नई
पौध के तहत 9
रचनाएं
आदित्य
भूषण
मिश्र की क़लम
से
कविता
आदततेरे प्रोफाइल परमैं रोज़ जाता हूँकई दफ़ेये आदत हैऔर ये सोचता हूँकुछ तो होगाजो बताएगा मुझेकि हाँ मुझे सोचा गया हैजैसेवो सखियाँबताती थीं तुम्हारीजब नहीं थाफोन, इन्टरनेटया कोईप्यार का मैसेजमेरे इनबॉक्स में होगाकि जैसे ख़तकबूतर लाके कोईछोड़ जाता थाछत परमगर ये सब नहीं होताबहुत नाराज़ हो शायदमगर हाँलफ्ज़ गीतों के कईया और स्टेटसतो होते हैंजो लगते हैं किशायदकह रहे हों मेरे बारे मेंवो जैसेसाथ सखियों केतुम उन जगहों पे जाती थीजहां पर बात करते थेकभी हम बैठ कर जानांऔर मैं मान लेता थाकहीं मैं हूँअभी भी दिलो ज़ेहन मेंमुझे भूली नहीं हो तुममैं अब भी मान लेता हूँमगर वो फेस जोहर बुक के पन्नों पर तुम्हारेरक्स करता थानहीं है अब तुम्हारेफेसबुक पर भीमैं फिर भीरोज़ जाता हूँतेरे प्रोफाइल पर जानां ।
क़िस्मतकल तकअपनी-अपनी खूंटियों पेटंगे हुएहमनेआज इक-दूसरे कोपहनाऔर उतारकरफिर टांग दियाइक-दूसरे की खूंटियों परटंगे रहने के लियेसदियों तकशायद टंगे रहना ही हमारी क़िस्मत है।गुलज़ार सेचाँद चुराकर तुम्हारी नज़्मों सेखेला किया है कई बारछत पे अकेलेसाथ रखकर लेट जाता हूँ,कभी यूँ भी उछाला हैउसे नाराज़गी में फिरचला जाता है वोदूर बहुत दूरजिसे फिर ढूंढता हूँकिसी कनवास पेतुम्हारेकभी रोटी की शकल मेंकभी खिड़की पे तुम्हारेतो कभी स्विमिंग पूलमें तैरता मिलता है वोफिर कोई अटका हुआ मिसराकोई उलझी हुई सी नज़्मकोई खम्भा पुराना साहलकी रौशनी टेकेतुम्हारी नज़्म में सब कुछ तो मिलता हैदुःख वो मुल्क के तक़सीमहोने काहल्ला-फ़सादों कासभी देखा है तेरी इन बूढी आँखों नेबयां करता है वो शफ़्फ़ाफ़ लफ़्ज़ों मेंमोहब्ब्बत की तेरी नज्मेंफुरक़त के तेरे अलफ़ाज़जब भी मैं पढता हूँ,सांसें चलती हैंतुम्हारी हर किताबों कोपढ़ा हैऔर पढता हूँ कभीघुटनों को रहल की सूरत बनाकरकभी छाती पे रखकर लेट जाता हूँलिखते रहेंगे लोग नज़्मेंतुम्हारे बाद भी यूँ हीमगर इसमें जो मिलती हैवो इक रूहानियतवो कहाँ होगीवो फिर नहीं होगी।नज़्म और शायरअरसा बीत चुका हैजब लिक्खी थी नाज़ुक नज़्म कोईया इठलाता मिसरा ही इकमेरी क़लमों नेऔर दर्ज हुआ करता थायूँ कागज़ पर जैसेबच्चा कोई शान से ट्रॉफी घर लाता हैपर अब न जाने रूठे हैं सबकई नज़्म के टुकड़ेया मिसरे ग़ज़लों केगुज़र तो जाते हैं बगलों सेपर वो बात नहीं करते हैंया फिर ऐसा भी होता हैअलग-अलग बिखरे रहते हैंऔर ख़याल से टकराकर फिरछू मंतर से हो जाते हैंया फिर दूर खड़े होकर तकते रहते हैंइस बेहिस, बेबस शायर कोकुछ नज़में आयीं थी मिलनेसब की सब बेशक्ल मगर थींकोई तो बे-पैराहन थींअल्फ़ाज़ का इक टुकड़ा भी गोयातन पे उसके कहीं नहीं थाकिसी किसी की रूह ही गायबबेखयाल, बेमानी से सबइक मिसरा आया और बोलाशक्ल तुम्ही बख्शा करते थेसाथ में रख लफ्ज़-ओ-ख़याल कोइक शय में ढाला करते थेहम तो जैसे थे वैसे हैंतुम कमज़ोर पड़े हो शायरफिर से खुद के अंदर झांकोतुम बेनूर पड़े हो शायरबड़ी हिक़ारत से उसने मुझको देखा थाऔर मैं बस खामोश नहीं कुछ बोल सका था।
शायदकल रातमेट्रो स्टेशन केरौशन खम्भों परफिरपतंगों को रौशनी के तअक़्कुब में देखान जाने क्यूँसालों-साल सेउन्हें पाने की चाहतजाती नहीं इनकीयाद है एक रोज़मैंने कहा था किकितना भरोसा है इन्हें खुद परकितनी मोहब्बत है रौशनी सेतो तुमनेकहा था, डांटकर मुझसे"प्रैक्टिकल" बनो,इसे भरोसा नहीं, बेवकूफी कहते हैंहासिल क्या होगाजल के मर जाएंगे सो अलगतुम सही थीमैं भी तो रोज़ मरता हूँपर भरोसा नहीं जातामैं भी बेवकूफ हूँशायद।
ग़ज़ल
1.हम तो लहरों पे बहकर इधर आ गएहमको जाना कहाँ था किधर आ गएखुद को खुद से छिपाकर रखा था बहुतआईने में मगर हम नज़र आ गएउसने अपनी क़सम देके रुख़सत कियाअश्क संभले नहीं हम मगर आ गएहक़ीक़त में गए जो मुझे छोड़करख्वाब में देखो वो लौटकर आ गएईद तब ही मनेगी मेरी ए खुदासामने दीद को वो अगर आ गएगाँव रोता रहा रुख़सती पे तो क्याछोड़ आये उसे हम नगर आ गए।2.आज मझसे जुदा हुई दुनियाजाने अब किसके घर गई दुनियाथा जहाँ से शुरू किया हमनेहाँ वहीँ ख़त्म हो गई दुनियातुमको देखा तो यूँ लगा जैसेआज भी है कहीं बची दुनियाशबे हिज़्राँ पे और क्या करताहमने आपस में बाँट ली दुनियामेरे हिस्से में कुछ तेरी आईतेरे हिस्से में कुछ मेरी दुनिया।3.मेरे ख़याल में आओ कि कोई नज़्म बुनेंयूँ मेरे ख्व़ाब जगाओ कि कोई नज़्म बुनेंठिठुर के इक ग़रीब फिर सुपुर्दे ख़ाक हुआचलो अलाव जलाओ कि कोई नज़्म बुनेंअब तो खून की होली बहुत मना ली हैदीवाली, ईद मनाओ कि कोई नज़्म बुनेंबढ़ी है भीड़ प सहरा हुआ शह्र अपनाइसे गुलज़ार बनाओ कि कोई नज़्म बुनेंहरेक ओर यहाँ दहशतों का मंज़र हैये जहाँ फिर से बनाओ कि कोई नज़्म बुनेंअब तो ऊब चूका है जहाँ से दिल अपनाकोई तो प्यार जताओ कि कोई नज़्म बुनें।
4.
रंगीनियत जो मुझको लुभाती नहीं तो क्याइस ओर अब बहार आती नहीं तो क्या
भूलना उसको न कोई फ़ौत से कम हैआती है मौत पर इधर आती नहीं तो क्याजिसको न जाना चाहिए था वो चला गयाटीस उसके जाने की जाती नहीं तो क्याहम ज़िंदगी से ही कोई दिन खेल लेंगे औरशतरंज की बाज़ी हमें आती नहीं तो क्यादर्दो ज़फ़ा के साथ मुसलसल चला हूँ मैंक्योंकर ये ज़िंदगी भी बताती नहीं तो क्या।
(रचनाकार-परिचय :
जन्म
:
18
जुलाई
1989
को
दरभंगा
(बिहार)
में।
शिक्षा
:
बीए
एलएलबी Amity Law School, Delhi
सृजन
: मैथिली और हिन्दुस्तानी में में
समान रूप से लेखन। मैथिली पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, अन्य वेब पोर्टल पर हिंदी रचनाएं प्रकाशित।
अन्य
: Amity Law School, Delhi की सांस्कृतिक पत्रिका "भोर" का २ वर्षों तक संपादन औपचारिक एवं अनौपचारिक मंचों पर काव्यपाठ।.
सम्मान : दिल्ली विश्विद्यालय एवं आई.आई.टी. में आयोजित कविता-प्रतियोगिता में
पुरस्कृत, Being poet द्वारा आयोजित ऑनलाइन कविता प्रतियोगिता में Poet Of
The Month
संप्रति
:
स्वतंत्र
लेखन
संपर्क
:
adityabhushan54@gmail.com )
2 comments: on "हरेक ओर यहाँ दहशतों का मंज़र है"
दिल जीत लिया आदित्य बाबू आपने। बेशक अच्छी कविताएं। लिखते-गुनते रहिए
बहुत- बहुत धन्यवाद. मैं पूरा प्रयास रखूँगा
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी