शाह आलम की क़लम से
बीहड़ कभी भी अपनी जगह नहीं बदलते पर बदल गए हैं बीहड़ों के रास्ते और उनकी उम्मीदें ! उम्मीदों पर ग्रहण है तो आशाओ पर पानी की गहरी धार.जिसमे से बिना सहारे के निकलना बीहड़ों के खातिर चुनौती भी है और जरुरी भी.कभी बीहड़ो की ओर रुख कीजिये तो उपेक्षा ही नज़र आएगी .
डकैतों के खात्मे के बाद विकास के नाम पर अरबों रुपयें मिले पर विकास आज भी उनसे मीलों दूर है . रहन- सहन आदिम युग का है .अपराधी यही पनपते है और भोगोलिक परिस्थितियाँ उनका साथ देती है.बीहड़ मैं दस्यु समस्या अभी भी मुह फैलाये खड़ी है.कभी पुलिस का आरोप तो कभी डकैतों की कारगुजारियो का दंश. शायद यही बीहड़ का दुर्भाग्य बन गया है. विकास की बातों पर ग़ौर करें विकास में बीहड़ उपेक्षीत है. क्योंकि विकास का पैकज बुंदेलखंड के हिस्से में जाता है और यहाँ विकास के दावे तक का अपहरण तरह-तरह के झंडे वालों द्वारा किया जाता रहा है. स्थानीय नेता भी बीहड़ो का रुख नहीं करना चाहते,लिहाजा उनको बीहड़ो का दर्द नहीं समझ आता. बीहड़ के गावों के विकास की खातिर " खेत का पानी खेत में और गाँव का पानी तालाब में " साथ ही अनेक भूमि सुधार योजनाओ का लाभ महज उन्ही जगहों पर हुआ है जहाँ आला अधिकारियो का दौरा कराया जाना है ,बाकि के किसानो के हाथ खाली ही रहे हैं. बीहड़वासियों के बूढी आँखों में विकास के सपने तो पलते है पर हकीकत का रूप लेने से पहले ही कईयों आँखें बंद हो चुकी हैं उम्मीदों पर ग्रहण है तो भविष्य गर्त में नज़र आता है. विकास के ठेकेदार रसूख वाले बन बेठे हैं. जिनको विकास के नाम पर हर पांच साल बाद वोट लेना है. उन्हें इस बात से कुछ लेना देना नहीं है कि विकास की जमीनी हकीकत क्या है ? कभी कोई बीहड़ो का रुख करता भी हैं तो बंजरो में कटीली झाड़ियो के बीच फिर से खुद को न उलझने का जज्बा लेकर जाता है. खबरिया संस्थाओं के लिए बीहड़ जभी खबर बनता है जब गोलियां चले तोप दागे जाएँ......उन्हें यहाँ दम तोड़ती..कोई बुधिया या तिल तिल दाने को तरसते लोग किसी प्रेमचंद कालीन उपन्यास के पात्र लगते हैं.
भोगोलिक परिस्थितियाँ दस्यु समस्या के लिए ज्यादा जिम्मेदार रही हैं. डकैतों की भूमि तो पहले भी चम्बल रहा है. बात करीब १९२० के आसपास की हैं जब ब्रह्मचारी डकैत ने डकैती छोडकर आज़ादी के समर में कूदा था, पर आज़ादी के इतिहास के समरगाथा से ब्रह्मचारी डकैत गायब हैं.बीहड़ न सिर्फ विकास में बल्कि इतिहास में भी उपेक्षा झेलता आया है. आज बीहड़ की पहचान उसकी बदनामी से ही होती है. निर्भेय गुर्जर,फक्कड़ ,कुशमा ,रज्जन ,जगजीवन आदि ऐसे नाम रहे
हैं जिन्होंने अपने दस्यु जीवन में बीहड़ों को अपने खौफ से उबरने दिया वहीँ दस्यु सुन्दरी सीमा परिहार के भाग्य का निर्णय मुम्बैया फ़िल्मी बाजार तय नहीं कर सका.
बीहड़ में अवाम का सिनेमा
आज बीहड़ों का कसूर क्या है ? क्या इस पर बदनुमा दाग बरकरार रहेगा ? या फिर सहयोग की खातिर हाँथ बढाने में कोई झिझक है ! हमारा मानना है कि बीहड़ों का शानदार इतिहास दुनिया के सामने आये न कि इसका बदनुमा अतीत. बीहड़ो में कुछ दर्द है कुछ शिकायत हैं कुछ अपनापन है तो कुछ पाने कि हसरत भी इन बीहड़ों में छीपी है . बीहड़ों की रवानी को दुनिया के सामने लाने की हसरत ही फिल्म उत्सव आयोजन का मकसद बनी . उम्मीदों से परे यह फिल्म उत्सव उन बीहड़ गावो में आयोजित हुआ जो दस्युओ से प्रभावित रहे हैं. मार्च में औरैया, इटावा, मालवा, अम्बेडकर नगर, मऊ में फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया . जिसमे खास तौर से जन सरोकारों पर केन्द्रित युवा फिल्मकारों की फिल्मो का प्रदर्शन करउन्हें प्रोत्साहन देना है. "अवाम का सिनेमा " के माध्यम से आम जन संवाद हो . इसी क्रम में देश में फिल्म के बहाने युवा प्रतिरोध को स्वर दे सकेंगे , उम्मीद दिखती है.
सभी चित्र शाह आलम द्वारा उपलब्ध.
शिक्षा : समाज कार्य [social work] में एम ए किया।
फैजाबाद में विभिन्न सामाजिक कार्यों में संलग्न रहे। उसके बाद दिल्ली आ गए।
सम्प्रति :जामिया मिल्लिया इस्लामिया से एम फिल कर रहे हैं।]
साभार रंगनाथ सिंह का बना रहे बनारस
25 comments: on "चम्बल के बीहड़ ...ज़िंदगी के रेतीले सफ़र"
विकास के ठेकेदार रसूख वाले बन बेठे
हैं. जिनको विकास के नाम पर हर पांच साल बाद वोट लेना है. उन्हें इस बात से
कुछ लेना देना नहीं है की विकास की जमीनी हकीकत क्या है
ब्रहमचारी डकैत ने डकेती छोडकर आज़ादी के समर में कूदा था, पर आज़ादी के
इतिहास के समरगाथा से ब्रहमचारी डकैत गायब हैं
aisa hi hita hai alam bhai!
बीहड़ मैं दस्यु समस्या अभी भी मुह फैलाये खड़ी है.कभी पुलिस का आरोप तो कभी
डकैतों की कारगुजारियो का दंश. शायद यही बीहड़ का दुर्भाग्य बन गया है.
विकास की बातों पर गोर करें विकास में बीहड़ उपेक्षीत है
. बीहड़ के गावों
के विकास की खातिर " खेत का पानी खेत में और गाँव का पानी तालाब में " साथ
ही अनेक भूमि सुधार योजनाओ का लाभ महज उन्ही जगहों पर हुआ है
जहाँ आला अधिकारियो का दोरा कराया जाना है ,बाकि के किसानो के हाथ खाली ही
रहे हैं.
Yah loktantr hazaron samasyaon se jhoojh raha hai..kahin,beehad hain,kahin Sundarban to kahin alfa,to kahin Ltte..
आपने बेहतरीन प्रस्तुती की है।
शुक्रिया रंगनाथ भाई!!!
पता नहीं कैसे आपका नाम लिखते समय आपके बनारस के सांसद रहे रघुनाथ सिंह ज़ेहन में आ गए थे.नाम दुरुस्त कर दिया है!
आभार क्षमा जी और शब्द जी!!
@ क्षमा
लिट्टे कभी श्रीलंका में सक्रीय तमिल संगठन था अब पूरी तरह ज़मींदोज़ हो चूका है, ऐसा वहाँ की सरकार का दावा है.
.... प्रसंशनीय पोस्ट!!!
विकास आज भी उनसे कोशों दूर है .लोगों का रहन- सहन आदिम युग का
है .अपराधी यही पनपते है और भोगोलिक परिस्तीथिया उनका साथ देती है.
बीहड़ मैं दस्यु समस्या अभी भी मुह फैलाये खड़ी है
भूमि सुधार योजनाओ का लाभ महज उन्ही जगहों पर हुआ है
जहाँ आला अधिकारियो का दोरा कराया जाना है ,बाकि के किसानो के हाथ खाली ही
रहे हैं. बीहड़वासियों के बूढी आँखों में विकास के सपने तो पलते है पर
हकीकत का रूप लेने से पहले ही कईयों आँखें बंद हो चुकी हैं
चम्बल का भविष्य गर्त में नज़र आता है. विकास के ठेकेदार रसूख वाले बन बेठे हैं. जिनको विकास के नाम पर हर पांच साल बाद वोट लेना है. उन्हें इस बात से कुछ लेना देना नहीं है की विकास की जमीनी हकीकत क्या है ? कभी कोई बीहड़ो का रुख करता भी हैं तो बंजरो में कटीली झाड़ियो के बीच फिर से खुद को न उलझने का जज्बा लेकर जाता है.
बीहड़ों का कसूर क्या है ? क्या यु ही इस पर बदनुमा दाग बरकरार रहेगा ?
या फिर सहयोग की खातिर हाँथ बढाने में कोई झिझक !!!!!!!
वाह.. शाह आलम के छाया चित्रों ने इस आलेख में जान डालने का काम किया है. सरकारी काम कभी भी असरकारी हो ही नहीं सकते
कौन आयेगा यहाँ कोई न आने वाला....
अह्फाज़ भाई लेख भी शाह आलम के ही हैं.
कौन आयेगा यहाँ कोई न आने वाला....
अजी सब से पहले वही के लोगो को जागरुक होना चाहिये, वेसे देखा जाये तो अभी विकास नाम की चीज भारत से हजार कोस दुर है, गरीब जनता का गला काट कर पांच दस पुल बना लिये विदेशॊ से मोबाईल खरीद लिये, ओर जगह जगह माल बना दिये यह क्पोई विकास नही है.....
शाह आलम साहब आपने चम्बल के बारे लिख कर बरसों पुराने गड़े मुर्दे को उखाड़ दिया.हमारे भी अपने कई जान गवां चुके हैं बेक़सूर...शहरोज़ मियाँ कभी मुसलमानों की भी फिकर कर लिया करें..मसायलों की दीवारों में कब तक चुन दिये जाते रहेंगे!
वैसे जाते जाते शाह आलम मुबारक लो लेकिन भाई फिल्म से कौन सा भला होगा चम्बल वालों का !
अक्सर रास्तों से फूटते हैं रास्ते
भले ही कुछ चैराहों के बाद बदल जाते हों उनके नाम
पर कभी-कभी किसी बीहड़ में अचानक दम तोड़ देता है कोई रास्ता
आदमी ही नहीं बाजदफा रास्ते भी भूल जाते हैं अपनी राह
जब रास्ता गलत हो
मंजिल तक वही पहुँच पाता है जो रास्ता भटक जाता है!
@भाटिया साहब!
जागरूकता आएगी..आपसे सहमत!
@तालिब साहब !
मुसलमान भी इसी देश के नागरिक हैं और बीहड़ में मुसलमान भी रहते हैं जैसे और भी लोग रहते हैं...
हमज़बान सिर्फ मुसलमानों का ब्लॉग नहीं है.
आप अपने यहाँ क्या कभी देश केऔर समस्या पर ध्यान देते हैं..????
भाईजान आप अपनी जगह यदि सही हैं तो मुझे क्यों हुक्म दे रहे हैं!!!!
हम मोरेना के होके भी इतना नहीं जाने है ...बढ़िया रहा
beehad ke bashinde badal rahe hai aur badal raha hai beehad ka bhavishya bhi.....Jald hi badla beehad aap dekhenge...Bahut hi umda......Abhishek sharma
"Qaid me hai bulbul aur har taraf saiyad hain,
ye khabar kisne uda di ki ham azad hain".
beshak shah alam ki ayodhya se bihad tak ke padav me badalte huye bihad ki khushbu a rahi hai.
ab daku vistar pa gae hai.
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- अल्लामा जमील मज़हरी