बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 25 नवंबर 2015

दुनिया में कराटे का हिन्दुस्तानी नूर

आएशा कोच एमए अली, मां शकीला और भाई फारूक के साथ























खतरनाक बीमारी और गरीबी आयशा के पंच के सामने बौने




सैयद शहरोज़ क़मर कोलकता से

न फल-दूध नसीब, न ही अन्य पौष्टिक आहार। पिता जैसी कर्मठता से भी वंचित। लेकिन Elipesy जैसी बीमारी को भी प्रतिद्वंदी खिलाड़ी की तरह सांस फुला देने का दमखम। बात विश्व कराटेबाज़ आयशा नूर की है। जिसकी ज़िद है कि वो जापान पहुंची अपनी विरासत कराटे को देश में लाकर विश्व में तिरंगा फहराएगी। कोलकाता के बनिया पुकुर स्थित मुफीदुल इस्लाम गली में अपने दस बाई बारह की टपरे वाली छत के नीचे वह नयी इबारत गढ़ रही है. जिस पर फिल्म बनाने के लिए सेंट फ्रांसिस्को के लोग बेचैन हैं. आयशा समेत संसार की पांच लड़कियों का उन्होंने चयन किया है. लेकिन तमाम कोशिशों के भारत सरकार से उन्हें वीसा नहीं मिल सका है. इस दुःख के साथ आयशा का सुख है कि वो लड़कियों को आत्म रक्षार्थ कराटे सिखा रही है. उसकी यह क्लास राजा बाज़ार साइंस कालेज के सामने लेडीज़ पार्क में लगती हैं, जहां आसपास की लड़कियां आयशा से कराटे के गुर सीखती हैं. जल्द ही वो स्कूलों में क्लास लेगी ताकि कुछ आय भी हो सके. क्योंकि उसे डर है कि कहीं थाईलैंड में मार्शल आर्ट की एडवांस ट्रेनिंग से महरूम न हो जाए. पैसों की कमी के चलते यह खामियाज़ा पहले वो भुगत चुकी है. दरअसल ममता दी से जो आस थी, वो भी हुगली के पानी की तरह अब बहने को विवश है. सीएम ममता बनर्जी के संकेत पर आयशा ने कहा था कि उन्हें कोई भीख नहीं नौकरी चाहिए। महिला पुलिस को कराटे प्रशिक्षण देने का प्रस्ताव सरकार को दिया था. आश्वासन मिलने के बाद यह फाइल भी दूसरी फाइलों की तरह कहीं दब गयी. कन्याओं के लिए केंद्र की भी ढेरों योजनाओं की रौशनी आयशा को नूर न बख्श सकी है अब तक. उसके रोज़ के अभ्यास बताते हैं, जनवरी में थाईलैंड जाउंगी ज़रूर। हौसले के परवान की यह कहानी उन तमाम लोगों के लिए एक जीवंत प्रेरणा है, जो विपरीत स्थितियों से घबराकर पस्त हो जाते हैं.

2010 में पापा गुज़र गए

फ़रवरी 2010 में ही तो मुंबई से दो गोल्ड मेडल जीत कर लौटी थी. पापा ने पूरा कोलकाता अपनी टैक्सी में घुमाया था. लेकिन यह ईद अप्रैल में ही मुहर्रम ले आई. हार्ट अटैक में बिलखते घर को छोड़ पापा ने अलविदा कह दिया। उसकी पढाई छूट गयी. बड़ा भाई किसी दूकान की चाकरी करने लगा. बहन आस-पास के बच्चों को टूशन। अम्मी शकीला मोहल्ले की महिलाओं के कपड़े सिलने लगी. लेकिन इतने परिश्रम के बाद दो जून की रोटी तो किसी तरह मिलने लगी. लेकिन दवा के अभाव में आयशा को दौरे पड़ने शुरू हो गए. एक रात जब हाथ-पैर खींचने के बाद आयशा के मुंह से झाग निकल आया, तो फारूक बुक्का मार दहाड़ने लगा. अम्मी ने बदन छुआ तो उनके भी होश फाख्ता हुए. लेकिन उन्होंने हिम्मत बटोरी। शौहर की बात याद आई मेरी लाड़ली बिटिया को दुनिया में मुल्क का नाम रौशन करना है. रात एकाध दवा दी. क्योंकि 25 सौ रुपए नहीं हो सक रहे थे कि पूरी दवा खरीद पाती। सुबह तक उसे तीन दौरे आये.

साहस बना जीत का पंच

लेकिन आयशा ने साहस बटोरा और दो माह बाद उसी पहली फुर्ती लिए अभ्यास करना शुरू कर दिया। 2011 में नेशनल चैपियन का खिताब हासिल कर लिया। कोच एम अली की शाबासी ने महज़ दाल-भात के बल पर दो घंटे रोज़ अभ्यास। टूर्नामेंट के समय चार घंटे। सुबह योग, जॉगिंग। मणिमाला हालदार सिखाती हैं बज्रासन, हलासन और प्राणायाम। जीत का कारवां चल पड़ा. अगले साल 2012 में भी नेशनल चैम्पियन पर क़ब्ज़ा। उसके बाद तो 2015तक निरंतर विदेशों में हिन्दुस्तान का परचम आयशा के पंच का सबब बना.

14 साल में चैम्पियन

पापा नूर मोहम्मद पहलवान थे। हर सुबह कुश्ती के लिए अपने दोस्त एम ए अली के रामलीला पार्क स्थित अखाड़े जाते। वहां भैया भी कराटे सीखते थे, तब पांच साल की मैं भी उनके पीछे-पीछे कभी छुपकर, कभी दौड़ कर पहुंच जाती। भाई फारूक जब प्रतिद्वंदी को हरा देता, तो मैं उछल-उछल जाती तालियां बजाते हुए. दुनिया भर से कई दर्जनों गोल्ड मेडल और ट्रॉफी देश लेकर आई कोलकता की आयशा नूर की आँखों में इतना कहने के बाद बंद मुट्ठी सा तेवर उतर आया. पास बैठे उसके कोच एम ए अली बोले, तब उसके इसी तेवर ने मुझे लगा था कि यह नन्ही बच्ची बड़े से बड़े कराटेबाज़ों को चित कर सकती है. इसके बाद हमने उसे कोच करना आरम्भ किया। फैसला वाजिब निकला, जब महज़ 14 साल की उम्र में वह राष्ट्रीय चैम्पियन बनी.

जब थाईलैंड से आकर अम्मी से लिपट पड़ी

पापा पढ़ाना चाहते थे. अंजुमन स्कूल में जब दाखिल कराया था तो बेहद खुश थे. फिलहाल कराटे के अभ्यास के साथ प्राइवेट मैट्रिक के इम्तहान की तैयारी भी जारी है. अपने ट्रॉफी और मेडलों को दिखाती आयशा कहती हैं कि पापा के हर ख्वाब को पूरा करना उसका मक़सद है. हालांकि मर्ज़ है कि बढ़ता जा रहा, पर इस लड़की की ज़िद उसे हर अटैक में परास्त कर देती है. 2013 में थाईलैंड में इतनी हालत ख़राब हो गयी कि वहाँ अस्पताल में दाखिल करना पड़ा. कोच कहते हैं, पैसे का इंतज़ाम किसी तरह कर बड़ी मुश्किल से वे टीम लेकर लेकर बैंकाक पहुंचे थे. प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से पहले ही उसे दौरा पड़ गया. लेकिन उसके अवचेतन में मेरे दोस्त और उसके पापा की वसीयत उसे बूस्ट अप करती रही, जिससे मिली ऊर्जा से वो तीसरे दिन ही बिस्तर से उठ बैठी। इंटरनेशनल यूथ चैम्पियनशिप का गोल्ड मेडल उसके गले में चमकने लगा. आयशा चहक उठी, जब उसे लेकर कोलकाता लौटी तो अम्मी से लिपट गयी थी. माँ-बेटी की आँखों का सावन ख़ुशी और ग़म दोनों का परिचायक था. शकीला बेगम ने गालों पर लुढक आये आंसुओं को पोछते हुए कहा, उन्हें बेटी पर नाज़ है. हालाँकि बीटा फारूक भी चैम्पियन रह चुका है, पर वो चाहती हैं कि आयशा मिसाल बने.

बकरी बेचकर भाइयों के लिए राखी पर तोहफे

देश-विदेश में कई जगहों पर सम्मानित हो चुकी आयशा अपने शहर से मिले स्नेह को भूलती नहीं। इस कोलकाता ने उसे वो पंख दिए हैं, जिससे वो दुनिया-जहां में उड़ती-फिरती है. हर साल दो से तीन बार कोई न कोई संस्था अपने आयोजनों में उसे बुलाती है. एकाध बार मुख्यमंत्री और खेल मंत्री ने सिर्फ ज़ुबानी हौसला अफ़ज़ाई की है. इंडियन कराटे एसोसिएशन ने इस राखी पर जब आयशा को निमंत्रण दिया तो वह भी पहुंची। अपने साथ ढेरों राखियां और तोहफे लेकर। लोग काना-फुंसी करने लगे. इतने पैसे आयशा के पास कैसे। बाद में पता चला कि आयशा ने जो बकरी पाल रखी थी उसे बेच दिया, ताकि आयोजन में मौजूद सभी लोगों को राखी बाँधने के साथ उन्हें सन्देशा भी दिया जा सके.


वर्ल्ड मार्शल आर्ट में न जा सकने का दर्द

बिना सरकारी मदद के समाज ने आयशा को विदेशी धरती पर देश की खातिर पहुँचाया। लेकिन हर बार यह सहायता संभव न हो सकी. जिसके कारण आयशा 2014 में मलेशिया नहीं जा सकी. वहाँ उसे एडवांस ट्रेनिंग में भाग लेना था. उसी वर्ष बैगराकोन गोल्ड कप और 2 में थाईलैंड के ही बैंगकॉक में आयोजित वर्ल्ड मार्शल आर्ट में शिरकत न करने का दर्द आयशा को टीसता है.


आदर्श

ब्लैक बेल्ट रह चुके कोच एम ए अली और मुक्केबाज़ मेरी कॉम. ममता बनर्जी का तेवर भी.

ताक़त

फ्रंट किक,राउंड किक और पंच.

प्रमुख उपलब्धि

2010 मुंबई में १५ वें इंटर नेशनल चैंपियनशिप में दो गोल्ड मेडल
2011 में नेशनल चैम्पियन
2012 में नेशनल चैम्पियन
2013 थाईलैंड में इंटरनेशनल यूथ चैम्पियन शिप गोल्ड मेडल
2014 में कोल्कता में आयोजित प्रतियोगिता में ब्लैक बेल्ट
2015 में थाईलैंड में सेकंड डिग्री ब्लैक बेल्ट 


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गुरुवार, 12 नवंबर 2015

कोलकाता में एकता व आस्था की गुंजलक































कोलकता से सैयद शहरोज़ क़मर

मां काली के प्रति कोलकाता में आस्था की गुंजलक दीपावली के अनगिनत दीपों पर भारी है। मंदिरों के समूह दक्षिणेश्वर में पहुंचने वाले श्रद्धालुओं में धर्म और जाति से मुक्त क़तार समय की चिंता नहीं करती। मोहम्मद नबीरुल अख्तर सात वर्षों से यहां आ रहे हैं। धनतेरस पर पास लगी दुकानों से बर्तन खरीद रहे कमाल उद्दीन हर माह यहां आते हैं. चाँदी से बनाए गए कमल के फूल की हजार पंखुड़ियों पर भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई काली मां के दर्शन के इंतज़ार में द्वार पर मिले नबीरुल अपनी मित्र इति बसाक के साथ पहुंचे थे। इन दोनों के चेहरे पर धूप परमहंस की आध्यात्मिक ऊर्जा को अतिरिक्त बल दे रही थी। प्रमुख मंदिर भवतारिणी की आराधना करते-करते कहते हैं कि रामकृष्ण ने परमहंस की अवस्था पा ली थी. उसी तेज को प्राप्त करने दक्षिणेश्वर से कालीघाट समूचा शहर कालीमय हो चुका है. साल्ट लेक से पहुंची ऋषभ, पल्लव, शांभवी, सिमरन, अफ़साना, असलम की टोली को नवरत्न की तरह निर्मित 46 फुट चौड़ा तथा 100 फुट ऊँचा मंदिर उन्हें सांसारिक और आध्यात्मिक शिखर छूने को प्रेरित करता है. इधर हरे-भरे, मैदान पर स्थित इस विशाल मंदिर के चारों ओर भगवान शिव के बारह मंदिर के गुम्बद को अपने अपने मोबाइल में क़ैद करने की युवाओं में होड़ रही. छपरा से आई कामिनी देवी पाठक हुगली हो चुकी गंगा में स्नान करने बाद शुचिता मयी थीं. वे अपने कंप्यूटर इंजीनियर बेटे के पास दिवाली मनाने कोलकता आई ही हैं. कहती हैं मां काली के आशीर्वाद से ही उनके घर लक्ष्मी जैसी पोती आई है.


यहां से कालीघाट के मार्ग पर हर सड़क और गली पर मां के भक्त पंडाल सजाने में तल्लीन मिले। कालीघाट मंदिर आये बिना आप मां की पूजा अधूरी मानी जाती है. इस शक्तिपीठ में स्थित प्रतिमा की प्रतिष्ठा कामदेव ब्रह्मचारी (सन्यासपूर्व नाम जिया गंगोपाध्यानिकल बेहद हर्षितय) ने की थी। मान्यता है कि माँ सती के दायें पैर की कुछ अंगुलियां इसी जगह गिरी थीं. अर्जेंटीना से भारत घूमने आयीं मार्था और इंजिलीना मंदिर से लौटी थीं. कहा कि फोटो नहीं ले सकी, लेकिन मां की प्रतिमा में सोने की बनी बाहर तक निकली हुई जिव्हा अद्भुत है. देवी काली भगवान शिव के छाती पर पैर रखी हुई हैं। उनके गले में नरमुण्डों की माला है। उनके हाथ में कुल्हाड़ी है। माता काली की लाल-काली रंग की कास्टिक पत्थर की मूर्ति स्थापित है। शाम के धुंधलके को हौले-हौले तेज़ होते विद्युत प्रकाश परास्त कर रहे थे. वहीं उससे कहीं अधिक तेज़ पगों से अपराजिता माता के दर्शन को मंदिर में प्रवेश कर रही थी.
























प्रमुख ह्रदय स्थल स्प्लानेड के सड़क, गलियारे या सारिणी और कूचे हों हर और काली पूजा का उजास। माँ के तेज के उल्लस में समूचा महानगर आगोश में. लगभग 50 से 60 हजार पंडाल। शहर से ४० किमी पर बरासार व मध्य ग्राम और नोहाटी की तरफ जाने वाली बसें और रेल श्रद्धालुओं से अटी. वहाँ के पूजा पंडाल आकर्षक हैं ही, बंगाली सिने जगत की कई नामचीन नयिकाएँ पंडाल के पट खोलने पहुँचने वालीं थीं. लेकिन पार्क स्ट्रीट के पास रौशनी में नहाये इलाक़े को प्रीति जिंटा ने और मनमोहक बनाया। वो सेंट्रल कोल्कता यूथ असोसीएशन के ३५ वर्ष पूरे होने पर भरे मजमे से मुखातिब रहीं। यहाँ मां के नौ रूप भक्तों को स्नेहाशीष की बौछार करते रहे. उनकी सेवा में संस्था के एम क़मर, ज़ैद खान, मुन्ना वारसी, अनवर आलम, आरज़ू खान विशाल खटीक, ललित अग्रवाल, दीपांकर घोशाल, पार्षद सुष्मिता भट्टाचार्य के साथ आस्था की इस बेला में गंगा-जमनी संस्कृति की तस्दीक़ करते रहे.


दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों में 11 नवंबर 2015 को प्रकाशित 




 
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