बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

धरती आबा बिरसा के गांवों में आदिवासी कर रहे फिल्म उलगुलान

राम-रहीम नाम के कथित बाबाओं को दे रहे जवाब




 


















शहरोज़ की क़लम से


कभी उलिहातू गांव के बिरसा मुंडा ने अबुआ दिशुम अबुआ राज के लिए उलगुलान किया था। वो 19वीं सदी के आखिरी वर्षों की घटना है। अब 21 वीं सदी में उलिहातू के पास के जोरको गांव की लड़की माकी मुंडा नया उलगुलान कर रही है। प्रोजेक्ट बालिका उच्च विद्यालय, अड़की में नवीं क्लास की यह छात्रा फिल्म सोनचांद में नायिका है। इसने न कभी कैमरा का सामना किया, न ही कभी मुंबई ही गई। लेकिन फिल्म में आदिवासी धाविका की केंद्रीय भूमिका उसे बहुत रास आ रही है। दरअसल उसके उत्साह की वजह है, कि पहली बार आदिवासी ही आदिवासियों के लिए आदिवासियों पर फिल्म बना रहे हैं। जिन्होंने कभी अभिनय नहीं किया है, इसमें प्रमुख किरदारों को जी रहे हैं। पेशे से चालक तिर्की बैठा उर्फ फुचो दा एक ऐसे ही अहम कलाकार हैं। इसके अलावा और भी कई नाम हैं, जिनकी पर्दे पर आने की हसरत पूरी होने जा रही है। नये लोगों में अधिकतर गुनतुरा गांव के लोग हैं। इनमें बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक शामिल हैं। वे खुश भी इसलिए हैं कि उनके ही गांवों में, उनकी ही भाषा-बोली में फिल्म बन रही है। बिर बुरु ओम्पाय मीडिया एंड इंटरटेनमेंट के बैनर तले फिलहाल खूंटी के अड़की प्रखंड के विभिन्न स्थानों पर इसकी शूटिंग चल रही है।

10 जिलों के आदिवासी कलाकार
 
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पूणे के ग्रेजुएट व निर्देशक रंजीतउरांव ने बताया कि राज्य के करीब 10 जिलों के आदिवासी कलाकारों को फिल्म में मौका मिला है। इसमें मार्शल बारला, रीमा ठाकुर, प्रकाश मसीह सोय और राजन कुजूर (खूंटी), आभा मांझियान, अंजित अरमान, बैजंती सरदार, छवि दास, गणेश ठाकुर हांसदा , जीतराई हांसदा, मानु मुर्मू, नरसिंह टुडू, फुलमनी सोरेन, पोरान हांसदा, राहुल सिंह तोमर, रितेश टुडू, टीकाराम हांसदा, विमल भंज और विनोद मांझी (जमशेदपुर), रवि लकड़ा, शैलजा बाला, संदीप कुमार, सुदीप केरकेट्टा, सुशील केरकेट्टा (रांची), तिलक सिंह मुंडा, राकेश गाड़ी (बोकारो), शीतल बागे, विमल भंज (चाईबासा), कुमेश कुमार मंडल, सागर कुमार, कुमार अश्विनी, सबीना (धनबाद), ब्रजेश उरांव (गुमला), पवन कुमार (लोहरदगा), लखीचरन सिंह मुंडा (सरायकेला खरसावां) और तारकेलेंग कुल्लू व पुरुषोत्तम कुमार (सिमडेगा) शामिल हैं।
टेक्निकल टीम में भी आदिवासी
 
मुंडारी के साहित्यकार जोवाकिम तोपनो व उनकी पत्नी मरियम तोपनो, हिंदी व संताली के लेखक शिशिर टुडू भी फिल्म में भूमिकाएं कर रहे हैं। जबकि मानु मुर्मू, एस मृदुला, शीतल बागे, सुनील हांसदा, रितेश टुडू और जीतराय हांसदा जैसे रंगकर्मी भी फिल्म में नजर आएंगे। फिल्म की टेक्निकल टीम में भी आदिवासी शामिल हैं। कैमरा यूनिट में रांची के प्रवीण होरो, सुरेंद्र कुजूर हैं तो साउंड रिकॉर्डिंग का जिम्मा सत्यजीत रे फिल्म इंस्टीट्यूट के मंजुल टोप्पो और जेवियर मॉस कम्युनिकेशन के बसंत अभिषेक बिलुंग व विकास पर है। महेश मांझी तकनीकी को ऑर्डिनेशन संभाल रहे हैं।
सरहुल तक प्रदर्शित होगी सोनचांद
 
निर्माता वंदना टेटे ने बताया कि शूटिंग 40 दिनों तक चलेगी। सरहुल तक फिल्म प्रदर्शित करने की योजना है। उन्होंने कहा, हमारे पास एक समृद्धशाली कला परंपरा है। हमारे लोग नैसर्गिक रूप से नृत्य, गीत और संगीत में पारंगत होते हैं। परंतु सिनेमा में आज तक झारखंडी लोगों को अवसर नहीं मिला। सोनचांद में 80 फीसदी कलाकार आदिवासी हैं। फिल्म समुदाय के सहयोग से बन रही है। छह सितंबर से दूसरे शेड्यूल की शूटिंग शुरू हुई है। इसमें बड़ी संख्या झारखंड के लोगों की है ही, बाहर के भी कुछ चुनिंदा कलाकार एक्टिंग कर रहे हैं। रांची व इसके आसपास में फिल्मांकन के बाद आजकल यूनिट खूंटी के अड़की प्रखंड के गांवों में है। रांची के मशहूर रंगकर्मी अशोक पागल की भी इसमें बड़ी दमदार भूमिका है। फिल्म की टेक्निकल टीम में फिल्म इंस्टीच्यूट, पुणे से प्रशिक्षित नीरज समद, कोलकाता के राजकुमार के अलावा मुंबई से पहुंचे कैमरामैन कृष्णदेव भी हैं।


दैनिक भास्कर, रांची के 22 सितंबर 2015 के अंक में प्रकाशित





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शनिवार, 19 सितंबर 2015

रवीश की रविश पर युवा पत्रकार की रनिंग

एक ख़त उनके लिए जो इसे पढ़ना नहीं चाहेंगे

 

रवीश कुमार रिपोर्टिंग के दौरान एक ग्रामीण के साथ। फोटो साभार।







गुंजेश की क़लम से

मेरे समाज’ के नेक लोगो !

इस ख़त को कई दिनों से टाल रहा था। बल्कि टाल ही चुका था। लेकिन इधर दो हफ्ते से रवीश कुमारकी पत्रकारिता ने मुझे फिर से हिम्मत दी है। मुझे यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है मैं यह ख़त रवीश के प्रभाव में आ कर ही लिख रहा हूँ। और अच्छा लग रहा है कि मैं कम से कम किसी तोगड़िया, किसी साध्वी, किसी ओवैसी के प्रभाव में या प्रतिक्रिया में कुछ नहीं लिख रहा हूं। लेकिन, बहुत संभव है आप ऐसे पढ़ कर अच्छा महसूस ना करें। एक तो इस ख़त में बातों का इतना बिखराव होगा, दूसरा इसका कंटेंट भी बहुत पुराना, एकदम घिसापिटा और आपकी सहिष्णुता पर सवाल करने वाला होगा।

कहां से शुरू करूँ ? तारीखों से ? नामों से ? तथ्यों से ? बयानों से? या बात से ? बीमार से? बीमारी से ? इलाज से ? तीमारदार से ? या अस्पताल से ? जुगनू, आदित्य, टूक, ये क्रमशः मेरी भतीजी, भांजे और भांजी के नाम हैं। जिनसे मेरी खूब छनती है। पंखुरी, गांधी और कृति ये क्रमशः मेरे फेसबूक मित्रों गिरीन्द्रनाथ जी, सत्येन्द्र भाई और विमल भाई के बेटे-बेटियों के नाम हैं। इसमें विमल भाई को छोड़ कर गिरीन्द्रनाथ जी और सत्येन्द्र भाई से मेरी ज़्यादा बातचीत भी नहीं है। लेकिन पंखुरी और गांधी के माध्यम से मैं इन्हें बहुत जानने लगा हूं और एक जुड़ाव सा महसूस भी होता है।

नेक लोगों, आपको यह बात सीनिकल लग सकती है लेकिन पिछले कुछ दिनों से मैं डरा हुआ और शर्मिंदा हूं। अविनाश, अमन, तान्या, मेनका या अंकित अब सिर्फ नाम नहीं रह गए हैं ? ये किसी आरटीआई के जवाब जैसे हैं ? अविनाश की माँ डाक्टर से कहती रही कि वह उसके बिना ज़िंदा नहीं रह पाएगी, वह रही भी नहीं। मेनका और अंकित के पिता दिनेश के दुख की सीमा के सोचना ही अथाह लगता है। आप सोच सकते हों तो बताइयेगा जिसने 2010 में डेंगू से अपना 11 साल के बेटा खोया हो यदि पांच साल बाद उतनी ही बड़ी उसकी बेटी भी उसी बीमारी की शिकार हो जाए, तो उसके दुख की क्या सीमा होगी। और यह सिर्फ राजधानी से निकलने वाले तथ्य हैं। भागलपुर, गोड्डा, दुमका, रांची, पटना, कहलगांव, बांका, वर्धा, नांदेड़, नागपुर, अकोला, यवतमाल, राऊरकेला, भिलाई इनके बारे में बात ही कहां हो रही है ? इनसब जगहों में तो बुखार को आत्महत्या और आत्महत्या को शराबखोरी साबित करना बहुत आसान है। और किया ही जाता है। इस सिस्टम से तो चिढ़ होती है। लेकिन मैं इससे डरा हुआ नहीं हूं? मुझे डर है और मैं शर्मिंदा हूं तो इसबात से कि 16 सितंबर को दुमका के एक स्कूल में एक क्लास फोर का बच्चा हार्ट अटैक से मारा गया? मैंने पूछा नहीं लेकिन 10-11-12 साल उम्र रही होगी शुभनील की। ठीक है, उसके दिल में कोई खराबी रही होगी। लेकिन 10-12 साल की उम्र में दिल की खराबी? यहां भागलपुर में 15 तारीख को अपने डेस्क पर मैंने जो खबर एडिट की, वो एक चार साल की बच्ची के बारे में थी जो पिछले 2 साल से लगातार दस्त से पीड़ित थी। डॉक्टरों ने जांच में पाया कि दो साल पहले उसने गेहूं का कोई पकवान खाया होगा, जिससे उसको यह बीमारी हुई। मुझे अभी उस बीमारी का नाम याद नहीं आ रहा। और नाम कुछ भी हो ज़रा सोचिए, एक तो वह पकवान किन कारणों से इतना जहरीला हो गया होगा, और फिर दो साल की बच्ची ने खाया भी कितना होगा? फिर डॉक्टरों को इस परिणाम तक पहुँचने में दो साल का वक़्त लग गया कि उसे बीमारी क्या है। वो भी भागलपुर जैसे शहर में जहां की चिकित्सा व्यवस्था पर आस-पास के करीब 6-7 जिले निर्भर हैं। प्राथमिक तौर पर तो ज़रूर ही।

मैं शर्मिंदा होता हूं जब 17 तारीख़ को एनडीटीवी के लिए लिखे एक लेख में आम आदमीपार्टी के नेता और पुराने पत्रकार आशुतोष बेशर्मी से अपनी गलती स्वीकारते हुए भी यह कहने से नहीं चूकते कि दुनिया के कुछ ही देशों में स्वस्थ्य सुविधाएं मानकों पर खरी उतरती हैं? हम मानकों पर खरे उतारने कि नहीं बल्कि न्यूनतम स्वस्थ्य जरूरतों की बात कर रहे हैं? और उसकी चाहत रखते हैं? खैर, दो हफ्ते लगातार प्राइमटाइम देखते हुए मुझे यह तो भरोसा हो ही गया है कि सरकार स्वस्थ्य सिस्टम तत्काल नहीं सुधार सकती। बहुत ईमानदारी से कोशिश करले तो भी नहीं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि हम अपनी पीढ़ियों के लिए कैसी हवा, कैसी जमीन, कैसा पानी, कितना जंगल छोड़ जाएंगे? और यह भी सरकार को ही सोचना है क्योंकि जंगल जिनके थे उनको तो वहाँ से बेदखल करने की प्रक्रिया चल रही है या वो बेदखल हो चुके हैं?

रवीश कुमार को दोहराऊँ तो यह कि हिन्दू-मुसलमान-पाकिस्तान-आरक्षण-बुलेट ट्रेन में उलझे रहने वाले नेक लोगों क्या आपने कभी सोचा है कि वह क्या वजह है कि आने वाले समय में हम 25000 करोड़ के पीने के पानी के कारोबार का बाज़ार बनने वाले हैं? क्या इसमें समाज का कोई दोष नहीं है कि पिछले तीन साल में (अगर मेडिकल रिपोर्ट और पुलिस की जांच को सही मानें तो ) मेरे चार से ज़्यादा दोस्तों और परिचितों ने या तो आत्महत्या करली या इसका प्रयास किया। मानसिक स्वस्थ्य के लिए कभी कोई चिंता मंदिर-मस्जिद बनवाने वाले हमारे नेताओं ने दिखाई है क्या? मैं इसलिए डरा रहता हूं कि कल जब जुगनू थोड़ी और बड़ी हो जाएगी और समाज से वही सब त्रासद अनुभव मेरे सामने बिखेर कर रख देगी (जिससे आज भी मेरे संवेदनशील दोस्त और सहेलियाँ गुज़रती हैं) और मुझसे सवाल करेगी कि समाज ऐसा क्यों है तो मैं क्या जवाब दूंगा? आपने कभी सोचा है कि आप अपनी बेटियों को क्या बताएँगे ‘साली आधी घरवाली कैसे होती है? (विषयांतर है, लेकिन यह मानसिक स्वस्थ्य से जुड़ा है)

नेक लोगों ज़रा सोचिएगा, एक डेंगू तो यह है ही जो फैला हुआ है, जिसने अविनाश के साथ उसके माँ-पिता को भी लील लिया। लेकिन एक संस्थागत डेंगू भी है, जिससे निपटने के लिए हम जन प्रतिनिधियों को चुनते हैं? और अगर आप यह मानते हैं कि कुछ नहीं बदलने वाला तो एक बार पीछे पलट कर देखिये कितना कुछ आउट कितने बुरे तरीके से बदल चुका है ? और अपनी हवा, पानी, मिट्टी के लिए सवाल कीजिये। वरना घर अस्पताल में तब्दील हो जाएगा, जब हम स्वस्थ्य रहेंगे तो वह एक खबर होगी।


रवीश जी,

आप समाज का पक्ष जानना चाहते हैं? किस समाज का जिसमें हम रहते हैं, या जिसमें हम रहने को मजबूर हैं ? आप इतना सब कुछ जानते हैं। यह भी जानते होंगे कि आपके इस ब्लॉग का जवाब दो ही तरह के लोग देंगे। एक जो आपको बहुत प्यार करते हैं और जिनसे आपको डर लगता है, दूसरे जो आपसे, और इस समाज में हर किसी से जो उनके जैसे नहीं हैं से, नफ़रत करते हैं। तीसरे तरह के भी लोग होंगे, जिनको शायद आप चाहते हैं, जो आपकी हर एक बात से सहमत नहीं हैं, लेकिन आप पर नज़र रखते हैं। जैसे जब आप बार-बार पैसों के लिए नौकरी नहीं बदलने की दलील देते हैं, तो मेरे जैसा पत्रकार जिसने अखबार की नौकरी में पचास महीने नहीं पूरे किए हैं और तीन संस्थान और चार नौकरियां बदल चुका है, वो आपसे पूछना चाहता है कि क्या नौकरी बदलने और पैसों के लिए नौकरी बदलना दलाल हो जाना है। हालांकि, मैं जानता हूं आपका यह मतलब बिलकुल नहीं रहा होगा। लेकिन हम ऐसे ही दीवाने लोग हैं, आपको एक-एक शब्द पर चेक करेंगे॥

लेकिन रवीश जी, आपका फेसबुक बंद करना एक गलत फैसला है। मैं नहीं मानता कि आपको पता नहीं होगा। लेकिन आप जानिए कि समाज, वह समाज जिसमें हम रहने को मजबूर हैं, में आम लोगों को क्या-क्या सहना और सुनना पड़ता है। एक अख़बार के दफ़्तर में अख़बार का स्थानीय संपादक और न्यूज़ एडिटर, डिप्टी न्यूज़ एडिटर जब यह तय करने लगें कि आप कहाँ रहेंगे और कहां नहीं। जब सवाल करने की प्रवृति की तारीफ भी आपको नक्सली कह कर होने लगे। जब पत्रकारिता में आपकी उम्र जितना समय गुज़ार चुका व्यक्ति जो आपके केआरए को भी प्रभावित कर सकता हो, आपके किसी मुसलमान के साथ खाना खाने पर आपसे सवाल करे। मुस्लिम मोहल्ले में रहने के आपके फैसले पर जब आपके साथ काम करने वाले यह कह कर शाबाशी दें कि मुस्लिम लड़कियां बहुत खूबसूरत होती हैं ? या कहें कि ज़रूर किसी मुस्लिम लड़की से तुम्हारा चक्कर होगा। या वो आपसे ऐसे ही पूछ दें खाने के दौरान कि तुम तो गाय का मांस भी खाते होगे? और रवीश जी यह सब तब हो, जब आपने घर वालों को समझा-बुझा कर। बहुत हद तक उन्हें नासमझ क़रार देकर, आपने अपने ड्रीम करियर की शुरुआत की हो। आपके ऊपर लालबहादुर वर्मा, एरिक होब्स्बाम, नोम चोमसकी, जॉन रीड, देरीदा, राही मासूम रज़ा, हरीशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, केदार नाथ सिंह, कुंवर नारायण, विनोद कुमार शुक्ल हावी हों। आपको अनिल चमड़िया और सुभाष गताड़े जैसे लोगों ने बिगाड़ा हो। तब आप क्या करेंगे। नौकरी को लात मारने का साहस सब में नहीं होता न!!!

रवीश जी, कोई माने या न माने मैं मानता हूं कि सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक असहिष्णुता हमारे समाज की गलियों में गंदी नालियों के साथ-साथ बहती है। इससे भी ज़्यादा जो भी सुनने की स्थिति में है, वह अपनी ही आवाज़, अलग-अलग सुर में, अलग-अलग गलों से सुनना पसंद करता है। उसे आवाज़ की विविधता चाहिए। बात की नहीं। यह बात मैंने इस समाज से कई बार, कम से कम मेरे हिस्से में अबतक जो समाज आया है, उससे हासिल की है। रवीश जी अभी भी जिस न्यूज़ रूम में आठ घंटे या उससे ज़्यादा ही बिताता हूं। वहाँ आज कल चुनाव का माहौल है। कई साथी पत्रकारों की चिंता यही है कि फलां व्यक्ति उम्मीदवार बन जाये, तो मैं उसका मीडिया प्रभारी बन जाऊंगा। फलां उम्मीदवार जीत जाये, तो मैं उसका पीए हो जाऊंगा। समाज का पक्ष यही है कि जो चल रहा है उसे बदलने की कोशिश मत करो। हिन्दू-मुसलमान अलग-अलग रहते आए हैं, तो एक साथ घर मत ढूंढो। न हिन्दू मुसलमान मोहल्ले में, और न मुसलमान हिन्दू मोहल्ले में। दोनों मिलकर तो इस देश के किसी मोहल्ले में घर न ढूंढे।

लेकिन रवीश जी, हम अपने अनुभव जुटा रहे हैं। आप हमसे, जाहिर है अपनी मेहनतों के कारण, बेहतर स्थिति में हैं। कोई आपसे सीधे ये पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता है कि क्या किसी मुस्लिम लड़की से चक्कर है क्या? कोई आपसे जबरदस्ती यह कहलवाने की ज़िद नहीं करेगा कि कहो, मोदी ज़िंदाबाद। अगर आपने जवाब में कह दिया कि हम तो कुत्तों को भी ज़िंदा और आबाद देखना चाहते हैं, मोदी तो फिर भी आदमी है। तो आपके बारे गॉसिप नहीं फैलाये जाएंगे, आपको दफ़्तर में उपेक्षित नहीं कर दिया जाएगा।

तो नमस्कार रवीश कुमार जी, प्लीज़ समाज को, देश को उंसकी गति प्राप्त करने दीजिये। आप डांटिए तो कभियो नहीं। कहिये ना कभी कि कभी रवीश कुमार मत बनना... हम सुनेंगे और मानेंगे। कौन आपको सेलिब्रिटी कहता है। हम तो पकड़ लेते हैं किस प्राइम टाइम में आपके मेहमान पलट गए या आप ठीक वैसा शो नहीं कर पाये जैसा आपने सोचा था। और आप इस गलतफ़हमी में तो मत्ते रहिएगा गा टीवी पर कुछ महान कर रहे हैं। वो जैसे आपसे अपनी किताब पर बातचीत के दौरान राजदीप ने कहा था ना कि नरेंद्र मोदी को मनमोहन सिंह को कम से कम एक बार धन्यवाद ज़रूर देना चाहिए कि वो बिलकुल नहीं बोले। वैसे ही आप वाई सिक्योरिटी वाले संपादकों को धन्यवाद दीजिये कि वो कुछ नहीं कर रहे हैं। बाप रे बाप देखते देखते, मतलब लिखते लिखते 870 शब्द हो गया, इसमें कितनी वर्तनी की गलतियाँ होंगी उसको ठीक कर के पढ़ लीजिये गा। इतना ही ठीक ना !!!

और बाकी, गोली मार भेजे में की भेजा शोर करता है।

(किसका ये मत पूछिए गा )




(रचनाकार-परिचय :

जन्म : बिहार झरखंड के एक अनाम से गाँव में 9 जुलाई 1989 को
शिक्षा : वाणिज्य में स्नातक और जनसंचार में स्नातकोत्तर महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा से। प्रभात खबर व भास्कर से संबद्ध रहे।
सृजन : अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं व वर्चुअल स्पेस में लेख, रपट, कहानी, कविता
संप्रति : हिंदुस्तान के भागलपुर संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : gunjeshkcc@gmail.com )



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बुधवार, 16 सितंबर 2015

हज सब्सिडी के नाम पर ठगना बंद करे सरकार

हज के नाम पर मुसलमानों से लिया जाता दोगुना पैसा


 




















सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से


गैर-इस्लामिक बताते हुए हज सब्सिडी को समाप्त करने का निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को 8 मई 2012 को दिया था। लेकिन तीन साल के बाद भी ऐसा नहीं हो सका। अब यह मांग झारखंड में बुलंद हो रही है। रांची एयरपोर्ट पर आप जाएं, तो इसका पता आजमीन--हज से मिलकर हो जाता है। अधिकतर लोगों का कहना है कि सरकार सब्सिडी के नाम पर मुसलमानों को बेवकूफ बना रही है। हज के नाम पर हर यात्री से करीब 50 से 60 हजार अतिरिक्त ले लिए जाते हैं। इस प्रकार हर साल उनकी जेब से हर साल 750 करोड़ सरकार ले लेती है। जबकि कहा जाता है कि आपको सरकार प्रतिवर्ष 600 करोड़ रुपए से ज्यादा रियायत दे रही है। गौरतलब है कि हज कमेटी की ओर से हर वर्ष हज पर जाने वाले सवा लाख लोगों को सब्सिडी मिलती है। इसका लाभ निजी ऑपरेटर के जरिये जाने वाले करीब 50 हजार लोगों को नहीं मिलता।


सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस आफताब आलम और रंजना प्रकाश देसाई की बेंच ने अपने फैसले में कहा था कि दस सालों के भीतर हज सब्सिडी खत्म कर देनी चाहिए। सन् 2006 में विदेश परिवहन और पर्यटन पर बनी एक संसदीय समिति ने भी एक समय सीमा के भीतर इसे खत्म करने के सुझाव दिए थे।




बदनाम करने की कोशिश बंद हो

कैलाश मानसरोवर और ननकाना साहिब गुरुद्वारा की यात्रा के लिए भी सरकार सब्सिडी देती है। लेकिन हज सब्सिडी के नाम पर मुसलमानों को बदनाम करने की कोशिश बंद होनी चाहिए। कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए इसे बंद करना चाहिए।

नदीम इक़बाल, झाविमो अल्पसंख्यक मोर्चा


लगातार की जा रही हटाने की मांग

भारत में मुसलमानों ने कभी हज के लिए सब्सिडी की मांग की नहीं है। बल्कि इसे हटाने की मांग लगातार की जाती रही है। मुसलमानो को हज के लिए सब्सिडी नहीं चाहिए। यदि मुसलमानो के प्रति हमदर्दी तो उनमें शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए सार्थक योजना बने।

इरफ़ान आलम, युवा मुस्लिम मंच



सब्सिडी ऊंट के मुंह में जीरा

सरकार एयर इंडिया को हर साल 200 से 300 करोड़ देती है। लेकिन सच यह है कि हर आजमीन--हज को सब्सिडी के नाम पर मात्र दस हजार की ही छूट मिलती है। यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। सरकार इसे बंद करे और इसके बहाने होती सांप्रदायिक राजनीति पर रोक लगाए।

खुर्शीद हसन रूमी, प्रवक्ता, राज्य हज कमेटी


मूर्ख बनाना बंद करे सरकार

आम दिनों में हिंदुस्तान से मक्का-मदीना जाने वालों का खर्च 60 हजार से अधिक नहीं पड़ता। वे इतने ही खर्च में उमरा कर लौट आते हैं। लेकिन सरकार इसके लिए हज के समय तीन गुना पैसा वसूलती है। उस पर तुर्रा यह है कि सब्सिडी दी जा रही है। सरकार मूर्ख बनाना बंद करे।

ज़बीउल्लाह, हज वोलेंटियर्स ऑरगेनाइजेशन



शरीअत नहीं देती इजाजत
 

शरीअत के मुताबिक हज उसी पर फर्ज है, जो साहिब--निसाब हो। यानी जिसपर जकात फर्ज है। दूसरे लफ्जों में जिसकी आर्थिक हैसियत अच्छी हो। इसलिए हज के सफर में सब्सिडी के नाम पर किसी तरह की मदद की रकम हासिल करना सही नहीं है। इससे इबादत में खलल ही पैदा होगा।

क़ारी जान मोहम्म्द रज्वी, शहर क़ाज़ी, रांची


मदद नहीं, नाइंसाफी है

यदि कोई बिना सरकारी दखल के हज के लिए मक्का-मदीना का सफर करे, तो उसे एक लाख से ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ेगा। इसमें आने-जाने का किराया, वहां पंद्रह से बीस दिनों तक ठहरने और खाने-पीने का खर्च भी शामिल है। लेकिन सरकार इसी के लिए पौने दो से सवा दो लाख रुपए एक आजमीन--हज से वसूलती है। यह मदद नहीं, बल्कि सरासर नाइंसाफी है। लूट है।

मौलाना कुतुबुद्दीन रिजवी, नाजिम आला, एदारा--शरीआ

















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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)