बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 13 मई 2014

अंत तक आते-आते भ्रष्ट आचरण ने गोल-गप्पा कर दिया विकास @ चुनाव


वैमनस्य,  नफरत व घृणा के सबसे अहम  प्रतीक
सबसे बड़े पद के सबसे बड़े दावेदार



















मनोरमा सिंह की क़लम से

 2014 लोकसभा चुनाव खत्म हो गए अब 16 मई का इंतजार है जब मतगणना शुरू होगी और नतीजे सामने आएंगे। वैसे चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों, ओपेनियन पोल और चैबीसों घंटे समाचार चैनलों पर चल रहे बहसों पर यकीन करें तो नरेन्द्र मोदी नतीजों से पहले ही प््रधानमंत्री बन चुके हैं और भाजपा-एनडीए की सरकार के शपथ लेने की औपचारिकता ही बस बाकी है। कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर में चल रही है और बाकी दलों का अकेले अपने दम पर कोई दावा बनता ही नहीं है, वाम दल खुद अपने आप को किनारे ढ़केल चुके हैं, तीसरा मोर्चा अगर एक संभावना हो भी तो ये चुनावी नतीजों के बाद ही सामने आएगा। पूरा चुनाव गुजर गया लेकिन भाजपा और कांग्रेस के बरक्स तीसरे मोर्चे की बात हवा-हवाई ही रही ना कि एक ठोस हकीकत। सच कहा जाए तो तीसरा मोर्चा चुनावी नतीजों के बाद अलग-अलग क्षेत्रिय दलों और उनके क्षत्रपों के हितों और उनकी निजी महत्वकांक्षाओं को साधने का जरिया से ज्यादा कुछ नहीं है इसलिए जनता भानुमति के इस कुनबे के बजाए एनडीए या यूपीए पर ज्यादा भरोसा करेगी। बहरहाल, इस चुनाव में अरविंद केजरीवाल और उनकी उनकी आम आदमी पार्टी ने जरूर एक विकल्प के तौर पर दस्तक दिया है पर ये अरविंद और उनके समर्थकों को भी पता है कि अगली संसद में उनकी मौजूदगी प््रतिरोध के तौर पर होगी जिसकी ताकत उन्हें मिलने वाली सीटों पर निर्भर करेगी, जो फिलहाल बहुत ज्यादा तो नहीं ही नजर आ रही हैं।
बहरहाल, इस चुनाव के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा गंभीर सवाल कुछ और ही हैं और उसकी चर्चा ज्यादा जरूरी है। ये सच है कि चुनाव की आहट के साथ देश के राजनीतिक माहौल और घटनाक्रमों ने अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को आतंकित किया है। चुनाव अभियान के दौरान की कई बयानबाजियां भी सौहार्द पैदा करने वाली कतई नहीं रहीं। सबसे बड़ी बात मौजूदा भारतीय राजनीति में वैमनस्य,  नफरत व घृणा के सबसे अह्म प््रतीकों में से एक  फिलहाल प््रधानमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार हैं।

मुसलमान 2002 गुजरात भुले नहीं हैं, उनका डर सही साबित हुआ जब भाजपा की ओर से गुजरात दंगों की पटकथा लिखनेवाले नामों में से एक अमित शाह को उत्तर प््रदेश का चुनाव प््रभारी बनाने के साथ पश्चिमी उत्तर प््रदेश दंगों की आग में जल उठा। और अभी हफ्ता भर पहले ही उत्तरपूर्व के इलाकों में बयानों और राजनीतिक विरोध की परिणति अल्पसंख्यकों की हत्या के रूप में हुई। जाहिर है इस डर को हम कितना भी समझने का दावा करें लेकिन इस अनुभव की चपेट में आए और आ सकने वाले लोगों की तरह नहीं समझ सकते। नहीं तो अभी बात होनी चाहिए थी हाशिये  पर रखे लोगों को मुख्यधारा में लाने की, उनकी भागीदारी की। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक मुसलमानों की बड़ी आबादी अभी भी बहुत पिछड़ी हुई है, शिक्षा और रोजगार उन्हें उपर लाने के लिए बहुत जरूरी है, हालांकि दलितों  के मुकाबले वो बेहतर हैं पर ओबीसी से पिछड़े हुए हैं। कुल आबादी में मुसलमान 13 फीसद से ज्यादा हैं पर उनकी राजनीतिक भागीदारी केवल 5 फीसद के करीब है। ऐसे में राजनीतिक दलों की प््राथमिकता मुसलमानों समेत विकास की दौड़ में पीछे छूट गयी सभी जातियां और समुदाय होने चाहिए थे, उनके लिए नीतियों, योजनाओं को चुनावी घोषणापत्रों और चुनावी बहसों में जगह मिलनी चाहिए थी पर ऐसा हुआ नहीं। सबसे बढ़िया उदाहरण बिहार के लालू प््रसाद यादव का है जो भ्रष्टाचार के आरोपों और जेल जाने के बाद भी और अपने कार्यकाल में बिहार को विकास के हर मापदंड पर सबसे पिछले पायदान पर रखने के बावजूद धर्मनिरपेक्षता की गोटी खेलकर अपनी राजनीतिक जमीन पाने जा रहे हैं और शायद उन्हें कामयाबी भी मिल जाएं।       


दरअसल, नरेन्द्र मोदी के प््रधानमंत्री बनने का सोचकर ही देश की एक बड़ी आबादी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के सवालों को लेकर इस कदर आशंकित है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और घोटालों की तमाम कहानियों को नजरअंदाज करने को मजबूर है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा को रोकना है , पर विकल्प कोई नहीं है, जबकि राहुल गांधी की जमीनी स्तर पर राजनीति करने की तमाम कोशिशें और उनके लिए प्रियंका गांधी के पूरे दम-खम के साथ मैदान में कूद पड़ने से भी यूपीए सरकार की छवि पर से घोटालों की कालिख साफ नहीं होने वाली और ये भी कैसे भूलना चाहिए कि इसमें एक बड़ा नाम तो खुद प्रियंका के पति राबर्ट वाड्रा का भी है? लेकिन जब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी मौजूदगी के बावजूद वामदल, तीसरा मोर्चा खुद किनारे होते जा रहे हों और आम आदमी पार्टी इस चुनाव में सरकार बनाने के दावों के साथ उतरी ही नहीं थी। ऐसे में विकल्प नरेन्द्र मोदी बरक्स राहुल गांधी, सोनिया गांधी ही हैं, जाहिर है तब मोदी का ही पलड़ा भारी है।

यहां ये भी विमर्श योग्य है कि  पूरी आबादी में 13 फीसद से ज्यादा होने के बावजूद और आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी खुद मुसलमानों में से अपना कोई मजबूत नेतृत्व उभर कर सामने क्यों नहीं आया, जिस तरह से दलितों में से कांशीराम और मायावती आए और क्षेत्रिय राजनीति में अन्य पिछड़ी  जातियों के प््रभावशाली नेता। मुसलमानों के नुमाइंदे लगातार इन्हीं दलों के साथ कभी राष्ट्रविरोधी तो कभी तुष्टिकरण के आरोपों के बीच में अपनी राजनीति करते रहे हैं। अलग से नेतृत्व देने के नाम पर धार्मिक नेता हैं,  जो अपने समीकरणों व निजी संबंधों की आड़ में कभी भाजपा को वोट देने का फतवा जारी करते हैं तो कभी कांग्रेस को।
इस चुनाव ने सांप््रदायिकता और दो अलग धार्मिक समुदाय के बीच सौहार्द के सवाल को इतना बड़ा कर दिया गया है कि मंहगाई, शिक्षा, रोजगार और भ्रष्टाचार व घोटालों पर चर्चा और बहस सिरे से गायब है। ये अजरज की बात नहीं कि जिस भ्रष्टाचार और लोकपाल के मसले को लेकर अरविंद केजरीवाल की राजनीति शुरू हुई थी और जिसके बल-बूते वो दिल्ली की राजनीति में शिखर तक पहुंचे, चुनाव का अंतिम चरण आते-आते उनकी बातचीत और बहस के केन्द्र में भी केवल भ्रष्टाचार का मसला नहीं रह गया, वो भी बार-बार ये साबित करने की कोशिश में दिखें कि उनकी राजनीति भी धर्मनिरपेक्ष राजनीति है। इसमें कोई दो राय नहीं कि  सांप्रदायिकता बहुत अहम सवाल है और अल्पसंख्यकों के लिए सबसे जरूरी मसला है पर यहां सवाल ये भी है कि आखिर क्यों सांप््रदायिकता फिर एक बड़ा खतरा है और धर्मनिरपेक्ष मूल्य संकट में?
औसत भारतीय अपने स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष हैं,  लेकिन इस चुनाव ने धीरे-धीरे जिस तरह के राष्ट्रवाद की जमीन तैयार की है वो जरूर चिंता का विषय है.  खासतौर पर पढ़े-लिखे खाते-पीते मध्यमवर्ग के बीच। इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले बहुसंख्य लोग इस बात को सहजता से नहीं ले पा रहे। हालांकि एक तर्क ये भी है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ंे बहुत मजबूत हैं.  यहां बड़े-बड़े तानाशाहों को भी जम्हुरी तौर-तरीके अपनाने ही पड़ते हैं, इंदिरा गांधी और आपातकाल और उसके बाद का दौर इतिहास में ज्यादा पुरानी बात नहीं है। इसलिए मोदी से भी नहीं डरना चाहिए, अगर उन्हें बहुमत मिलता है, तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए और अपने लोकतंत्र पर भरोसा रखना चाहिए। पर दूसरी ओर ये भी दिख रहा है कि एक नरेन्द्र मोदी के लिए भाजपा खुद उनके आगे कितना झुक गयी है। मोदी के कद के आगे भाजपा का कद बौना हो चुका है, साथ ही पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं को भी किनारे कर दिया गया जो कि नहीं होना चाहिए था। इससे मोदी के काम करने के तरीकों के बारे में संकेत तो मिल ही जाता है। हांलाकि ये भी सच है कि कौन पार्टी सांप््रादायिक नहीं है? कांग्रेस चैरासी और भागलपुर  के दंगों की गुनहगार है, तो गुजरात के 2002 के दंगों के लिए भाजपा और नरेन्द्र मोदी। और मुसलमानों के सबसे बड़े नेता कहलाने वाले समाजवादियों के राज में हाल ही में मुज़फ़्फ़र नगर में दंगे हुए हैं। वैसे कहने वाले ये भी कहेंगे कि जहां तक कांग्रेस पर लगे भ्रष्टाचार  के आरोपों और घोटालों की बात है तो इस मामले में दूसरे दलों का रिपोर्ट कार्ड भी कांग्रेस जैसा ही है। दूसरी ओर कांग्रेस की बात करें तो 2014 लोकसभा चुनाव की एक और खास बात, नौ साल से ज्यादा प्रधानमंत्री रहने के बावजूद मनमोहन सिंह का चुनाव अभियान से लगभग किनारे रहना और सार्वजनिक मंचों पर कुछ बोलने के लिए कहीं नजर नहीं आना भी है। प््रधानमंत्री जैसी शख्सियत को चुनाव अभियान में हाशिये पर कर दिया जाना क्योंकि वो नेहरू-गांधी खानदान से नहीं हैं, कंाग्रेस की संस्कृति पर टिप्पणी है।


(रचनाकार परिचय:
 जन्म: 11 जनवरी 1974 को बेगुसराय (बिहार) में
शिक्षा: स्नातक, भूगोल, बीएचयू,  स्नातकोत्तर हिन्दी, दिल्ली  विश्वविद्यालय, जनसंचार और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा  इग्नू  से 
सृजन: ढेरों पत्र- पत्रिकाओं में लेख, रपट प्रकाशित 
संप्रति: सात-आठ साल दिल्ली में प्रिंट और एक टीवी प्रोडक्शन हॉउस की नौकरी करने के बाद फिलहाल बंगलूरु में रह कर   पब्लिक एजेंडा के लिये दक्षिण के चारों राज्यों की रिपोर्टिंग
संपर्क: manorma74@gmail.com) 



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3 comments: on "अंत तक आते-आते भ्रष्ट आचरण ने गोल-गप्पा कर दिया विकास @ चुनाव "

रजनीश 'साहिल ने कहा…

बेहतर विश्लेषण.

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया सामयिक चुनाव विश्लेषण ..

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- अल्लामा जमील मज़हरी

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