ख़ालिद ए ख़ान की क़लम से
पहले की तरह
धुंधली आँखों से
बस देखती रहती है
गाँव की सीमा से लगती
धुंधली आँखों से
बस देखती रहती है
गाँव की सीमा से लगती
बडी सड़क की ओर
अब पगडंडी वापस नहीं लौटती
चौपाल में फैला हुआ है
मरघट सा सन्नाटा
शाम को बैठे रहते है
कुछ पुरनिया
हुक्के के साथ
अपनी शेष स्मृति
को धुएँ में उड़ाते हुए
खूँटी से लटके
ढोल मंजीरे
रह रह कर हिल
उठते है
हवा के झोके के साथ
अब इनेह कोई नहीं पूछता है
अब पगडंडी वापस नहीं लौटती
चौपाल में फैला हुआ है
मरघट सा सन्नाटा
शाम को बैठे रहते है
कुछ पुरनिया
हुक्के के साथ
अपनी शेष स्मृति
को धुएँ में उड़ाते हुए
खूँटी से लटके
ढोल मंजीरे
रह रह कर हिल
उठते है
हवा के झोके के साथ
अब इनेह कोई नहीं पूछता है
गाँव के चौराहे की
चाय की दुकान पर
अब नहीं लगता
लोगो का मजमा
वो बुढ़ा पंडित
खुद से ही बतियाता
रहता है
गाँव को छुकर निकलती
दुबली सी नदी
ठिठक कर ठहर सी गयी है
अब नहीं आता कोई
बच्चो का झुंड
करने इससे अठखेलियाँ
गाँव का सबसे बुढ़ा
बरगद
उसकी डालियाँ
अतीत से छनती
रहती है कुछ यादे
उससे चिमटी
एक पुरानी पतंग
की सरसराहट
उसे भविष्य में
ला पटकती है
और वह देखने लगता है
इधर से उधर
चाय की दुकान पर
अब नहीं लगता
लोगो का मजमा
वो बुढ़ा पंडित
खुद से ही बतियाता
रहता है
गाँव को छुकर निकलती
दुबली सी नदी
ठिठक कर ठहर सी गयी है
अब नहीं आता कोई
बच्चो का झुंड
करने इससे अठखेलियाँ
गाँव का सबसे बुढ़ा
बरगद
उसकी डालियाँ
अतीत से छनती
रहती है कुछ यादे
उससे चिमटी
एक पुरानी पतंग
की सरसराहट
उसे भविष्य में
ला पटकती है
और वह देखने लगता है
इधर से उधर
शहर से आती हवा ने
भर दिए नए सपने
यहाँ की नयी पीढ़ी में
और यह उड़ पहुँचे
बड़े से शहर के बड़े से
कारखानों में
भर दिए नए सपने
यहाँ की नयी पीढ़ी में
और यह उड़ पहुँचे
बड़े से शहर के बड़े से
कारखानों में
अब यहाँ
जवान होती नस्लों
में भी शहर के ख्वाब
तैरते रहते है
जब ये गाँव से कटे लोग
कारखानों से लौटते हैं
अपनी अपनी मांदों में
थक कर
रात को करवट
बदलते हुए
जवान होती नस्लों
में भी शहर के ख्वाब
तैरते रहते है
जब ये गाँव से कटे लोग
कारखानों से लौटते हैं
अपनी अपनी मांदों में
थक कर
रात को करवट
बदलते हुए
गाँव का झोंका
छु जाता है इनकी देह से
तो आकार लेने लगता है
इनके बहुत अन्दर बैठ हुआ
इनका गाँव
ढोल मंजीरे की
थाप तेज होने लगती है
बरगद की छाँव
ढक लेती है
इन्हें
पूरा का पूरा
थाप तेज होने लगती है
बरगद की छाँव
ढक लेती है
इन्हें
पूरा का पूरा
दुबली सी नदी का
पानी
गिला कर देता
इनकी आँखों को
अब यह सभी
उड़ जाना चाहते हैं
वापस
पर
अब
पगडंडी वापस नहीं लौटती .
[कवि-परिचय: जन्म सुल्तानपुर में.और शिक्षा लखनऊ से वाणिज्य स्नातक .गत कई सालों से दिल्ली में रहकर रोज़ी-रोटी की तलाश.साहित्य,कला में रूचि.]
19 comments: on "पगडंडी वापस नहीं लौटती"
वाह भई बहुत सुंदर.
laut ti zaroor hai pagdandi bhai..lekin ab gaon bhi vo gaon nahin raha jiski aap charcha kar rahe hain,
खूबसूरत अभिव्यक्ति है....गांव से बाहर निकल कर लोग जीवन की आप धापी में लौटना भूल जाते हैं....पर गांव तो हर पल याद आता होगा...
खालिद साहब, आदाब
गांव और शहर के ताने बाने में बुनी ये नज़्म असरदार है.
मेरा एक शेर है-
वहां की सादगी में दर्स है रिश्तों की अज़मत का
जिसे तुम गांव कहते हो, वो मक़तब याद आता है.
बड़ी ख़ूबसूरती से यादों में डुबकी लगा आई है आपकी ये कलम , कितना दर्द छुपा है इस पगडंडी के वापस न लौटने की सोच में | दमदार !
प्रभावशाली अभिव्यक्ति
bahaut achche se kaha aapne.
Jaaved saab ka ek sher hai " Tum apne kasbon mein jaa ke dekho, wahaan bhi ab shehar hi base hain, ke khojte ho jo zindagi tum, vo zindagi ab kahin nahi hai..."
...सुन्दर रचना,बहुत बहुत बधाई!!!
bahut achha likhte hai.....sundar rachna.....badhai.
शहरोज़ भाई...फिर से ब्लॉग पूरा नहीं खुल रहा...बड़ी मुश्किल से रिफ्रेश कर कर के कविता पढ़ी है....कमेन्ट नहीं पोस्ट कर पा रही.मेल से भेज रही हूँ आप पब्लिश कर दीजियेगा
"गाँव की सौंधी महक समेटे हुए है,ये रचना....वो पगडण्डी,झाल मजीरे,दुबली सी नदी...बहुत कुछ अपना सा और छूटा छूटा सा लगा...ऐसा लगता है...ये निर्दोष समाँ बस हमारी यादों में ही जिंदा है....शहर की हवा ने गाँव के निर्मल बयार को मटमैला कर दिया है....बहुत ही अच्छी लगी सादगी भरी ये रचना "
RASHMI RAVIJA
Apna gaanv...vahan kee pagdandi yaad aa gayi aur aankhen nam ho gayin...
Sach to yah hai ki, chhodi huee pagdandipe ham nahi laut pate...dilme wo dard simta rahta hai..
phool sir chadha jo chaman se nikal gaya
izzat use mili jo watan se nikal gaya
kabile tarif khalid sahab , rachna dil ko chhu gaI , AUR GAON KI YAD TAJA HO GAI ................MUBARAK ITNI SUNDAR RACHNA KE LIYE
"बहुत बढ़िया जनाब......"
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com
pehli baar aapke blog per ayi hoon...bahut sunder aur sachhi rachna...kuch lines to behat sunder ban padi hain..jaisae ki..."gaav ko chuti dubli si nadi......."
sach hai ab gaanv gaanv nahi rahe..sab kuch badal sa gaya hai...shaher ki tez hawa gaanv ke peepal ko chu chuki hai....
ek bahut sashakt rachna ke liye badhai sweekaar karein.....
aur haan .ye photo aapki hi hai na?
anita
pagdandi ke prateek se bahut hi sufiyana bat kah dali hai....
काफी वक़्त से कोई कविता नहीं पढ़ी थी, सच कहूं तो आज यह रचना पढ़कर लगा कि मैं कुछ ऐसे ही रचना पढ़ना चाहता था.
बहुत-बहुत शुक्रिया. पढने में मजा आया वहीँ बदलते दौर से फिर फिर एकाएक टकराया हूँ. उम्दा रचना. जारी रहें.
gaun ki yaad dila gayi....per sach ab gaun gaun nahi lagta aur hamari bhi drishti badal gayi hai....hum subhidhabhogi ho gaye hai...
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी