संध्या
कुलकर्णी की दस कविताएं
1.
अलसुबह ओस की बूंद
गिरी
माथे पर
कविता
ने ही उठाया मुझे
मां
नहीं थी,
जो उठाती।
2.
जैसे
रहते हो कई बेआवाज़ लोग यहां
निर्भर
रहते हैं,
दूसरो
की अपनी आवाज़ पर
मोहर
के लिए
जब
तक सियाही के रंग से नहीं जोड़
पाते
अपना
तारतम्य
कागज़
की खुशबू ना कर पाये जज़्ब
अपने
नथुनों में
अडोनिस
ने कहा
भाषा
आवाज़ की सुबह है
ठीक
वैसे साक्षर ना होना
जीवन
की रात ....!!
3.
गुलाब के फूलों का ये
तिलिस्मी
गुच्छा
एक
दिन जब मुरझाने पर आएगा
अपने
सुर्ख़ से रंग को छोड़ कर
ज़र्द
सियाही में बदल जाएगा
संभाले
रखने की अपनी कोशिश में
किसी
किताब के सफ़हे में दबकर
अर्क़
से दबा जाएगा,
कोई
गुमशुदा हरुफ़
और
फिर अपने माज़ी से मिलने के
लिए
मेरे
ख़यालों का दरवाज़ा खटखटाएगा
गुज़िशता
एक दिन
(वो
भी पूरा नहीं)
और
उसके कुछ ज़िंदा लम्हों को
अपने
धुंधले अक्स में छुपकर
धनक
से कई मानी
मेरी
झोली में डाल जाएगा ......!!
4.
ज़रा देर को
कोई
एक बादल का टुकड़ा
कर
सकता है अदृश्य तुम्हें
अपनी
गति के प्रमेय से बंधी
निहारती
हूँ अटल तुम्हें ...
हे
ध्रुव ....
बनी
रहना चाहती हूँ
और
भी अधिक धरती
हमेशा
के लिए।
5.
नहीं चाहिए उनको कोई बाधा
अपने
मुग़ालतों में
बहुत
सारा ख़ाली वक़्त है उनके पास
और
ढेर सारा खाना
देखने
को हैं सपने
और
कर लिया है वक़्त को ख़ाली
दिवास्वप्नों
के लिए
'इरशाद'
'वाह '
और'
मुकर्रर
'
की दिलखुश
आवाज़ों
मे गुम है उनका असल व्यक्तित्व
और
अहम के परचम थामे
स्वयंसिद्ध
होने की होड़ में गुम हैं
अपने
सफल अभिनय से
बिल्कुल
नहीं कहते....
जो चाहते
हैं
असल
में
कहने
और सोचने के फ़र्क को
दिखाई
भी नहीं देने देते
अपने
सशक्त अभिनय से वो
अपने
दोहरी शख़्सियत पर
अक्सर
लगा देते हैं ज्ञान की छौंक
तथाकथित
बुद्धिजीविता से
बस
लोभ का संवरण
बस
के बाहर है इनके
(इन्हें
पता ही नहीं .....ये
कहाँ जाने के लिए निकले थे
दरअसल)।
6.
रात और दिन
रोज़
मिलते हैं,
बिछड्ते
हैं
समय
के विनिर्दिष्ट बिन्दु पर
और
ठीक वहीं मुस्कुरा उठती है
साँझ
अपने
अस्तित्व को समेटे
इंद्रधनुषी
छटा बिखेरे,
क्षितिज
पर
लगाती
है अपनी जीवंतता
की
मोहर
अनवरत
क्रम लिए
प्रतीक्षारत
...!!
7.
सृष्टि के अंतिम छोर पर
डूबता
है सूरज
आँखों
की कोर में
भरता
अंधियारा
नहीं
डूब पाता हृदय के भीतर
जमा
हुआ तुम्हारी कौंध का सूरज
अटका
रहता सदा
जीवंतता
की मोहर लगाता
जैसे
उजागर हो जाता था सन्नाटा
चन्द्रकांत
देवताले जी की कविता
"कुछ
तो है तुम में,
जो सितार
सा बजा लेती हो
सन्नाटे
को तुम"
तुम्हारी
आवाज़ की
मृदुता
के साथ कौंधता
बजता
हुआ .....
साहिर,
खामोश
गुंजाते अपने गीत
तुम्हारे
मेरे बीच....तुम्हारे
मौन में....
तुम्हारे
विश्वास .अति
आत्मविश्वासी..
प्रश्नवाद
के उत्तर में
चिन्हित...उजियारे
के बीच
आ
खड़े होते तुम ...
ख़ैयाम
के गीत-संगीत
में
दिलराज
कौर की दिलकश आवाज़
को
गाती आवाज़ को बार-बार
सुनने
के इसरार के बीच
कौंधता
सूरज .....
हृदय
की नदी के पार .....
मुझे
खुशी है
"साहिर"
अब तक
ठहरे हैं वहीं
"ख़ैयाम
"
भी जैसे
साथ-साथ
चलते हैं
किसी
मौन के टुकड़े में
किसी
हाँ-हूँ
के बीच
और
स्वीकृति की
मृदुल
मुसकान के बीच
सूरज
जो दिखता रहा
कहीं
डूबता हुआ
दरअसल
जगह बदल
आ
ठहरता है
दिल
के बीचों बीच .....!!
8.
कितनी सारी आवाज़ों के बीच
अपनी
चिर-परिचित
आवाज़ को ढूँढना
दूभर
सा क्यों होता जा रहा है इन
दिनों
कितना
संतोष दे जाता था
एक
ही शहर में रहकर भी
कितने-कितने
दिन न मिलकर
जुड़े
रहना बातों में...
आवाज़ के
साथ
और
भर देता था कितनी बेचेनियाँ,
बदहवासियाँ
कुछ
ही समय को छोड़कर जाना शहर से
बाहर मेरा
तुम्हारे
अंदर ....
एक-एक
पल की ख़बर रखना तुम्हारी
कहाँ
हो ?
सब ठीक
है न ?
अपना
ख़याल रखना ....
तरह-तरह
के अंदेशे तुम्हारे
और
वो एहसास दूरियों का
तुम्हारी
वो शीरीं खनकदार आवाज़
और
"खाँ
यार "
कह कर
बतियाते असंख्य क़िस्से
और
तुम्हारी खिलखिलाहट में बसी
वो पुरसुकून लगावट
किस
तरह चढ़ गए है भेंट कुछ दुरभिसंधियों
के
या
महत्वाकांक्षा के पहाड़ चढ़
गिर गए हैं विस्मृति के गर्त
में
या
चढ़ गई है समय की गर्द उस अदृश्य
डोर पर
जिसने
जोड़े रखा सदा ही .....
वो
पुरशीरीं आवाज़ ढूँढती है मेरे
मोबाइल को
और
मैं ढूँढती हूँ आवाज़ को उसके
भीतर शिद्दत से
नदारद
बेचेनियों का सुकून .......!!
9.
हाँ, आओ ख़ामोश
उतर
आओ पुरसुकून
मेरे
भीतर
इन
अतल गहराईयों में
कोई
परेशानी नहीं बची रहेगी
अंतर्मन
पर पड़ने वाली
बाह्य
में घिरने वाली
कोई
मार नहीं छू सकती तुम्हें
घुटनो
में सर रख दो
और
डूब जाओ मेरे भीतर
कोई
दुश्मन अब नहीं आने वाला
कोई
विषाद छू नहीं सकेगा तुम्हें
वो
लड़ाईयां
जो
लड़ नहीं पाये तुम
वो
ढाल जो थी ही नहीं तुम्हारे
पास
वो
अस्त्र जिसे नहीं चाहा इस्तेमाल
करना तुमने
यहाँ
उपलब्ध हैं तुम्हारी सहायता
को
बस
आँख मीचो
और
उतर आओ ख़ामोश
हाँ
मैं हूँ अंधेरे में डूबी
अवसाद
की एक
अंधेरी
खोह .........!!
10.
प्रोमिथियस
क्या
तुम्हें
ये
आग नहीं दिखाई देती
जो
ज्वाला बन पेट में धधकती है
रोटी
पकाती उंगलियों में
उभर
आती है गाँठ बन
और
आँखों में उबल पड़ती है
मेरे
यक़ीन मे उतर आती है
आग
ढूँढने
तुम
कहाँ चले गए थे
प्रोमिथियस
...!
(रचनाकार:
परिचय:
जन्म
:
15 अगस्त
1965
को भोपाल
मध्यप्रदेश में। मूलत:
कर्नाटक(बंगलुरु
)
से।
शिक्षा
:
स्नातकोतर
(वाणिज्य
)Diploma
in Craetive Writing
सृजन
:
कई पत्र-
पत्रिकाओं
मे रचनाएं। आकाशवाणी से समय-समय
पर रचनाओं का प्रसारण भी।
संप्रति
:
शासकीय
संस्था में लेखाकर्म
सम्मान
:
प्रभात
साहित्य परिषद सरस्वती प्रभा
सम्मान एवं सुमित्रा देवी
पुरस्कार।
संपर्क
:
sandhyakulkarni007@gmail.com )
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी