शाहिद अख्तर की कविताएँ
तितलियां
रात सोने के बाद
तकिए के नीचे से सरकती हुई
आती हैं यादों की तितलियां
तितलियां पंख फड़फड़ाती हैं
कभी छुआ है तुमने इन तितलियों को
उनके खुबसूरत पंखों को
मीठा मीठा से लमस हैं उनमें
एक सुलगता सा एहसास
जो गीली कर जाते हैं मेरी आंखें
तितलियां पंख फड़फड़ती हैं
तितलियां उड़ जाती हैं
तितलियां वक्त की तरह हैं
यादें छोड़ जाती हैं
खुद याद बन जाती हैं
तितलियां बचपन की तरह हैं
मासूम खिलखिलाती
हमें अपनी मासुमियत की याद दिलाती हैं
जिसे हम खो बैठे हैं जाने अनजाने
चंद रोटियों के खातिर
जीवन के महासमर में...
हर रात नींद की आगोश में
जीवन के टूटते बिखरते सपनों के बीच
मैं खोजता हूं
अपने तकिये के नीचे
कुछ पल बचपन के, कुछ मासूम तितलियां...
'हाई टी' और 'डिनर' के बाद
कभी देखा है तुमने
देश की तकदीर लिखने वालों ने
क्या क्या ना बनाया है हमारे लिए
आग उगलती, जान निगलती
हजारों मील दूर मार करने वाली मिसाइलें हैं
हम एटमी ताकत हैं अब
किसकी मजाल जो हमें डराए धमकाए
अंतरिक्ष पर जगमगा रहे हैं
हमारे दर्जनों उपग्रह
चांद पर कदम रखने की
हम कर रहे हैं तैयारियां
और दुनिया मान रही है हमारा लोहा
हम उभरती ताकत है
अमेरिका भी कह रहा है यह बात
हां, यह बात दीगर है
कि भूख और प्यास के मामले में
हम थोड़ा पीछे चल रहे हैं
लेकिन परेशान ना हों
'हाई टी' और 'डिनर' के बाद
नीति-निर्माताओं की इसपर भी पड़ेगी निगाह
यादों के फूल
...और बरसों बाद
जब मैंने वह किताब खोली
वहां अब भी बचे थे
उस फूल के कूछ जर्द पड़े हिस्से
जो तुमने कालेज से लौटते हुए
मुझे दिया था
जब मैंने वह किताब खोली
वहां अब भी बचे थे
उस फूल के कूछ जर्द पड़े हिस्से
जो तुमने कालेज से लौटते हुए
मुझे दिया था
हां, बरसों बीत गए
लेकिन मेरे लिए तो
अब भी वहीं थमा है वक्त
अब भी बाकी है
तुम्हारी यादों की तरह
इस फूल की खुशबू
अब भी ताजा है
इन जर्द पंखुडि़यों पर
तुम्हारे मरमरीं हाथों का
वह हसीं लम्स
अब भी बाकी है
तुम्हारी यादों की तरह
इस फूल की खुशबू
अब भी ताजा है
इन जर्द पंखुडि़यों पर
तुम्हारे मरमरीं हाथों का
वह हसीं लम्स
उससे झांकता है
तुम्हारा अक्स
वक्त के चेहरे पे
गहराती झुर्रियों के बीच
मैं चुनता रहता हूं
वक्त के चेहरे पे
गहराती झुर्रियों के बीच
मैं चुनता रहता हूं
तुम्हारा लम्स
तुम्हारा अक्स
तुम्हारी यादों के फूल
कभी आओ तो दिखाएं
दिल के हर गोशे में
मौजूद हो तुम
हर तरफ गूंजती है
तुम्हारी यादों के फूल
कभी आओ तो दिखाएं
दिल के हर गोशे में
मौजूद हो तुम
हर तरफ गूंजती है
बस तुम्हारी यादों की सदा
बरसों बाद जब मैंने ...
बरसों बाद जब मैंने ...
ख़ामोशी के ख़िलाफ़
दर्द हो तो
मदावा भी होगा
हमारी खामोशी
जुर्म होगी
अपने खिलाफ
और हम भुगत रहे हैं
इसकी ही सजा
लब खोलो
कुछ बोलो
कोई नारा, कोई सदा
उछालो जुल्मत की इस रात में
आवाजों के बम और बारूद
ढह जाएंगे इन से
जालिमों के किले
(14.01.09: गाजा पर इस्राइली हमले के खिलाफ लिखी कविता)
[ कवि-परिचय:
पूरा नाम: मोहम्मद शाहिद अख्तर
जन्म: 21 मार्च 1962 ,गौतम बुद्ध की नगरी, गया में
शिक्षा: बीआईटी, सिंदरी, धनबाद से केमिकल इंजीनियरिंग में बी. ई.
छात्र जीवन में वामपंथी राजनीति से जुड़ाव । इंजीनियर के बतौर कैयिर शुरू करने की जगह एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए । बंबई (अब मुंबई) के शहरी गरीबों, झुग्गीवासियों और श्रमिकों के बीच काम किया। बंबई के इस अनुभव ने उन्हें जीवन के कई अहम पहलुओं को निकट से देखने का मौका दिया।
नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीसरे अध्यक्ष (1887), बदरूद्दीन तैयबजी के लेखों के संकलन और उनकी जीवनरेखा पर कार्य
संपर्क: shazul@gmail.कॉम ]
16 comments: on "ख़ामोशी के ख़िलाफ़"
Titliyon-si bachpankee maasoomiyat! Na jane kab ham use kho dete hain,patahi nahi chalta! Behad pasand aayi yah rachana.
अलग अलग रंग में सजी अच्छी रचनाएँ ...
मदावा का सही अर्थ नहीं समझ पायी ...
एक से बढ़ कर एक बेहतरीन रचनाएँ...पढवाने का शुक्रिया...
नीरज
तितलियां बचपन की तरह हैं मासूम खिलखिलाती हमें अपनी मासुमियत की याद दिलाती हैं जिसे हम खो बैठे हैं जाने अनजाने चंद रोटियों के खातिर
जीवन के महासमर में...
हर रात नींद की आगोश में जीवन के टूटते बिखरते सपनों के बीच
मैं खोजता हूं
अपने तकिये के नीचे कुछ पल बचपन के, कुछ मासूम तितलियां...
कभी देखा है तुमने
देश की तकदीर लिखने वालों ने
क्या क्या ना बनाया है हमारे लिए
आग उगलती, जान निगलती
हजारों मील दूर मार करने वाली मिसाइलें हैं
हम एटमी ताकत हैं अब
किसकी मजाल जो हमें डराए धमकाए
हां, यह बात दीगर है
कि भूख और प्यास के मामले में
हम थोड़ा पीछे चल रहे हैं
लेकिन परेशान ना हों
'हाई टी' और 'डिनर' के बाद
नीति-निर्माताओं की इसपर भी पड़ेगी निगाह
जीवन और देश-दुनिया के विविध रंगों को समेटती बहुत मर्मस्पर्शी कविताएं। फिर लिखिएगा। लौटूंगा।
शाहिद अख्तर की कविताएँ गहरे भाव बोध कराती हैं.भारतीय निम्न मध्य वर्ग की छटपटाहट , सामाजिक विडम्बनाओं और विसंगतियों के विरुद्ध तिक्त प्रतिकार रचनाकार और रचना को व्यापक फलक पर ला खड़ा करती हैं.
यादों की तितलियाँ
रंगबिरंगी
कुछ छोटी
कुछ बड़ी .......
रचनाएँ तीनों ही अच्छी हैं ,पर यादों की तितलियाँ मन के बगीचे में उड़ने लगी हैं
चारों कविताये उत्कृष्ट हैं।
सभी कवितायें बहुत पसंद आयीं...
वैसे भी बिहार का पानी है...कला तो कूट-कूट कर भरी होगी ही...
धनबाद, सिंदरी जैसे नाम देख कर मेरी खुशियाँ कई गुणा बढ़ ही जाती है......मेरे नैहर वाले जो हैं...
इसे प्रांतवाद का जामा न पहनाया जाए.....प्लीज :):)
हाँ नहीं तो..!!
एक से बढ़कर एक रचनाये ...हाई टी ...बहुत पसंद आई.
BAUT HI SPASHTA AUR IMAANDAAREE SE KAVI NE APNI BAAT VYAKT KI HAI.
BADHAI ! FOR A NICE POST !
चारों कविता बेमिसाल है. अपने कंटेंट और लहजे के इतिबार से !!
... प्रभावशाली रचनाएं !!!
kavita "khamoshi ke khilaaf" vishesh roop se pasand aayi. dard hoga to mavad bhi hoga... dil ko chhu gayin ye panktiyaan .
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- अल्लामा जमील मज़हरी