बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 31 मई 2014

हाशिए का आदमी












दिलीप तेतरवे की कविताएँ

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो रात का खिलौना
और दिन का
होता है चाकर
जिसका कोई पता नहीं होता
पर जो लापता भी नहीं होता
जिसका कोई परिचय नहीं होता
पर जिसका परिचय
बड़े बड़े लोग
बनाते और बिगाड़ते रहते हैं
और जो
हर नए परिचय में
ढल जाता है
और मरने से पहले जो
अपने सारे
परिचयों से
मुक्त हो जाता है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

2.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसकी जांघों पर
असमय
जबरन
अनेक लाल फूल
खिला दिए जाते हैं
और जो आदमी
समझ भी नहीं पाता
अचानक उग आये फूलों को
और जब वह
उन्हें समझ पाता है
उससे समझने का अधिकार ही
छीन लिया जाता है
और जिसकी आत्मा पर
महात्मागण
करते हैं योग
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

3.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसके सपनों के ऊपर
लोग अपने सपने जड़ देते हैं
और जिसके रोते हांफते ह्रदय पर
लोग घाव बना देते हैं
और उस पर नमक
छिड़क देते हैं
और जिसकी दुखती रगों पर
लोग छेड़-छाड़ करने से
कभी बाज नहीं आते हैं
और जिसे लोग
अपना काम पूरा होते ही 
एक झटके में
बाहर का रास्ता दिखा देते हैं
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है     


निराशा के पद
1.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो यह हिसाब नहीं रख पाता कि
कितनी बार उसकी साँसें फूलीं
कितनी बार उसकी आत्मा चीखी
कितनी बार उसका दिल दरका
कितनी बार उसके प्राण
कंठ में अंटके
और जिसे लोग परदे में
बेपर्दा करते हैं
और खुले में
कानी आँख से भी नहीं देखते
और जो
अपनी छोटी सी जिन्दगी में
अनेक बार मौत से सामना करते हुए
मिट्टी में मिल जाता है
और जिसकी मिट्टी पर
किसी के आंसू नहीं गिरते
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

2.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो माँगता रहा है
जन्म के बाद से ही
रोटी या मौत
और जो
इन दोनों के लिए
धारण करता रहा है
असीम/आश्चर्यजनक सहनशीलता
किन्तु
अब जो चल पड़ा है
आकाश को पृथ्वी पर लाने
उसके अहंकार को/धोने/सुखाने/मिटाने
और जो बनाने जा रहा है
अब रोटी को
सब का अधिकार
और मौत को प्राकृतिक
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है


3.

 यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो निर्दोष
हमेशा ढोता रहा है
आरोपों का पहाड़
घाघ अपराधियों के द्वारा
बनाया गया/आरोपों का पहाड़
और जो अब
आरोपों के पहाड़ को ख़ारिज कर
जा रहा है बनाने
आरोप-प्रत्यारोप से मुक्त संसार
और जो तोड़ रहा है/वह परम्परा
जिसमें/एक चोर
दूसरे चोर को
बताता रहा है डाकू
और जो सारे चोरों के लिए
बना रहा है सुधार-गृह
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है



 आशा के पद

1.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो दूसरों की कथित दया पर
कथित दानवीरता पर
रहता रहा है निर्भर
किन्तु जो अब
स्व-रचित शब्द-कोश में
दया और दान के
उचित और सात्विक अर्थ को
जा रहा है अंकित करने
और जो
समस्त छलने वाले शब्दों के
अर्थ और उद्देश्य को
तर्क और कर्म का
देने जा रहा है आधार
और जो/सम्पूर्ण भ्रष्ट-शब्द-कोश का
करने जा रहा है संपादन
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है                                 

2.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो बुनता है
सब के लिए कपड़े
और किया जाता रहा है मजबूर
निवस्त्र रहने के लिए
लेकिन
जिसने अब
बुनकरों के लिए
उनके तन ढंकने लिए
कपड़ा बुनना
सिलना
कर दिया है प्रारंभ
और जो
पुरानी वस्त्र-परंपरा को
अपनी वस्त्र-क्रांति से
कर रहा है समाप्त
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

3.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसे अब तक/कंगाल/असंस्कृत/अछूत
उचक्का/चोर आदि शब्दों से
किया जाता रहा है संबोधित
किन्तु अब जो
मंगल-दीप बन कर
है जल रहा
और कर रहा है
चिंतन-संशोधन
ऐसे शब्द-संबोधन करने वालों का.....
और जो कर रहा है दूर
समाज का मानसिक रोग
उसकी जड़ता/निष्ठुरता/कामुकता
बना कर हृदय-हृदय को संवेदनशील
और जो है जगा रहा
सुप्त-मन को
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

4.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसे बचपन में ही
चल गया था पता कि
उसे बचपन में ही हो जाना है बड़ा
ताकि वह/चुका सके
अपनी जिंदगी की कीमत
रोज पिस कर/रोज लुट कर
रोज मर कर
किन्तु जो अब/निकल पड़ा है
हर झुग्गी में
दीप जलाने/लक्ष्मी बुलाने
रंगोली रचने 
अन्न का थाल सजाने
सूखे होठों पर/लालिमा बिखेरने
और जो पहचान से वंचित हैं
उनको पहचान दिलाने
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है                                    

5.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिससे लोग
बदलते रहते हैं रिश्ते
दिन में कुछ और
रात में कुछ और
लेकिन जो/अब अपना रिश्ता
पूरी दुनिया से
बना रहा है
बराबरी पर
और जिसके रिश्ते की बुनियाद का
सदियों बाद
आयी है मानवता
करने स्वागत
और जो हर लावारिस के जनक को
जा रहा है करने खड़ा
समाज में
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

6.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो तपते-तपते
वाष्पिभूत हो गया
बादल बन गया
और उस बादल में अमृत भर गया
और अब वही अमृतमय बादल
निकल पड़ा है
दलितों, शोषितों और पीड़ितों पर
अमृत बरसाने
और जो
गरज-गरज कर
गा रहा है जागरण का गीत
और जिसका साथ दे रहे हैं/हजारों कंठ    
और जिसके साथ
अलमस्त है/झूम रहा है
आबादी का अस्सी प्रतिशत
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

                                  
7.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिस पर रहा है समय
सदा प्रभावी/सदा शासक
घड़ी की हर टिक-टिक
जिसकी धड़कनों को
करती रही है और तेज और तेज
लेकिन/जिसने अब
पकड़ ली है वह गति
जो बहुत अधिक है/समय की गति से
और जो पाट रहा है हजारों साल का अंतराल
जिन हजारों साल में/हाशिए के आदमी
जकड़ दिए गए थे
अधार्मिक बंधनों में
निबंधित गरीबी और जिल्लत में
और जो अब
समाज को मुक्त करने जा रहा है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

 8.

यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो है
बिल्लियों के उस समाज का
एक चूहा
जिस समाज में/चूहे की मौत होती है 
तो बिल्लियों का खेल होता है
लेकिन वही चूहा
अब लोहे के जाल को काट कर
अधिकार युक्त आदमी बन कर
चल पड़ा है
बिल्लियों को आदमी बनाने
उनकी उग्रता मिटाने
उनकी हिंसा मिटाने
उनकी नीचता मिटाने
और जो बिल्लियों को बताने चला है
कि चूहा भी क्रांति कर सकता है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है

                                    

(कवि-परिचय-

जन्म: 5 फ़रवरी 1951
शिक्षा :
सृजन: रचनाएं: कहानी, नाटक, धारावाहिक नाटक, व्यंग्य आलेख, कविता, बाल कहानियां, बाल नाटक आदि विभिन्न पत्र प्रत्रिकाओं में प्रकाशित/आकाशवाणी, दूरदर्शन और गीत और नाटक विभाग द्वारा प्रसारित. एक काल खंड की यात्रा(व्यंग्य उपन्यास), हाशिए का आदमी और तुम बादल हो (काव्य), बिरसा की महागाथा(नाटक), सिंगिदई की गाथा(गीत नाटिका), बिरसा की अमर कहानी (काव्य), हमारे पुरखे (ऐतिहासिक कहानी), धारावाहिक नाटक: मैडम शा के अफ़साने, मन की खिड़की और किलकारी, 1857 के शहीद नीलाम्बर और पीताम्बर पुस्तके प्रकाशित
अन्य : आईआईएम, रांची के शैक्षणिक फिल्म, ‘बेयर फुट मैनेजर’ के लिए स्क्रिप्ट लेखन,
पुरस्कार: झारखण्ड रत्न-2008(साहित्य)
संप्रति:  रांची में रहकर अनवरत मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन ।
संपर्क: diliptetarbe2009@gmail.com)
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बुधवार, 28 मई 2014

सुनो ! देश-दुनिया के नेताओं सुनो



चित्र गूगल कृपा

(प्रिय पाठकों ! विनम्र आग्रह है कि लेख को पूरा पढ़ें , तभी अपनी कोई राय बनाएं। आतंकवाद से हर देश और हर व्यक्ति प्रभावित है. इसको नष्ट करने के लिए सभी के ईमानदार साथ की ज़रूरत है. )




शहरोज़ की क़लम से

 "11 साल जेल में आतंकवादी बनकर जिस कोठरी में रहा, वह इस घर से बड़ी थी लेकिन वहां मैं एक ज़िंदा लाश था और सिर्फ़ इस उम्मीद पर ज़िंदा था कि जिस देश का मैं नागरिक हूं, उसका क़ानून पूरी तरह अंधा नहीं है और मुझे इन्साफ मिलेगा." यह कहना है आदम सुलेमान अजमेरी का जो 17 मई, 2014 को जेल से बाहर आए हैं. उन पर अक्षरधाम मंदिर हमले में शामिल  होने का आरोप था और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन पर लगे सभी आरोप ख़ारिज कर दिए और उन्हें बाइज़्ज़त रिहा कर दिया. उनके साथ इस मामले में इनके समेत छह लोग रिहा हुए  हैं. ग़ौरतलब है कि  24 सितंबर, 2002 को दो हमलावरों ने अक्षरधाम मंदिर के भीतर एके-56 राइफल से गोलियां बरसाकर 30 लोगों की जान ले ली थी, जबकि लगभग 80 को बुरी तरह ज़ख्मी हो गए थे.

अब सवाल क्या मौज़ूं नहीं कि दोषी को हम अब तक क्यों नहीं पकड़ सके. हमारा तंत्र इतना बौना क्यों हो गया. इधर,  पुलिस ने वाह-वाही बटोरने के चक्कर में इन लोगों की ताबड़ तोड़ गिरफ़्तारी की. और इन्हें प्रताड़ित कर इनसे जबरन अपने अनुकूल बयान ले लिए.  इन्हें लश्कर-ए-तय्यबा का खूंख्वार आतंकवादी घोषित कर दिया। इसके बाद शुरू हुई इन बेकसूरों के घर वालों की परेशानी। बच्चे को घर से बहार निकलना छूट गया. उनकी  पढ़ाई छूट गयी. माँ बिलखते-बिलखते चल  बसी.  अब जब देश की सर्वोच्च अदालत ने इन्हें बा इज़्ज़त रिहा कर दिया, तो इनकी प्रताड़ना,  मानहानि, रोज़गार छूटना, बच्चों की पढाई और इस दरम्यान अपनों की मौत इसका हर्जाना कौन देगा। ऐसे मामलों  में मीडिया वाले भी कम दोषी  नहीं हैं.   ऐसी ख़बरों को पुलिस के हवाले से नमक-मिर्च लगा लगाकर छापते हैं. रोज़ नए-से-नए खुलासे करने में टीवी एंकर अपनी गर्दनें फुलाते हैं. आरोपी को तुरंत ही आतंकवादी बना देना। जबकि यह पत्रकारीय मूल्यों के विरुद्ध है.
आतंक ने विश्व में लाखों निर्दोष बुज़ुर्ग, स्त्री और बच्चे, युवाओं को हलाक किया है. भारत और पाकिस्तान भी इसकी हिंसा से दो-चार है. भले, हमारा सुरक्षा अमला सही दोषियों को नहीं दबोच सका हो(अधिकतर मामले में ऐसे आरोपी कोर्ट से रिहा हो चुके हैं ). लेकिन नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति नवाज़ शरीफ़ ने जिस गर्मजोशी के साथ मुलाक़ात की. आतंकवाद के ख़ात्मे का संकल्प लिया। महाद्वीप  के दोनों दिग्गजों से यह गुज़ारिश है कि यह संकल्प धरा पर भी उतरे।

नवाज़ से गुज़ारिश
नवाज़ साहब! कोई बहाना मत कीजियेगा। सब जानते हैं कि भारतीय उप महाद्वीप में लश्कर-ए-तय्यबा और तालीबानी ग्रुप आतंक को अंजाम दे रहा है. पाक को अपने यहां के कैंप को ध्वस्त करना चाहिए। आपको अपने यहां लोकतंत्र को मज़बूत करना होगा ताकि सरकारी काम-काज में फ़ौजी दख़ल कम हो. क्योंकि कई बार ख़बरें मिली हैं कि कश्मीर के बहाने आपकी फ़ौज आतंकवादियों की मदद लेती है.  आतंकवाद को मटियामेट करने के बाद ही हम अच्छे पड़ोसी बन सकते हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी विरासत साझा है.

 मोदी से आग्रह
मुल्क के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आग्रह है कि आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए बेहद ईमानदारी से प्रयास किये जाएँ। दहशतगर्दी फैलाने वालों को सख्त से सख्त सज़ा मिले। लेकिन सरकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि इसमें निर्दोष युवा बलि का बकरा न बने. यदि संदेह के आधार पर पुलिस किसी को हिरासत में ले या गिरफ़्तार करे तो मीडिया तुरंत उसे आतंकवादी या मास्टर माइंड बतलाने की हड़बड़ी न दिखाए।

 हम जैसे ढेरों लोग भारत-पाक की दोस्ती के हिमायती हैं. हमें आस है कि आप दोनों जल्द ही साझी रणनीति बनाकर आतंकवाद के बनते गढ़ों को ज़मींदोज़ कर  देंगे।  

अरब के शेख़ों कान तुम्हारे भी खुलें
संसार में इस्लाम के नाम पर जहाँ-जहाँ भी आपके कथित जिहादी खूंरेज़ी कर रहे हैं, उनमें सभी अहल-ए -हदीस विचारधारा के समर्थक हैं. यह कोई ढंकी-छुपी बात नहीं रह गयी कि आप अपने गुनाहों को ढंकने के लिए इनकी आर्थिक मदद करते हैं. आपके यह जिहादी हमारे पढ़ने वाले युवाओं को वर्गला कर जन्नत का ख्वाब दिखाते हैं. फिर उसके पासपोर्ट वीज़ा की शक्ल में उस मासूम की कमर में खुदकश बम बाँध देते हैं. इससे वह भले जन्नत में न जाते हों, लेकिन कई नस्लों को जहन्नुम के हवाले ज़रूर कर जाते हैं. तो शेख साहब! अब अय्याशी छोड़िये। तेल के कुंए  ज़्यादा दिन काम नहीं आएंगे। बच्चों को पढ़ाइये। हमारे बच्चों को भी पढ़ने दीजिये। इस्लाम की गलत व्याख्या कर फ़िज़ूल ख्वाब मत दिखाईये।

अंकल सैम कब होगी चौधराहट कम
अफगानिस्तान से रूस की दखल कम करने के लिए आपने अरब और पाकिस्तान के गुरगुओं की बदौलत दहशतगर्दों को जन्म दिया। उसे  खुराक देनी शुरू की. उसे हथियार देने के साथ ट्रेनिंग भी दी. अब जब रूसी फौजी अफगानिस्तान से चले गए तो वहाँ की बदहाली शुरू हो गयी. समाज कूपमंडूक होने लगा. हँसते बच्चे, खिलखिलाते युवाओं का स्कूल- कालेज जाना बंद हो गया. लडकियां क़ैद कर दी गयीं। आपके परवरिश से परवान चढ़े तालिबानी आपस में ही मरने-कटने लगे. जब आपने रसद बंद कर दी, पाक ने हमदर्दी, तो ज़ाहिर है, उसने आपको ही डसने को फन काढ़ लिया। ट्विन टावर नेस्ट नाबूद होने के बाद आपने मिटटी के बुर्ज़ों को ढहाना शुरू किया। अनगिनत बेक़सूर बमबारी के ग्रास बने. फिर लाशों को रोटियां खिलाने की क़वायद।
अंत में आपने लोकतंत्र के नाम पर हामिद करज़ई की कठपुतली सरकार बनवायी। खैर! क़िस्साकोताह यह है कि इराक़, लीबिया, वियतनाम और अफगानिस्तान में आपको लोकतंत्र की याद आती है. आपका मानवाधिकार अरब पहुँच कर क्यों सजदे करने लगता है. यहां एक वंश की बादशाहत आपकी नींद ख़राब क्यों नहीं करती। और आपकी खुफिया यह भी तो जानती है कि शिक्षा संस्थानों के नाम पर यहां के शेख इन आतंकवादियों को रक़म भी मुहैय्या कराते हैं. विश्व मुखिया बनने के लिए इन्साफ पसंद बनना होगा। ऐसी चौधराहट तुम्हारी ज़्यादा दिनों तक नहीं  चलने वाली, अभी भी चेत जाओ.       
    
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रविवार, 25 मई 2014

क्यों लिखूं मैं क्रांति भला?














सुचित की क़लम से 



  मेरा प्रेम, मेरी भावनाएं, मेरी अभिव्यक्ति

1.

क्यों लिखूं मैं क्रांति भला?
अपनी नर्म गर्म रजाई में प्रेम के कुनकुने स्वप्नों के बीच
मेरी दुनिया तो झील सी आँखों से नर्म होठों तक है

फुटपाथ वालों की ठण्ड मुझ तक नहीं पहुँचती
मेरे पास होता है मतलब भर पैसा हर पहली तारीख
मेरी दुनिया पीवीआर की फिल्मों और डोमिनोज के पिज़्ज़ा तक है
मैंने किसी का कुछ नहीं छीना
मुझे सड़क पर कूड़ा बीनते बच्चे नहीं दिखते
मेरी दुनिया मेरे बच्चों के मंहगे स्कूलों तक है.

क्यों लिखूं मैं क्रांति भला?

मेरी जिदगी हाई वे पर है.
मेरा प्रेम, मेरी भावनाएं, मेरी अभिव्यक्ति

 क्यूँ लिखूं मैं क्रांति भला ??

2.

उन प्यासे पलों में गूंजती तुम्हारी साँसों की सरगम..
मेरी रूह..क़तरा -क़तरा पीती है
ह्रदय और आत्मा के साथ.
जब सम्पूर्ण देह प्रेम की भाषा बोलने लगती है
बहुत पास आ कर हम
प्रेम में बहुत दूर निकल जाते हैं
‘मैं’ और ‘तुम’ हटा कर
सिर्फ ‘हम’ बचते हैं
लयबद्ध..निर्वाण को प्राप्त करते हम
धीरे-धीरे किसी और आयाम में चले जाते हैं
जीवन अपनी तीव्रतम गति में आ कर ही ठहर जाता है
उफ़..
उलझी साँसों में सब कितना उलझा उलझा है.
भाव भी,शब्द भी..शायद जीवन भी..
लेकिन यही उलझन सब सुलझा देगी.
शायद..

3.

वर्ण माला ..
उन्हें ‘क’ से ‘कलम’ पढने दो,
कहीं उन्होंने ’क’ से ‘क्रांति’ पढ़ ली..
तो वो ‘ख’ से ‘खरगोश’, ‘ख’ से ‘खतरा’ बन जायेंगे..
उनके ‘ग’ से ‘गर्दिश’ रहने दो..
कहीं वो ‘ग’ से ‘गरिमा’ पढ़ बैठे तो..
फरियादों के ‘घ’ से ‘घंटे’..जन चेतना के ‘घोष’ में न बदल जाएँ..

‘च’ से ‘चंचल’ रहने दो,कहीं ‘च’ से ‘चयन’ सीख लिया तो..
कहीं ‘छ’ की ‘छतरी’ तुम्हारी मान्यतायों को ‘छल’ न ले..
‘ज’ से ‘जड़’ रहने दो..
कहीं ‘ज’ से ‘जलना’ सीख लिया तो..
तुम्हारे ‘झ’ से ‘झूठ’..
हिल न जाएँ उनके ‘झंझावात’ से..

‘ट’ से ‘टलते’ रहने दो उन्हें..
कहीं ‘ट’ से ‘टक्कर’ सीख ली तो..
कहीं ‘ठ’ से तुम्हारे ‘ठहाके’,’ठ’ से ‘’ठहर’ न जाएँ..

बदलने मत देना यह वर्ण माला..
कहीं यह बदल गयी तो सब बदल न जाये..

4.

ऐसे थोड़े होता है..
प्यार कोई फेसबुकिया बहस थोड़े है..
मूड मौका देख कर..
हुयी हुयी न हुयी..
मैं, किसी प्रियजन द्वारा जबरदस्ती tag की तस्वीर नहीं..
जिसे खीझे मन से like करो..
न मैं बहुमत समर्थित पोस्ट पर असहमति का comment..
जिसे लोकतान्त्रिक मूल्यों के नाम पर..
अनमने भाव से appreciate करना पड़े तुम्हे..
मैं नहीं तुम्हारी profile pic या cover photo..
जो वक़्त के साथ बदल जाये..
मैं तो बस रहना चाहता हूँ..
तुम्हारे फेसबुक login का email..
छुपा..और अपरिहार्य..
तुम्हारे लिए..जब तुम्हे जरूरत हो मेरी..
बस इतना करना..log in id change मत करना ..

                      
5.

प्रेम..
मैंने कब रचा था तुम्हें..
इस स्थूल में सूक्ष्म का संचार तो तुम ही कर गए थे..
मेरी प्राण प्रतिष्ठा तुमने ही की थी..

मैंने नहीं दिए कभी कोई शब्द विन्यास..
नहीं रची कभी कोई कविता तुम पर..
अनुभूतियों के वाहक..
सब भावों के प्रणेता तुम ही तो तो थे..
सब शब्द तुम्हारे ही थे..

अपूर्ण स्वप्नों और अतृप्त इच्छायों के बीच..
अकल्पनीय,मधुरतम क्षणों के बीच..
तुम ही तो ..
यत्र तत्र सर्वत्र..

मैं हूँ ही कहाँ ..प्रेम..
संभवतः एक वाहक मात्र..
आभार तुम्हारा..
मेरे अस्तित्व में जीवन के संचार के लिए..

6.

एक टुकड़ा चांद..एक टुकड़ा नदी..
और कुछ चांदनी की बात..
एक टुकड़ा ख़ुशी..एक टुकड़ा गम..
और कुछ जिन्दगी की बात..
एक टुकड़ा मैं..एक टुकड़ा तुम..
और कुछ आशिकी की बात..
एक टुकड़ा वक़्त..एक टुकड़ा तकदीर..
और कुछ आवारगी की बात..
एक टुकड़ा वफ़ा..एक टुकड़ा तन्हाई..
और कुछ दीवानगी की बात..
एक टुकड़ा जमीं..एक टुकड़ा आसमाँ..
और कुछ तिश्नगी की बात..

7.

हाँ,दर्द होता है मुझे अभी भी..
और मानने में कोई शर्म भी नहीं..
दिल करता है तो थोडा रो लेता हूँ..
अधूरे सपनों में खो लेता हूँ..

मुझे इस दर्द को बहलाना नहीं है..
न सिद्धांतों के पीछे छुपाना है..
न दिव्य प्रेम का आवरण देना है..
न ही मैं इसे रचना की शक्ति बनाना चाहता हूँ..

मैं चाहता हूँ इसको स्वीकार करना..
इस से गुजरना ही सही लगता है..
मैं साधारण मानव हूँ और..
साधारण प्रेम करना चाहता हूँ..

अलौकिक प्रेम की चाह नहीं है मुझे..
मैं तुम्हे चाहता हूँ..
तुम्हारा साथ चाहता हूँ..
तुम्हारा स्पर्श भी..

तुम्हारी बातें सुननी हैं मुझे..
तुम्हारे हाथों को हाथ में लेना है..
तुम्हारी गोद में सर रख कर सोना भी चाहता हूँ..
तुम्हें बार बार परेशान करती उस एक लट को..
बार बार हटाना है मुझे..

मुझे चाहिए तुम्हारी हर रोक टोक..
तुम्हारा गुस्सा तुम्हारा रूठना..
और तुम्हे मनाना भी चाहता हूँ मैं..
चाहे बेसुरा गाना गा कर ही सही..

मुझे नहीं करना है कोई त्याग..
मुझे नहीं बनना है महान..
मैं साधारण मानव हूँ..
साधारण प्रेम चाहता हूँ..

8.

आओ कुछ बदलाव लाये
सूरज की तपिश कुछ कम करें

चाँद की चांदनी कुछ बढ़ाएं
आओ..कुछ बदलाव लायें.


हाथ बढ़ाएं तो पहुँच में हो

आसमां को इतना नजदीक लायें
हर आंसू पोंछ दें..हर चेहरे पे मुस्कान सजाएँ
आओ कुछ बदलाव लायें.


हर खेत में हरियाली हो

हर मेहनत में बरकत हो
छोटी छोटी खुशियों से हर जिन्दगी सजाएँ
आओ कुछ बदलाव लायें.


अन्याय का नाम मिटा दें

एक नयी दुनिया बनायें
फूलों के रंग संवारें ..चिड़ियों के साथ गायें
आओ कुछ बदलाव लायें


कुछ कुछ बचपना करें

कुछ कुछ बड़प्पन भुलाएँ
इन्सान से इन्सान के बीच का भेद मिटायें
आओ कुछ बदलाव लायें..







(कवि-परिचय:
जन्म: 7 दिसंबर 1981  को इलाहाबाद में
शिक्षा: 'आंग्ल भाषा' और 'राजनीती शास्त्र ' से कला स्नातक, रूहेलखंड विश्विद्यालय से
सृजन : 'स्त्री मुक्ति' की पत्रिका में दो कवितायेँ प्रकाशित
संप्रति :  इलाहाबाद में ही एक फार्मास्यूटिकल कम्पनी में रीजनल मैनेजर
अन्य: 'स्त्री मुक्ति संगठन' के सदस्य के रूप में विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय
संपर्क:suchhitkapoor@gmail.com )






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शनिवार, 24 मई 2014

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले अब तक कहां छुपे थे भाई: फ़हमीदा

चित्र गूगल से साभार


लड़कियों को इंजॉय करने की समाज इजाज़त नहीं देता

फ़हमीदा रियाज़ @ डॉ. शाहनवाज़ आलम

पहली नज़्म पंद्रह साल में, मजमुआ छपा जब 22 की हुई 
जब मैं पंद्रह साल की थी, तभी कालेज के दिनों में एक नज़्म लिखी थी. जिसको मेरे दोस्तों ने बहुत सराहा. दोस्तों की ही जिद़ पर मैंने यह नज़्म पाकिस्तान के उस ज़माने के मशहूर रिसाला ‘फूनून’ में छपने के लिए भेजा. जिसके संपादक मशहूर अफ़साना निगार व शायर अहमद नदीम क़ासमी थे. पहला संग्रह ‘पत्थर की ज़बान’ 1968 ईं. में छपा, तब मैं 22 साल की थी. मेरे शादी को सिर्फ दो महीने हुए थे.

28 जुलाई 1946 को मेरठ में जन्म
मैं 28 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में पैदा हुई. मेरे वालिद रियाजुद्दीन अहमद जदीद दौर के माहिरे तालीम थे. उन्होंने सिंध पाकिस्तान में इस सिलसिले में ज़बरदस्त काम किया. वह वहां जदीद तालीम के बानी माने जाते हैं. जब मैं चार साल की हुई तो वालिद साहब का इंतेक़ाल हो गया. वालिदा हुस्ना बेगम ने परवरिश की. उन्होंने बड़ी ही जद्दोजहद से हम लोगों को पढ़ाया. सिंधी और उर्दू मीडियम से मैंने पढ़ायी की और इन दोनों ज़बानों में शायरी भी. बाद में मैंने फ़ारसी और अंग्रेजी भी सीखी. कालेज के दिनों में ही मैं पाकिस्तान रेडियो मंे न्यूज कास्टर की हैसियत से काम करने लगी.

शुरुआती एक नज़्म
मेरी चमेली की नर्म खुश्बू
हवा के धारे पर बह रही है
हवा के हाथों में खेलती है
तेरा बदन ढूंढने चली है
मेरी चमेली की नर्म खुश्बू
मुझे तो ज़ंज़ीर कर चुकी है
उलझ गयी कलाईयों में
मेरे गले से लिपट गयी है
वह याद की कुहर में छुपी है
सियाह खुन्की में रच गयी है
घनेरे पत्तों में सरसराते
तेरा बदन ढूंढने चली है।

जामिया और जेनयु में  विज़िटिंग प्रोफ़ेसर
ग्रेजुएशन के बाद मेरी शादी हुई. एक बेटी हुई, कुछ सालों बाद तलाक़ हो गया. उस वक्त मैं बीबीसी उर्दू प्रोग्र्राम से मुंसलिक हो गयी थी. इसी दौरान मैंने फिल्म मेंकिग में डिग्री हासिल की. कराची में एक एडवरटाइजिंग एजेंसी खोली और एक उर्दू प्रकाशन ‘आवाज़’ नाम से शुरू किया. उन्हीं दिनों जफ़र अली उज़ान से मुलाक़ात हुई. वह एक लेफ्टिस्ट पॉलिटीकल कार्यकर्ता थे. हम लोगों ने एक दूसरे को पसंद किया और शादी कर लिया. इनसे दो बच्चे हुए वीरला अली उज़ान, कबीर अली उज़ान (मरहूम). हमारे पब्लिकेशन ‘आवाज़’ में लिबरल और राजनैतिक किताबों की खबर लोगों तक पहुंची. लोगों ने खूब बवाल मचाया और कई तरह के मुकदमे हम पर डाल दिए गए थे. मुक़दमे जफ़र पर भी थे. ब्रिटिश ऐक्ट 124ए के तहत मुकदमें चले. मैं आवाज़ की एडिटर और पब्लिशर थी. ज़फर जेल चले गये. हमें हमारे चाहने वालों ने जेल जाने से पहले ही जमानत पर रिहा करवाया और मैं अपने दो छोटे बच्चों और बहन के साथ हिन्दोस्तान आ गयी. बाद में जेल से छूटकर ज़फ़र भी हिन्दोस्तान आ गये. मैंने यहां सात साल गुज़ारे. इस दौरान जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर  की हैसियत से काम किया.

पीएम बनते बेनज़ीर ने बुलवा लिया
फिर बेनज़ीर भुट्टों के शादी के मौके से हम लोग पाकिस्तान गए. जब बेनज़ीर भुट्टों पहली बार प्रधानमंत्री बनीं तो हमें नेशनल बुक फाउंडेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया. नवाज़ शरीफ सरकार ने हमें हिन्दोस्तानी एजेंट और बहुत सारे इल्जाम से नवाज़ा. जब बेनजीर भुट्टों दूसरी बार वज़ीरे आज़म बनी तो मुझे क़ायदे आज़म एकेडमी का चार्ज दिया गया. इसी दौरान मेरा बेटा कबीर अक्टूबर 2007 ई. में अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने गया और स्विमिंग के दौरान हादसे का शिकार हुआ. 2008 में मैंने मौलाना रोमी की पचास नज़्मों का तर्जुमा फ़ारसी  से उर्दू में किया. यह मसनवी मौलाना जलालुद्दीन रोमी ने अपने शेख शम्स तबरेज़ को डेडीकेट किया है. मैं 2000 से 2011ई. तक उर्दू शब्दकोश बोर्ड की मैनेजिंग डायरेक्टर भी रही. मैंने सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में भी काम किया. मैंने सिंध यूनिवर्सिटी में एम.ए के दौरान छात्र राजनीति में हिस्सा लिया. मैंने यूनिवर्सिटी संविधान के खिलाफ खूब लिखा. जनरल अयूब खां के जमाने में छात्र राजनीति पर पाबंदी लगा दी गई. जनरल ज़िया उल हक़ के ज़माने में हमें बहुत ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ा.

पत्थर की ज़बान से हम रिकाब तक लम्बा सफ़र
जो मन में आता है लिख देती हूं. बाद में कई बार लोग बुरा-भला भी कहते हैं जिससे तकलीफ़ होती है. एक लड़की होना हमारे समाज में एक ऐसी चीज़ है जो समझ से परे है. लड़कियों को इंजॉय करने की समाज इजाज़त नहीं देता. मैं तो कुछ लिख भी देती हूं, लेकिन समाज अभी भी दकियानूसी दौर में जी रहा है. कई  किताबें शाया हुईं . ‘बदन दरीदा’, पत्थर की जब़ान, ख़ते मरमूज़, गोदावरी नावेल, क्या तुम पूरा चांद न देखोगे, कराची, गुलाबी कबूतर, धूप, आदमी की ज़िन्दगी, खुले दरीचे से, हलक़ा मेरी जंजीरों का, अधूरा आदमी, पाकिस्तानी लिट्रेचर और सोसायटी, क़ाफिला परिंदो का, ये खाना-ए-आबो-गिल, दरीचा-ए-निगारिश, हम रिकाब आदि. इसमें शेरी मजमुए, नाविल, सफरनामे और तर्जुमें वग़ैरा शामिल है.

तब दंगों का बाज़ार गर्म था, आडवानी थे रथ यात्रा पर
परेशानी ही परेशानी थी, लेकिन यहां मेरे दोस्तों ने संभाला. खासतौर से जनवादियों ने डी.पी.त्रिपाठी साहब ने उस वक्त मेरी बहुत मदद की. पहले वह कम्यूनिस्ट पार्टी में थे. अब शायद पार्टी बदल ली है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों का बाज़ार गर्म था. आडवानी साहब रथ यात्रा निकाल रहे थे. गुलाम ख्बानी ताबां, डी.पी.त्रिपाठी और मैं पश्चिम उ.प्र. के दौरे पर गए. जिस तरह के खून खराबे से हम सिंधी मजबूर थे. उसी तरह के हालात पैदा हो गये थे.

ज़िन्दगी का सबसे मुश्किल दौर
 मैं हिन्दोस्तान इसलिए आयी थी कि यह एक सेक्युलर मुल्क है, लेकिन यह सब ख्वाब था. मैंने यहां के सांप्रदायिक माहौल पर एक नज़्म ‘नया भारत’  लिखी।  इस पर इतना बड़ा हंगामा हुआ कि पूछिये मत. दो दिन बाद मेरी फ्लाइट थी. मैं सोच नहीं पा रही थी कि क्या करूं. फिर मैं पाकिस्तान वापस चली गयी. वह नज़्म हमें कुछ कुछ याद आ रही है.
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई।
वह मुरखता वह घामड़पन,
जिसमें हमने सदियां गंवायी।
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे,
अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है,
कायम हिन्दू राज करोगे।
सारे उलटे काज करोगे,
अपना चमन ताराज़ करोगे।
तुम भी बैठे राज करोगे,
सोचा कौन है हिन्दू, कौन नहीं है।
तुम भी करोगे फ़तवा जारी,
अरे बधाई बहुत बधाई।
एक जाप सा करते जाओ,
बारम-बार यही दुहराओ।
कितना वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था भारत।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
अरे बधाई बहुत बधाई

इस नज़्म को मेरे दोस्त खुशवंत सिंह जो एक सीनियर सहाफ़ी भी हैं (अब दिवंगत ) ने अंग्रेजी में तर्जुमा करके अंग्रेजी अख़बारात में प्रकाशित कराया.

पाकिस्तान में साहित्य ज़्यादा, पर कुछ कर रहे मज़हबी सियासत 
पाकिस्तान में अदब में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. मैं समझती हूं कि हिन्दोस्तान से ज़्यादा, क्योंकि वहां की ज़रूरत है. हिन्दोस्तान में जितनी आज़ादी औरतों को हासिल है, पाकिस्तान में नहीं है. मैंने समाजी, सियासी नाइंसाफी के खिलाफ़ खुलकर आवाज़ उठायी और बहुत कुछ लिखा. पाकिस्तान में मजहबी ग्रुप बहुत ज़्यादा हावी है. बार-बार फौज़ी हूकूमतें आ रही हैं, मार्शल ला लग रहा है, जम़हूरियत की धज्जियां बिखेरी जा रही है? हां! यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है. कुछ लोग है जिन्हें असल मज़हब के मायने नहीं पता है. इन लोगों को कौन बताये कि मज़हब लोगों को अलम करने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को जोड़ने के लिए आया है. यही सोच मार्क्स का भी है सांप्रदायिक सदभाव और मार्क्सवाद असल में एक ही चीज़ है. दोनों इन्सान को इन्सान बनाना सिखाता है और समाजी बराबरी की सीख देता है.


मज़हबी शायर की किताब का तर्जुमा
मार्कसी होने का मतलब नाज़ी के सारे फ़साने का ठुकराना हो ऐसा नहीं होना चाहिये. सज्जाद ज़हीर जब जेल में रखे गये तो उन्होंने ‘हाफ़िज़’ पर किताब लिखी, सरदार ने इक़बाल पर मैंने मौलाना रूमी पर लिखी तो कौन सी बुरी बात हुयी.

अदीबों की अमनो, अमान के लिए कोशिशें

अफगानिस्तान के हालात दूसरे हैं, अभी तो पाकिस्तान की ही हालत ठीक नहीं है. मजहबी ग्रुप हावी है. अफगानिस्तान में तालिबान की ज़ालिमाना हरक़त को पूरी दुनिया जानती है. उन्होंने वहां के तारीख को मिटाना चाहा. ‘बुद्ध’ जो शान्ति की अलामह है, उनकी मूर्ति को खाक में मिला दिया. इस पर मैंने एक नज़्म लिखी थी.
मोजस्सेमा गिरा
मगर ये दास्तां अभी तमाम तो नहीं हुयी
दिया कई बरस तैय हुये
लिखेगा दिन को आदमी
बरंगे आबो जुस्तजू
वह हुस्न की तलाश में
वह मुन्सफ़ी की आस में
खुली है सड़क खुल गयी दुकां में कितना माल है
दुकां में दिलबरी नहीं
मकां में मुन्सिफ़ी नहीं
अभी तो हर बला नयी
अभी है काफ़ले रवां
गुलों मेें नस्ब है निशा।
मुजस्सेमा गिरा मगरजमीं पे
ज़िन्दगी दुकां के नाम पर नहीं हुई
हमारी दास्तान अभी तमाम पर नहीं हुयी.

 हिन्दोस्तान और पाकिस्तान के रिश्ते
दोनों तरफ की अवाम अमन चाहती है. दोनों मुल्कों को चाहिये कि  आसानी पैदा करें. कश्मीर तनाज़े का शांतिपूर्ण हल निकाला जाये. दोनों मुल्क अपने सैन्य वजह में कमी करके आम जनजीवन के लिए काम करें. दोनों मुल्कों को एक दूसरे की टेक्नोलाजी से फायदा उठाना चाहिये. अंतरराष्टीय अमन और एलाक़ाई अमन के लिए सार्क मुल्कों की आपसी मशविरे और गुफ़्तगू करके एक बड़़ा मजबूत ‘नो वार पैकेट एग्रीमेंट’ करें. तक़सीने हिन्द के बाद इलाके में रहने वाले लोगों के रिश्ते सरहद के उस पर बंट गये, उसकी बहाली की कोशिश करनी चाहिये.

( यह बातचीत नवंबर 2013 में हुई थी, जब फ़हमीदा दूसरी बार इलाहाबाद आयी थीं)

गुफ़्तगू से साभार

  
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गुरुवार, 22 मई 2014

घोड़े को जब हुआ नमोनिया














रवींद्र पांडेय का दो व्यंग्य

सब कुछ मोदियाइन-मोदियाइन हो गेलउ भइयवा

अइसनो लोकप्रिय हुआ जाता है कहीं! संसद से लेके नली-गली तक जने देखो तने खाली मोदियाइन-मोदियाइन टाइप के हो गया है। ईंटा तो ईंटा, भाई लोग बालुओ पर नमो-नमो लिखवा दिया है। गांवे से गोला पांड़े फोन किए थे। फोन का किए थे..., मिसकॉल मारे थे।
गोला पांड़े के मिसकॉल के जवाब न देबे के जुर्रत के करेगा भाई! उनका मिसकॉल तो मोदियो जी इगनोर नहीं करते हैं। एतना सीटवा अइसहीं थोड़े न जीत गए हैं। मोदियो जी को पता है कि बढिय़ा-बढिय़ा भाषण देबे और रैली में पसीना बहावे से कोई चुनाव नहीं जीत जाता।
उ तो गोला पांड़े के मेहनत, पुरुषार्थ अउर तपस्या के प्रभाव है कि मोदीजी आज पीएम बन गए। पिछला आठ महीना में एको दिन अइसा नहीं गुजरा होगा, जिस दिन गोला पांड़े सुबहे चार बजे उठ के गांव के शिवाला में न पहुंचे हों। रोज भोरहरिए में मंदिर में धो-पोंछ के एके प्रार्थना करते थे, 'हे अवघड़दानी भोलेनाथ! अबकी बार मोदी सरकार!' भोले बाबा भी का करते, सुननी ही पड़ी भक्त की पुकार।
भोले बाबा से फरियाद के बाद गोला पांड़े 'हर-हर मोदी' करते मंदिर से निकलते अउर 'नमो-नमो' करते पूरे गांव के राउंड पर जुट जाते। जिस-जिस गली से गुजरते कुत्ते उनके पीछे लग जाते। कुत्ते 'भौं-भौं' करते तो, उन्हें जोर से हड़काते, 'भाग ससुर! भौं-भौं कइले है।...नमो-नमो काहे नहीं करता है बे?' अउर मजे के बात इ कि चुनाव आवते-आवते ढेरे कुकुर 'भौं-भौं' छोड़ के 'नौं-नौं' करे लगा था।
गांव भर के चक्कर मारे के बाद गोला पांड़े नुक्कड़ के चाह दुकान पर पहुंचते। मोदी चाह बनवाते। पीते। फिर हर आवे-जाए वाला के समझाते, 'चिंता-फिकिर के जरूरत नय है। अच्छे दिन आनेवाले हैं। महंगाई के तो नामो निशान खत्म हो जाएगा। भ्रष्टाचार को लालटेन लेके खोजे पर भी नय मिलेगा। रोजगार के तो अइसा भरमार होएगा कि इंडिया के अमेरिका के लोग एने नोकरी करे वास्ते आएगा।... जे-जे बढिय़ा सोच सकते हैं, सब होने वाले हैं। आखिरकार अच्छे दिन आने वाले हैं. '
रिजल्टवा निकला, तो गोला पांड़े चहक उठे, 'देख लिए न! कांग्रेस के हाल देख के बराक ओबामा के भी चिंता बढ़ गइल है। सोच रहल हैं कि गुजरात वाला सुनमिया अभी दिल्ली पहुंचल है। उहां से कहीं अमेरिका की ओर बढ़ गवा तो का होवेगा?'


घोड़ों को तो बचा लीजिए

प्यारे बाबू का टेंशनियाया हुआ चेहरा देखते ही बुझा गया कि गाड़ी पटरी पर नहीं है। कुछ पूछने से पहले ही बोल बैठे, भइया जी, इस झारखंड का कभी भला नहीं होनेवाला। आदमी तो आदमी, अब यहां जानवर भी सुखी नहीं रहे। बताइए भला, बेजुबान घोड़ों पर तोहमत लगा दी। उन्हें बिकाऊ बता दिया। कहते हैं, बड़की एजेंसी से जांच कराएंगे। तो कराइए न, के मना कर रहा है। इहां काम-धाम थोड़े न कुछ होना है! खाली जांचे तो होनी है! आगे से काम चलता है, पीछे से जांच। न कामे पूरा होता है, न जांच। एतना दिन में केतना तो जांच कराए। कौन सी बड़की क्रांति कर लिए। बारह साल में अढ़ाइयो कोस तो नहीं चल पाए। जांच से पहिलहीं तो पूरी घोड़ा मंडी को बदनाम करके रख दिए। रेस का रिजल्ट रोक दिए। बेचारे घोड़ों की कितनी फजीहत हो रही है। कितना बढिय़ा तो ऊंट की तरह गर्दन ऊंची करके घूम रहे थे। अब मुंह छुपाने की जगह ढूंढ़ रहे हैं। उनके हाल पर गधे भी रूमाल में मुंह छुपाकर हंस रहे हैं। जैसे पूछ रहे हों, क्यों बड़े भाई, खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना।... भइया, हम तो इंसान हैं। एक-दूसरे से बतिया कर अपना मन हल्का कर लेते हैं। मगर ये घोड़े तो एक-दूसरे से सउंजा-सलाह भी नहीं कर सकते। दूरभाष पर दूर से बतियाएं, तो संकट। फोनवे टेप हो जा रहा है। कोई बीमार पड़ जाए और हाल-चाल पूछने नजदीक पहुंच जाएं, तो देश भर में हल्ला मच जाता है। सवाल पर सवाल। कहां गए थे? का करे गए थे? का बतियाए? कवनो नया समीकरण बन रहा है का? सरकार-उरकार तो नहीं न गिराइएगा? पांच मिनट किसी से मिले नहीं कि पचहत्तर गो सवाल फन काढ़ के डंसे ला तइयार है।... बड़ी आफत है। मुड़ी गड़ले-गड़ले गर्दन टेढ़ुआ गइल है। ऊपरे मुंह करते हैं, तो लोग कहता है कि सरकार बचावे ला भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं। पछिम मुंह करें, तो लोग कहेगा, हां, अब तो दिल्लिए के असरा है। उत्तर मुंह करते हैं तो लोग को लगता है कि लालू यादव से मदद मांग रहे हैं।... सच्ची कहता हूं भइया, हमसे तो इन घोड़ों का दर्द नहीं देखा जाता। आंख तो आंख, दिल भी आंसू बहा रहा है। सच में अगर इन घोड़ों को न्याय नहीं मिला, तो बड़की कयामत आ जाएगी। जैसे भी हो, इन घोड़ों को दर्द से उबारिए भइया जी। हम इंसान हैं। दर्द सहना हमारी आदत में शामिल है। ये घोड़े हैं। इनके बर्दाश्त की हद बहुत छोटी होती है। इनसे नहीं तो कम से कम इनकी दुलत्ती से तो डरिए।

(लेखक -परिचय :

जन्म: 4 फ़रवरी 1971 को  रोहतास(बिहार) के कोथुआं गाँव में
शिक्षा: स्नातक की पढाई आरा से की
सृजन: ढेरों व्यंग्य देश के  प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में। व्यंग्य संग्रह 'सावधान कार्य प्रगति पर है'  प्रकाशित
संप्रति: दैनिक भास्कर  रांची संस्करण में मुख्य उप संपादक
संपर्क:ravindrarenu1@gmail.com)

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मंगलवार, 20 मई 2014

उत्तर प्रदेश में लहर के मायने



सपा, बसपा और हमारी भूमिका















कॅंवल भारती की क़लम से

 उत्तर प्रदेश में लोकसभा-2014 के चुनाव-परिणाम इसलिये नहीं चैंकाते हैं कि भाजपा की इतनी बड़ी जीत अप्रत्याशित थी, बल्कि इसलिये चैंकाते हैं कि इसने बसपा का सूपड़ा साफ कर दिया है और सपा को पाॅंच सीटों पर समेट दिया है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा-बसपा की इस शर्मनाक पराजय के दूरगामी अर्थ हैं। कुछ चिन्तकों का कहना है कि मोदी की लहर ने जाति और धर्म की राजनीति को खत्म का दिया है। किन्तु यदि ऐसा सचमुच होता, तो भाजपा को इतनी बड़ी जीत कभी हासिल नहीं हो सकती थी। जाति-धर्म से मुक्त राजनीति की जीत तब तो मानी जा सकती थी, जब यदि आम आदमी पार्टी को यह सफलता हासिल हुई होती। पर भाजपा की इस जीत का अर्थ ही यह है कि जनता ने जाति और धर्म के नाम पर भाजपा के पक्ष में मतदान किया है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि संघ परिवार और मोदी की टीम ने मिलकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणवाद का पुनरुद्धार किया है? किन्तु इस पुनरुद्धार के लिये अगर कोई जिम्मेदार है, तो वह है सपा-बसपा का नेतृत्व, जिसके पास भाजपा से लड़ने के लिये कोई कारगर राजनीतिक हथियार नहीं था। मुलायमसिंह यादव ने मोदी को मुस्लिम-विरोधी बताकर राजनीति की, तो मायावती ने उन्हें दलित-विरोधी बताकर, और इसी राजनीति ने हिन्दू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकृत करने का काम किया। सवाल यह नहीं है कि भाजपा और मोदी मुस्लिम-दलित-विरोधी नहीं हैं, सचमुच वे हैं। पर बात सिर्फ इतनी भर नहीं है। यह बहुत ही छोटा नजरिया है, उन्हें देखने का। भाजपा, मोदी और संघपरिवार को इससे बड़े नजरिये से देखा जाना चाहिए था। यह नजरिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का होना चाहिए था, जो एक फासीवादी अवधारणा है। दलित और मुस्लिम-विरोध तो इस राष्ट्रवाद का छोटा-सा हिस्सा भर है। यदि इस नजरिये से मायावती और मुलायम सिंह ने भाजपा, मोदी और संघपरिवार के विरुद्ध जनता में एक वैचारिकी विकसित की होती, तो शायद भाजपा के लिये दिल्ली अभी आसान नहीं होती। लेकिन यह काम वे इसलिये नहीं कर सके, क्योंकि इसके लिये जिस पढ़ाई-लिखाई की जरूरत है, वह न सपा-मुखिया मुलायमसिंह यादव के पास है और न बसपा-सुप्रीमों मायावती के पास है। दोंनों पार्टियों के नेता जब रैलियों और अन्य मंचों पर बोलते हैं, तो वे कहीं से भी पढ़े-लिखे नजर नहीं आते। वैचारिकी तो एकदम सपा नेताओं के पास नहीं है। वे सिर्फ नाम के समाजवादी हैं, उसकी ए, बी, सी तो दूर, ‘ए’ भी ठीक से नहीं जानते हैैं। उन्हें सुनकर लगता ही नहीं कि वे समाज और राजनीति में कोई बदलाव चाहते हैं।
जिस निर्भया के बहाने बलात्कार के विरुद्ध कड़े कानून बनाने के लिये देश-व्यापी जनान्दोलन हुआ, वहाॅं मुलायमसिंह यादव अपनी चुनावी रैलियों में यह कह रहे थे कि ‘बच्चे हैं, गलती हो जाती है, तो क्या उन्हें फाॅंसी दे दी जाय?’ पूरे देश की महिलाओं ने मुलायमसिंह के इस बेहूदे और शर्मनाक बयान को स्त्री-विरोधी बयान के रूप में लिया और उन्हें एक सम्वेदनहीन अयोग्य शासक के रूप में देखा। इसी तरह जब सपा नेता आजम खाॅं ने कारगिल की जीत को मुस्लिम सैनिकों की जीत कहकर इस इरादे से अपनी पीठ ठोकी कि मुसलमान  खुश होकर उन्हें अपने कन्धों पर बैठा लेंगे, तो वहाॅं उनकी ‘तालीमी जहालत’ ही ज्यादा नजर आ रही थी, जो यह नहीं समझ सकती थी कि उन्होंने अपनी समाजवादी राजनीति की ही कब्र नहीं खोद दी है, बल्कि मुसलमानों को भी मुख्यधारा से दूर कर दिया है। यह इसी का परिणाम हुआ कि न सिर्फ मुसलमानों में इसकी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई, बल्कि सपा-समर्थक हिन्दू मतदाता भी सपा के खिलाफ ध्रुवीकृत हो गये। 
इतना ही नहीं, प्रदेश की जनता यह भी देख रही थी कि सपा-बसपा के नेता संसद में काॅंग्रेस की जन-विरोधी नीतियों में काॅंगे्रस का खुलकर समर्थन कर रहे थे और संसद के बाहर काॅंगे्रस का विरोध करके जनता की आॅंखों में धूल झोंक रहे थे। वे उस काॅंगे्रस सरकार के संकट-मोचक बने हुए थे, जिसने आम आदमी को जीने-लायक हालात में भी नहीं छोड़ा था। इन सपा-बसपा नेताओं की आॅंखों पर अज्ञानता की इतनी मोटी पट्टी चढ़ी हुई है कि उन्हें यह तक दिखाई नहीं दे रहा है कि कम्प्यूटर युग की जनता न सिर्फ सब जानती है, बल्कि उनके खेल को समझती भी है। इस जनता ने यह जान लिया था कि सपा-बसपा के ये मुखिया केन्द्र में अपनी राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल सिर्फ अपने निजी हित में सौदेबाजी करने के लिये करते हैं।

                वे लोकतन्त्र की दुहाई जरूर देते हैं, पर खुद फासीवादी चरित्र से मुक्त नहीं हैं। यही कारण है कि वे भाजपा और संघपरिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समझने का वैचारिक स्तर नहीं रखते। याद कीजिए, नोएडा में एक मस्जिद का अवैध निर्माण गिराने के आरोप में सपा-सरकार ने एक आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित कर दिया था, पर जब वही गलत काम आजम खाॅं ने रमजान के महीने में मदरसा गिराकर रामपुर में किया, तो फेसबुक पर उसका विरोध करने पर उसी सरकार ने मुझे गिरफ्तार करा लिया। इस घटना के विरोध में देश-व्यापी प्रदर्शनों के बावजूद सरकार ने मेरे विरुद्ध दायर मुकदमा वापिस नहीं लिया। क्या यह सपा का फासीवादी चरित्र नहीं है? यही नहीं, जब मायावती ने भी इस सम्बन्ध में मौन रहकर सपा सरकार का समर्थन किया और लोकतन्त्र का गला घोंटने वाली सपा सरकार की तानाशाही के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठायी, तो उत्तर प्रदेश की जागरूक जनता ने यह समझने में जरा जरा भी देर नहीं लगायी कि मायावती भी सांस्कृतिक फासीवाद को ही पसन्द करती हंै और लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सवाल उनके लिये बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है।

                बहुत से दलित विचारक और राजनीतिक विश्लेषक 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार के लिये मायावती की सोशल इंजीनियरिंग को श्रेय देते हैं। पर मैंने उस समय भी इसका खण्डन करते हुए लिखा था कि यह सोशल इंजीनियरिंग नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक लम्बे समय से हाशिए पर बैठे ब्राह्मणों ने सत्ता में आने के लिये मायावती का साथ पकड़ा था, क्योंकि यह वह समय था, जब उनकी प्रिय पार्टियों--काॅंगे्रस और भाजपा--का पतन हो चुका था और सपा को वे पसन्द नहीं करते थे। इस तरह मायावती उनके डूबते जहाज के लिये तिनके का सहारा भर थीं। अतः, कहना न होगा कि ब्राह्मण स्वार्थवश बसपा से जुड़ा थे, न कि दलितों के प्रति उनका हृदय-परिवर्तन हुआ था। इसलिये जैसे ही मोदी ने भाजपा का रास्ता साफ किया, ब्राह्मणों ने अपनी घर-वापसी करने में तनिक भी देर नहीं लगायी। अगर सच में कोई सोशल इंजीनियरिंग होती, तो क्या बसपा का सूपड़ा साफ होता?

                मैं लगभग 1996 से ही डा. आंबेडकर की जातिविहीन और वर्गविहीन वैचारिकी के सन्दर्भ में कांशीराम और मायावती की राजनीति को कटघरे में खड़ा करता आ रहा हॅंू, जिसके लिये मैं दलित चिन्तकों और बुद्धिजीवियों की निन्दा का पात्र भी हूॅं। पर, मैं जातिवादी तरीके से नहीं सोच सकता। मेरे लिये दलित-विमर्श सामाजिक परिवर्तन का विमर्श है। इस नजरिये से मैं जब भी मायावती की राजनीति को देखता हूॅं, तो वह मुझे उनकी जाति को भुनाने वाली राजनीति ही दिखायी देती है। वह मुझे कहीं से भी परिवर्तन की राजनीति नजर नहीं आती है। इसलिये वर्तमान लोकसभा में बसपा की शर्मनाक ‘अनुपस्थिति’ पर हमारे दलित चिन्तक मायावती के पक्ष में चाहे कितने ही ‘किन्तु-परन्तु’ करके बात करें, पर मेरा आज भी यही मानना है कि उन्होंने डा. आंबेडकर के आन्दोलन को गर्त में ढकेल दिया है। उनकी राजनीति का सबसे बड़ा विद्रूप यह है कि उसका कोई सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं है। अगर होता, जिस दलित वोट पर मायावती सबसे ज्यादा आत्ममुग्ध होती हैं और जिसकी पूरी कीमत वसूल कर वे सवर्णों को टिकट देती हैं, वह वोट आज उनसे खिसका नहीं होता। यह जानकर तो उनको जरूर तगड़ा झटका लगा होगा कि उनके चमार और जाटव वोटर ने इस बार मोदी के पक्ष में भाजपा को वोट दिया है। शायद मायावती इस अनहोनी को नहीं समझ सकंेगी, क्योंकि एक तो जनता के साथ उनका संवाद न के बराबर है और दूसरे वे दलित बुद्धिजीवियों को नापसन्द करती हैं। शायद ‘बसपा’ भारत की एकमात्र पार्टी है, जिसकी अपनी कोई बौद्धिक सम्पदा नहीं है। दलित बुद्धिजीवी केवल जाति के आधार पर ही इस पार्टी से सहानुभूति रखते हैं। इसलिये इस तथ्य को समझना जरूरी है कि बसपा-सुप्रीमो, जो किंगमेकर ही नहीं, सौदेबाजी करके प्रधानमन्त्री बनने का भी सपना देख रही थीं, धड़ाम से नीचे कैसे गिर गयीं? इसका एक बड़ा कारण है नयी पीढ़ी के मध्यवर्गीय दलित युवकों का हिन्दू चेतना से जुड़ाव। इस पीढ़ी के साथ लगातार सम्पर्क और संवाद करने के बाद यह तथ्य सामने आया कि वे अपने दिन-भर का अधिकांश समय अपने हिन्दू दोस्तों के साथ व्यतीत करते हैं, जो उनके सहपाठी और सहकर्मी दोनों हैं। उनके साथ उनका उठना-बैठना, घूमना-फिरना और खाना-पीना सब होता है। वे एक-दूसरे के घरों में आते-जाते हैं, सुख-दुख में शरीक होते हैं। इस बीच जाति के सामाजिक तनाव उनके बीच नहीं होते। ये सम्बन्ध यहाॅं तक विकसित हुए हैं कि दलित युवक अपने हिन्दू दोस्तों के साथ मन्दिर भी जाते हैं और उनके देवी-जागरण जैसे धार्मिक कार्यों में भी भाग लेते हैं। इस दोस्ती ने दलित युवकों को सिर्फ हिन्दू चेतना से ही नहीं जोड़ा, बल्कि उन्हें हिन्दू राजनीति से भी जोड़ दिया। लेकिन इसी हिन्दू राजनीति ने उन्हें मुस्लिम-विरोधी भी बना दिया, जिसमें उनके कुछ कटु सामाजिक अनुभवों ने भी अपनी भूमिका निभायी है। चूॅंकि इन दलित युवकों के घरों में भी कोई सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हुआ है, इसलिये उनका मोदी के पक्ष में भाजपा के साथ जाना बिल्कुल भी आश्चर्यजनक नहीं है। मायावती चाहें तो अपने दलित वोट बैंक का सर्वे करा सकती हैं और देख सकती हैं कि जिस जमीन पर वे खड़ी हैं वह किस कदर दरक गयी है।

                सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ? हमेशा हाथी पर बटन दबाने वाले कुछ दलितों का तर्क है कि जब मायावती हाथी से गणेश तक जा सकती हैं, तो वे सीधे गणेश को वोट क्यों नहीं दे सकते? जब मायावती परशुराम का गुणगान कर सकती हंै, तो वे मोदी का समर्थन क्यों नहीं कर सकते? जब मायावती को भाजपा मुख्यमन्त्री बना सकती हैं, तो वे मोदी को प्रधानमन्त्री क्यों नहीं बना सकते? ये वे तर्क हैं, जिनका कोई जवाब मायावती के पास नहीं है। कुछ दलितों का तो यहाॅं तक कहना है कि अगर बसपा की पिछली सीटें बरकरार रहतीं और भाजपा की सीटें बहुमत से कुछ कम आतीं, तो मायावती को भाजपा को ही समर्थन देकर अपना उल्लू सीधा करना था।

                दरअसल, जाति और वर्गविहीन समाज की दिशा में डा. आंबेडकर की जो रेडिकल वैचारिकी थी, मायावती न केवल उससे दूर हैं, बल्कि उसे जानना भी नही चाहती हैं। यही कारण है कि उन्होंने सत्ता में आने के लिये जातियों को मजबूत करने का ‘शार्टकट’ रास्ता अपनाया। इसके सिवाय उन्होंने दलितों में कोई रेडिकल सांस्कृतिक आन्दोलन पैदा करने की कोशिश कभी नहीं की। सत्ता के ‘शार्टकट’ रास्तों की परिणति हमेशा लाभकारी नहीं होती है, वह धूल भी चटा देती है।

                बहरहाल, देश की जनता ने यह जानते हुए भी कि मोदी घोर साम्प्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी हैं, यह जानते हुए भी कि उनका राजनीतिक एजेण्डा लोकतन्त्र का नहीं, हिन्दू राष्ट्रवाद का है और यह जानते हुए भी कि वे बड़े पूॅंजीपतियों के हित में सामाजिक न्याय, सुरक्षा और परिवर्तन की संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदल सकते हैं, उन्हें भारी बहुमत से जिताया है। मैं तो कहुॅंगा कि देश की निकम्मी वाम-सेकुलर शक्तियों ने थाल में सजाकर मोदी को सत्ता सौंप दी है। इसलिये अब प्रगतिशील चिन्तकों, लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों की भूमिका और भी बढ़ गयी है, जिसे हमें अब पूरी निर्भीकता और जिम्मेदारी से निभाना होगा।

(17 मई 2014)

(लेखक-परिचय:
प्रगतिशील -अम्बेडकरवादी विचारक, कवि, आलोचक और पत्रकार
जन्म: 4 फ़रवरी 1953 को उत्तर प्रदेश के रामपुर  में
शिक्षा: स्नात कोत्तर
सृजन: पंद्रह वर्ष की उम्र से  ही कविताई। दलित इतिहास, साहित्य,  राजनीति और पत्रकारिता पर हिंदी में अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित.
ब्लॉग:   कँवल भारती के शब्द 
संप्रति: स्वतंत्र लेखक व पत्रकार
संपर्क: kbharti53@gmail.com
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बुधवार, 14 मई 2014

असग़र अली इंजीनियर के बिन एक बरस



गैर बराबरी के खिलाफ एकजुट होकर लड़ना होगा





 
















ज़ुलेख़ा जबीं की क़लम से


हमारा संघर्ष यही होना चाहिए कि दुनिया में सामाजिक न्याय हो, भेदभाव खत्म हो, सबके साथ इंसाफ हो, सबकी जरूरतें पूरी हों. और हमें इस लड़ााई को लड़ते रहना है, सभी के साथ मिलकर, लगातार. ऐसा नहीं कि मैं सिर्फ इस्लाम के नाम पर लडूं, आप सिर्फ हिंदू धर्म के नाम पर लडें़, कोई बौद्ध धर्म के नाम पर लड़े, नहीं।  हम सबको साथ आना चाहिए. क्योंकि हम, आप और बाक़ी बहुत सारे यही कह रहे हैं कि सामाजिक न्याय हो, बराबरी हो, गैर बराबरी खत्म हो, जो इस गैर बराबरी को बढ़ावा देने वाले हैं उन सभी के खिलाफ हमें एकजुट होकर लड़ना होगा. यही देश भक्ति है और सबसे बड़ी इबादत भी.
                                                                                     डॉ. असग़र अली इंजीनियर

दुनिया में कट््टरपन के खिलाफ सदभावना के लिए, मजहबी नफरत के खिलाफ अमन के लिए, सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ बहनापे और भाईचारे के लिए, सामाजिक अन्याय के खिलाफ इंसाफ के लिए आजीवन संघर्षरत डॉ. असग़र अली इंजीनियर को गुज़रे 14 मई को एक बरस हो गए . मगर इंसानी समाज में इंसानियत की स्थापना के लिए, मोहब्बत की जो मशाल उन्होंने जलाई है,  वो रहती दुनिया तक क़ायम और रौशन रहेगी. हर तरह के कटटरपन और सामंतवाद के खिलाफ  उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की है. अपनी कलम के जरिए, शिक्षण और प्रशिक्षण के जरिए, सभाओं, गोष्ठियों, सेमीनार, कार्यशालाओं के जरिए, आम जनता के नजदीक पहुंचने के हर संभव तरीकों और माध्यमों का इस्तेमाल वे अपने आखिरी दम तक करते रहे हैं.

जातिवादी नफरत के खिलाफ उनकी कलम की धार पीड़ितों के पक्ष में हमेशा तेज रही. डॉ. असग़र  हिंदोस्तानी गंगा-जमनी तहज़ीब, संप्रभुता और विविधता में एकता के जबरदस्त हामी रहे हैं. वे हमेशा कहा करते थे “बेशक आस्था जरूरी है मगर जब आस्था अंध विश्वास की शक्ल ओढ़ लेती है तब वह इंसानी समाज के लिए खतरनाक हो जाती है.” और यहीं से शुरू होती है वो जंग जिसका रास्ता और तरीक़ा असगर अली इंजीनियर ने हम सबको दिखाया  है.

सेंटर फार स्टडी आफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के अध्यक्ष और इस्लामिक विषयों के प्रख्यात विदवान डॉ. असग़र अली इंजीनियर की पहचान मजहबी कटटरवाद के खिलाफ लगातार लड़ने वाले योद्धा के तौर पे मानी जाती रहेगी. उनका मानना था कि दुनियां में जहां पर भी इस्लाम के मानने वालों पर जुल्म हुआ है, वहां के लोग लड़ाई के लिए उठ खडे हुए हैं. वे मानते हैं कि
'कट्टरपंथ मजहब से नहीं सोसायटी से पैदा होता है'.  उनकी राय में 'भारतीय मुसलमान इसीलिए अतीतजीवी हैंे क्योंकि यहां के 90 फीसदी से ज्यादा मुसलमान पिछड़े हुए हैं और उनका सारा संघर्ष दो जून की रोटी के लिए है. इसलिए उनके भीतर भविष्य को लेकर कोई ललक नहीं है’. यही नहीं, हिंदू कट्टरपंथ की वजह बताते हुए वे कहते है कि 'जब दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों ने अपने हक मांगने शुरू किए तो ब्राहमणों को अपना पावर खतरे में नजर आया और उन्होंने मजहब का सहारा लिया, ताकि धर्म के नाम पर सबको साथ जोड़ लें, लेकिन ये सोच कामयाब होती नजर नहीं आ रही है.  इसलिए उनका कटटरपंथ और तेजी से बढता जा रहा है. ताकि वह जरूरी मुददों से लोगों का ध्यान हटाएं और हिंदू धर्म के नाम पर सबको एक करने की कोशिश करें. और यही इसकी बुनियादी वजह है’.
जब दुनिया में इस्लामी आतंकवाद का प्रोपेगंडा अपने चरम पे था, हमारे मुल्क के अंदर भी मुसलमानों को लेकर शक-ओ-शुबहा बढ़ने से बेगुनाहों पर सरकारी जुल्म बढने लगे और सांप्रदायिक दंगों में जानो माल का इकतरफा नुकसान, बेकुसूर नौजवानों की गिरफतारी, झूठे मुकदमे, फर्जी एनकाउंटर बढ़ने लगे, समाज में आपसी नफरत बढ़ने लगी और मुस्लिम समाज दहशत की वजह से खुद अपने में सिमटने लगा, और कुछ स्वार्थी राजनैतिक तत्वों के जरिए, सुनियोजित तरीके से फैलाई जा रही नफरत से निपटने के लिए, शिक्षण प्रशिक्षण के ज़रिए, समाज मेें समरसता, बहनापा, भाईचारा क़ायम करने डॉ. इंजीनियर ने आल इंडिया सेक्युलर फोरम (प्ैथ्) की शुरूआत की. जिसमें उनके अलावा देश की कई जानी पहचानी सेक्यूलर हस्तियां शामिल हुईं. इसके साथ ही देश में किए जा रहे सांप्रदायिक दंगों के पीछे की असलियत जानने के लिए उन्होंने खुद ही जांच दल गठित कर, घटनास्थलों में जाकर तफतीश की, रिपोर्ट तैयार की और संबंधित विभागों, राज्यपालों व केंद्र और राज्य सरकारों को सौंपी.

मुल्क में बढ़ती जा रही मजहबी कटटरता पे उनका स्पष्ट मानना रहा है कि कटटरपंथ मजहब से पैदा नहीं होता वह मौजूदा समाज से पैदा होता है. बडी बेतकल्लुफ़ी से वे बताते, आज से क़़़़रीब 70 बरस पहले देश में मुस्लिम लीग की मज़़़बूती के पीछे भी यही वजहें थीं. क्योंकि उस वक्त जो मुस्लिम एलीट वर्ग यूपी, बिहार वगैरह का था, उसको लगा कि आज़़़़़़़़़़ाद हिंदोस्तान में उसके हाथ से सत्ता निकल जाएगी . इसलिए वे मुस्लिम लीग में गए उन्हें लगा कि लीग उन्हें और उनके प्रभुत्व को बचा लेगी. और लीग ने पाकिस्तान बनवा डाला और यहां का एलीट क्लास ये सोचकर पाकिस्तान चला गया कि वहां उनका भविष्य महफूज़़़़ रहेगा. मगर वहां की हक़़़ीक़़त आज हमारे सामने है कि धार्मिक कटटरपंथ के एवज़ बने किसी देश का भविष्य कितना अंधकारमय होता है. यही हिंदू कटटरपंथियों के साथ हो रहा है. वे सोचते हैं कि अगर वे हिंदू धर्म का सहारा नहीं लेंगे तो ये दलित, पिछड़े, आदिवासी सब सत्ता में आ जाएंगे और इसीलिए इन सबको सत्ता के पावर से दूर रखने के लिए हिंदू धर्म की बात करते हैं. वे कटटरपंथ की बात मजहब का नाम लेकर करते हैं ताकि बहुसंख्यक जन उनके साथ जुड़ जाए.
डॉ. इंजीनियर लोकतंत्र में अटूट विश्वास रखने वालों में रहे हैं. वे कहते हैं 'चूंकि यहां लोकतंत्र है और दलित, पिछड़े भी इसे समझ रहे हैं कि वे लोकतांत्रिक तरीके से ही इसका मुकाबला कर सकते हैं. अगर आज लोकतंत्र न रहे और इस तरह की राजनीति बेखौफ बढती रहे तो वे सबको जेल में डाल देंगे, फांसी चढा देंगे, गोली मार देंगे, और फिर सब चुप हो जाएंगे तब तक के लिए, जबतक फिर से लोकतंत्र नहीं आ जाता..'
डॉ. इंजीनियर ने औरतों खासकर मुस्लिम औरतों के आर्थिक सामाजिक हालात सुधारने के लिए बहुत काम किया है. उन्होंने अपनी क़लम से मजहब के उन स्वयंभू ठेकेदारों के खिलाफ आवाज बुलंद की है जिन्होंने मुस्लिम औरतों के कुदरती, इंसानी हक़ मजहब के नाम पर दबा रखे हैं. इसके लिए उन्होंने  'क़ुरआन में औरतों के हक़’ नाम से एक किताब भी लिखी।  साथ ही इस विषय पे बाकायदा प्रशिक्षण शिविरों का भी आयोजन पूरे मुल्क में किया. डॉ. साहब चाहते थे कि मुस्लिम समुदाय में से ही उच्च शिक्षित खातून आगे बढ़ें और अरबी का ज्ञान हासिल करें ताकि क़ुरआन में दिए गए अपने हक़ूक़ मर्दवादी समाज से हासिल कर सकें. बतौर भाषा अरबी सीखने और सिखाने के लिए अंग्रेजी, उर्दूू और हिंदी का प्राइमर भी तैयार कर चुके थे और इसका इंतेजाम उन्होंने बांबे स्थित अपने आफिस में कर भी रखा था. ताकि बाहर से आई हुई कुछ चुनिंदा खातून इसमें महारत हासिल कर सकें. लेखिका को भी आपने अपनी मंशा से न सिर्फ अवगत कराया था बल्कि उनके पास रहकर अरबी की पढ़ाई पूरी करने का आफर भी दिया था. उनका ख्वाब था कि कुछ हिंदोस्तानी ख्वातीन सामाजिक न्याय, बराबरी और औरतों के हक़ुक़ से संबंधित कुरआन के रौशन पहलू को तर्जुमे के साथ आमजन तक पहुंचाने का जिम्मा उठाएं..

वे कहते हैं कि 'जब समाज हमेशा एक सा नहीं रह सकता बदल जाता है, तो उसके क़वानीन (क़ानून) एक से कैसे रहेंगे ? उन्हें भी समाज में होने वाले बदलाव के साथ बदलना ही होगा’. बेशक डॉ. इंजीनियर आज हमारे बीच नहीं रहे मगर इंसानी दुनिया से नफरत, गैर बराबरी और बेइंसाफी मिटाने के लिए, किए गए उनके तमाम काम और काविशों का बोलबाला कायम रखने के लिए, उनके छेडे़ गए जिहाद के बिगुल को सांस देेने की जरूरत है. यही डॉ.असग़र अली इंजीनियर को सच्ची ख़िराजे अक़ीदत (श्रद्धांजलि )होगी.



(लेखिका-परिचय:

जन्म:9 अगस्त 1977, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में

शिक्षा: अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तथा पत्रकारिता व जनसंचार में उपाधि

सृजन: मानवाधिकार पर प्रचुर लेखन-प्रकाशन, देशबंधु में कुछ वर्षों नियमित रिपोर्टिंग, कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित 

संप्रति: कई प्रमुख महिला संगठनों में सक्रिय और स्वतंत्र लेखन

संपर्क:Jabi.Zulaikha@gmail.com)



लेखिका का छत्तीसगढ़ पर लेख  हमज़बान पर ही

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मंगलवार, 13 मई 2014

अंत तक आते-आते भ्रष्ट आचरण ने गोल-गप्पा कर दिया विकास @ चुनाव


वैमनस्य,  नफरत व घृणा के सबसे अहम  प्रतीक
सबसे बड़े पद के सबसे बड़े दावेदार



















मनोरमा सिंह की क़लम से

 2014 लोकसभा चुनाव खत्म हो गए अब 16 मई का इंतजार है जब मतगणना शुरू होगी और नतीजे सामने आएंगे। वैसे चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों, ओपेनियन पोल और चैबीसों घंटे समाचार चैनलों पर चल रहे बहसों पर यकीन करें तो नरेन्द्र मोदी नतीजों से पहले ही प््रधानमंत्री बन चुके हैं और भाजपा-एनडीए की सरकार के शपथ लेने की औपचारिकता ही बस बाकी है। कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर में चल रही है और बाकी दलों का अकेले अपने दम पर कोई दावा बनता ही नहीं है, वाम दल खुद अपने आप को किनारे ढ़केल चुके हैं, तीसरा मोर्चा अगर एक संभावना हो भी तो ये चुनावी नतीजों के बाद ही सामने आएगा। पूरा चुनाव गुजर गया लेकिन भाजपा और कांग्रेस के बरक्स तीसरे मोर्चे की बात हवा-हवाई ही रही ना कि एक ठोस हकीकत। सच कहा जाए तो तीसरा मोर्चा चुनावी नतीजों के बाद अलग-अलग क्षेत्रिय दलों और उनके क्षत्रपों के हितों और उनकी निजी महत्वकांक्षाओं को साधने का जरिया से ज्यादा कुछ नहीं है इसलिए जनता भानुमति के इस कुनबे के बजाए एनडीए या यूपीए पर ज्यादा भरोसा करेगी। बहरहाल, इस चुनाव में अरविंद केजरीवाल और उनकी उनकी आम आदमी पार्टी ने जरूर एक विकल्प के तौर पर दस्तक दिया है पर ये अरविंद और उनके समर्थकों को भी पता है कि अगली संसद में उनकी मौजूदगी प््रतिरोध के तौर पर होगी जिसकी ताकत उन्हें मिलने वाली सीटों पर निर्भर करेगी, जो फिलहाल बहुत ज्यादा तो नहीं ही नजर आ रही हैं।
बहरहाल, इस चुनाव के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा गंभीर सवाल कुछ और ही हैं और उसकी चर्चा ज्यादा जरूरी है। ये सच है कि चुनाव की आहट के साथ देश के राजनीतिक माहौल और घटनाक्रमों ने अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को आतंकित किया है। चुनाव अभियान के दौरान की कई बयानबाजियां भी सौहार्द पैदा करने वाली कतई नहीं रहीं। सबसे बड़ी बात मौजूदा भारतीय राजनीति में वैमनस्य,  नफरत व घृणा के सबसे अह्म प््रतीकों में से एक  फिलहाल प््रधानमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार हैं।

मुसलमान 2002 गुजरात भुले नहीं हैं, उनका डर सही साबित हुआ जब भाजपा की ओर से गुजरात दंगों की पटकथा लिखनेवाले नामों में से एक अमित शाह को उत्तर प््रदेश का चुनाव प््रभारी बनाने के साथ पश्चिमी उत्तर प््रदेश दंगों की आग में जल उठा। और अभी हफ्ता भर पहले ही उत्तरपूर्व के इलाकों में बयानों और राजनीतिक विरोध की परिणति अल्पसंख्यकों की हत्या के रूप में हुई। जाहिर है इस डर को हम कितना भी समझने का दावा करें लेकिन इस अनुभव की चपेट में आए और आ सकने वाले लोगों की तरह नहीं समझ सकते। नहीं तो अभी बात होनी चाहिए थी हाशिये  पर रखे लोगों को मुख्यधारा में लाने की, उनकी भागीदारी की। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक मुसलमानों की बड़ी आबादी अभी भी बहुत पिछड़ी हुई है, शिक्षा और रोजगार उन्हें उपर लाने के लिए बहुत जरूरी है, हालांकि दलितों  के मुकाबले वो बेहतर हैं पर ओबीसी से पिछड़े हुए हैं। कुल आबादी में मुसलमान 13 फीसद से ज्यादा हैं पर उनकी राजनीतिक भागीदारी केवल 5 फीसद के करीब है। ऐसे में राजनीतिक दलों की प््राथमिकता मुसलमानों समेत विकास की दौड़ में पीछे छूट गयी सभी जातियां और समुदाय होने चाहिए थे, उनके लिए नीतियों, योजनाओं को चुनावी घोषणापत्रों और चुनावी बहसों में जगह मिलनी चाहिए थी पर ऐसा हुआ नहीं। सबसे बढ़िया उदाहरण बिहार के लालू प््रसाद यादव का है जो भ्रष्टाचार के आरोपों और जेल जाने के बाद भी और अपने कार्यकाल में बिहार को विकास के हर मापदंड पर सबसे पिछले पायदान पर रखने के बावजूद धर्मनिरपेक्षता की गोटी खेलकर अपनी राजनीतिक जमीन पाने जा रहे हैं और शायद उन्हें कामयाबी भी मिल जाएं।       


दरअसल, नरेन्द्र मोदी के प््रधानमंत्री बनने का सोचकर ही देश की एक बड़ी आबादी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के सवालों को लेकर इस कदर आशंकित है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और घोटालों की तमाम कहानियों को नजरअंदाज करने को मजबूर है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा को रोकना है , पर विकल्प कोई नहीं है, जबकि राहुल गांधी की जमीनी स्तर पर राजनीति करने की तमाम कोशिशें और उनके लिए प्रियंका गांधी के पूरे दम-खम के साथ मैदान में कूद पड़ने से भी यूपीए सरकार की छवि पर से घोटालों की कालिख साफ नहीं होने वाली और ये भी कैसे भूलना चाहिए कि इसमें एक बड़ा नाम तो खुद प्रियंका के पति राबर्ट वाड्रा का भी है? लेकिन जब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी मौजूदगी के बावजूद वामदल, तीसरा मोर्चा खुद किनारे होते जा रहे हों और आम आदमी पार्टी इस चुनाव में सरकार बनाने के दावों के साथ उतरी ही नहीं थी। ऐसे में विकल्प नरेन्द्र मोदी बरक्स राहुल गांधी, सोनिया गांधी ही हैं, जाहिर है तब मोदी का ही पलड़ा भारी है।

यहां ये भी विमर्श योग्य है कि  पूरी आबादी में 13 फीसद से ज्यादा होने के बावजूद और आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी खुद मुसलमानों में से अपना कोई मजबूत नेतृत्व उभर कर सामने क्यों नहीं आया, जिस तरह से दलितों में से कांशीराम और मायावती आए और क्षेत्रिय राजनीति में अन्य पिछड़ी  जातियों के प््रभावशाली नेता। मुसलमानों के नुमाइंदे लगातार इन्हीं दलों के साथ कभी राष्ट्रविरोधी तो कभी तुष्टिकरण के आरोपों के बीच में अपनी राजनीति करते रहे हैं। अलग से नेतृत्व देने के नाम पर धार्मिक नेता हैं,  जो अपने समीकरणों व निजी संबंधों की आड़ में कभी भाजपा को वोट देने का फतवा जारी करते हैं तो कभी कांग्रेस को।
इस चुनाव ने सांप््रदायिकता और दो अलग धार्मिक समुदाय के बीच सौहार्द के सवाल को इतना बड़ा कर दिया गया है कि मंहगाई, शिक्षा, रोजगार और भ्रष्टाचार व घोटालों पर चर्चा और बहस सिरे से गायब है। ये अजरज की बात नहीं कि जिस भ्रष्टाचार और लोकपाल के मसले को लेकर अरविंद केजरीवाल की राजनीति शुरू हुई थी और जिसके बल-बूते वो दिल्ली की राजनीति में शिखर तक पहुंचे, चुनाव का अंतिम चरण आते-आते उनकी बातचीत और बहस के केन्द्र में भी केवल भ्रष्टाचार का मसला नहीं रह गया, वो भी बार-बार ये साबित करने की कोशिश में दिखें कि उनकी राजनीति भी धर्मनिरपेक्ष राजनीति है। इसमें कोई दो राय नहीं कि  सांप्रदायिकता बहुत अहम सवाल है और अल्पसंख्यकों के लिए सबसे जरूरी मसला है पर यहां सवाल ये भी है कि आखिर क्यों सांप््रदायिकता फिर एक बड़ा खतरा है और धर्मनिरपेक्ष मूल्य संकट में?
औसत भारतीय अपने स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष हैं,  लेकिन इस चुनाव ने धीरे-धीरे जिस तरह के राष्ट्रवाद की जमीन तैयार की है वो जरूर चिंता का विषय है.  खासतौर पर पढ़े-लिखे खाते-पीते मध्यमवर्ग के बीच। इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले बहुसंख्य लोग इस बात को सहजता से नहीं ले पा रहे। हालांकि एक तर्क ये भी है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ंे बहुत मजबूत हैं.  यहां बड़े-बड़े तानाशाहों को भी जम्हुरी तौर-तरीके अपनाने ही पड़ते हैं, इंदिरा गांधी और आपातकाल और उसके बाद का दौर इतिहास में ज्यादा पुरानी बात नहीं है। इसलिए मोदी से भी नहीं डरना चाहिए, अगर उन्हें बहुमत मिलता है, तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए और अपने लोकतंत्र पर भरोसा रखना चाहिए। पर दूसरी ओर ये भी दिख रहा है कि एक नरेन्द्र मोदी के लिए भाजपा खुद उनके आगे कितना झुक गयी है। मोदी के कद के आगे भाजपा का कद बौना हो चुका है, साथ ही पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं को भी किनारे कर दिया गया जो कि नहीं होना चाहिए था। इससे मोदी के काम करने के तरीकों के बारे में संकेत तो मिल ही जाता है। हांलाकि ये भी सच है कि कौन पार्टी सांप््रादायिक नहीं है? कांग्रेस चैरासी और भागलपुर  के दंगों की गुनहगार है, तो गुजरात के 2002 के दंगों के लिए भाजपा और नरेन्द्र मोदी। और मुसलमानों के सबसे बड़े नेता कहलाने वाले समाजवादियों के राज में हाल ही में मुज़फ़्फ़र नगर में दंगे हुए हैं। वैसे कहने वाले ये भी कहेंगे कि जहां तक कांग्रेस पर लगे भ्रष्टाचार  के आरोपों और घोटालों की बात है तो इस मामले में दूसरे दलों का रिपोर्ट कार्ड भी कांग्रेस जैसा ही है। दूसरी ओर कांग्रेस की बात करें तो 2014 लोकसभा चुनाव की एक और खास बात, नौ साल से ज्यादा प्रधानमंत्री रहने के बावजूद मनमोहन सिंह का चुनाव अभियान से लगभग किनारे रहना और सार्वजनिक मंचों पर कुछ बोलने के लिए कहीं नजर नहीं आना भी है। प््रधानमंत्री जैसी शख्सियत को चुनाव अभियान में हाशिये पर कर दिया जाना क्योंकि वो नेहरू-गांधी खानदान से नहीं हैं, कंाग्रेस की संस्कृति पर टिप्पणी है।


(रचनाकार परिचय:
 जन्म: 11 जनवरी 1974 को बेगुसराय (बिहार) में
शिक्षा: स्नातक, भूगोल, बीएचयू,  स्नातकोत्तर हिन्दी, दिल्ली  विश्वविद्यालय, जनसंचार और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा  इग्नू  से 
सृजन: ढेरों पत्र- पत्रिकाओं में लेख, रपट प्रकाशित 
संप्रति: सात-आठ साल दिल्ली में प्रिंट और एक टीवी प्रोडक्शन हॉउस की नौकरी करने के बाद फिलहाल बंगलूरु में रह कर   पब्लिक एजेंडा के लिये दक्षिण के चारों राज्यों की रिपोर्टिंग
संपर्क: manorma74@gmail.com) 


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जबर और धनतंत्र के सम्मुख हांफता लोकतंत्र



लोकसभा चुनाव में टूटते भ्रम 



 



















रजनीश  ‘साहिल’ की क़लम से 
 
 

16 मई को जो अद्भुत नजारा पेश  होने जा रहा है.  वह ऐतिहासिक साबित होगा या नहीं यह तो उसी दिन पता चलेगा, लेकिन इस नज़ारे के तैयार होने के पीछे की कहानी ज़रूर आने वाले वक़्त में याद की जाएगी। एक नहीं कई वजहों से। इस बार के लोकसभा चुनाव में कई भ्रम चुनाव ख़त्म होने से पहले ही टूट चुके हैं, फिर चाहे वह मुद्दों में पैदा किया गया हो, चुनावी समीकरणों में बदलाव का भ्रम हो, या मीडिया की निष्पक्षता का भ्रम हो। यह ऐसे भ्रम हैं जिनका गुब्बारा चुनाव शुरू होने के बहुत पहले से ही फुला लिया गया था। इसके अलावा यह चुनाव राजनीतिक दाँव-पेंचों के स्तर में गंभीर गिरावट के लिए भी याद किया जाएगा।
इस बात में कोई दो राय नहीं है इस बार का चुनाव मुख्यतः भाजपा और कांग्रेस के बीच के चुनाव की तरह दिखाया गया है। चर्चा के काबिल जिस तीसरी पार्टी को माना गया वह आआपा है। इसलिए जाहिर है कि बात के केन्द्र में यही तीन पार्टियां मुख्य रूप से आएंगी। अगर चुनाव की शुरुआत से लेकर अब तक के भाषणों पर गौर करें तो कोई भी समझ सकता है कि जिन वादों और सपनों से शुरुआत की गई थी, वह हाथी के दाँत थे, सिर्फ़ दिखाने भर के। चुनाव का अंतिम चरण आते-आते वह वादे, वह सपने कहाँ ग़ायब हो गए और उसकी जगह कैसे एक-दूसरे पर आरोप लगाना, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और अहं आ गए इस तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। उनका तो ध्यान न के बराबर जाते हुए दिखा जो शुरुआती वादों की वजह से किसी के समर्थन में उतरे थे। चाहे चुनावी रैलियों में दिये गये भाषण हों या न्यूज़ चैनलों में दिखाई गई बहसें एक-दूसरे पर आक्षेप लगाने और खुद को सही साबित करने के अलावा मूल मुद्दों पर बहस न के बराबर ही दिखाई दी है। यहाँ तक कि किस पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र में क्या है, इस तक पर कोई गंभीर बहस सामने नहीं आई। आई होती तो संभवतः लोगों को समझ आता कि कांग्रेस की जिन नीतियों को कोसती हुई भाजपा खड़ी है, उसकी अपनी नीतियाँ भी एक अलग कलेवर में वैसी ही हैं। तीसरी चर्चित पार्टी के रूप में उभरी आआपा ने भी कांग्रेस और भाजपा के तौर-तरीकों, कार्यप्रणाली के दोष तो गिनाए पर उनकी अपनी क्या नीति है वे भी यह स्पष्ट नहीं कर पाए।
यह बहुत स्पष्ट है कि अधिकांष मतदाताओं की नज़र से लिखित घोषणा-पत्र नहीं गुज़रता। वे उम्मीदवारों के भाषणों और वादों में ही नीतियाँ तलाषते हैं और उन्हीं से मुतासिर होकर अपना समर्थन देते हैं। टीवी पर या समाचार-पत्रों में इन समर्थकों के विचारो और जानकारी पर चर्चा का स्थान बहुत कम है। इस कमी को इस बार सोशल-मीडिया ने दूर किया। फेसबुक जैसा सोशल मीडिया इन दिनों अलग-अलग पार्टी के समर्थकों और उनकी समर्थन पोस्टों से भरा पड़ा है। लेकिन जैसे ही आप इनसे संबंधित पार्टी की भविष्य की योजना, नीतियों या घोषणा-पत्र में शामिल किये गए मुद्दों पर बात करने की कोशिश  करते हैं तो 100 में से कोई एक-दो होते हैं जो इस पर बात करते हैं, जिन्हें इसके बारे में पता है। बाकी समर्थक या तो बगलें झांकने लगते हैं या फिर इधर-उधर से कोई दूसरा बिंदु उठाकर बहस शुरू कर देते हैं। यह समर्थन असल में एक व्यक्ति विशैष में आस्था की तरह है। भाजपा समर्थकों को लगता है कि मोदी सब कुछ ठीक कर देंगे, आआपा समर्थकों को लगता है कि केजरीवाल सब कुछ ठीक कर देंगे। पर कैसे? इसका जवाब उनके पास नहीं है। इस मामले में कहना पड़ेगा कि कांग्रेस और उसके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग इस पचड़े से सुरक्षात्मक दूरी बनाए रहा है। उन्होंने सोशल मीडिया पर भाजपा या आआपा की तरह बेलगाम कैम्पेनिंग नहीं की। फिर भी अगर कल्पना की जाए कि सोशल मीडिया पर मौजूद समर्थक एक सरकार चुनेंगे तो जो तस्वीर सामने आती है वह यह है कि ऐसे लोगों का बड़ा वर्ग सरकार चुनेगा जिसे यह भी नहीं पता कि किस पार्टी की क्या नीति और मुद्दे हैं। 

सोशल मीडिया से निकलकर जब प्रिंट या इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की तरफ झांकते हैं तो और भी गंभीर तस्वीर दिखाई देती है। बिना किसी गंभीर विश्लेषण के भी समझा जा सकता है कि यह इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का वह दौर है जिसमें राजनीतिक ख़बरों के मामले में तो कम से कम उसने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। अगर यह न भी कहा जाए कि वह बिक गया है तब भी यह तो साफ दिखता है कि उसने संतुलन नहीं बनाया है। अपने समय का 80 प्रतिषत से भी ज्यादा हिस्सा उसने भाजपा को दिया है। बाकी समय में कांग्रेस और आआपा की गतिविधियाँ दिखाई हैं। सपा, बसपा, आरजेडी, जेडीयू, टीएमसी जैसे बड़े दलों का तो जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं था उसके लिए। जब तक इन दलों से संबंधित प्रदेशों में मतदान की तारीख नहीं आ गई टीवी पर इनकी गतिविधियां नदारद ही रहीं। वामपंथी दलों के साथ-साथ दक्षिण भारत के राज्यों और वहाँ मौजूद दलों से तो लगभग अस्पृश्य जैसा व्यवहार किया गया है। वहाँ क्या चल रहा है उसके बारे में आज तक टीवी पर कोई ठीक-ठाक ख़बर दिखाई नहीं दी है। नरेन्द्र मोदी की रैलियों, भाषणों के कई-कई रिपीट टेलीकास्ट और अन्य दलों की गतिविधियों को आधा-एक घंटे में निपटा देने के रवैये और मोदी लहर के गुब्बारे में हवा भरने ने इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की छवि पर जो बट्टा लगाया है, उसने उस नींव को हिला दिया है जिसके बूते कहा जाता था कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है।

जहाँ तक मुद्दों की राजनीति और राजनीतिक गंभीरता की बात है तो वह न सिर्फ समर्थकों में बल्कि प्रमुख राजनीतिक दलों में भी नदारद नज़र आती है। अपनी नीतियों या योजनाओं को जनता के सामने रखने की जिम्मेदारी संबंधित दलों और उनके प्रत्याशियों /नेताओं की होती है, पर वे तो एक-दूसरे की टोपी उछालने में लगे हैं। शुरुआत से ही इसे नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के चुनाव के रूप में प्रस्तुत किया गया, बावजूद इसके कि कांग्रेस ने कभी राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री होने का हवाला नहीं दिया। यहीं से यह चुनाव लोकसभा चुनाव कम भाजपा और कांग्रेस के बीच खानदानी दुश्मनी की तरह अधिक हो गया। ऐसे युद्ध की तरह हो गया जिसे जीतने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। एक राजनीतिक दल द्वारा दूसरे दल पर आरोप लगाना, उसकी आलोचना करना और उसकी नीतियों/कार्यप्रणाली की खामियों पर टिप्पणी करना चुनाव में कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इस बार इन सबके बहाने व्यक्तिगत हमले किये जा रहे हैं। जो चुनाव जनता की समस्याओं, जनता के मुद्दों पर लड़ा जाना था वह ‘युवराज’, ‘माँ-बेटे की सरकार’, ‘दामाद जी’, ‘हिटलर’, ‘मौत का सौदागर’, ‘नीच राजनीति’, ‘नीच जाति’ जैसे जुमलों की भेंट चढ़ गया। वाड्रा, अंबानी, अडानी, स्नूपगेट के मुद्दे उठे, वे भी इन जुमलों की गर्द में दब गए। कुल मिला कर इस चुनाव का अंत भी ढाक के तीन पात जैसा रहा। इस बात पर बड़ा जोर दिया गया था कि यह चुनाव मुख्यतः विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केन्द्रित होगा लेकिन हुआ क्या, अंत तक आते-आते विकास और भ्रष्टाचार का मुद्दा कहीं पीछे रह गया और व्यक्तिगत चरित्र पर आकर टिक गया। पिछले चुनावों की तरह साम्प्रदायिकता, जाति समीकरण भी आ ही गए। हालांकि आआपा शुरुआत से अंत तक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर टिकी हुई है, वह अब भी व्यवस्था में सुधार की बात करती है और उसे व्यापक जन समर्थन भी हासिल है लेकिन सीटों के अनुपात के मद्देनज़र कांग्रेस, भाजपा को केन्द्र की राजनीति में बराबर की टक्कर देने और इस तस्वीर से बाहर करने में उसे अभी काफी वक्त की दरकार है।
इस बात की भी काफी हवा थी कि यह चुनाव जाति, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 


प्रधानमंत्री पद के दावेदार द्वारा कई तरह की टोपियां पहनने के बाद कहना कि ‘अपीज़मेंट पाॅलिटिक्स नहीं करता’, मंच पर राम की तस्वीर का इस्तेमाल करने, अपनी नीच जात का हवाला देने और उनके दल के अन्य प्रत्याशियों द्वारा कहे गये ‘बदला लेंगे’, ‘विरोधी पाकिस्तान भेजे जाएंगे’, ‘आतंकवादियों का गढ़’ जैसे जुमलों के निहितार्थ क्या हैं ये कोई भी दिमागदार व्यक्ति समझ सकता है। साफ़-साफ़ साम्प्रदायिक नज़रिया झलकता है। जहाँ तक जाति समीकरण की बात है तो अलग-अलग राज्यों से आई ऐसी कई ख़बरें हैं जो प्रिंट या इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में कहीं दर्ज नहीं हुईं लेकिन जो स्पष्ट करती हैं कि इस चुनाव में जाति एक महत्वपूर्ण कारक की भूमिका निभा रही है। बिहार में लालू प्रसाद यादव के दोबारा मजबूती हासिल करने, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती को हासिल होने वाली सीटों के कयास, मुख़्तार अंसारी की मौजूदगी में बनारस के मुसलिम वोटों को लेकर लगाए जा रहे कयास ही यह साबित करते हैं कि जाति आधारित वोटों की राजनीति कहीं नहीं गई। जब प्रधानमंत्री पद का घोषित दावेदार ‘नीच राजनीति’ का उल्लेख करते जुमले को अपनी नीच जाति पर हमले में बदल सकता है तो स्थानीय स्तर पर जाति की राजनीति का क्या स्तर होगा और सभी दल उसमें किस हद तक लिप्त होंगे इसकी बस कल्पना भर की जा सकती है।

कुल मिला कर यह चुनाव पिछले चुनावों से किसी कदर अलग नहीं है। न ही यहाँ मुद्दों की राजनीति हो रही है और न ही वोटर को जाति, धर्म से अलग करके देखा जा रहा है। जिन भी बिंदुओं को लेकर इस चुनाव के पिछले चुनावों से अलग होने की बात की जा रही थी, वे बिंदु वास्तविक धरातल पर कहीं नज़र नहीं आ रहे। चुनाव की शुरुआत के वक़्त जिन गुब्बारों में हवा भरी गई थी, उनकी हवा परिणाम आने के पहले ही निकलती जा रही है। एक-एक कर भ्रम टूटते जा रहे हैं।

 

(परिचयः
जन्मः मध्य प्रदेश के अशोकनगर ज़िले के ग्राम ओंडेर में 5 दिसंबर 1982 को।
शिक्षाः स्नातक।
सृजनः जनपथ, देषबंधु, दैनिक जनवाणी, कल्पतरु एक्सप्रेस व कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं, वेब पोर्टल्स में रचनाएँ प्रकाशित
संप्रतिः स्वतंत्र पत्रकार व ग्राफिक आर्टिस्ट
ब्लाॅगःख़लिश
संपर्कःsahil5603@gmail.com  09868571829)

  
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शनिवार, 3 मई 2014

जंगल से शहर पहुंचा जानवर



 
कार्टून इरफ़ान जनसत्ता से साभार





 शहरोज़ की दो अख़बारी फुलझड़ी  


गिरगिट भी हुआ पानी-पानी
जंगल से शहर पहुंचा कोई भी जानवर कहते हैं कि बौखलाहट में और भी खूंख्वहार हो जाता है। दरअसल उसको  संसार की चालाकियां और धूर्त्तताएं भी आ जाती हैं। और जब जंगल का राजा शेर ही अपनी मांद से निकलकर आ जाए। तो कहानी यही है कि अपने इलाक़े  के  कुत्तों को खा और चबा  जाने के बाद महाराज अब नगर-नगर भ्रमण कर रहे हैं। हालांकि  उन्होंने अपने जंगल में गाय, बकरी और भैंसों का सीधे-सीधे कोई अहित नहीं किया। बल्कि  कुत्ते के पिल्लों को  मरवाने में इन्हीं की मदद ली। अब प्रचार भी कर रहे हैं कि उनके राज में बकरी और शेर एक ही घाट पर पानी पीते हैं। लेकिन उन्हें क्या पता था कि  इस संसार में भांति-भांति के जीव-जंतु सदियों से समरसता से रहते आ रहे हैं। वे वसुधैव कुटुंबकम का पालन करते हैं। पर यह शेर इस सूत्र वाक्य को  मानते हुए भी नेता की तरह अपने-अपने ही राज बल का राग गुर्रा रहा है। वह दक्षिण गया तो बोल दिया, हम शेर-वेर नहीं हैं। आप ही के  जैसे पिछड़े वर्ग के हैं। हां राजा बनना चाहते हैं, पर हम पिछड़ो को कोई आगे बढऩे ही नहीं देता। इनकी गुर्राहट कभी झूठ होती नहीं। फिर भी लोग हुआं-हुआं करने लग जाते हैं। यह तो गुस्से में उसकी चमड़े की जबान फिसल जाती है। अब देखिए, दक्षिण में जो बोले, उसे पूरब में आकर बदल दिए। उनके अंदर की  महत्वकांक्षा ने उबाल मार दिया। गुर्राए, साथियो! अब चारा खा व चबा जाने वाली गायें और भैसें भी राजा बनना चाह रही हैं। लेकिन अब जब यही चारा गुट की एक भैंस उनकी  मंडली में शामिल हो गई। तो एक सिंह ने बैर-भाव भुलाकर  एक नेता की तरह उनका फूलमालाओं से स्वागत कर डाला। मालापहनाने वालों को गोबर भर गरियाने वाली भैंस भी तुरंत ही सब कुछ भूल बैठी। इन दोनों का बदलता रंग देखकर गिरगिट भी पानी-पानी हो गया।

श्वान उवाच
शहर में इनदिनों भौकने की आवाज़ हर रात और दोपहर के सन्नाटे को तोड़ती है. जब आप गौर से सुनें, तो इसके कर्कश स्वर विदेशी पॉप सा भान कराएंगे। दरअसल इस वसंत में कुत्ते भी दीवाने हो रहे हैं. हर मजनूँ की तरह यह कुत्ते अपनी लैला की खोज में गली-गली टहलते मिलेंगे। गर लैला न मिली तो उनका कंठ ऐसा फूटता है कि  समझ लीजिये बैजू ही बावरा हुआ जाता है।  वहीँ इनके साथियों का कोरस चौकीदारों की सीटी में अद्भुत मीठास पैदा कर देता है. लेकिन शहर के निगम को कौन समझाए। ख्वाह मख्वाह एंटी रेबीज टीम कुत्तों को पकड़ने में लगी है. जबकि उनकी गर्दन में जैसे ही लोहे की ज़ंजीर पड़ती है, उनका रुदन ढेरों रागों को तुरंता पेश कर देता है. अखबारों में मोटे अक्षरों में खबर छप रही है कि शहर में कुत्तों का आतंक। कई लोगों को काटा! मैं कला प्रिय व्यक्ति यह खबर पढ़ कर परेशान हो गया. मुझे तो उस फलां राँचवी नाम के उस शायर की आवाज़ से अच्छी इन श्वानों के स्वर में कविता लगती है. खैर सोचा कि उनके साथियों से पता किया जाए कि आखिर माजरा क्या है. देर रात जब आवारा गर्दी के बाद घर लौटा तो मेरी बाइक के आगे-पीछे कई श्वानों ने धमाचौकड़ी शुरू कर दी. सभी बेहद उदास थे. मैंने सख्त लहजे में पूछा, तुम सभी आजकल इंसानों को क्यों काटने  लगे हो. किसी नेता की तरह थुलथुल एक श्वान आगे आया. बोला, मौसम का असर हम जानवरों पर भी पड़ता है. लेकिन हैम सिर्फ इसी मौसम में किसी को काट लेते हैं. वो भी जब कोई हमें छेड़ता है तब. लेकिन अभी के चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों के लोग हर घर जाकर मिश्री घोलते हैं. आप सभी उनकी बातों से ऐसा मोहित हैं मानों अबकी बार यह नेता जी जीत कर आपकी सारी समस्याओं का समाधान कर देंगे। आप उनका जाप करने लगते हैं. लेकिन जब चुनाव बाद यही नेता पांच वर्षों तक आपको किसी न किसी बहाने काटना शुरू कर देते हैं, तो आपकी बोलती क्यों बंद हो जाती है? बोलिये!  
   भास्कर के  5/11/2014  के अंक में प्रकाशित

  
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शुक्रवार, 2 मई 2014

न रह ख़ामोश ऐ औरत तू कुछ कहती तो अच्छा था



 









कल्याणी कबीर की क़लम से

क़लम  पहले  तो  मेरी  ही  ज़ुबानी  लिखना

क़लम  पहले  तो  मेरी  ही  ज़ुबानी  लिखना
फिर कभी और ज़माने  की  कहानी लिखना

जलन सीने  में अगर हो तो  आग लिख  देना
सुकून  दिल को मयस्सर हो तो पानी लिखना
.
जिसकी अस्मत को किया दाग़दार दुनिया ने
कफ़न मज़लूम का जैसा भी था धानी लिखना

आजमाईश में  मेरे ज़ब्त के चलेँ  खंज़र  
आज इसको भी वफ़ाओं की निशानी लिखना

 जिन्हें  रोटी की  तलब  थी, बारूद ले आये
राह भटकी कहाँ  जंगल में जवानी लिखना

बेबसी में जहाँ दम तोड़ रही उम्मीदें 
वहीं  आँखों में उजालों  की रवानी लिखना



2. 


मेरे अंदर की औरत डर न जाए कहीं
हौसलों से लिखा मज़मूं बदल न जाए कहीं 

परदे से सही पर बोलती तो हैं इस सरज़मीं की बुतें
राहों पे चीखता कारवाँ ठहर न जाए कहीं

कहाँ रुकते हैं रावण अब बड़ी होने तक सीता के
नन्हीं परियों के कानों तक खबर न जाये कहीं

ख्वाब देखना पर नींद से तुम प्यार मत करना
पहुँच के पाँव मंज़िल पर फिसल न जाए कहीं

बर्फ की सिल्लियों से हैं मेरे माँझी के गहरे ज़ख़्म
छुपा के रक्खा है एक दर्द , पिघल न जाए कहीं


3.

न रह खामोश ऐ औरत तू कुछ कहती तो अच्छा था
वतन के आधे नक़शे पे तू भी रहती तो अच्छा था

नहीं उम्मीद रख गैरों से तेरे अश्क़ पोछेंगे
तू अपने दर्द का मरहम खुद ही बनती तो अच्छा था

नज़र आती नहीं फ़सलें ज़मीं पे अब मुहब्बत की
तू बन के पावनी गंगा , यहाँ बहती तो अच्छा था

जो देते हैं सज़ा तुझको तेरे मासूम होने की
उनके शातिर गुनाहों को नहीं सहती तो अच्छा था

तुम्हें बाज़ार में बिकता खिलौना मानते हैं जो
ऐसे बीमार लोगों से नहीं डरती तो अच्छा था

अगर महफूज़ रखना है तुम्हें नामों-निशां अपना
थके-हारे हुए कदमों से भी चलती तो अच्छा था

4.

मेरी चूड़ी, मेरी बिंदी मेरी पहचान है साहिब
रहे आँचल सदा सर पे यही अरमान है साहिब

ना कह जंजीर तू इसको, ये है चाँदी की एक डोरी
मेरे पायल की रुनझुन पे, मुझे गुमान है साहिब

हमीं से जन्म लेते हैं जमीन पे रिश्तों के सरगम
मेरी ममता के आँचल मॆं शिशु का गान है साहिब

मिटा पाना नहीं आसां विदा कर के भी यादों को
अपने बाबुल की बगिया की हम ऐसी शान हैं साहिब

सभी सर को झुकाते हैं , सभी माता बुलाते हैं
वही दुर्गा , वही काली की हम संतान हैं साहिब

मेरे हाथों में है चाबी तुम्हारे दिल के ताले की
तुम्हारी नींद भी हम हैं , तुम्हारी जान हैं साहिब


5. मेरे हिस्से की थोड़ी सी ज़मीं

कब तक नहीं सीखोगे मेरे रुतबे का एहतराम करना
कब तक मेरी पहचान पर अपने नाम का मुहर लगाकर
लेते रहोगे मालिकाना हक़ सिरफिरे ज़मींदार की तरह

मत रौंदों हमारे ख्वाबों को अड़ियल घोड़े बनकर
कि दुखते हैं लब मेरे दर्द का बोझ ढ़ोते-ढ़ोते
मत भटको महज़ बदन की तंग गलियों के भूगोल में
मेरे ज़ज्बात के गणित को भी जरा गुनगुनाओ तुम
निकलो अब हवस की गंध युक्त झाड़ियों के जंगल से

लगाओ एक तुलसी इंसानियत के महक वाली
ताकि बदनाम न हो आदम और हव्वा का ये आदिम रिश्ता
मत मानो तुम हमें अपना मुकम्मल आसमाँ
पर दे दो मुझे मेरे हिस्से की थोड़ी सी ज़मीं
कि अब एक महफूज़ वतन में जीने को जी चाहता है


6. औरत का दिल पीर की कुटिया

धूप की बूँदें चुनकर-चुनकर
मैं चलती हूँ रूककर-गिरकर
ये जीवन है नदी की लहरें
बहती रहती छलछल-कलकल
औरत का दिल पीर की कुटिया
फेंको न तुम कंकड़-पत्थर
देते धोखा बनकर अपने
चलना उनसे बचकर-बचकर
उड़ने के हैं अपने खतरे
ज़मीं पे रहना डटकर-डटकर
जिन पन्नों में छिपे हैं आँसू
उनकी बातें मतकर, बंदकर

7. मेरा अस्त्तित्व


महज कुछ शब्दों की गठरी नहीं है
मेरा अस्त्तित्व
न ही ये हो हल्ला मचाने का एक जरिया भर है
ये है मेरी सोच का हस्ताक्षर
मेरे होने का प्रमाण -पत्र
मेरी जीवन राह् है ये, जो हलचल से नहीं डरती
न ही घबराती है अनवरत जगती रातों से
ये एक रोशनी है
जिसकी छांव मॆं सांस ले रही है सृष्टि सारी
मेरा वजूद मेरे गर्भ मॆं पल रहे शिशु की तरह है
जो पहचान है मेरे स्त्रीत्व की
और
जिसका जीवित रहना
मेरे जीवित रहने से भी ज्यादा जरूरी है

8. औरत ही नहीं गंगा भी हूँ

मैं तुम्हारे हिस्से की औरत ही नहीं गंगा भी हूँ
बैठो किनारे
बतियाओ मेरी छलछलाती लहरों से
रख दो मेरी सीप में अपने सारे ज़ख़्म
बदल दूँगी मैं जिन्हें मुस्कान की मोती में
पाओगे एक अहसास सुकून भरा
डूबोगे पूरे ईमान के साथ मेरे वजूद में


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कवयित्री की और रचनाएं हमज़बान पर
       




(रचनाकार परिचय:
 जन्म: बिहार  के  मोकामा, बिहार में  ५ जनवरी  को जन्म
शिक्षा: रांची विश्विद्यालय से स्नातकोत्तर 
सृजन:   हिन्दुस्तान,  दैनिक जागरण,  दैनिक  भास्कऱ, प्रभात  खबर,  इस्पात मेल  आदि  में  रचनाएं। काव्य-संग्रह  गीली धूप  प्रकाशित 
संप्रति:  जमशेदपुर के एक स्कूल में  अध्यापिका के अलावा आकाशवाणी  में  आकस्मिक उद्घोषिका
ब्लॉग: kalyani@kabir
संपर्क: kalyani.kabir@gmail.com)


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