगी कि मोटरसाइकिल खराब हो गई है। इतनी रात में उन्हें अकेले देखकर उन्होंने कार रुकवाई और अपने बॉडीगॉर्ड हवलदार कलक्टर सिंह को मोटरसाइकिल वाले को गाड़ी में चलने का आग्रह लेकर भेजा। अंजान लोगों की ओर से मदद की पेशकश देखकर मोटरसाइकिल चालक थोड़ा घबराए । जमाने की हवा ही ऐसी है कि किसी को किसी पर यकीन नहीं आता। आज की इस मतलबी दुनिया में निस्वार्थ मदद भी सामने वाले के मन में संदेह पैदा करती है। असमजंस में पड़े उस शख्स को देखकर बाबूजी ने उन्हें खुद अपना परिचय दिया और देर रात पैदल दो बेटियों को अपने साथ लेकर जाने से उन्हें मना किया। भैया ने मोटरसाइकिल को कार में टोचन किया। उसको हवलदार साहब लेकर चले। जबकि कार में वो व्यक्ति और उनकी दोनों बेटियां बैठीं। बाबूजी ने उन्हें गंतव्य पर उतार कर ही राहत की सांस ली। ऐसी कई घटनायें हैं। उन्होंने न जाने कितने लोगों को प्रोफेसर, इंजीनियर और डॉक्टर बनवाया। कितने लोगों की पढ़ाई में मदद की और न जाने कितनों को राजनीति का ककहरा सिखाया। लेकिन समय के साथ लोग आगे बढ़ते चले गए और उन्हें ही भूल बैठे।
आचार्य कृपलानी का घड़ा सुचेता की फ्रिज
बाबूजी की तेज बुद्धि, निर्णय लेने की अद्भुत शक्ति, जबरदस्त उत्साह और सकारात्मक सोच का कुछ भी प्रतिशत मुझमें होता तो मैं खुद को धन्य मानती। युवावस्था में जब बाबूजी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे तब उन्हें पार्टी के कद्दावर नेता जेबी कृपलानी को चुनाव लड़ने के लिए मनाने की जिम्मेवारी दी गई। उस वक्त तक जेबी कृपलानी ने चुनाव न लड़ने का फैसला किया था और पार्टी के तमाम बड़े नेता उन्हें मना कर थक चुके थे। उनका चुनाव लड़ना जरुरी था। क्योंकि पार्टी को इसकी जरुरत थी। उस वक्त लोग उसूलों के लिए चुनाव लड़ते थे, न कि अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए। खैर, सब ओर से हारकर हाईकमान ने बाबूजी को ये जिम्मेवारी सौंपी। बता दें कि जेबी कृपलानी देश के कद्दावर समाजवादी नेताओं में से एक थे और उनकी धर्मपत्नी सुचेता कृपलानी कांग्रेस की नेता। सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और देश की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं। लेकिन वैचारिक दृष्टिकोण अलग-अलग होने की वजह से दोनों अलग-अलग पार्टियों में थे। बहरहाल, जब बाबूजी आचार्य कृपलानी को मनाने पहुंचे तो उस वक्त भीषण गर्मी थी। बातचीत के दौरान आचार्य कृपलानी ने फिर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। बाबूजी ने उन्हें कई तर्क-वितर्क के द्वारा मनाने की कोशिश की। अचानक बीच में आचार्य कृपलानी ने बाबूजी से पानी पीने के लिए पूछा। चूंकि मौसम गर्मी का था। प्यास बाबूजी को भी लगी थी। उन्होंने पानी के लिए हां कर दिया। इस पर कृपलानी जी ने पूछा कि तुम किसका पानी पीना पसंद करोगे, मेरा या सुचेता का? बाबूजी ने कहा कि आपका। पानी पिलाने के बाद कृपलानी जी ने एक बार फिर बाबूजी से पूछा कि आखिर तुमने मेरा पानी क्यों चुना और इस प्रश्न के पूछने के पीछे मेरा मकसद क्या था? तब बाबूजी ने बहुत शांत लहजे में कहा कि – दरअसल आप इस प्रश्न के द्वारा मेरी बुद्धिमता और मेरे मकसद को जानना चाहते थे। आपने किसका पानी पियोगे ये पूछकर पार्टी के प्रति मेरी प्रतिबद्धता को भी जांचा। चूंकि सुचेता जी कांग्रेस नेता और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं तो जाहिर सी बात है कि उनके पास फ्रिज होगा। जबकि आप सोशलिस्ट नेता हैं तो आपके पास घड़ा है। इसीलिए आपने पूछा कि तुम सुचेता का या मेरा पानी पियोगे? और चूंकि मैं आपके दल का कार्यकर्ता हूं और आपका अनुयायी भी। इसीलिए मैंने फ्रिज के बजाय घड़े के पानी को पीना स्वीकार किया। कृपलानी जी बाबूजी के इस जवाब से काफी खुश हुए और उन्होंने चुनाव लड़ने की बात को मान लिया। पार्टी की ओर से उन्होंने बांका से चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से विजयी हुए। कृपलानी जी ने बाबूजी की जमकर तारीफ की और आलाकमान को भी युवा नेता के तौर पर उनको पार्टी में शामिल करने करने के लिए बधाई दी।
खर्च अपना पैरवी दूसरों की किया करते थे
हालांकि सच और बेबाक बोलने की अपनी आदत की वजह से वो कई बार न होने वाले काम के लिए अपनी असमर्थता भी जता देते थे। आज-कल के नेताओं की तरह झूठे आश्वासन देकर लोगों को अपने पीछे घुमाना उन्होंने नहीं सिखा था। कई बार शुभचिंतकों ने उन्हें लोगों के मुंह पर काम नहीं होने की बात न बोलने की सलाह भी दी। लेकिन उन्होंने हर बार इस बात को सिरे से खारिज कर दिया कि किसी के मन में झूठी उम्मीद को जगाया जाये। आज जहां राजनेता काम कराने के बदले रुपये लेते हैं। वहीं बाबूजीजी अपने रुपये खर्च कर उनकी पैरवी किया करते थे। बार-बार फोन करने की वजह से टेलीफोन का बिल हजारों रुपये का आता था। और-तो-और वो घरवालों को भी परेशान कर दिया करते थे। कई बार तो उनकी इस परोपकार की प्रवृति से हमलोग चिढ़ जाया करते थे। लेकिन उनका कहना था कि किसी भी सूरत में प्रत्येक इंसान का ये कर्तव्य है कि वो दूसरों की मदद करे और वो भी बिना किसी स्वार्थ के। इसीलिए शायद ये गुण जाने-अंजाने मुझ में भी आ गया। बाबूजी को देश के बड़े-बड़े राजनेताओं का प्रेम और सम्मान मिला। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने हमेशा उन्हें मुनीश्वर भाई कह कर ही संबोधित किया। तो सुषमा स्वराज उन्हें दादा कहकर बुलाती थीं। दक्षिण के वरिष्ठ राजनेता रामकृष्ण हेगड़े उनके प्रगाढ़ मित्रों में से एक थे। इन सबके बावजूद बाबूजी ने अपनी राजनीतिक पहुंच का फायदा कभी भी अपने परिवार या बच्चों के लिए नहीं उठाया। उन्हें अपनी कर्मभूमि महनार से असीम लगाव था। तभी तो पार्टी द्वारा कई बार लोकसभा चुनाव लड़ने की गुजारिश के बाद भी उन्होंने सिर्फ इसलिए महनार विधानसभा नहीं छोड़ा कि वो अपने क्षेत्र से दूर चले जायेंगे, जो कि उन्हें किसी भी सूरत में गवारा न था। लेकिन कहते हैं न कि ज्यादा प्रेम तकलीफ भी लेकर आता है। तभी तो इस क्षेत्र ने उन्हें 1995 के चुनाव में वो दर्द दिया, जो लंबे समय तक उनके जेहन में ताजा रहा। इस चोट ने उन्हें राजनीति का परित्याग करने को मजबूर कर दिया। ओछी राजनीति ने उन्हें गहरी पीड़ा दी और उन्होंने सक्रिय राजनीति से एक दूरी बना ली।
ऐसी खुशबू कहां से लाऊंगी
बाबूजी धार्मिक रुढ़ियों को नहीं मानते थे। लेकिन अध्यात्म में उनकी गहरी रुचि थी। खाली वक्त में वो रामायण, महाभारत और गीता पढ़ते थे। हमलोगों से भी वो अक्सर कहते थे कि इन पुस्तकों को पढ़ो। धार्मिक पुस्तकें समझ कर नहीं, बल्कि ज्ञान हासिल करने के लिए। उन्हें पढ़ने का बेहद शौक था। वो पुस्तकों का गहन अध्ययन करते थे। मुझे याद है.. जब बाबू जी विधायक थे तो मुझे विधानसभा के पुस्तकालय से अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाकर पढ़ने के लिए देते थे। चंद्रकांता संतति का संपूर्ण भाग मैंने जब पढ़ा था। उस वक्त मैं सांतवीं कक्षा की छात्रा थी। पटना में पुस्तक मेला से पुस्तकें लाने के लिए भी उत्साहित करते थे और रुपये देकर पुस्तकें खरीदने भेजा करते थे। अपनी अस्वस्थता के दौर में जब वो पढ़ने-लिखने में असमर्थ हो गए थे। उस वक्त मैं उन्हें अखबार और किताबें पढ़कर सुनाया करती थी। ये दौर बेहद पीड़ादायक था। जब कोई अपना लाचार होकर बिस्तर पर पड़ जाता है तो उसके साथ-साथ पूरे परिवार को उस दर्द को झेलना पड़ता है। हालांकि बाबूजी ने कभी अपनी शारीरिक बेबसी की वजह से घरवालों को कोई तकलीफ नहीं पहुंचाई। लेकिन जो शख्स महीनों तक घर नहीं आते थे। जिनका एक-एक पल कीमती था। वो आज जिस तरह से बिस्तर पर पड़े हुए थे। ये खुद में दुखद था। घड़ी की घंटी को सुनकर वो अपने बगल में रखी हाथ घड़ी को उठाकर देखते थे और समय काटते थे। उन्हें बिस्तर पर पड़े-पड़े यूं समय काटते देख मैं कितनी बार रोई हूं। जब शाम को मैं उनके कंधे पर सिर रखकर उनके बगल में सो जाती थी। तो स्वर्ग का सुख भी उसके सामने फीका नजर आता था। हां, मेरे बाबूजी वो इंसान हैं जिनसे मैंने जिंदगी में सबसे ज्यादा प्यार किया। वो बेमिसाल थे। हालांकि अब मुझे लगता है कि कई बार मैंने उन्हें उतना समय नहीं दिया, जितना देना चाहिए था। कई बार मैंने उनसे गुस्से में बात की और कई बार बेवजह बहस भी की। लेकिन ये हमें तब कब अहसास होता है जब हम अपनों के साथ होते हैं। उन्हें खोने के बाद ही हम उनका मोल समझते हैं। लेकिन तब पछतावे और आंसू के अलावे कुछ नहीं रह जाता। मां-बाप आपके सिर की वो छत होते हैं जो आपको हर मौसम की मार से बचाते हैं और इसका अहसास तब होता है जब सब कुछ खत्म हो जाता है। मुझे लगता है सात्विक लोगों के शरीरों से अच्छी सुंगध निकलती है। बाबूजी के कपड़ों और उनकी देह से भी ये खुशबू आती थी। उनके शरीर से निकलने वाली इस सुंगध को मैं लाखों-करोड़ों लोगों सुगंध में भी पहचान सकती हूं। वो अपनी तरह की अलग एक ऐसी खुशबू थी जिसे शायद मैं ही पहचानती हूं। ये इस कारण भी शायद संभव था। क्योंकि मैं अतिसंवेदनशील हूं।
. . . और डायरी का वो पन्ना
बाबूजी हर दिन की अपनी गतिविधियों और विचारों को डायरी में लिखते थे। वो हमें भी डायरी लिखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। बीमारी में जब वो लिख पाने में असमर्थ थे तो उनकी डायरी मैं लिखती थी। ये नियम था। वो अपनी बातें बताते जाते थे और मैं लिखती जाती थी। आज जब उन डायरियों को पढ़ती हूं तो सारी बातें आंखों के सामने किसी रील की तरह आकर चली जाती है। अगर आत्मा की आत्मा से भेंट होती है तो मैं मौत के बाद अपने बाबूजी की आत्मा से सबसे पहले मिलना चाहूंगी। काश कि ये दुनिया एक बार और वक्त को पलट देता तो मैं अपने बाबूजी के साथ और भी समय बिता पाती। वो सारी गलतियां जो मैंने जाने-अंजाने की। उन सभी को मैं दूर कर देती। लेकिन शायद यही जीवन है। यहां कुछ भी हमेशा नहीं रहता। रह जाती हैं तो बस यादें और वो गलतियां, जो हमें अपने बुरे बर्ताव और अपनी बेवकूफियों की याद हमेशा दिलाती रहती हैं।
(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल एक संस्थान में कंटेंट डेवलपर और आकाशवाणी में अस्थायी उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)
हमज़बान पर पहले भी प्रीति सिंह को पढ़ें
1 comments: on "चंद्रशेखर के मुनीश्वर भाई, सुषमा के दादा "
बात ही बात नही बची है
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- अल्लामा जमील मज़हरी