बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 17 मई 2015

शानी तुम्हें याद करते-करते

होते, तो 82 साल के होते


 








सुनील यादव की क़लम से


शानी’ भाईजान आज आप होते, तो 82 साल के होते। 16 मई, 1933 को जगदलपुर में आपका जन्म हुआ था। देश के सबसे बड़े जिले बस्तर, जो तब एक रियासत हुआ करता था। और जगदलपुर उसकी राजधानी। अत्यंत पिछड़ा हुआ, रायपुर से लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर। यातायात के साधनों से कटा हुआ, खनिज संपदा से भरपूर ‘जगदलपुर।’ जिसके बारे में आपने लिखा है, “सुंदर-असुंदर पहाड़ियों, चित्र शलभी- पंखों से सजी नशीली घाटियों और अंग में केवड़ई गोराई बांधे, दूध के उफान से उजले, तपस्वी से साधक और एकनिष्ठ और ऋषिकन्या के पाजेब की सुकुमार गूँज में मुखरित झरनों से घिरा एक छोटा सा शहर- जगदलपुर।” शानी भाईजान आपकी इंद्रावती नदी जगदलपुर को आगोश में लेकर आज भी बहती है, पर अब उसके चाल में वह मदहोशी नहीं रही, जिसमें आप घंटों डूबा रहा करते थे। अब उसके पानी का रंग लाल हो चुका है और आपके ‘मोती तालाब’ का ‘काला जल’ और भी काला । आपके अपने लोगों ने आज हथियार उठा लिए हैं, एक अघोषित जंग चल रही है। 
इसका अंदेशा तो आपको बहुत पहले हो चुका था, शानी भाईजान ! तभी तो आपने अपने उपन्यास ‘साँप और सीढ़ी’ तथा अपने प्रख्यात संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ में इसके संकेत दे दिये थे। आपने ‘शाल वनों के द्वीप’ में एक जगह लिखा है- “सुना है यह डाही खेती (अबूझमाड़ के पहाड़ी माड़ियों की खेती की एक प्रणाली जिसमें जंगल जला कर कुटकी और दाल बोये जाते हैं) सरकार कानूनन बंद करने जा रही है, पटेल(अबूझमाड़ का एक आदिवासी) को सुनाते हुए मैंने(शानी) एड (एक विदेशी शोधकर्ता ) से कहा।’ ‘क्यों?’ ‘ख्याल है कि इसमें काफी जंगल बरबाद होते जा रहे हैं’ ‘डाही खेती क्या है?’ पटेल ने पूछा। ‘यही जो तुम लोग जंगल जलाकर करते हो।’ ‘पटेल जैसे मेरी नासमझी की बात पर हँसने लगा। बोला, ‘सरकार कैसे बंद कर सकती है?’ ‘क्यों, जब कानून ही बन जाय तो क्या करोगे?’ ‘यहाँ मानेगा कौन?’ पटेल ने मुस्कराकर कहा,’ वही तो हमारा खाना-पीना है......।’ कानून न मानने की बात जैसी दृढ़ता से पटेल ने कही, उससे चकित होकर मैं ‘एड’ की ओर देखने लगा। डाही खेती सदियों पुरानी उनकी परंपरा है, जिसे एकाएक तोड़ कर बदल देना आसान नहीं । सचमुच,क्या होगा यदि ऐसा कानून ही बन जाय? क्या किसी सामूहिक विरोध की संभावना हो सकती है ? क्या यह हो सकता है कि..........।”


शानी भाईजान, आप जिस बात को कहते-कहते रुक गए थे, आज वह सच साबित हो गयी । आपका दंडकारण्य जल रहा है शानी भाईजान ! आपकी वह सब संभावनाएं सच हो गयीं, जो आपने अपने उपन्यास, कहानियों तथा संस्मरणों में व्यक्त की थीं। आप तो उसी बस्तर के थे शानी भाईजान! दंडकारण्य क्यों जल रहा है? इसकी खोजबीन में कोई आपके पास क्यों नहीं आया? क्योंकि आपके पास उसका जवाब था, शायद कोई इसका जवाब चाहता ही नहीं! आप भारत-पाकिस्तान के युद्ध के दौरान बहुत तनाव में थे, ‘युद्ध’ कहानी पढ़ते हुए मैंने समझा कि आपकी नसें क्यों फटी जा रही थीं। शानी भाईजान आप दिखावे के सेकुलिरिज़्म से क्यों इतना चिढ़ते थे, उसको मैं तब समझ पाया जब आप राही मासूम रज़ा जी से पूछ रहे थे, “मासूम भाई, महाभारत के लेखक आप क्योंकर हुए और भारत के लेखक क्यों नहीं? कैसा लगा होगा जब महाभारत के साथ किसी मुसलमान का नाम जुड़ते ही आपत्तियां उठाई गयीं और आपने अपनी प्रतिभा से उसे कीर्ति के शिखर पर पहुंचा दिया तो वे क़सीदे पढ़ने लगे? कैसा लगा होगा आपको जब तारीफ़ के तोहफ़े के बहाने किसी ने कसकर तीर मारा होगा- इन हरिजनन मुसलमानन पे कोटिन हिंदू वारिए.......।”
आप अपनों के बीच भुला दिये गए शानी भाईजान ! आपके उपन्यास ‘काला जल’ को लेकर दंभ भरने वाली आपकी साहित्यिक बिरादरी ने भी आपको भुला दिया! अभी कुछ दिन पहले आपके एक अत्यंत प्रिय मित्र जो कहते रहे कि ‘डरता कौन है शानी से!’ वहीं आपके ही क्षेत्र के एक तरुण रचनाकर के बहस के केंद्र में आपके बस्तर के लोग थे । पर आप उस बहस में कहीं नहीं थे। अरुंधति राय, गौतम नवलखा, वैरियर एल्विन, श्यामाचरण दुबे, डॉक्टर विनायक सेन इत्यादि के लेखन और कार्यो की इस बहस में लगातार चर्चा हुई। इन लोगों की चर्चा होनी भी चाहिए क्योंकि इन लोगों ने महत्वपूर्ण काम किया है, पर आपका एक बार भी जिक्र तक नहीं हुआ। क्या आपका ‘शाल वनों का द्वीप’ किसी भी एंथ्रोपोलिजकल शोध से कम है? जिसके बारे में एडवर्ड जे. जे. ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि “शानी की यह रचना शायद उपन्यास नहीं, एक अत्यंत सूक्ष्म संवेदना युक्त सृजनात्मक विवरण है, जो एक अर्थ में भले ही समाजविज्ञान न हो लेकिन दूसरे अर्थ में यह समाज विज्ञान से आगे की रचना है ।” शानी भाईजान ! आपको सिर्फ ‘काला जल’ उपन्यास के लेखक के रूप में ही याद क्यों किया जाता है ? आपके संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ जैसा संस्मरण हिंदी में दूसरा कौन है ? फिर भी हिंदी साहित्य के इतिहास की किताबों से यह गायब क्यों है ? क्या ‘काला जल’ साहित्य अकादेमी पुरस्कार के लायक रचना नहीं थी ? चलिये मैं मानता हूँ कि राही मासूम रज़ा के ‘आधागांव’ को साहित्य अकादेमी इसलिए नहीं दिया गया कि उसमें बेशुमार गालियाँ(?) थी, पर काला जल में क्या था ? कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनके जवाब सबको पता होता है शानी भाईजान !


कभी ग्वालियर में अपने लिए मकान ढूँढते हुए आपको अपनी अस्मिता का बोध हो आया था। उस समय आप हिंदुस्तान के सबसे बड़े सच का सामना कर रहे थे, जब मस्जिद से सटे आपके मकान के सामने मुसलमान भाईयों ने गाय का गोश्त फेंक दिया था। क्योंकि वे आपको शानी नहीं बल्कि कोई पंजाबी साहनी समझे थे। पर शानी भाईजान ! मेरे इस छोटे से जीवन में ही, साहित्य के क्षेत्र में शोध करने वाले बहुत लोग ऐसे मिले हैं, जो ‘शानी’ नाम लेते ही ‘भीष्म साहनी’ ही समझते हैं। और अंत में जानिसार अख्तर की ये दो पंक्तियाँ जिसे आप अक्सर गुनगुनाया करते थे:
और तो मुझको मिला क्या मिरी मेहनत का सिला,
चंद सिक्के हैं मेरे हाथ में छालों के सिवा।


(लेखक-परिचय:
जन्म : 29 दिसंबर 1984 को ग्राम करकपुर, गाजीपुर (उ प्र ) में
शिक्षा : आदर्श इंटर कॉलेज गाजीपुर से अरभिक शिक्षा, इलाहाबाद
विश्वविद्यालय से बीए और एमए। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय से पी-एच डी की उपाधि (2013)(कंप्लीट है पर उपाधि
अभी मिली नहीं है )
सृजन : पहल जैसी अहम पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। समसामयिक सृजन पत्रिका के लोक विशेषांक का संयोजन।
ब्लॉग : देहरी
संप्रति : इलाहाबाद में रहते हुए स्वतंत्र लेखन व शोध कार्य में सक्रिय
संपर्क : sunilrza@gmail.com)
 





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गुरुवार, 14 मई 2015

बंद कब होगा चश्मे से देखना आतंकवाद













फ़राह शकेब की क़लम से
विकराल रूप धारण कर समस्त विश्व के लिए आतंकवाद निश्चित ही चुनौती बन चुका हैदेश, समुदाय, जाति, धर्म इत्यादि से हट कर इसकी निंदा की जानी चाहिए यह इस्लाम के नाम पर हो या हिंदुत्व के नाम पर। जिहाद हो या क्रूसेड। इसका समूल नष्ट होना जरूरी है। लेकिन आतंकवाद के नाम पर एक समुदाय विशेष के विरुद्ध वातावरण तैयार करने की साजिश का भी उतना ही विरोध भी होना चाहिए।
भारतीय संदर्भ में देखें, तो इसमें डिया, पुलिस और राजनेताओं की भूमिका संदिग्ध रही है। भारत में विगत कई वर्षों से लगातार देश के विभिन्न राज्यों की पुलिस के द्वारा आतंकवाद के नाम पर पहले से निर्धारित Targetted Goal के साथ एक समुदाय विशेष पर क्रैक डाउन का सिलसिला चल रहा है बार -बार अदालत के सामने मुंह की खाने के बाद भी इस रवैय्ये में कोई ब्दीली दिखाई नहीं देतीजिन-जिन युवाओं को कुख्यात आतंकी बता कर फ़िल्मी कहानी की स्क्रिप्ट के साथ गिरफ्तार कर वर्दी पर सितारों की गिनती बढ़ाई गयी पुस्कार जीते गए वो सब आज एक-एक कर अदालत के सामने निर्दोष साबित हो रहे हैं जिसे आधार बना कर उन युवकों को जेल की चहारदीवारी में क़ैद रखा जाता है, वो, सुरक्षा एजेंसियों और पुलिस की बनाई हुई कहानियां अदालतों की चहारदीवारी में दम तोड़ती जा रही हैं एक साल के अंदर-अंदर कई धमाकों के आरोपी अदालतों में निर्दोष साबित हुए और अदालतों ने ये स्वीकार किया है के उनके साथ अन्याय हुआ उन युवाओं की पूरी ज़िन्दगी कई-कई साल तक जेल में रखकर तबाह कर देने वाली सुरक्षा एजेंसियां अपने कुकर्मों पर सिर्फ " गलती हुई का कवच चढ़ा कर फिर दूसरे शिकार की तलाश में लग जाती हैं। इसे सियासी शब्दावली में प्रेशर पॉलिटिक्स कहा जाता है। दिल्ली पुलिस के द्वारा अंसल प्लाजा एन्कोउन्टर, बटला हाउस इंकॉउंटर घटित होने के पहले ंटे से ही संदिग्ध और फ़र्ज़ी होने की चुगली करता रहा है लियाक़त शाह की गोरखपुर से गिरफ्तारी और रेस्ट होउस में हथियार ज़ब्ती की मनोरंजक कहानी औंधे मुंह गिर चुकी है लियाक़त को एनआईए द्वारा क्लीन चिट देते हुए दिल्ली पुलिस को ठघरे में खड़ा किया जा चुका हैइस जैसे कई केसेज़ में दिल्ली पुलिस बार-बार बैकफुट पर चुकी है लेकिन पुलिस मोरल डाउन होगा जैसे जुमले की आड़ में इनके कुकर्मों को छुपाते सत्ताधारी और विपक्ष सब एकजुट हो जाते हैं। यही एकजुटता और खादी का संरक्षण ख़ाकी को एक धर्म विशेष एक समुदाय विशेष पर देश की आंतरिक सुरक्षा की आड़ में अत्याचार करने को प्रोत्साहित कर रहा है

एक मई को विभिन्न बम धमाकों के आरोप में कई वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे अपनी अँधेरी हो चुकी ज़िन्दगी का बोझ उठाते 17 नौजवान देश की अदालत में निष्कलंक और निर्दोष साबित हुए और ठीक 11 दिन बाद दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के द्वारा एक बार फिर "" इंडियन मुजाहिदीन का इरफ़ान"" नामक फ़िल्म रिलीज़ की गयीइसकी पटकथा लिखने वाले ने गिरफ्तारी के लिए उत्तर प्रदेश के बहराइच को चुना और अपराध के नाम पर 1993 में होने वाले कई बम धमाकों के आरोप का झूमर उसके माथे पर लगा कर अपनी वर्दी पर सितारों के शृंगार का प्रयास किया गया हैजिस तरह 2002 के बाद होने वाले तमाम बम धमाको को पुलिस और एजेंसियों द्वारा मुस्लिम युवकों को आरोपी बनाने की मुहि में बल देने के लिए गोधरा और गुजरात का प्रतिशोध जैसा कवच चढ़ाया जाता रहा है, उसी तरह इरफ़ान अहमद को 1993 में होने वाले बम धमाके का आरोपी बताते हुए इसे बाबरी विद्ध्वंस का प्रतिशोध बताते हुए कहानी में थोड़ा थ्रिल पैदा करने की कोशिश की गयी हैबाक़ी पूरी कहानी उसी घिसे-पिटे पुराने पैटर्न पर है
अगर आप 12 मई 2015, दिल्ली से प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान के पृष्ठ 3 को बांचने का कष्ट करें, तो आप कुछ भी नया नहीं पाएंगेहो सकता है, कुछ समय बाद इरफ़ान भी निर्दोष साबित हो जाए अगर वो दोषी है, तो उसे अदालत में कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिएलेकिन अदालत में पेशी से पहले जिस तरह हिंदी डिया ने सुरक्षा अधिकारियों के द्वारा उपलब्ध करवाई गयी जानकारी को ईश्वरीय आकाशवाणी समझते हुए गिरफ्तार युवक को परंपरागत तरीके से कुख्यात आतंकी घोषित कर दिया है क्या ये न्यायसंगत केवल इसलिए मान लिया जाए ये मामला किसी इरफ़ान का हैक्या डिया हॉउसेज़ की वातानुकूलित केबिनों में बैठे भ्रष्ट कॉर्पोरेट के वेतन भोगी कर्मचारी देश की अदालतों से भी सर्वपरि हैं, जो किसी दानिश या जावेद की गिरफ्तारी पर उसे केवल पूर्वाग्रह के आधार पर मुल्ज़िम से मुजरिम बना देने के लिए स्वतंत्र हैं
विगत आठ वर्षों में आज तक कोई हिंदी तो क्या उर्दू अखबार ऐसा नहीं मिला, जिसने साध्वी प्रज्ञा पुरोहित पांडे असीमानंद को अभिनव भारत का कुख्यात आतंकवादी लिखा हो क्योंकि यहां मालेगा धमाकों के आरोपी शब्द का इस्तेमाल होता है। सवाल क्या मौजूं नहीं कि यही मापदंड किसी इरफ़ान या किसी दानिश के साथ क्यों नहींइस देश में नियम-नीतियां सबके लिए समान हैं या जाति,, समुदाय और धर्म के आधार पर उनमे फेरबदल किया जा सकता है???? मुस्लिम है, तो आतंकवादी कहो आदिवासी है, तो नक्सली कहो ईसाई है, तो मिशन चला कर र्मांतरण करवाने वाले कहो सिख है, तो खालिस्तानी अलगाववादी कहो और देशभक्त....... केवल....
सिस्टम और इस तंत्र की जवाबदेही जनता के प्रति कब प्रायोगिक तौर पर तय की जायेगी ??? चोटी तक भ्रष्टाचार दलाली और पूंजीवादियों की गुलामी में आकंठ तक डूबा भ्रष्ट सामंती डिया कब अपने नैतिक दायित्वों के साथ न्याय करेगा..??? जनता के रक्षक कब तक इस देश में जन भक्षक कि भूमिका निभाएंगे ..?? इन प्रश्नों का जवाब कब मिलेगा..?? अगर ये सब नहीं होगा, तो आप सरकारें बदलते रहें स्तिथि ढाक के तीन पात से कुछ इतर नहीं होने वालीदिल्ली में चेहरे बदलेंगे देश नहीं.... और यही मूल कारण है के आज मंगल पर पहुँचने वाले देश में किसी दलित के घर शादी में दूल्हा घोड़ी चढ़ जाए, तो देश को सदियों से अपने द्वारा रचे गए विद्ध्वंसक पाखंड का मानसिक गुलाम बना कर रखने वाले नीच पाखंडियों को उस पर पत्थर बरसाने में देर नहीं लगती ""मंगल पर पहुँचने का गर्व"" वहीँ इस भारतीय संस्कृति और समाज पर हंसता मुंह चिढ़ाता दिखाई देता हैयह एक सच है
 
बेड़ियां टूटे हुए ज़माना हो गया,
फिर भी रुख बदला नहीं हालात का
हम कल भी तारीकियों में थे, आज भी हैं
सिलसिला बाक़ी है, अब भी रात का

(लेखक परिचय:
जन्म: 1 जनवरी 1981 को मुंगेर ( बिहार ) में
शिक्षा: मगध यूनिवर्सिटी बोधगया से एमबीए 
सृजन: कुछ ब्लॉग और पोर्टल पर समसामयिक मुद्दों पर नियमित लेखन
संप्रति: अनहद से संबद्ध
संपर्क: mfshakeb@gmail.com)



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