बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 3 मई 2014

जंगल से शहर पहुंचा जानवर



 
कार्टून इरफ़ान जनसत्ता से साभार





 शहरोज़ की दो अख़बारी फुलझड़ी  


गिरगिट भी हुआ पानी-पानी
जंगल से शहर पहुंचा कोई भी जानवर कहते हैं कि बौखलाहट में और भी खूंख्वहार हो जाता है। दरअसल उसको  संसार की चालाकियां और धूर्त्तताएं भी आ जाती हैं। और जब जंगल का राजा शेर ही अपनी मांद से निकलकर आ जाए। तो कहानी यही है कि अपने इलाक़े  के  कुत्तों को खा और चबा  जाने के बाद महाराज अब नगर-नगर भ्रमण कर रहे हैं। हालांकि  उन्होंने अपने जंगल में गाय, बकरी और भैंसों का सीधे-सीधे कोई अहित नहीं किया। बल्कि  कुत्ते के पिल्लों को  मरवाने में इन्हीं की मदद ली। अब प्रचार भी कर रहे हैं कि उनके राज में बकरी और शेर एक ही घाट पर पानी पीते हैं। लेकिन उन्हें क्या पता था कि  इस संसार में भांति-भांति के जीव-जंतु सदियों से समरसता से रहते आ रहे हैं। वे वसुधैव कुटुंबकम का पालन करते हैं। पर यह शेर इस सूत्र वाक्य को  मानते हुए भी नेता की तरह अपने-अपने ही राज बल का राग गुर्रा रहा है। वह दक्षिण गया तो बोल दिया, हम शेर-वेर नहीं हैं। आप ही के  जैसे पिछड़े वर्ग के हैं। हां राजा बनना चाहते हैं, पर हम पिछड़ो को कोई आगे बढऩे ही नहीं देता। इनकी गुर्राहट कभी झूठ होती नहीं। फिर भी लोग हुआं-हुआं करने लग जाते हैं। यह तो गुस्से में उसकी चमड़े की जबान फिसल जाती है। अब देखिए, दक्षिण में जो बोले, उसे पूरब में आकर बदल दिए। उनके अंदर की  महत्वकांक्षा ने उबाल मार दिया। गुर्राए, साथियो! अब चारा खा व चबा जाने वाली गायें और भैसें भी राजा बनना चाह रही हैं। लेकिन अब जब यही चारा गुट की एक भैंस उनकी  मंडली में शामिल हो गई। तो एक सिंह ने बैर-भाव भुलाकर  एक नेता की तरह उनका फूलमालाओं से स्वागत कर डाला। मालापहनाने वालों को गोबर भर गरियाने वाली भैंस भी तुरंत ही सब कुछ भूल बैठी। इन दोनों का बदलता रंग देखकर गिरगिट भी पानी-पानी हो गया।

श्वान उवाच
शहर में इनदिनों भौकने की आवाज़ हर रात और दोपहर के सन्नाटे को तोड़ती है. जब आप गौर से सुनें, तो इसके कर्कश स्वर विदेशी पॉप सा भान कराएंगे। दरअसल इस वसंत में कुत्ते भी दीवाने हो रहे हैं. हर मजनूँ की तरह यह कुत्ते अपनी लैला की खोज में गली-गली टहलते मिलेंगे। गर लैला न मिली तो उनका कंठ ऐसा फूटता है कि  समझ लीजिये बैजू ही बावरा हुआ जाता है।  वहीँ इनके साथियों का कोरस चौकीदारों की सीटी में अद्भुत मीठास पैदा कर देता है. लेकिन शहर के निगम को कौन समझाए। ख्वाह मख्वाह एंटी रेबीज टीम कुत्तों को पकड़ने में लगी है. जबकि उनकी गर्दन में जैसे ही लोहे की ज़ंजीर पड़ती है, उनका रुदन ढेरों रागों को तुरंता पेश कर देता है. अखबारों में मोटे अक्षरों में खबर छप रही है कि शहर में कुत्तों का आतंक। कई लोगों को काटा! मैं कला प्रिय व्यक्ति यह खबर पढ़ कर परेशान हो गया. मुझे तो उस फलां राँचवी नाम के उस शायर की आवाज़ से अच्छी इन श्वानों के स्वर में कविता लगती है. खैर सोचा कि उनके साथियों से पता किया जाए कि आखिर माजरा क्या है. देर रात जब आवारा गर्दी के बाद घर लौटा तो मेरी बाइक के आगे-पीछे कई श्वानों ने धमाचौकड़ी शुरू कर दी. सभी बेहद उदास थे. मैंने सख्त लहजे में पूछा, तुम सभी आजकल इंसानों को क्यों काटने  लगे हो. किसी नेता की तरह थुलथुल एक श्वान आगे आया. बोला, मौसम का असर हम जानवरों पर भी पड़ता है. लेकिन हैम सिर्फ इसी मौसम में किसी को काट लेते हैं. वो भी जब कोई हमें छेड़ता है तब. लेकिन अभी के चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों के लोग हर घर जाकर मिश्री घोलते हैं. आप सभी उनकी बातों से ऐसा मोहित हैं मानों अबकी बार यह नेता जी जीत कर आपकी सारी समस्याओं का समाधान कर देंगे। आप उनका जाप करने लगते हैं. लेकिन जब चुनाव बाद यही नेता पांच वर्षों तक आपको किसी न किसी बहाने काटना शुरू कर देते हैं, तो आपकी बोलती क्यों बंद हो जाती है? बोलिये!  
   भास्कर के  5/11/2014  के अंक में प्रकाशित

  

Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

0 comments: on "जंगल से शहर पहुंचा जानवर "

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)