बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 12 मई 2015

हरेक ओर यहाँ दहशतों का मंज़र है


नई पौध के तहत 9 रचनाएं










आदित्य भूषण मिश्र की क़लम से


कविता


आदत

तेरे प्रोफाइल पर
मैं रोज़ जाता हूँ
कई दफ़े
ये आदत है

और ये सोचता हूँ
कुछ तो होगा
जो बताएगा मुझे
कि हाँ मुझे सोचा गया है
जैसे
वो सखियाँ
बताती थीं तुम्हारी
जब नहीं था
फोन, इन्टरनेट

या कोई
प्यार का मैसेज
मेरे इनबॉक्स में होगा
कि जैसे ख़त
कबूतर लाके कोई
छोड़ जाता था
छत पर

मगर ये सब नहीं होता
बहुत नाराज़ हो शायद

मगर हाँ
लफ्ज़ गीतों के कई
या और स्टेटस
तो होते हैं
जो लगते हैं कि
शायद
कह रहे हों मेरे बारे में
वो जैसे
साथ सखियों के
तुम उन जगहों पे जाती थी
जहां पर बात करते थे
कभी हम बैठ कर जानां
और मैं मान लेता था
कहीं मैं हूँ
अभी भी दिलो ज़ेहन में
मुझे भूली नहीं हो तुम
मैं अब भी मान लेता हूँ

मगर वो फेस जो
हर बुक के पन्नों पर तुम्हारे
रक्स करता था
नहीं है अब तुम्हारे
फेसबुक पर भी

मैं फिर भी
रोज़ जाता हूँ
तेरे प्रोफाइल पर जानां


क़िस्मत

कल तक
अपनी-अपनी खूंटियों पे
टंगे हुए
हमने
आज इक-दूसरे को
पहना
और उतारकर
फिर टांग दिया
इक-दूसरे की खूंटियों पर
टंगे रहने के लिये
सदियों तक

शायद टंगे रहना ही हमारी क़िस्मत है

गुलज़ार से

चाँद चुराकर तुम्हारी नज़्मों से
खेला किया है कई बार
छत पे अकेले
साथ रखकर लेट जाता हूँ,
कभी यूँ भी उछाला है
उसे नाराज़गी में फिर
चला जाता है वो
दूर बहुत दूर
जिसे फिर ढूंढता हूँ
किसी कनवास पे
तुम्हारे
कभी रोटी की शकल में
कभी खिड़की पे तुम्हारे
तो कभी स्विमिंग पूल
में तैरता मिलता है वो

फिर कोई अटका हुआ मिसरा
कोई उलझी हुई सी नज़्म
कोई खम्भा पुराना सा
हलकी रौशनी टेके
तुम्हारी नज़्म में सब कुछ तो मिलता है

दुःख वो मुल्क के तकसीम
होने का
हल्ला-सादों का
सभी देखा है तेरी इन बूढी आँखों ने
बयां करता है वो फ़्फ़ाफ़ लफ़्ज़ों में

मोहब्ब्बत की तेरी नज्में
फुरक के तेरे अलफ़ाज़
जब भी मैं पढता हूँ,
सांसें चलती हैं


तुम्हारी हर किताबों को
पढ़ा है
और पढता हूँ कभी
घुटनों को रहल की सूरत बनाकर
कभी छाती पे रखकर लेट जाता हूँ

लिखते रहेंगे लोग नज़्में
तुम्हारे बाद भी यूँ ही
मगर इसमें जो मिलती है
वो इक रूहानियत
वो कहाँ होगी
वो फिर नहीं होगी

नज़्म और शायर

अरसा बीत चुका है
जब लिक्खी थी नाज़ुक नज़्म कोई
या इठलाता मिसरा ही इक
मेरी लमो ने
और र्ज हुआ करता था
यूँ कागज़ पर जैसे
बच्चा कोई शान से ट्रॉफी घर लाता है

पर अब जाने रूठे हैं सब
कई नज़्म के टुकड़े
या मिसरे ग़ज़लों के
गुज़र तो जाते हैं बगलों से
पर वो बात नहीं करते हैं
या फिर ऐसा भी होता है
अलग-अलग बिखरे रहते हैं
और ख़याल से टकराकर फिर
छू मंतर से हो जाते हैं
या फिर दूर खड़े होकर तकते रहते हैं
इस बेहिस, बेबस शायर को

कुछ नज़में आयीं थी मिलने
सब की सब बेशक्ल मगर थीं
कोई तो बे-पैराहन थीं
अल्फ़ाज़ का इक टुकड़ा भी गोया
तन पे उसके कहीं नहीं था
किसी किसी की रूह ही गायब
बेखयाल, बेमानी से सब

इक मिसरा आया और बोला
शक्ल तुम्ही बख्शा करते थे
साथ में रख लफ्ज़--ख़याल को
इक शय में ढाला करते थे
हम तो जैसे थे वैसे हैं
तुम कमज़ोर पड़े हो शायर
फिर से खुद के अंदर झांको
तुम बेनूर पड़े हो शायर

बड़ी हिक़ारत से उसने मुझको देखा था
और मैं बस खामोश नहीं कुछ बोल सका था


शायद
कल रात
मेट्रो स्टेशन के
रौशन खम्भों पर
फिर
पतंगों को रौशनी के तअक़्कुब में देखा

जाने क्यूँ
सालों-साल से
उन्हें पाने की चाहत
जाती नहीं इनकी

याद है एक रोज़
मैंने कहा था कि
कितना भरोसा है इन्हें खुद पर
कितनी मोहब्बत है रौशनी से
तो तुमने
कहा था, डांटकर मुझसे
"प्रैक्टिकल" बनो,
इसे भरोसा नहीं, बेवकूफी कहते हैं
हासिल क्या होगा
जल के मर जाएंगे सो अलग

तुम सही थी
मैं भी तो रोज़ मरता हूँ
पर भरोसा नहीं जाता
मैं भी बेवकूफ हूँ

शायद




ग़ज़ल

1.

हम तो लहरों पे बहकर इधर गए
हमको जाना कहाँ था किधर गए

खुद को खुद से छिपाकर रखा था बहुत
आईने में मगर हम नज़र गए

उसने अपनी सम देके रुखसत किया
अश्क संभले नहीं हम मगर गए

हक़ी में गए जो मुझे छोड़कर
ख्वाब में देखो वो लौटकर गए

ईद तब ही मनेगी मेरी खुदा
सामने दीद को वो अगर गए

गाँव रोता रहा रुखसती पे तो क्या
छोड़ आये उसे हम नगर गए


2.

आज मझसे जुदा हुई दुनिया
जाने अब किसके घर गई दुनिया

था जहाँ से शुरू किया हमने
हाँ वहीँ ख़त्म हो गई दुनिया

तुमको देखा तो यूँ लगा जैसे
आज भी है कहीं बची दुनिया

शबे हिज़्राँ पे और क्या करता
हमने आपस में बाँट ली दुनिया

मेरे हिस्से में कुछ तेरी आई
तेरे हिस्से में कुछ मेरी दुनिया

3.

मेरे ख़याल में आओ कि कोई नज़्म बुने
यूँ मेरे ख्व़ाब जगाओ कि कोई नज़्म बुने

ठिठुर के इक ग़रीब फिर सुपुर्दे ख़ाक हुआ
चलो अलाव जलाओ कि कोई नज़्म बुने

अब तो खून की होली बहुत मना ली है
दीवाली, ईद मनाओ कि कोई नज़्म बुने

बढ़ी है भीड़ सहरा हुआ शह्र अपना
इसे गुलज़ार बनाओ कि कोई नज़्म बुने

हरेक ओर यहाँ दहशतों का मंज़र है
ये जहाँ फिर से बनाओ कि कोई नज़्म बुने

अब तो ऊब चूका है जहाँ से दिल अपना
कोई तो प्यार जताओ कि कोई नज़्म बुनें।


4.

इस ओर अब बहार आती नहीं तो क्या
          रंगीनियत जो मुझको लुभाती नहीं तो क्या

भूलना उसको कोई फ़ौत से कम है
आती है मौत पर इधर आती नहीं तो क्या

जिसको जाना चाहिए था वो चला गया
टीस उसके जाने की जाती नहीं तो क्या

हम ज़िंदगी से ही कोई दिन खेल लेंगे और
शतरंज की बाज़ी हमें आती नहीं तो क्या

दर्दो ज़फ़ा के साथ मुसलसल चला हूँ मैं
क्योंकर ये ज़िंदगी भी बताती नहीं तो क्या


(रचनाकार-परिचय :
जन्म : 18 जुलाई 1989 को दरभंगा (बिहार) में।
शिक्षा : बीए एलएलबी Amity Law School, Delhi
ृजन : मैथिली और हिन्दुस्तानी में में समान रूप से लेखन। मैथिली पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, अन्य वेब पोर्टल पर हिंदी रचनाएं प्रकाशित।
अन्य :  Amity Law School, Delhi  की सांस्कृतिक पत्रिका "भोर" का २ वर्षों तक संपादन औपचारिक एवं अनौपचारिक मंचों पर काव्यपाठ।.
सम्मान : दिल्ली विश्विद्यालय एवं आई.आई.टी. में आयोजित कविता-प्रतियोगिता में पुरस्कृत, Being poet द्वारा आयोजित ऑनलाइन कविता प्रतियोगिता में Poet Of The Month
संप्रति : स्वतंत्र लेखन
संपर्क : adityabhushan54@gmail.com )







Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

2 comments: on "हरेक ओर यहाँ दहशतों का मंज़र है"

bhavpreetanand ने कहा…

दिल जीत लिया आदित्य बाबू आपने। बेशक अच्छी कविताएं। लिखते-गुनते रहिए

ADITYA BHUSHAN MISHRA ने कहा…

बहुत- बहुत धन्यवाद. मैं पूरा प्रयास रखूँगा

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)