आज़ादी के संग्रामी व दुमका के पहले सांसद की विधवा के मार्फ़त
गुंजेश की क़लम से
यह सरायदाहा गाँव है. यहीं आज़ादी के नामवर सिपाही लाल हेंब्रम उर्फ़ लाल बाबा ने विदेशी दासता के क्रूर दस्तावेज़ को मटियामेट करने की कोशिश की थी, जिसकी उन्हें सज़ा भी मिली.लेकिन सत्ता से विद्रोह करने के खामियाजा से उनका परिवार आज भी ज़ार-ज़ार है. महज़ सत्ता के चेहरे अपने हैं! अपनी सारी की तरह ही उनकी विधवा मोंगली देवी तार-तार हो चुकी ज़िंदगी को समेटने के अथक प्रयास में है. इस सिलसिले में 28 जुलाई को उसे मुख्यमंत्री से भी उस तोते की कहानी ही मिली.काम हो जाएगा! वह मिली तो भी किसी व्यक्तिगत हित के लिए नहीं उनकी मांग थी कि मुख्य सड़क से गाँव को जोड़ने वाली जगह कुसपहाड़ी मोड से सरायदाहा गाँव तक सम्पूर्ण सड़क का निर्माण हो, लाल बाबा के नाम से गाँव के बाहर तोरण द्वार बनाया जाय और स्कूल के पास वाली जगह पर गाँव के बच्चों के खेलने के लिए स्टेडियम का निर्माण किया जाय। आज अगर आपके मोहल्ले में आपके सांसद या विधायक या जिला परिषद के ही किसी नेता का घर हो तो आपको बिजली, पानी, सड़क की तकलीफ तो बिलकुल नहीं होगी, लेकिन शहर के पहले और सबसे कर्मयोगी सांसद के घर न तो सड़क पहुंची है, न ही गाँव में पानी और स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था हो पाई है। 21 अगस्त भी गुज़र गया. लालबाबा की 37 वीं पुण्यतिथि थी.विधवा के आंसूं में सरकार की कलई पुनः: धुल गयी.
9 अगस्त 1942 को जब देश भर में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था तो संथाल परगना जिले के मुख्यालय में भी अँग्रेजी सरकार का जबरदस्त विरोध हुआ था और मुख्यालय में कांग्रेसी झण्डा भी फहराया गया था, बाद में अँग्रेजी सरकार की फौज आंदोलनकारियों के नेता लाल हेंब्रम की तलाश में लग जाती है और पकड़ नहीं पाने पर उन्हें भगौड़ा घोषित कर देती है। लाल हेंब्रम भूमिगत होकर सरकार के खिलाफ आंदोलन जारी रखते हैं, लाल सेना का गठन करते हैं। आज भी लाल हेंब्रम को अँग्रेजी सरकार से लड़ते-भिड़ते संथाल आदिवासियों को संगठित कर आज़ादी मिलने तक अंग्रेजों के नाक में दम कर देने वाले नेता के रूप में याद किया जाता है। आज़ादी के बाद 1952 पहले चुनाव में कांग्रेस लाल हेंब्रम को टिकट देती है, भारी मतों से जीतकर लाल हेंब्रम दुमका के पहले सांसद बनते हैं. पाँच साल के कार्यकाल के दौरान दौरान उन्होंने डिवीसी (दामोदर वैली कार्पोरेशन) को स्थापना करवाई । दुमका में संथाल परगना महाविदयालय और राजकीय पोलेटेनिक की स्थापना और दुमका और पश्चिम बंगाल सीमा पर स्थित मसांजोर डैम के निर्माण में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान है। 16 करोड़ की लागत वाला यह डैम सिर्फ एक वर्ष में बन कर तैयार हो गया गया था।
पहले सांसद के घर-गाँव में
जब हम मोंगली देवी से मिलने के के लिए सरायदाहा गाँव के लिए निकले थे तो यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि सचमुच में यह एक पूर्व एवं प्रथम सांसद का गाँव है और गाँव में उनके घर को पहचानना और उसपर यकीन करना और भी ज़्यादा मुश्किल था। दुमका-रामपुरहाट सड़क पर दुमका से 15-17 किलोमीटर चलने के बाद आप कुसपहाड़ी मोड पहुँचते हैं और फिर वहाँ से दाईं तरफ मुड़ जाते हैं, एक ठीक- ठाक आरामदेह सड़क आपको सरायदेहा गाँव तक ले जाती है। शुरुआत में ही, 1964 में अपनी मृत्यु से 6-7 महीने पहले लाल बाबा कि और से बनवाया गया हाई- स्कूल आपको नज़र आता है आप खुश हो सकते हैं इस गाँव में इतना बड़ा स्कूल , सड़क अभी भी ठीक ठाक है। थोड़ा और आगे जाने पर आपको एक मिडिल स्कूल भी मिलेगा। आगे बढ़ते हैं, दाईं तरफ़ एक मजार जैसा कुछ है, श्रुति हेंब्रम,(उम्र 12साल) को यहीं पर दफ़नाया गया था कुछ साल पहले जोंडिस से उसकी मृत्यु हो गई थी, यह इत्तेफाक है या कोई बुरा सच सड़क की बाईं तरफ़ ही स्वास्थ्य केंद्र है, स्वास्थ्य विभाग ने विज्ञापन लगा रखा है “कोंडम को अपनाएं, दो बच्चों में तीन साल का अंतर बनायें”। बच्चे ज़िंदा कैसे रहेंगे सरकार इसका कोई विज्ञापन क्यों नहीं बनाती? खैर, आरामदेह सड़क पर हम आगे बढ़ते हैं। और आखिर सड़क खत्म हो ही जाती है, सड़क के खत्म होते ही शुरू होता है लाल बाबा का घर। लाल बाबा को बचपन में देखने वाले लीताई हैंब्रम बताते हैं कि 2 साल पहले सड़क बनी है पर लाल बाबा का घर छोड़ दिया गया “पता नहीं काहे”। टूटी-फूटी सड़क के ठीक बगल में मिट्टी के दीवार पर खपरैल का छत, यही है लाल बाबा का घर। घर के मुख्य द्वार के ऊपर आपको, सचिन की हेलमेट की तरह, तीन रंगों की पट्टी नज़र आएगी, गुलाबी, सफ़ेद और हरा, मैं समझता हूँ यह तिरंगा बनाने की कोशिश रही होगी जो संसाधनों के कमी के कारण अधूरी रह गई।
कम नहीं हैं जीवन के रंग
दिमाग में था की बाद में किसी से पूछूंगा कि यह तिरंगा बनाने की ही कोशिश हैं न ! पर गोबर से लिपे और चुने से पुते उस घर आँगन में जीवन के जिस रंग को मैंने महसूस किया वह उपेक्षा का रंग था। हमारे लिए कुर्सियाँ लगाई जाती है मोंगली देवी कासे के लोटे में हमारे लिए पानी लाती हैं और बड़े एहतराम से हमें पारंपरिक नमस्कार भी करती हैं। हम पानी-पानी हो जाते हैं, कुछ दिन पहले इन्हें ही हमारे जिला के उपायुक्त ने मंच से आदेश दे कर उतरवा दिया था। क्या व्यवस्था पर किसी का ऋण नहीं चढ़ता? मोंगली देवी अब ऊंचा सुनती हैं, हिन्दी बोल नहीं पाती पर बिना बोले बिना समझाये वह बहुत कुछ बोल समझा जातीं हैं 6 महीने से सांसद को मिलने वाला उनका पेंशन बंद है, बैंक कहती है सबूत लाइये की आप लाल हेंब्रम की पत्नी है। संथाली में यह कहते हुए वह मुस्कुरा देती हैं। यही हसना-मुस्कुराना चुनौती है व्यवस्था के लिए।
महात्मा गांधी के भारत और पूर्व सांसद के गाँव के उपेक्षा की कहानी यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि यहाँ भी आपको वह सब कुछ देखने को मिल जायेगा जो आप किसी भी गाँव में देख सकते हैं। अनियमितताओं में समानता हमारी सरकारी योजनाओं की खासियत है। फिलहाल सरायदाहा में एक स्वास्थ्य उप केन्द्र बन रहा है योजना की कुल राशि दस लाख रुपये है। गोपी नाथ सोरेन, जो उस योजना के मुंशी है और गाँव के ही निवासी हैं बताते हैं कि इस्टिमेट तो चिमनी ईटा का है, पर चिमनी ईटा लगेगा तो काम कैसे होगा। इंजीनियर साहब को कहते हैं की ठीक माल नहीं आ रहा है तो बोलते हैं जो जो आ रहा है उसीमें काम करो। जादे बोलेंगे तो काम से निकाल देगा। योजना में काम करने वाले राजमिस्त्री नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं जिस तरह काम हो रहा है उसमें तो बिल्डिंग पाँच से सात लाख में बन जायेगा। हम बचे पैसों में उनके हिस्से के बारे में पुछते हैं वो हंस कर कहते हैं मिलता है पर जादे तो साहबे लोग के पाकेट में जाता है। यह सब बात करते हुए हम लालबाबा की समाधि पर पहुँच जाते हैं, यह समाधि उनके ही ज़मीन पर उनके अपने बेटे ने बनवाई है, मायावती याद आती हैं। कई बार इतिहास खुद को नहीं दुहराता। लालबाबा के परिवार ने नरेगा के अंतर्गत बनने वाले सिंचाई कुआं के लिए अपनी ज़मीन भी दी लेकिन अब सिंचाई कुआं का काम तीन महीने से अधूरा है, रुका है, खुला कुआँ किसी के लिए भी खतरनाक हो सकता है खैर इस गाँव में कोई प्रिंस नहीं रहता।
अब दस रुपये की भी साख नहीं!
लौटते हुए मोंगली जी चाय- बिस्कुट कराना चाहती हैं, हम थोड़े हड़बड़ी में हैं वह जल्दी से किसी को बिस्कुट लाने भेजती हैं। तब तक हम लीताई हैंब्रम से गाँव में डाक्टर की आवाजाही के बारे में पूछते हैं, लीताई हेंब्रम की अपनी समझदारी है “डाक्टर यहाँ काहे आयेगा, दुमका में रोगी देख के कमाता है यहाँ आयेगा तो उसको पैसा कौन देगा, आता है कभी-कभी ....”। चाय तैयार हो गई है चाय देते हुए मोंगली जी ने संथाली में जो कुछ कहा उसका आशय था “बिस्कुट लेने भेजे थे लेकिन डीलर बोला नोट ठीक नहीं है, लड़का को लौटा दिया”।
जिन लालबाबा के आवाहन पर कभी पूरा संथाल परगना अंग्रेजों के खिलाफ एक जुट हो गया था आज क्या उनके परिवार पर दस रुपये का भी भरोसा नहीं किया जा सकता।
इस व्यथा को आप तहलका के बिहार-झारखंड संस्करण, १५ सितम्बर ११ में भी पढ़ सकते हैं.
(लेखक परिचय :
जन्म: बिहार झरखंड के एक अनाम से गाँव में ९ जुलाई १९८९ को
शिक्षा: वाणिज्य में स्नातक और जनसंचार में स्नातकोत्तर वर्धा से
सृजन: अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं व वर्चुअल स्पेस में लेख, रपट, कहानी, कविता
ब्लॉग: हारिल
संपर्क:gunjeshkcc@gmail.com
4 comments: on "मुल्क के लाल कब तक रहें बदहाल !"
सर शर्म से झुक गया...हम देश के स्वंत्र सैनानियों के लिए क्या कर रहे हैं? किसलिए उन्होंने अपना जीवन इस देश के लिए दिया...किस लिए वो ज़िन्दगी भर लड़ते रहे पहले विदेशियों से फिर देशियों से...जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं...
नीरज
प्रथम सांसद और स्वतन्त्रता सेनानी का यह हाल देख मन दुखी हो गया। हम कहाँ से महान हैं?
Padh ke bahut yaatna hui. Pata nahee ham kya,kya nazarandaaz karte chale jaa rahe hain?
पैसे के लिए जीने वाले सांसद, क्योंकर इनको याद करने लगे? आखिर इससे इनको फायदा ही क्या है???
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- अल्लामा जमील मज़हरी