बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले!
















सैयद शहरोज़ कमर की कलम से  
 

कई बोलियों भाषा के देश हिन्दुस्तान में अपनी बहुरंगी सांस्कृतिक विविधता की तरह ही बरसों पहले एक हिन्दुस्तानी भाषा का जन्म हुआ.ऐसी ज़बां जिसमें स्थानीय बोली बानी के साथ प्राचीन संस्कृत और फारसी अरबी भी खिल खिला रही थी.कालांतर में इसी लश्करी और हिन्दवी से उर्दू और हिन्दी जैसी भाषा अमल में आई.उर्दू अपनी सोंधी मीठास और गंगा जमनी तहजीब की बतौर प्रतीक अब भी आम जनों के लबों पर आज़ाद है.मौक़ा सितारों  से झिलमिलाती पर्व दीपावली का हो, तो बरबस उर्दू के ख्यात शायर फ़िराक गोरखपुरी याद आते हैं: शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले!



भले आज उर्दू एक सम्प्रदाय विशेष की भाषा बन कर क़ैद हो गयी हों.लेकिन उसके साहित्य ने वसुधव कुटुंब बकम को साकार किया है.ठेठ भारतीय जीवन की तपिश, उसके उल्लास को शायरों ने हमेशा अल्फाजों का झूमर पहनाया है. यह सिलसिला ज़बान की पैदाइश से उसके परवान तक कायम है.  बहुत पहले के शायरों, जैसे मसवी 'कदम राव पदम राव' के रचयिता 'निजामी', सूफीकवि अमीर खुसरो, दक्षिण भारत के वाली दकनी, क़ुतुब अली के नाम से ख्यात मुहम्मद अली कुतुब, 'इंद्रसभा' के कवि 'अमानत', उत्तर भारत के  फ़ाइज़ देहलवी, शायर अफ़जल, गज़लों के इमाम मीर तकी मीर और गंगा-जमनी तहजीब के रूहेरवां 'नज़ीर अकबराबादी' के नाम सहज ही लब पर आ जाते हैं। इस परंपरा को आगे बढ़ाने में आज का उर्दू शायर भी खूने जिगर होम कर रहा है.


सरदार अहमद अलीग जब गुनगुनाते हैं.दीपों की फुलवारी कुछ इस तरह खुशबू लुटाती है:
 
फिर आ गई दीवाली की हँसती हुई यह शाम
रोशन हुए चिराग खुशी का लिए पयाम।
यह फैलती निखरती हुई रोशनी की धार
उम्मीद के चमन पे यह छायी हुई बहार।
यह ज़िंदगी के रुख पे मचलती हुई फबन
घूँघट में जैसे कोई लजायी हुई दुल्हन।
शायर के इक तखय्युले-रंगी का है समां
उतरी है कहकशां कहीं, होता है यह गुमां।




ग़ज़ल के रंग में उमर अंसारी की लंबी नज़्म यूँ चमकती है:


रात आई है यों दीवाली की
जाग उट्ठी हो ज़िंदगी जैसे।
जगमगाता हुआ हर एक आँगन
मुस्कराती हुई कली जैसे।
यह दुकानें यह कूचा-ओ-बाज़ार
दुलहनों-सी बनी-सजीं जैसे।
मन-ही-मन में यह मन की हर आशा
अपने मंदिर में मूर्ति जैसे।


उर्दू के एक विख्यात शायर नाजिश प्रतापगढ़ी का अंदाज़ देखिए:


बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
कदम-कदम पर हज़ारों दीये जलाते हैं।
हमारे उजड़े दरोबाम जगमगाते हैं
हमारे देश के इंसान जाग जाते हैं।
बरस-बरस पे सफीराने नूर आते हैं
बरस-बरस पे हम अपना सुराग पाते हैं।
बरस-बरस पे दुआ माँगते हैं तमसो मा
बरस-बरस पे उभरती है साजे-जीस्त की लय।
बस एक रोज़ ही कहते हैं ज्योतिर्गमय
बस एक रात हर एक सिम्त नूर रहता है।


इस जश्न पर एक नया शायर महबूब राही इन शब्दों में अपनी भावनाओं का इज़हार करता है:
 

दीवाली लिए आई उजालों की बहारें
हर सिम्त है पुरनूर चिरागों की कतारें।
सच्चाई हुई झूठ से जब बरसरे पैकार
अब जुल्म की गर्दन पे पड़ी अद्ल की तलवार।
नेकी की हुई जीत बुराई की हुई हार
उस जीत का यह जश्न है उस फतह का त्योहार।
हर कूचा व बाज़ार चिराग़ों से निखारे
दीवाली लिए आई उजालों की बहारें।


उर्दू के मशहूर आलोचक हैं आल अहमद सुरूर. जब उनकी शायरी कैनवास पर दौडती है, तो दीवाली की दमक में बुराइयों का अँधेरा मिटाने और अच्छाइयों का अंजोर फैलाने की पाक तमन्ना सामने आती है:

यह बामोदर, यह चिरागां
यह कुमकुमों की कतार
सिपाहे-नूर सियाही से बरसरे पैकार।'

यह इंबिसात का गाजा परी जमालों पर
सुनहरे ख्वाबों का साया हँसी ख़यालों पर।
यह लहर-लहर, यह रौनक,
यह हमहमा यह हयात
जगाए जैसे चमन को नसीमे-सुबह की बात।
गजब है लैलीए-शब का सिंगार आज की रात
निखर रही है उरुसे-बहार आज की रात।

इन आँधियों में बशर मुस्करा तो सकते हैं
सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं।

और चलते-चलते उर्दू के जनकवि नजीर अकबराबादी की बानगी देखिये:
 

हर एकदीवाली मकां में जला फिर दीया दीवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ
दीवाली का
सभी के दिल में समां भा गया
दीवाली का
किसी के दिल को मज़ा खुश लगा
दीवाली का
अजब बहार का दिन है बना
दीवाली का
मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई
बताशे ले कोई, बर्फी किसी ने तुलवाई
खिलौनेवालों की उनसे ज़्यादा बन आई।

भास्कर के लिए लिखा गया.
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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

गुमनाम अर्थियों को मिला इंसानियत का कंधा













50 लावारिस शवों का खालिद ने किया एक साथदाह-संस्कार, पितृपक्ष में मिला मोक्ष
[अस्पताल की मोर्चरी में छह माह से पड़े थे] 





















पचास अंत्येष्टियां एक साथ हुईं, लेकिन रोनेवाला कोई नहीं। ये बदनसीब मृत आत्माएं उनकी थीं, जो अलग-अलग हादसों में मारे गए, लेकिन पहचाने नहीं गए। मोर्चरी जब इंसानों के पार्थिव शरीर से भर गई तो प्रशासन ने उनके दाह-संस्कार की इजाजत तो दी, पर सरकार का कोई नुमाइंदा नहीं आया। लेकिन मुर्दा कल्याण समिति, हजारीबाग के मोहम्मद खालिद ने इन आत्माओं को मोक्ष देने का पुण्य हासिल किया। वे किस मजहब के थे, कौन थे, कहां से आए थे, कैसे मौत आ गई, इन सवालों के बीच जब खालिद ने हिंदू रीति-रिवाज से चिताओं को मुखाग्नि दी, ऐसा लगा जैसे पितृपक्ष में इन आत्माओं को स्वर्ग में ठिकाना मिल गया हो। 
 
कैसे शुरू हुआ इनका अंतिम सफर 

शनिवार को सुबह ही मुर्दा कल्याण समिति की टीम हजारीबाग से रिम्स,रांचीपहुंच गई थी। जाति, धर्म और संप्रदाय के दायरे को लांघ कर मुर्दाघर में शवों को बाहर निकालने के लिए खालिद आगे आए। कटे-छंटे जिस्मों में रसायनिक लेप लगाया गया। उनके साथ थे विभु दा, इमरान खान, मो. निजाम, अशोक सिंह, विनोद कुमार सिंह और मो. रियाज आदि। सभी शवों को पैक किया गया। पांच एंबुलेंस पर 50 अनाम लाशों को लेकर जब टीम जुमार नदी पुल पर पहुंची, तो अंधियारे ने दस्तक देनी शुरू कर दी। बूंदाबांदी भी रुकने का नाम नहीं ले रही थी, मानो आसमान रो रहा हो। लेकिन खालिद तो अलग ही मिट्टी के बने हैं। यहां विभु दा ट्रैक्टर के साथ पहले से तैयार थे। बारी-बारी से सभी पैके ट निकाल कर ट्रैक्टर पर लादे गए। खालिद ट्रैक्टर पर चढ़ गए। इमरान और अशोक आदि बारी-बारी से पैकेट पकड़ाने लगे। पुल से दायीं ओर एक किमी पर इनके लिए आठ बड़ी-बड़ी चिताएं सजाई गई थीं। वहां पहुंचकर सभी साथी ने सम्मानपूर्वक इन शवों को चिताओं पर लिटाया। खालिद टै्रक्टर से नीचे आए। चिताओं के निकट गए। मुखाग्नि के समय उनकी आंखें डबडबा आईं। चारों ओर धधकती ज्वाला। मृतात्माओं के तेज से दूर छिटकता अंधियारा। मुर्दा कल्याण समिति के सदस्य इस पुनीत काम से प्रसन्न थे कि चलो देर से ही सही मृत आत्माओं को मुकाम तो मिल गया।
 
मैं तो इंसानियत का इम्तिहान दे रहा हूं 

किसी हादसे के कारण मृत हुए परिजनों के शव से भी लोग कतराते हैं। ऐसे शवों का अंतिम संस्कार करने को कोई तैयार नहीं होता। अगर कोई वारिस नहीं हुआ तो ऐसी लाशों की बड़ी दुर्गति होती है। पहले मैं अकेले ही ऐसा करता रहा। एक दिन हजारीबाग में ही तापस दा से मुलाकात हो गई। वह भी अपने स्तर पर ऐसा ही कर रहे थे। सोलह साल पहले हम लोगों ने मिलकर शुरुआत की। अब कई साथी इस नेक काम में सामने आए हैं। ऐसा कर मैं खुद के इंसान होने के प्रयास में हूं। कहने दीजिए, मैं तो इंसानियत का इम्तिहान दे रहा हूं । हमें क्षोभ है तो सिर्फ रांची जिला प्रशासन से, जिसने इन शवों के अंतिम संस्कार करने के लिए ढाई महीने बाद अनुमति दी, वह भी ऐसे समय में जबकि बारिश हो रही है। लेकिन मैं अपने साथियों का शुक्रगुजार हूं कि इन्होंने हिम्मत न हारी। मैं आपके अखबार के माध्यम से सरकार से अनुरोध करना चाहता हूं कि हम यह क्यों भूल जाते हैं कि ये भी कभी जिंदा इंसान थे। गुमनामी के अंधेरे से निकालकर क्या इज्जत के साथ इनकी अंतिम विदाई नहीं की जानी चाहिए।  
मोहम्मद खालिद
प्रमुख, मुर्दा कल्याण समिति


जिम्मेदार कौन, सब मौन



असहाय अस्पताल

रिम्स के निदेशक तुलसी महतो का तर्क हैरान करनेवाला है। हो सकता है वे सच बोल रहे हों। कहते हैं, अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी हमारी नहीं है। कितने शवों का संस्कार हुआ, उन्हें कुछ पता नहीं। उन्हें यह भी पता नहीं कि मोर्चरी में अब कितने शव हैं।


पुलिस ने पल्ला झाड़ा 

 
शहर पुलिस अधीक्षक रंजीत कुमार प्रसाद कहते हैं, लावारिस लाशों का दाह- संस्कार करने की जिम्मेदारी पुलिस की नहीं है। मेडिकल छात्रों की स्टडी के लिए ऐसे शव रिम्स में रखे जाते हैं। हमारा काम सुरक्षा देना है। आज पुलिस भेज दी गई थी। 

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गुरुवार, 22 सितंबर 2011

दलितों के क्रीमी लेयर का उच्छ्वास

छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय दलित सम्मलेन का तुष्टिकरण




 






संजीव खुदशाह की क़लम से 



गत १७ सितंबर को छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर में देश भर के दलित जुटे.जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में उनके अधिकार विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन में वे खूब बोले. लेकिन अपनी भदेस भाषा में नहीं. न ही राष्ट्रभाषा या क्षेत्रीय बोली में. उन्होंने अपना बक अंग्रेजी में खूब उगला.इस मौके पर स्थानिय लोग काफी संख्या में उपस्थित थे। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के रूप में खड़गपुर आई.आई.टी के प्रोफेसर श्री आनंद तेलतुम्डे उपस्थित थे. शेष वक्ता भी प्रोफेसर ही थे. सभी टाटा इन्टीटूयूट आफ सोशल सांईस एवं उड़ीसा के महाविद्यालय से यहां आये थे। इसे दलित प्रोफेसर वक्ताओं का तथा आम संघर्षशील दलित श्रोताओं का सम्मेलन कहना ज्यादा उचित होगा। लगभग सारे के सारे श्रोता अंग्रेजी में ही अपना उद्बोधन देना पसंद कर रहे थे। शायद हिन्दी या अपनी मातृ भाषा मे बोलना वे अपनी शान के खिलाफ  समझ रहे थे। दिन भर के पूरे कार्यक्रम में आम दलित अपने आपकों इन वक्ताओं से नहीं जोड़ पाया। न ही इस कार्यक्रम में आम दलितों की कोई सहमागिता रही। पूरा का पूरा कार्यक्रम फंगीस आईडीयाज की सीमाओं में बंधा दिखा। जिस विषय पर कार्यक्रम रखा गया उससे भी ज्वलंत समस्या एक आम दलित झेल रहा है लेकिन तथा कथित सवर्ण हो चुके दलित प्रोफेसरों ने इन मुद्दो पर झांकना भी मुनासिब नही समझा। दूर-दूर से आये श्रोता अपने समय और धन की बर्बादी को लेकर दुखी रहे एवं आपस में चर्चा करते रहे। उन्हे सिर्फ एक बात की तसल्ली थी कि वे एक भीड़ के रूप में पहली बार इकट्ठा हुए।
ये बात मुझे इसलिए भी लिखनी पड़ रही है क्योंकि आयोजन समिती दलित मुक्ति मोर्चा के कर्ताधर्ता श्री गोल्डी एम जार्ज मेरे मित्र हैं. और वे छत्तीसगढ़ में दलित कर्याक्रमो के सफल आयोजन के लिए जाने जाते हैं। यहां सभी दलितों को एक मंच पर लाने श्रेय उन्हे जाता है।

वे बातचीत के दौरान कहते हैं कि डी.एम.एम. आपका है, आपका है, लेकिन निर्णय लेते वक्त किसी की राय शुमारी मुनासिब नही समझते। उन्होने पता नही किस मजबूरी के तहत इस समिती में डमी अध्यक्ष सचिव की परंपरा शुरू की।

एक खास बात जिसकी चर्चा में यहां करना जरूरी समझता हूं वह यह कि कार्यक्रम में डा. अम्बेडकर की फोटो के साथ गुरू घासिदास की फोटो भी लगाई गई। डॉं अम्बेडकर के साथ जनेउ-धारी गुरूघासीदास की फोटो लगाना दलित आंदोलन को एक भ्रमित संदेश देता दिखाई पड़ रहा था। आयोजन समिती का झुकाव किसी एक दलित जाति की ओर है यह इंगित करता है। साथ ही अन्य दलित जातियों के लिए यह गुप चुप बहिष्कार किये जाने जैसा संदेश देता है। जो कि दलित आंदोलन की भावनाओं के खिलाफ है। लेदेकर यह प्रोग्राम प्रोफेसरों के लिये भड़ास निकालने का एक बड़ा अड्डा बन गया। पूरे प्रोग्राम में आनंद जी की चर्चा रही वह यह की वे अपने कृत्यों से कम अम्बेडकर जी के भांजी दमाद हाने पर ज्यादा प्रचारित किये जा रहे थे। बातचीत के दौरान वे किसी को तरजीह नही दे रहे थे। दुख हुआ हिन्दी में खाने,बोलने एवं छिछी करने वाले हिंगलीस में बोलने मे बड़प्पन समझ रहे थे। वो भी जब मुद्दा प्राकृतिक संसाधनों के अधिकार पर था। जब आनंदजी से पूछा गया कि वे कितनी किताबे लिख चुके है तो उन्होने कहा गिनता कौन है? ऐसा दंभ नये दलित ब्राम्हण में ही देखा जा सकता है। कुल मिलाकर पूरे कार्यक्रम में लोगों ने आपस में मेल मिलाप कर कार्यक्रम को सार्थक किया।

बेहतर होता यदि आम-भाषा में आम दलितों कि समस्याओं पर बात होती। आज एक दलित सम्मान, रोजी-रोटी, जाति प्रमाणपत्र, जातिगत प्रताड़नाओ से जूझ रहा है। लेकिन इन मुद्दों को दर किनार कर दिया गया। जो मुद्दा था भी वो वक्ताओं की बोझिल भाषाशैली की भेट चढ़ गया।



 (लेखक-परिचय:
जन्म: 12 फरवरी 1973  बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
शिक्षा: बी.काम., डी.बी.एम.एस., एम..समाज शास्त्र, एल.एल.बी
सृजन: लेख, कहानी, एवं कविताएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित               
कृतियां : सफाई कामगार समुदाय और आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` नामक दो पुस्तकें चर्चित
ब्लॉग: www.sanjeevkhudshah.blogspot.com
संप्रति:राजस्व विभाग में प्रभारी सहायक प्रोग्रामर
संपर्क:
sanjeevkhudshah@gmail.com)


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रविवार, 11 सितंबर 2011

तुम ही छिटक के दूसरे का चांद हो गईं।
















पंकज शुक्ल की क़लम से

फरवरी की पांचवीं तारीख़

वो जो हलचल है तेरे दिल में मेरी हरकत है,
मेरी जुंबिश ही तेरे हुस्न की ये 
  बरकत है।

मेरी गुस्ताख़ नज़र ने तुझे फिर से देखा,
तू कुछ औऱ खिली, और रंगीं शफ़क़त है।

गुम हूं पास तेरे तू ही ढूंढती मुझको,
मेरे सीने में छिपी क्या ये तेरी हसरत है।

तेरे करीब हूं, फिर भी जुदा सी तू मुझसे,
मेरी तदबीर से संवरी ये किसकी किस्मत है।

तेरा ये गोरा रंग,
फ़ितरत मेरी ये काली सी,
ना तू मंदिर में रहे फिर भी मेरी इबादत है। 



2.

रात इक ख़्वाब सा ..




रात इक ख्वाब सा खटका इन आंखों में,
सहर के साथ ही क्यूं तू घर से निकली।

सुबह की धूप सी गरमी है तेरी सांसों में,
फिर कहीं दूर तू मुझसे बचके निकली।

गुजर न जाए ये लम्हा इसी उलझन में,
मेरे बालिस्त में क्यूं तेरी दुनिया निकली।

मेरे उसूल मेरी नीयत ही मेरा धोखा है,
तू कहीं दूर औ चाहत तेरी मुझसे निकली।

क्यूं रंगरेज हुआ मैं तेरी रंगत पाकर
मेरी हर जुंबिश में तेरी धड़कन निकली।

तेरे हुस्न की हसरत यूं पा ली मैंने
तेरे इनकार में भी अब हां ही निकली।

मेरी मदहोशी का ये असर है तुझ पर
सरे राह तू अब से तनकर निकली। 


3.
 
फिर भूलूं, क्यूं याद करूं..

मैं तारे भी तोड़ लाता आसमां में जाकर,
तुम ही छिटक के दूसरे का चांद हो गईं।

घनघोर घटाटोप से मुझको कहां था डर,
तुम ही चमक के दूर की बरसात हो गईं।

रक्खा बचा के ग़म को तेरे नसीब से,
इतनी मिली खुशी के इफ़रात हो गईं।

गाफिल गिरेह भी होकर था तो मेरा
यक़ीन,
तुम क़ातिल के हाथ जाकर वजूहात हो गईं।
 
 
 
 
 
{कवि-परिचय: जन्म: मंझेरिया कलां (उन्नाव, उत्तर प्रदेश) में । 
शिक्षा:शुरुआती पढ़ाई जोधपुर और फिर गांव के प्राइमरी स्कूल में। कॉलेज की पढ़ाई कानपुर में। सिनेमा की संगत बचपन से। सरकारी नौकरी छोड़ पत्रकारिता सीखी.
फ़न की गर्दिश: अमर उजाला में तकरीबन एक दशक तक रिपोर्टिंग और संपादन। फिर ज़ी न्यूज़ में स्पेशल प्रोग्रामिंग इंचार्ज। प्राइम टाइम स्पेशल, बॉलीवुड बाज़ीगर, मियां बीवी और टीवी, बोले तो बॉलीवुड, भूत बंगला, होनी अनहोनी, बचके रहना, मुकद्दर का सिकंदर, तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे, बेगम की महफिल, वोट फॉर खदेरन और वोट फॉर चौधरी जैसी टीआरपी विनिंग सीरीज़ का निर्माता-निर्देशक रहने के दौरान चंद बेहतरीन साथियों से मिलना हुआ। एमएच वन न्यूज़ और ई 24 की लॉन्चिंग टीम का हिस्सा। ज़ी 24 घंटे छत्तीसगढ़ का भी कुछ वक्त तक संचालन।
बतौर लेखक-निर्देशक पहली फीचर फिल्म "भोले शंकर" रिलीज़। फिल्म ने शानदार सौ दिन पूरे किए। बतौर पटकथा लेखक-निर्देशक 4 शॉर्ट फिल्में - अजीजन मस्तानी, दंश, लक्ष्मी और बहुरूपिया। चारों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित और प्रशंसित। कई फिल्म फेस्टिवल्स में शामिल। विज्ञापन फिल्मों और कॉरपोरेट फिल्मों के लेखन और निर्देशन में भी सक्रिय।
ब्लॉग: क़ासिद
सम्प्रति: रीजनल एडीटर। नई दुनिया/संडे नई दुनिया।
संपर्क: pankajshuklaa@gmail.com   } 
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गुरुवार, 8 सितंबर 2011

प्रकृति के आदिम सम्मान का पर्व करमा


























 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
काराम चांडुः मुलुःलेना : जुड़ि दुमाङ साड़िताना
 
 
 
 
 
 
 
 
 































अश्विनी  कुमार पंकज की क़लम से 



करमा पर्व कृषि और प्रकृति से जुड़ा पर्व है जिसे झारखंड के सभी समुदाय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस पर्व को भाई-बहन के निश्छल प्यार के रूप में भी उल्लेखित किया जाता है। यह पर्व भादो शुक्ल पक्ष के एकादशी के दिन बड़े धूमधाम और अनुष्ठानपूर्वक मनाया जाता है। करमा जीवन में कर्म के महत्व का पर्व तो है ही, यह प्रकृति के आदिम सम्मान का भी पर्व है। झारखंडी समुदायों, विशेष कर आदिवासी समुदायों के सभी पर्व-त्योहारों और सामाजिक-सांस्कृति उत्सवों में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व आराधना एक अनिवार्य विधान है। जैसे सरहुल में सरई फूल, करमा में करम डाइर, कदलेटा में भेलवा की टहनियां, जितिया में पीपल और हरियारी पर्व में हरे पेड़-पौधों की पूजा।

करमा पर्व के दिन करम गाड़ने के बाद कोटवार द्वारा समुदाय के लोगों को करम कथा सुनने के लिए बुलाया जाता है। श्रोता एवं उपासर अपने-अपने करम दउरा या थाली में पूजन सामग्री तेल, सिंदूर, धूप-धुवन, खीरा, चीउड़ा, जावा फूल, अरवा चावल, दूध, फूल, फल सजाकर इसमें दीपक जलाते है। इसे सारू पत्ते से ढककर अखाड़ा में लाते है और करम के चारों ओर बैठ जाते है। दूसरी ओर करम अखाड़ा में चारों ओर भेलवा, सखुआ या केंद इत्यादि लाकर खड़ा कर दिया जाता है। कथा अंत होने के बाद प्रसाद वितरण किया जाता है। युवक-युवतियां करमा नृत्य संगीत प्रस्तुत करती है। दूसरे दिन सुबह भेलवा वृक्ष की टहनियों को धान की खेती में गाड़ दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे फसल फसल में कीड़े नहीं लगते है। कमोबेश थोड़े हेर-फेर के साथ झारखंड के सभी आदिवासी एवं मूलवासी समुदायों में करमा अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग विश्वास एवं मान्यता के साथ मनाया जाता है। करमा पूजन का आयोजन विभिन्न चरणों में पूरा होता है। जिसमें करमा के लिए जावा उठाना, करम काटने जाने के समय पूजन, करम काटने से पहले पूजा, करम डाल को अखाड़ा में गाड़ने की प्रार्थना, पाहन द्वारा करमा पूजा, करम कहानी की परंपरा एवं करम बहाने की पूजन विधि मुख्य है। करमा पर्व के संबंध में अनेक कहानियां प्रचलित हैं। अधिकांश कहानियों में कुछ भिन्नताओं के बावजूद एकरूपता है। 
कहते हैं रामदयाल मुंडा

डॉ. रामदयाल मुंडा और रतन सिंह मानकी द्वारा संग्रहित-संपादित पुस्तक ‘आदि धर्म’ में करमा पर्व की कथा इस प्रकार से कही गयी है - करमा और धरमा दो भाई होते थे। सुखी-सम्पन्न, धन-धान्य से भरे-पूरे। बड़े भाई करमा को एक राजभोज में सम्मिलित होने का अवसर मिला मिलता है तो उसे जीवन में पहली बार एक नई चीज, नमक, के स्वाद का पता होता है। उस स्वाद के वशीभूत वह उसके व्यापार का मन बनाता है। वह अपने छोटे भाई के सामने प्रस्ताव रखता है और उसकी सहमति के बाद व्यापार को निकलता है। महीने भर की विदेश व्यापार यात्रा ेके बाद वह कई बैल गाड़ियों में माल लादे हुए वापस आता है। अपने गाव की सीमा पहुंचने पर भाई को संदेश भेजता है ताकि वह उसका उचित स्वागत कर सम्मानपूर्वक उसकी अगुवाई करे। किन्तु आशा के विपरित धरमा नहीं दिखाई दे रहा। उल्टे संदेशवाहक भी उधर ही रह जाता है। करमा दूसरा दूत भेजता है, तीसरा भेजता है, किन्तु वे भी वापस नहीं आते। अपमानित, क्रोध से आग बबूला, तमतमाया हुआ वह स्वयं देखने आता है। देखता है, धरमा सारे लोगों के साथ करम देवता की पूजा अर्चना में लगा हुआ है। करमा की ओर कोई देख भी नहीं रहा। फिर तो क्या था - क्रोध में आपे से बाहर करमा पूजा में बैठे ध्रमा को पीछे से लात मारता है, सामने आरोपित करम की डाली को उखाड़ फंकता है और पूजा की सारी सामग्रियों को तितर-बितर कर बड़बड़ाते हुए निकल जाता है और पीछे-पीछे आने वाले उसके भाई ध्ररमा और दूसरे लोगों ने उसे बताना चाहा - करम देवता की पूजा में थोड़ी देरी हो गई उसे अपमानित करने जैसी कोई बात नहीं थी। छोटे भाई की गलती मानकर कृपया शांत करें। किंतु करमा की नाराजगी नहीं गई। उसने गांव वालों को धरमा का साथ देने का बुरा परिणाम भुगतने की धमकी दे डाली। किंतु बुरे परिणाम धरमा और गांववालों पर नहीं खुद करमा पर दिखाई देने लगे। करमदेवता करमा पर नाराज हो गए। उसके खेत सूखने लगे। खड़ी फसल मुर्झाने लगी और उसके खलिहान में एक दाना नहीं भी गिरा। भूखा-प्यासा करमा जंगल जाकर फल तोड़ता, उसमें कीड़े लगे मिलते हैं। जल स्रोत से पानी पीने को झुकता, वहां भी उसे कीड़े-मकोड़े मिलते हैं। अंत में वह अपनी पत्नी को धरमा के यहां खाने की भीख मांगने को भेजता है। वहां भी उसकी पत्नी के पहुंचने तक सारा खाना समाप्त मिलता है। उसे कहा जाता है कि थोड़ी देर रूको फिर से पानी चढ़ाते हैं। तुम्हारे लिए खाना बनाते हैं। उसी दौरान करमा को झपकी के सपने में एक आवाज सुनाई देती है कि तुमसे नाराज करम देवता अब तुमसे अलग हो गए हैं और जब तक तुम उसे मनाकर वापस नहीं लाते, तुम्हारी दुर्गति बढ़ती ही जाएगी। तुम्हारे बुरे दिनो का अंत नहीं होगा। इस पर करमा की सुमति जगती है। वह जानना चाहता है करम देवता कहां छिप गए हैं। उसको पता चलता है करम देवता सात समुन्दर पार एक टापू को चले गए हैं। वहीं जाकर अनुनय-विनय और पश्चाताप करने से उन्हें वापस लाया जा सकता है। करमा दूसरी बार घर छोड़ने की तैयारी करता है। अनेक परीक्षाओं से गुजरते हुए वह करम देवता को अपने साथ वापस ले आने में सफल होता है और आंगन में स्थापित करके सबके सामने अपनी गलती स्वीकार करता है। करम देवता की पुनर्वापसी के साथ ही करमा के बुरे दिन बीतने लगते हैं और अच्छे दिन वापस आने लगते हैं। उसके खेतों में फसल लहलहा उठती है और भरे-पूरे खलिहान की संभावनाएं बनने लगती है। 
लोककथा में करम कथा
 एक अन्य लोककथा में करम कथा इस प्रकार है। कर्मा और धर्मा नामक दो भाई थे। दोनों ही बड़े प्रेम से रहते थे, तथा गरीबों की सहायता किया करते थे। कुछ दिन बाद कर्मा की शादी हो गई। कर्मा की पत्नी बहुत ही अधार्मिक तथा बुद्धिहीन स्त्राी थी। वह, हर वह काम किया करती थी, जिससे कि लोगों को हानि और क्लेश पहुंचे। यहां तक कि उसने धरती मां को भी नहीं छोड़ा, वह चावल बनाने के बाद मांड जो पसाती वह भी जमीन पर सीधे गिरा देती। इससे कर्मा को बड़ा तकलीफ हुई। वह धरती मां को घायल और दुखी देखकर काफी दुखी था। गुस्से में वह घर छोड़कर चला गया। उसके जाते ही पूरे इलाके के आदमियों का करम (तकदीर) चली गई। अब वे काफी दुखी और पीड़ित जीवन बिताने लगे।

कुछ दिन बाद जब धर्मा से नहीं रहा गया। इलाके की अकाल और भूखमरी से जब वह व्याकुल हो गया तो अपने भाई कर्मा को खोजने के लिए निकल पड़ा। कुछ दूर जाने के बाद उसे प्यास लगी। पानी की खोज में वह इधर-उधर भटकने लगा। सामने एक नदी दिखाई दिया पर वह सूखी पड़ी थी। नदी ने पास आकर धर्मा से कहा कि जबसे हमारे कर्मा भाई इधर से गए हैं हमारे तो करम ही फूट गए हैं। अब यहां कभी पानी नहीं आता है, यदि आपकी मुलाकात उनसे हो तो हमारे बारे में जरूर कहिएगा। धर्मा आगे बढ़ा। कुछ दूर जाने पर उसे एक आम का वृक्ष मिला, जिसके सब फलों में कीड़े थे। उसने भी धर्मा को कहा कि जबसे कर्मा भाई इधर से गुजरे हैं, इस पेड़ के सारे फल खराब हो गए हैं। यदि आपकी मुलाकात उनसे हो तो इसका निवारण पता कीजिएगा। धर्मा वहां से आगे बढ़ा। कुछ दूर और चलने पर उसे एक वृद्ध व्यक्ति मिला, जिसके सिर का बोझ तब तक नहीं उतरता था, जब तक कि चार-पांच आदमी मिलकर उसे नोच-नोच कर उतारते नहीं थे। उसने भी धर्मा को कर्मा के मिलने पर अपना दुखड़ा सुनाने तथा उसका निवारण पूछने की बात कही। आगे मार्ग में उसे पुनः एक औरत मिली। उसने भी धर्मा को कहा कि यदि कर्मा उसे मिले तो उससे कहे कि जब वह खाना पकाती है तो उसके हाथ से कढ़ाई-बर्तन जल्दी छूटते नहीं हैं, वह हाथ में हीं चिपक जाता है यह समस्या किस तरह से दूर होगी।

चलते-चलते धर्मा एक रेगिस्तान में पहुंच गया। वहां जाकर उसने देखा कि उसका भाई कर्मा धूप और गर्मी से व्याकुल रेत पर पड़ा था। उसके पूरे शरीर पर फफोले पड़े थे। धर्मा ने उसकी यह हालत देखी और काफी दुखी हुआ। उसने कर्मा को घर चलने के लिए कहा तो कर्मा बोला मैं उस घर में कैसे जाऊं। वहां पर मेरी पत्नी है, जो इतनी अधार्मिक और बुद्धिहीना है कि मांड़ तक जमीन पर फेंक देती है। इस पर धर्मा बोला मैं आपको वचन देता हूं कि आज के बाद कोई भी स्त्राी मांड़ जमीन पर नहीं फेंकेगी।

कर्मा अपने भाई धर्मा के साथ घर की ओर चला तो मार्ग में उसे सबसे पहले वह स्त्राी मिली। उसे कर्मा ने कहा कि तुमने किसी भूखे ब्राह्मण को खाना नहीं दिया था, इसलिए तुम्हारी यह दशा हुई है। आज के बाद किसी भूखे का तिरस्कार मत करना, तेरे कष्ट दूर हो जाएंगे। 
अपने हिस्से का फूल खिलाएंगे 


अंत में उसे वह नदी मिली जिसमें पानी नहीं था। नदी को देखकर कर्मा ने कहा तुमने किसी प्यासे आदमी को साफ पानी नहीं दिया था, इसलिए अब तुम्हारे पास पानी नहीं है। आगे से तुम कभी अपना गन्दा जल किसी को पीने मत देना, कोई तुम्हारे तट पर पानी पीने आए तो उसे स्वच्छ जल देना, तुम्हारे कष्ट दूर हो जाएंगे। इस प्रकार कर्मा पूरे रास्ते में सभी को उसके हिस्से का कर्म प्रदान करते हुए अपने घर आया तथा घर में पोखर बनाकर उसमें करम डाइर लगाकर उसकी पूजा की। इलाके के अकाल समाप्त हो गए। खुशहाली लौटी। उसी कर्मा की याद में आज भी लोग कर्मा पर्व मनाते हैं। कर्मा की पूजा में नदी के किनारे करम की डाली लगाकर उसमें फूल खोंसा जाता है। लोक मान्यता है कि जो भी स्त्राी करम डाइर की पूजा करेगी और अपने हिस्से का कर्म पाएगी उसके कांटे जैसे स्वाभाव में भी फूल खिल जाएंगे।

कुछ करम गीत
-

1. केकेर मुड़े हरदी रंगल फेंटा रे
केकर मुड़े जवा फूल रे .... 2
राजा कर मुड़े हरदी रंगल फेंटा रे
रानी कर मुड़े जवा फूल रे ... 2

2. गोड़ धोय, गोड़ धोय देले गे आयो
करम के विदा कइर देगे आयो ... 2
तेल सिन्दुर देले गे आयो
करम के विदा कइर देगे आयो ... 2
कोने डाइर आले रे करम
कोने डाइर जाबे करम ... 2
बन डाइर आले रे करम
नदी डाइर जाबे करम ... 2

3. करम का दिन आले रे जोगिया
बैठले धरम-दुवार रे ... 2
दे से गे आयो अनवा-धनवा
जोगी भइया दुवारे बैसय रे ... 2
न लेबो अना-धना, न लेबो सोना-रूपा
हमें लेबो कनिया कुंवार रे .... 2

मुंडा करम गीत -
1. काराम चांडुः मुलुःलेना
काराम ओड़ः सालबाल
काराम बोंगा को धेआन धोरोमताना
हाइ-जिलु काको जोमताना

(भावार्थ -
करम का चांद उग आया
करम देवता के घर चहल-पहल है
लोग करम देवता का ध्यान-धर्म करते हैं
वे मांस-मछली नहीं खाते।)

2. काराम दारू को आगुलेदा
राचा रेको बिद केदा
चुमान सिंदुरि, धुना-धुपकेदा
काराम बोंगा पुंजीः ओमाकोताना।

(भावार्थ -
लोग करम की डाली ले आए
उसे आंगन में रोपा
सिंदूर दान और धुवन-धूप से उसका चुमावन किया
करम देता उन्हें धन-धान्य देते हैं।)

3. काराम चांडुः मुलुःलेना
जुड़ि दुमाङ साड़िताना
दोति दोलाङ, दोति दोलाङ
किता गालाङ होंकाताम सुसुनालाङ।

(भावार्थ -
करम का चांद उग आया
मांदर की जोड़ी बज रही है।
वलो हम चलें, चलो हम चलें -
चटाई बिनना छोड़ो, हम नाच आएं। )



लेखक-परिचय: सक्रिय लेखक व एक्टिविस्ट . कई पत्र-पत्रिकाओं व सामाजिक आन्दोलनों से जुडाव. रांची में रहकर संताली पत्रिका जोहार सहिया और रंगकर्म त्रैमासिक रंगवार्ता का संपादन. नेट जर्नल अखडा के सदस्य . कुछ फिल्मों का निर्माण. कई किताबें प्रकाशित.सम्प्रति आदिवासी सौन्दर्य शास्त्र पर एक आलोचना पुस्तक लिख रहे हैं. संपर्क: akpankaj@gmail.com







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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

मुल्क के लाल कब तक रहें बदहाल !

















आज़ादी के संग्रामी व दुमका के पहले सांसद की विधवा के मार्फ़त 
























गुंजेश की क़लम से 


यह सरायदाहा गाँव है. यहीं आज़ादी के नामवर सिपाही लाल हेंब्रम उर्फ़ लाल बाबा  ने विदेशी दासता के क्रूर दस्तावेज़ को मटियामेट करने की कोशिश की थी, जिसकी उन्हें सज़ा भी मिली.लेकिन सत्ता से विद्रोह करने के खामियाजा से उनका  परिवार आज भी ज़ार-ज़ार है. महज़ सत्ता के चेहरे अपने हैं! अपनी सारी की तरह ही उनकी विधवा मोंगली देवी तार-तार हो चुकी ज़िंदगी को समेटने के अथक प्रयास में है. इस सिलसिले में 28 जुलाई को उसे मुख्यमंत्री से भी उस तोते की कहानी ही मिली.काम हो जाएगा! वह मिली तो भी किसी व्यक्तिगत हित के लिए नहीं उनकी मांग थी कि मुख्य सड़क से गाँव को जोड़ने वाली जगह कुसपहाड़ी मोड से सरायदाहा गाँव तक सम्पूर्ण सड़क का निर्माण हो, लाल बाबा के नाम से गाँव के बाहर तोरण द्वार बनाया जाय और स्कूल के पास वाली जगह पर गाँव के बच्चों के खेलने के लिए स्टेडियम का निर्माण किया जाय। आज अगर आपके मोहल्ले में आपके सांसद या विधायक या जिला परिषद के ही किसी नेता का घर हो तो आपको बिजली, पानी, सड़क की तकलीफ तो बिलकुल नहीं होगी, लेकिन शहर के पहले और सबसे कर्मयोगी सांसद के घर न तो सड़क पहुंची है, न ही गाँव में पानी और स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था हो पाई है। 21 अगस्त भी गुज़र गया. लालबाबा की 37 वीं पुण्यतिथि थी.विधवा के आंसूं में सरकार की कलई पुनः: धुल गयी.
9 अगस्त 1942 को जब देश भर में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था तो संथाल परगना जिले के मुख्यालय में भी अँग्रेजी सरकार का जबरदस्त विरोध हुआ था और मुख्यालय में कांग्रेसी झण्डा भी फहराया गया था, बाद में अँग्रेजी सरकार की फौज आंदोलनकारियों के नेता लाल हेंब्रम की तलाश में लग जाती है और पकड़ नहीं पाने पर उन्हें भगौड़ा घोषित कर देती है। लाल हेंब्रम भूमिगत होकर सरकार के खिलाफ आंदोलन जारी रखते हैं, लाल सेना का गठन करते हैं। आज भी लाल हेंब्रम को अँग्रेजी सरकार से लड़ते-भिड़ते संथाल आदिवासियों को संगठित कर आज़ादी मिलने तक अंग्रेजों के नाक में दम कर देने वाले नेता के रूप में याद किया जाता है। आज़ादी के बाद 1952 पहले चुनाव में कांग्रेस लाल हेंब्रम को टिकट देती है, भारी मतों से जीतकर लाल हेंब्रम दुमका के पहले सांसद बनते हैं. पाँच साल के कार्यकाल के दौरान दौरान उन्होंने डिवीसी (दामोदर वैली कार्पोरेशन) को स्थापना करवाई । दुमका में संथाल परगना महाविदयालय और राजकीय पोलेटेनिक की स्थापना और दुमका और पश्चिम बंगाल सीमा पर स्थित मसांजोर डैम के  निर्माण में भी  उनका महत्वपूर्ण योगदान है। 16 करोड़ की लागत वाला यह डैम सिर्फ एक वर्ष में बन कर तैयार हो गया गया था।  









 






पहले सांसद के घर-गाँव में 

   
     
जब हम मोंगली देवी से मिलने के के लिए सरायदाहा गाँव के लिए निकले थे तो यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि सचमुच में यह एक पूर्व एवं प्रथम सांसद का गाँव है और गाँव में उनके घर को पहचानना और उसपर यकीन करना और भी ज़्यादा मुश्किल था। दुमका-रामपुरहाट सड़क पर दुमका से 15-17 किलोमीटर चलने के बाद आप कुसपहाड़ी मोड पहुँचते हैं और फिर वहाँ से दाईं तरफ मुड़ जाते हैं, एक ठीक- ठाक आरामदेह सड़क आपको सरायदेहा गाँव तक ले जाती है। शुरुआत में ही, 1964 में अपनी मृत्यु से 6-7 महीने पहले लाल बाबा कि और से बनवाया गया हाई- स्कूल आपको नज़र आता है आप खुश हो सकते हैं इस गाँव में इतना बड़ा स्कूल , सड़क अभी भी ठीक ठाक है। थोड़ा और आगे जाने पर आपको एक मिडिल स्कूल भी मिलेगाआगे बढ़ते हैं, दाईं तरफ़ एक मजार जैसा कुछ है, श्रुति हेंब्रम,(उम्र 12साल) को यहीं पर दफ़नाया गया था कुछ साल पहले जोंडिस से उसकी मृत्यु हो गई थी, यह इत्तेफाक है या कोई बुरा सच सड़क की बाईं तरफ़ ही स्वास्थ्य केंद्र है, स्वास्थ्य विभाग ने विज्ञापन लगा रखा है “कोंडम को अपनाएं, दो बच्चों में तीन साल का अंतर बनायें”। बच्चे ज़िंदा कैसे रहेंगे सरकार इसका कोई विज्ञापन क्यों नहीं बनाती? खैर, आरामदेह सड़क पर हम आगे बढ़ते हैं। और आखिर सड़क खत्म हो ही जाती है, सड़क के खत्म होते ही शुरू होता है लाल बाबा का घर। लाल बाबा को बचपन में देखने वाले लीताई हैंब्रम बताते हैं कि 2 साल पहले सड़क बनी है पर लाल बाबा का घर छोड़ दिया गया “पता नहीं काहे”। टूटी-फूटी सड़क के ठीक बगल में मिट्टी के दीवार पर खपरैल का छत, यही है लाल बाबा का घर। घर के मुख्य द्वार के ऊपर आपको, सचिन की हेलमेट की तरह, तीन रंगों की पट्टी नज़र आएगी, गुलाबी, सफ़ेद और हरा, मैं समझता हूँ यह तिरंगा बनाने की कोशिश रही होगी जो संसाधनों के कमी के कारण अधूरी रह गई।






















कम नहीं हैं जीवन के रंग

दिमाग में था की बाद में किसी से पूछूंगा कि यह तिरंगा बनाने की ही कोशिश हैं न ! पर गोबर से लिपे और चुने से पुते उस घर आँगन में जीवन के जिस रंग को मैंने महसूस किया वह उपेक्षा का रंग था। हमारे लिए कुर्सियाँ लगाई जाती है मोंगली देवी कासे के लोटे में हमारे लिए पानी लाती हैं और बड़े एहतराम से हमें पारंपरिक नमस्कार भी करती हैं। हम पानी-पानी हो जाते हैं, कुछ दिन पहले इन्हें ही हमारे जिला के उपायुक्त ने मंच से आदेश दे कर उतरवा दिया था। क्या व्यवस्था पर किसी का ऋण नहीं चढ़ता?  मोंगली देवी अब ऊंचा सुनती हैं, हिन्दी बोल नहीं पाती पर बिना बोले बिना समझाये वह बहुत कुछ बोल समझा जातीं हैं 6 महीने से सांसद को मिलने वाला उनका पेंशन बंद है, बैंक कहती है सबूत लाइये की आप लाल हेंब्रम की पत्नी है। संथाली में यह कहते हुए वह मुस्कुरा देती हैं। यही हसना-मुस्कुराना चुनौती है व्यवस्था के लिए।
महात्मा गांधी के भारत और पूर्व सांसद के गाँव के उपेक्षा की कहानी यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि यहाँ भी आपको वह सब कुछ देखने को मिल जायेगा जो आप किसी भी गाँव में देख सकते हैं। अनियमितताओं में समानता हमारी सरकारी योजनाओं की खासियत है। फिलहाल सरायदाहा में एक स्वास्थ्य उप केन्द्र बन रहा है योजना की कुल राशि दस लाख रुपये है। गोपी नाथ सोरेन, जो उस योजना के मुंशी है और गाँव के ही निवासी हैं बताते हैं कि इस्टिमेट तो चिमनी ईटा का है, पर चिमनी ईटा लगेगा तो काम कैसे होगा। इंजीनियर साहब को कहते हैं की ठीक माल नहीं आ रहा है तो बोलते हैं जो जो आ रहा है उसीमें काम करो। जादे बोलेंगे तो काम से निकाल देगा। योजना में काम करने वाले राजमिस्त्री नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं जिस तरह काम हो रहा है उसमें तो बिल्डिंग पाँच से सात लाख में बन जायेगा। हम बचे पैसों में उनके हिस्से के बारे में पुछते हैं वो हंस कर कहते हैं मिलता है पर जादे तो साहबे लोग के पाकेट में जाता है। यह सब बात करते हुए हम लालबाबा की समाधि पर पहुँच जाते हैं, यह समाधि उनके ही ज़मीन पर उनके अपने बेटे ने बनवाई है, मायावती याद आती हैं। कई बार इतिहास खुद को नहीं दुहराता। लालबाबा के परिवार ने नरेगा के अंतर्गत बनने वाले सिंचाई कुआं के लिए अपनी ज़मीन भी दी लेकिन अब सिंचाई कुआं का काम तीन महीने से अधूरा है, रुका है, खुला कुआँ किसी के लिए भी खतरनाक हो सकता है खैर इस गाँव में कोई प्रिंस नहीं रहता। 



















अब दस रुपये की भी साख नहीं!

लौटते हुए मोंगली जी चाय- बिस्कुट कराना चाहती हैं, हम थोड़े हड़बड़ी में हैं वह जल्दी से किसी को बिस्कुट लाने भेजती हैं। तब तक हम लीताई हैंब्रम से गाँव में डाक्टर की आवाजाही के बारे में पूछते हैं, लीताई हेंब्रम की अपनी समझदारी है “डाक्टर यहाँ काहे आयेगा, दुमका में रोगी देख के कमाता है यहाँ आयेगा तो उसको पैसा कौन देगा, आता है कभी-कभी ....”। चाय तैयार हो गई है चाय देते हुए मोंगली जी ने संथाली में जो कुछ कहा उसका आशय था “बिस्कुट लेने भेजे थे लेकिन डीलर बोला नोट ठीक नहीं है, लड़का को लौटा दिया”।
जिन लालबाबा के आवाहन पर कभी पूरा संथाल परगना अंग्रेजों के खिलाफ एक जुट हो गया था आज क्या उनके परिवार पर दस रुपये का भी भरोसा नहीं किया जा सकता।



इस व्यथा को आप तहलका के बिहार-झारखंड संस्करण, १५ सितम्बर ११ में भी पढ़ सकते हैं.


(लेखक परिचय 
जन्म: बिहार झरखंड के एक अनाम से गाँव में ९ जुलाई १९८९ को
शिक्षा: वाणिज्य में स्नातक और जनसंचार में स्नातकोत्तर वर्धा से
सृजन: अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं व वर्चुअल स्पेस  में लेख, रपट, कहानी, कविता
ब्लॉग: हारिल
संपर्क:gunjeshkcc@gmail.com

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सोमवार, 29 अगस्त 2011

केदारनाथ का ईद मुबारक











केदारनाथ अग्रवाल की कलम से


हमको,
तुमको,
एक-दूसरे की बाहों में
बँध जाने की
ईद मुबारक।

बँधे-बँधे,
रह एक वृंत पर,
खोल-खोल कर प्रिय पंखुरियाँ
कमल-कमल-सा
खिल जाने की,
रूप-रंग से मुसकाने की
हमको,
तुमको
ईद मुबारक।

और
जगत के
इस जीवन के
खारे पानी के सागर में
खिले कमल की नाव चलाने,
हँसी-खुशी से
तर जाने की,
हमको,
तुमको
ईद मुबारक।





















और
समर के
उन शूरों को
अनुबुझ ज्वाला की आशीषें,
बाहर बिजली की आशीषें
और हमारे दिल से निकली-
सूरज, चाँद,
सितारों वाली
हमदर्दी की प्यारी प्यारी
ईद मुबारक।

हमको,
तुमको
सब को अपनी
मीठी-मीठी
ईद-मुबारक।

रचनाकाल: २१-११-१९७१ 


हिंदी के इस अहम कवि का यह जन्मशती वर्ष है!
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सोमवार, 22 अगस्त 2011

कुरआन,मक्का, तिलिस्म और वसीयत














 बाबुषा कोहली की कवितायें  





















कुरआन की पहली आयत

"सब खूबियाँ 
अल्लाह को,
मालिक जो -
सारे जहां वालों का ;
सारी तारीफें 
तेरी ही हैं ! "
यही है न ,
कुरान  की ,
पहली आयत !
मेरे मौला,
मेरे मालिक -
तेरी ही तो हैं,
सब तारीफें !
गुज़ारिश है ,
एक छोटी-सी -
मानेगा तू?
ले -ले मेरी 
कमजोरियां;
तू अपने सर !
ले- ले मेरे 
गुनाह भी तू ,
अपने सर !
ले - ले मेरी 
ये संगदिली ;
तू अपने सर -
एकदम मेरे
बाप की तरह !
दे दे मुझे तू 
हुक्म ,
कि बदल दूँ 
 ये आयत !
क्या पता -
शायद ,
कुछ शर्म 
आ जाए मुझे !
शायद -
दुरुस्त हो जाऊं ,
मेरे मालिक !

 (मार्च २४,२०११)




















 मक्का 



वह राह -
नहीं जाती
'मक्क़ा' को -
लेकिन
पहुंचाती है
आख़िर में -
'मक्क़ा' ही !
 (अप्रैल 30 , 2011)

वसीयत
अपने पूरे होशो - हवास में
लिख रही हूँ आज मैं 
वसीयत अपनी !


मर जाऊं जब मैं 
खंगालना मेरे कमरे को
टटोलना हर एक चीज़ -


दे देना मेरे ख़्वाब
उन तमाम स्त्रियों को
जो किचन से बेडरूम
और बेडरूम से किचन की दौड़ाभागी में 
भूल चुकी हैं सालों पहले ख़्वाब देखना  !

बाँट देना मेरे ठहाके 
वृद्धाश्रम के उन बूढों में
रहते हैं जिनके बच्चे -
अमेरिका के जगमगाते शहरों में !

टेबल में मेरे देखना
कुछ रंग पड़े होंगे 
दे देना सारे रंग  -
उन जवानों की विधवाओं को
शहीद हो गए थे जो 
बॉर्डर पर लड़ते-लड़ते !

शोखी मेरी ,मस्ती मेरी
भर देना उनकी रग - रग में -
झुक गए कंधे जिनके
बस्ते के भारी बोझ से !


आंसू मेरे दे देना
तमाम शायरों को
हर बूँद से होगी ग़ज़ल पैदा
मेरा वादा  है !


मेरी गहरी नींद और भूख
दे देना 'अंबानियों' औ'  'मित्तलों' को 
बेचारे न चैन से सो पाते हैं
न चैन से खा पाते हैं !


मेरा मान , मेरी आबरू
उस वेश्या के नाम है -
बेचती है जिस्म जो
बेटी को पढ़ाने के लिए !

इस देश के एक-एक युवक को 
पकड़ के लगा देना 'इंजेक्शन'
मेरे आक्रोश का

पड़ेगी इसकी ज़रुरत
क्रान्ति के दिन उन्हें !


दीवानगी मेरी
हिस्से में है
उस सूफ़ी के
निकला है जो सब छोड़ कर ,
ख़ुदा की तलाश में ! 


बस !


बाक़ी बचे -
मेरी ईर्ष्या,
मेरा लालच ,
मेरा क्रोध ,
मेरे झूठ ,
मेरे दर्द -
तो -
ऐसा करना ;
उन्हें मेरे संग ही जला देना !

( मार्च ९,२०११)

तिलिस्म
मत ढूंढो मुझे शब्दों में
मैं मात्राओं में पूरी नहीं
व्याकरण के लिए चुनौती हूँ

न खोजो मुझे रागों में 
शास्त्रीय से दूर आवारा स्वर  हूँ
एक तिलिस्मी धुन हूँ
मेरे पैरों  की थाप
महज कदमताल नहीं
एक आदिम  जिप्सी नृत्य हूँ

अपने पैने नाखूनों को कुतर डालो
मेरी तलाश में मुझे मत नोचो
एक नदी जो सो रही है भीतर कहीं
उसे छूने की चाह में मुझे मत खोदो
मत चीरो फाड़ो 
कि मेरी नाभि से ही उगते हैं रहस्य

इस सुगंध को पीना ही मुझे पीना है
मुझे पा लेना मुट्ठी भर मिट्टी पाने के बराबर है
मुझमें खोना ही  अनंत आकाश को समेट लेना है

स्वप्न हूँ भ्रम हूँ मरीचिका मैं
सत्य हूँ सागर हूँ मैं अमृत ..












परिचय : बाबुशा लिखती हैं, बड़ी झिझक हो रही है . परिचय तो है ही नहीं मेरा ..सच मानिए इस बात को ..! भला एक आवारा रूह का क्या परिचय बनाया जाए ?
क्या परिचय दे दिया जाए ..मैं दो दिन यही बात सोचती रही और ख़लील जिब्रान लगातार याद आते रहे जो जीवन में एक ही बार ठिठके जब किसी ने पूछा कि तुम कौन हो ?
बड़ी मुश्किल !
सच में मेरी पात्रता नहीं है कि कुछ भी मेरे बारे में लिखा जाए.
आप चाहें तो कविताओं के नीचे सिर्फ़ 'बाबुषा कोहली' लिख सकते हैं .

विजय के सारे पदक एक दिन पानी में बह जायेंगे..
कुछ भाव गढ़े जो शब्दों में , वो ही बाक़ी रह जायेंगे..

(यह जानकारी  उनके फेसबुक प्रोफाइल से मिली:
जन्म: कटनी में ६ फरवरी , १९७९
शिक्षा: रानी दुर्गावती विश्विद्यालय से
सम्प्रति:  केन्द्रीव विद्यालय जबलपुर में अंग्रेजी अध्यापन
संपर्क:babusha@gmail.com
ब्लॉग:कुछ पन्ने और बारिस्ता )

 
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)