नक्सल आन्दोलन के साथ सरकार के हाथ से झर झर गिरते समय की कथा ,
जहां स्थानीय प्रशासन की बदौलत नक्सली के बस स्टैंड के ठेके हैं तो उसी को पकड़ने के लिए डेरा जमाये पुलिस का अमला !रांची से महज़ कुछ ही फासले पर है बुंडू...यानी नक्सलियों का हाल मक़ाम !जिसकी कहानी में कोई रोमान नहीं है.जगह जगह पसरी उदासी है..दिन उजाले रात का घुप्प अंधियारा भरा सन्नाटा है.. ... और मौत - मुआवजे के खेल में फुटबाल की तरह उछाला जा रहा एक पिता ....
जहां स्थानीय प्रशासन की बदौलत नक्सली के बस स्टैंड के ठेके हैं तो उसी को पकड़ने के लिए डेरा जमाये पुलिस का अमला !रांची से महज़ कुछ ही फासले पर है बुंडू...यानी नक्सलियों का हाल मक़ाम !जिसकी कहानी में कोई रोमान नहीं है.जगह जगह पसरी उदासी है..दिन उजाले रात का घुप्प अंधियारा भरा सन्नाटा है.. ... और मौत - मुआवजे के खेल में फुटबाल की तरह उछाला जा रहा एक पिता ....
गुन्जेश की क़लम से
16/06/10 की सुबह फोन पर तय हुआ कि ९ बजे दफ्तर पहुचना है , वहीँ से कहीं बाहर चलेंगे. न पूछने की आदत है और न ही वक़्त था . सुबह के आठ बज रहे थे. नींद हवा में बिखरी हुई थी पर उससे ज्यादा रोमांच था. पहली बार किसी वरिष्ठ पत्रकार के साथ घुमक्कड़ी का मौका हाथ आया था. करीब पौने दस बजे हमारी यात्रा शुरू . निराला जी से पूछा - हम कहाँ जा रहे है? क्या रिपोर्ट करना है?
- कुछ तय नहीं है फ़िलहाल बुंडू जायेंगे.
रांची और आस-पास को जानने वाले जानते होंगे कि बुंडू पिछले छः-सात वर्षों से नक्सली प्रभावित इलाकों में है. नक्सलियों और सरकार के बीच जो द्वन्द चल रहा है और उसमें आम जनता की जो हालत है, उसके प्रति संवेदना रखने वाला अब एक ऐसा वर्ग बन तो रहा है जो तटस्थ भी नहीं है और न सरकार के पक्ष में है, न नक्सलियों के पक्ष में. लेकिन चूँकि वह हर तरह के सत्ता से इंकार कर रहा है. इसलिए उसके पक्ष में कहीं कोई मीडिया नज़र नहीं आता. बन रहे रिंग रोड में आगे चलती ट्रकों ने धूल की एक दिवार सी खड़ी कर दी थी. सफर में धूलधक्कड़ न हो तो सफर क्या ?
निराला जी आठ-नौ वर्षों से रांची में है और अपनी सरोकारों वाली पत्रकारिता के नाते जाने जाते हैं. भर रास्ते उनसे कई तरह की बातें हुई पत्रकारिता और प्रेम पर...रिपोर्टिंग और आज कल खबर बनाने के तरीकों पर.
करीब एक घंटे चलने के बाद हम बुंडू चौराहे पर थे. वहां पहुँचने से दो किलोमीटर पहले से ही हम आपने स्थानीय संवाददाता से फ़ोन पर संपर्क साधने की कोशिश कर रहे थे, और उसमें असफल रहे थे. बुंडू पहुँच कर भी स्थिति बहुत नहीं बदली थी पर अब आगे के काम के लिए जो पहली शर्त थी वह थी - एक कप चाय. चाय पीते हुए हमने आस-पास का जायजा लिया. बुंडू में स्थिति का अंदाजा तो हमें तभी हो गया. जब, हमने एक दुकानदार से बात करनी शुरू की . शुरुआत में तो उसने हमें सारी जानकारी दी जैसे दुकान पहले रात दस-ग्यारह बजे तक खुली रहती थी , पुलिस के नए अफसर के आ जाने के कारण अब नौ बजे तक ही दुकान बंद हो जाती है. लेकिन जैसे ही हमने उससे पूछा कि कुंदन पाहन कौन है? हमने बहुत नाम सुना है उसका?
उसके मुह से एक भी शब्द नहीं निकले और हमें वहाँ से बैरंग अपने स्थानीय संवाददाता की तलाश में बचे आखरी जगह बुंडू अनुमंडल कार्यालय की तरफ रुख करना पड़ा. शहर या क़स्बा कितना भी छोटा हो अदालत जैसी जगहों पर आज कल भीड़-भाड़ ज्यादा रहने ही लगी है, इसी भीड़ में हमें मिले हमारे स्थानीय संवाददाता. बात-चीत के दौरान पता चला कि वो पेशे से वकील भी है और हर रोज़ दस बजे से साढ़े बारह बजे तक यहीं रहते हैं. थोड़ी ही देर में उन्होंने हमें अपनी पीएचडी की सानोप्सिस भी दिखाई तो हम दंग रह रह गए. खैर स्थानीय संवाददाता ने हमें पहले ही चेताते हुए कहा कि जो भी काम करना है २ बजे तक कर लीजिये हमारे घर में मेहमान आये हुए है शादी में जाना है.
उन्होंने बताया कि बुंडू में नक्सलियों और पुलिस के बीच कभी भी बड़ी लड़ाई हो सकती है. बुंडू बस स्टेंड के ठेके जो पहले कुंदन पाहन (नक्सलियों का तथाकथित नेता, दरअसल हम यह भी जानने की कोशिश कर रहे थे कि कोई कुंदन पाहन है भी या नहीं) के आदमियों को मिलते थे, और जिसके कारण जनादालत में एक की हत्या पहले ही हो चुकी है. माना जाता है कि धनञ्जय मुंडा जिसके पास बस स्टैंड का ठेका था उसने कुंदन पाहन को हिसाब देने में गड़बड़ी की और उसकी हत्या जनादालत में कर दी गई .उसके बाद उस ठेके को लेकर काफी तनाव रहा और दो साल बस स्टैंड का ठेका किसी को नहीं मिला इसबार यह ठेका पुलिस के द्वारा स्थानीय लोगों के साथ मिलकर बने "समाजसेवक दल" को दिया गया है. सूत्रों का कहना है कि इस दल में भी वही लोग हैं जो पहले कुंदन पाहन के दल में शामिल थे और अब प्रशासन के साथ मिलकर यह "समाजसेवक दल" बना कर काम रहे हैं. आस-पास कहीं कैम्प है क्या पुलिस का? हमारे संवाददाता ने बताया , बहुत है.
रांची और आस-पास को जानने वाले जानते होंगे कि बुंडू पिछले छः-सात वर्षों से नक्सली प्रभावित इलाकों में है. नक्सलियों और सरकार के बीच जो द्वन्द चल रहा है और उसमें आम जनता की जो हालत है, उसके प्रति संवेदना रखने वाला अब एक ऐसा वर्ग बन तो रहा है जो तटस्थ भी नहीं है और न सरकार के पक्ष में है, न नक्सलियों के पक्ष में. लेकिन चूँकि वह हर तरह के सत्ता से इंकार कर रहा है. इसलिए उसके पक्ष में कहीं कोई मीडिया नज़र नहीं आता. बन रहे रिंग रोड में आगे चलती ट्रकों ने धूल की एक दिवार सी खड़ी कर दी थी. सफर में धूलधक्कड़ न हो तो सफर क्या ?
निराला जी आठ-नौ वर्षों से रांची में है और अपनी सरोकारों वाली पत्रकारिता के नाते जाने जाते हैं. भर रास्ते उनसे कई तरह की बातें हुई पत्रकारिता और प्रेम पर...रिपोर्टिंग और आज कल खबर बनाने के तरीकों पर.
करीब एक घंटे चलने के बाद हम बुंडू चौराहे पर थे. वहां पहुँचने से दो किलोमीटर पहले से ही हम आपने स्थानीय संवाददाता से फ़ोन पर संपर्क साधने की कोशिश कर रहे थे, और उसमें असफल रहे थे. बुंडू पहुँच कर भी स्थिति बहुत नहीं बदली थी पर अब आगे के काम के लिए जो पहली शर्त थी वह थी - एक कप चाय. चाय पीते हुए हमने आस-पास का जायजा लिया. बुंडू में स्थिति का अंदाजा तो हमें तभी हो गया. जब, हमने एक दुकानदार से बात करनी शुरू की . शुरुआत में तो उसने हमें सारी जानकारी दी जैसे दुकान पहले रात दस-ग्यारह बजे तक खुली रहती थी , पुलिस के नए अफसर के आ जाने के कारण अब नौ बजे तक ही दुकान बंद हो जाती है. लेकिन जैसे ही हमने उससे पूछा कि कुंदन पाहन कौन है? हमने बहुत नाम सुना है उसका?
उसके मुह से एक भी शब्द नहीं निकले और हमें वहाँ से बैरंग अपने स्थानीय संवाददाता की तलाश में बचे आखरी जगह बुंडू अनुमंडल कार्यालय की तरफ रुख करना पड़ा. शहर या क़स्बा कितना भी छोटा हो अदालत जैसी जगहों पर आज कल भीड़-भाड़ ज्यादा रहने ही लगी है, इसी भीड़ में हमें मिले हमारे स्थानीय संवाददाता. बात-चीत के दौरान पता चला कि वो पेशे से वकील भी है और हर रोज़ दस बजे से साढ़े बारह बजे तक यहीं रहते हैं. थोड़ी ही देर में उन्होंने हमें अपनी पीएचडी की सानोप्सिस भी दिखाई तो हम दंग रह रह गए. खैर स्थानीय संवाददाता ने हमें पहले ही चेताते हुए कहा कि जो भी काम करना है २ बजे तक कर लीजिये हमारे घर में मेहमान आये हुए है शादी में जाना है.
उन्होंने बताया कि बुंडू में नक्सलियों और पुलिस के बीच कभी भी बड़ी लड़ाई हो सकती है. बुंडू बस स्टेंड के ठेके जो पहले कुंदन पाहन (नक्सलियों का तथाकथित नेता, दरअसल हम यह भी जानने की कोशिश कर रहे थे कि कोई कुंदन पाहन है भी या नहीं) के आदमियों को मिलते थे, और जिसके कारण जनादालत में एक की हत्या पहले ही हो चुकी है. माना जाता है कि धनञ्जय मुंडा जिसके पास बस स्टैंड का ठेका था उसने कुंदन पाहन को हिसाब देने में गड़बड़ी की और उसकी हत्या जनादालत में कर दी गई .उसके बाद उस ठेके को लेकर काफी तनाव रहा और दो साल बस स्टैंड का ठेका किसी को नहीं मिला इसबार यह ठेका पुलिस के द्वारा स्थानीय लोगों के साथ मिलकर बने "समाजसेवक दल" को दिया गया है. सूत्रों का कहना है कि इस दल में भी वही लोग हैं जो पहले कुंदन पाहन के दल में शामिल थे और अब प्रशासन के साथ मिलकर यह "समाजसेवक दल" बना कर काम रहे हैं. आस-पास कहीं कैम्प है क्या पुलिस का? हमारे संवाददाता ने बताया , बहुत है.
-कितनी दूरी पर?
-पांच-छः किलोमीटर
-गावों है वहां ?
-हाँ बराहातु गावं.
हम वहां चल सकते हैं अभी?
हमारा यह सवाल शायद भाई आनंद को झल्ला गया था. फिर भी उन्होंने कहा कि जा तो सकते हैं लेकिन दो बजे तक वापस आना होगा. आप अपनी गाड़ी यहीं रहने दीजिये तीनो एक ही गाड़ी से जायेंगे .........
और शुरू हुआ आनंद भाई की आगुवाई में हमारा सफर.
बाइक की हैंडल संभाले आनंद भाई हमें हर उस जगह के बारे में बता रहे थे जहाँ सत्ता के संघर्ष के अवशेष मौजूद थे . कहाँ, किस जगह पर पुलिस के लैंड माइन डिटेक्टर वाहन को उड़ाया गया था, कहाँ पुलिया में केन बम लगाया गया था,.
और जो सामने से आ रहा है, बहुत फटेहाल दिख रहा है वह इस गावं का प्रधान है,और ऐसा नहीं है कि वह अच्छे कपडे नहीं पहन सकता लेकिन उसे डर है कुंदन पाहन का. उन्होंने हमें वह स्कूल भी दिखाया जहाँ वर्ष 2008 में विधायक रमेश सिंह मुंडा की हत्या कर दी गई थी अब उस स्कूल को उन्हीं के नाम पर कर दिया गया है. 'पढ़ाई होती है यहाँ ' -पूछने पर आनंद भाई उछले हुए स्वर में बताते हैं , होती है बच्चे आते हैं.
कच्ची-पक्की सडक पर चार-पांच किलोमीटर चलने के बाद हम देखते हैं सुखी लकड़ियों के कुछ बण्डल यूँ ही बेतरतीब पड़े हुए हैं. आम तौर से जब आप झारखण्ड के गाँव में प्रवेश करते हैं तो आपका स्वागत सड़क पर खेलते नंग-धडंग बच्चे, बच्चों के साथ खेलते चूजे और पेड़ों पर चह चहाती पक्षियाँ करेंगी लेकिन यहाँ एक घुप सन्नाटा था जिसे सिर्फ मेरी स्मृति में स्वयं सृजित नक्सालियों की छवि तोड़ रही थी. अब तक फिल्मों में देखा था एक गावं जहाँ किसी का ऐसा आतंक है कि उसकी मर्ज़ी के बीना पत्ता तक नहीं हिलता .पहली बार ऐसा सच में देखा .... पहली बार आतंक के चेहरे को मैं हवा में आकार पाते देख रहा था. कि तभी तारों से घिरे और रेत भरी बोरियों से लदे एक भवन को देखा. इससे पहले कि हम कुछ पूछते आनंद भाई ने बताया यही कैम्प है, कैम्प से पहले यह स्कूल था.
हम कैम्प पार कर उसके ठीक पीछे पहुँच चुके थे. "यहीं रुकते हैं" शायद आनद भाई के किसी परिचित का घर था जिसमें एक छोटी सी दुकान भी चलती है. हम घर के बाहर ही बैठे और कुछ औपचारिक सवाल जो स्वत: ही ऐसे अनौपचारिक हालात को देख कर मन में उठते हैं हमारे भी मन में उठे! बात किससे की जाये. पांच सौ की आबादी वाले इस गावं में एक सवा घंटे तक हमें कुछ बच्चों को छोड़ और कोई नहीं दिखा. स्कूल के ठीक पीछे ही है गावं का तीन कमरों वाला पंचायत भवन जिसमें अब वो स्कूल भी चलता है जिसपर फ़िलहाल सी आरपीऍफ़ की टुकड़ी टिकी हुई है.
गावं में कुल पांच सौ घर हैं उन पांच सौ घरों के बच्चे उसी पंचायत भवन में पढ़ते हैं जहाँ गावं का स्वस्थ्य केंद्र भी है. करीब आधे घंटे उस पंचायत भवन के पास टहलने के बाद हमें एक व्यक्ति मिला जो उम्र से ज्यादा बुढा दिख रहा था और हमसे बात करने में अतिरिक्त सावधानी भी बरत रहा था,. उसकी आँखों में समय का भूरापन था और शब्द कहीं दूर उदासी के किसी खंडहर से निकलते थे जो कई बार तो हमारे कानो तक पहुँचने से पहले ही भय से भरे वायुमंडल में खोते जा रहे थे.
बाइक की हैंडल संभाले आनंद भाई हमें हर उस जगह के बारे में बता रहे थे जहाँ सत्ता के संघर्ष के अवशेष मौजूद थे . कहाँ, किस जगह पर पुलिस के लैंड माइन डिटेक्टर वाहन को उड़ाया गया था, कहाँ पुलिया में केन बम लगाया गया था,.
और जो सामने से आ रहा है, बहुत फटेहाल दिख रहा है वह इस गावं का प्रधान है,और ऐसा नहीं है कि वह अच्छे कपडे नहीं पहन सकता लेकिन उसे डर है कुंदन पाहन का. उन्होंने हमें वह स्कूल भी दिखाया जहाँ वर्ष 2008 में विधायक रमेश सिंह मुंडा की हत्या कर दी गई थी अब उस स्कूल को उन्हीं के नाम पर कर दिया गया है. 'पढ़ाई होती है यहाँ ' -पूछने पर आनंद भाई उछले हुए स्वर में बताते हैं , होती है बच्चे आते हैं.
कच्ची-पक्की सडक पर चार-पांच किलोमीटर चलने के बाद हम देखते हैं सुखी लकड़ियों के कुछ बण्डल यूँ ही बेतरतीब पड़े हुए हैं. आम तौर से जब आप झारखण्ड के गाँव में प्रवेश करते हैं तो आपका स्वागत सड़क पर खेलते नंग-धडंग बच्चे, बच्चों के साथ खेलते चूजे और पेड़ों पर चह चहाती पक्षियाँ करेंगी लेकिन यहाँ एक घुप सन्नाटा था जिसे सिर्फ मेरी स्मृति में स्वयं सृजित नक्सालियों की छवि तोड़ रही थी. अब तक फिल्मों में देखा था एक गावं जहाँ किसी का ऐसा आतंक है कि उसकी मर्ज़ी के बीना पत्ता तक नहीं हिलता .पहली बार ऐसा सच में देखा .... पहली बार आतंक के चेहरे को मैं हवा में आकार पाते देख रहा था. कि तभी तारों से घिरे और रेत भरी बोरियों से लदे एक भवन को देखा. इससे पहले कि हम कुछ पूछते आनंद भाई ने बताया यही कैम्प है, कैम्प से पहले यह स्कूल था.
हम कैम्प पार कर उसके ठीक पीछे पहुँच चुके थे. "यहीं रुकते हैं" शायद आनद भाई के किसी परिचित का घर था जिसमें एक छोटी सी दुकान भी चलती है. हम घर के बाहर ही बैठे और कुछ औपचारिक सवाल जो स्वत: ही ऐसे अनौपचारिक हालात को देख कर मन में उठते हैं हमारे भी मन में उठे! बात किससे की जाये. पांच सौ की आबादी वाले इस गावं में एक सवा घंटे तक हमें कुछ बच्चों को छोड़ और कोई नहीं दिखा. स्कूल के ठीक पीछे ही है गावं का तीन कमरों वाला पंचायत भवन जिसमें अब वो स्कूल भी चलता है जिसपर फ़िलहाल सी आरपीऍफ़ की टुकड़ी टिकी हुई है.
गावं में कुल पांच सौ घर हैं उन पांच सौ घरों के बच्चे उसी पंचायत भवन में पढ़ते हैं जहाँ गावं का स्वस्थ्य केंद्र भी है. करीब आधे घंटे उस पंचायत भवन के पास टहलने के बाद हमें एक व्यक्ति मिला जो उम्र से ज्यादा बुढा दिख रहा था और हमसे बात करने में अतिरिक्त सावधानी भी बरत रहा था,. उसकी आँखों में समय का भूरापन था और शब्द कहीं दूर उदासी के किसी खंडहर से निकलते थे जो कई बार तो हमारे कानो तक पहुँचने से पहले ही भय से भरे वायुमंडल में खोते जा रहे थे.
-प्रेस से हैं?
-हाँ , कुछ बताइए क्या हाल चाल है खेती बारी कुछ है ?
-हाँ ....(कैम्प की हरफ देखते हुए) सब ठीके है क्या होगा यहाँ , स्कुल का क्या हाल है देखिये रहे हैं केतना लिख के दिए लेकिन छो महिना से इलोग कह रहा है की एक महिना और एक महिना और ...
-और कोई दीखता नहीं है सब काम पे गया होगा न?
-नहीं सब घरे में है नहीं निकलता है घर से निकलेगा तो चार ठो लोग मिलेगा बात भी होगा मीटिंग करना मना गावं में ....
-गावं में बिजली है ?
-2002 के बाद से नहीं है..
तब तक आनंद भाई की घडी उनके सब्र को तोड़ने लगी थी - "चलिए सर अब हमको जाना है घर में मेहमान लोग आ गया है.."
-हाँ जाइये आप लोग यहाँ ज्यादा देरी मत रुकिए (यह उस गावं का आदमी बोल रहा था )
-अच्छा यहाँ किसी को नक्सली लोग मारा है क्या ?
-(थोड़ी देर की चुप्पी के बाद) हाँ रमेश सिंह मुंडा के साथ ही एक लड़का मारा गया था ....
फिर आनंद भाई बताते हैं ..स्कूल में बहुत अच्छा नंबर लाया था उस दिन विधायक जी से उसको इनाम मिलता .....चलिए न हम बताते हैं आपको .
-यहीं पर तो है उसका घर, उसको तो २ लाख देने का बात भी था बंधू तार्कि बोला था लेकिन कहाँ मिला ..एक प्रेस वाला पहले भी आया था नंबर दे के गया की पैसा नहीं मिले तो फ़ोन करना लेकिन फोने नहीं उठता है लोग....यह एक गावं वाले की व्यथा थी तो तमाम पहरों के बाद भी फूट पड़ी . इसके बाद हमने जो कुछ भी देखा सुना समझा उसे देख समझ और सुनकर कोई भी बस यही कह सकता है कि आखरी आदमी हर तरफ से सिर्फ आखरी आदमी है जिसे तमाम वादे तो सबसे पहले किये जाते हैं पर जब वादों को पूरा करने की बारी आती है तो उस आखरी आदमी का नंबर शायद कभी आता ही नहीं ....
लगभग १०० मीटर चलने के बाद हम लोग 'सुभाष पातर' के घर के बाहर थे. अब 'सुभाष पातर का ध्यान करते ही सूर्यकांत त्रिपाठी
निराला की कविता याद हो आती है -" पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक ...." पर 'सुभाष भिखारी नहीं अधिकारी है,सरकारी मुआवज़े की राशी का जिसे देने का वादा सरकारी महकमे ने किया है.
'सुभाष , रामधन पातर के पिता हैं. राम धन पातर वही है जिसकी हत्या 2008 में उग्रवादियों ने विधायक रमेश सिंह मुंडा के साथ कर दी थी . उसी समय घोषणा की गई थी कि 'सुभाष पातर को दो लाख रुपये मुआवज़े के रूप में दिए जायेंगे. एक बेटे को गवा कर दुसरे को गोवा भेज देने वाले 'सुभाष पातर हमें सारे कागजात दिखाते हैं. कब- कब कहाँ, कहाँ गए सब कुछ बताते हैं. उन्हें उम्मीद है ,जब झारखण्ड में सरकार होगी तो उन्हें उनका पैसा भी जरुर मिलेगा .........
'सुभाष , रामधन पातर के पिता हैं. राम धन पातर वही है जिसकी हत्या 2008 में उग्रवादियों ने विधायक रमेश सिंह मुंडा के साथ कर दी थी . उसी समय घोषणा की गई थी कि 'सुभाष पातर को दो लाख रुपये मुआवज़े के रूप में दिए जायेंगे. एक बेटे को गवा कर दुसरे को गोवा भेज देने वाले 'सुभाष पातर हमें सारे कागजात दिखाते हैं. कब- कब कहाँ, कहाँ गए सब कुछ बताते हैं. उन्हें उम्मीद है ,जब झारखण्ड में सरकार होगी तो उन्हें उनका पैसा भी जरुर मिलेगा .........
आनंद भाई हड़बड़ी में हैं, हलकी-हलकी चल रही हवा, और उनसे उठने वाला पत्तों का शोर मन में सिहरन पैदा कर रही है. स्कूल के छत पर पुलिस वालों की संख्यां बढती जा रही है. अंत में नज़रे मिलने पर छत से ही एक सिपाही हमसे पूछता है, क्या बात है.? आनंद भाई अतिरिक्त सावधानी से बताते हैं "प्रेस से हैं" .
मौत और मुआवजे के इस खेल में एक पिता फुटबाल की तरह उछाला जा रहा है, हम गावं छोड़ बाहर आ चुके हैं लेकिन पीठ पर एक डर सा चिपक गया है. यह क्या है? या शायद फिर कभी जान पाऊं......
मौत और मुआवजे के इस खेल में एक पिता फुटबाल की तरह उछाला जा रहा है, हम गावं छोड़ बाहर आ चुके हैं लेकिन पीठ पर एक डर सा चिपक गया है. यह क्या है? या शायद फिर कभी जान पाऊं......
[लेखक-परिचय:जन्म: बिहार के अनाम से गाँव में ९ जुलाई १९८९ ,
शिक्षा ;जमशेदपुर से स्नातक.
सम्प्रति : महात्मा गांधी हिंदी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय से जन संचार में एम ए के छात्र
और प्रभात खबर के रांची संस्करण में प्रशिक्षु पत्रकार.]
शिक्षा ;जमशेदपुर से स्नातक.
सम्प्रति : महात्मा गांधी हिंदी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय से जन संचार में एम ए के छात्र
और प्रभात खबर के रांची संस्करण में प्रशिक्षु पत्रकार.]
24 comments: on "नक्सल आन्दोलन के साथ सरकार के हाथ से झर झर गिरते समय की कथा"
Ham jo bote hain,wah pate hain..lekin gehun ke saath ghun bhi pis rahe hain!
दुकान पहले रात दस-ग्यारह बजे तक खुला रहता था अब पुलिस के नए अफसर के आ जाने के कारण नौ बजे तक ही दुकान बंद पढता है लेकिन जैसे ही हमने उससे ये पूछा कि कुंदन पाहन कौन है? हमने बहुत नाम सुना है उसका?, उसके मुह से एक भी शब्द नहीं निकले aisa hi hota hai gunjes ji!!
ye kya hai bhai बुंडू में नक्सलियों और पुलिस के बीच कभी भी बड़ी लड़ाई हो सकती है. बुंडू बस स्टेंड के ठेके जो पहले कुंदन पाहन (नक्सलियों का तथाकतिथ नेता, दरअसल हम यह भी जानने कि कोशिश कर रहे थे कि कोई कुंदन पाहन है भी या नहीं) के आदमियों को मिलते थे, और जिसके कारण जनादालत में एक की हत्या पहले ही हो चुकि है. मना जाता है कि धनञ्जय मुंडा जिसके पास बस स्टैंड का ठेका था उसने कुंदन पाहन को हिसाब देने में गड़बड़ी की और उसकी हत्या जनादालत में कर दी गई उसके बाद उस ठेके को लेकर काफी तनाव रहा और दो साल बस स्टैंड का ठेका किसी को नहीं मिला इसबार यह ठेका पुलिस के द्वारा स्थानीय लोगों के साथ मिलकर बने "समाजसेवक दल" को दिया गया है. सूत्रों का कहना है कि इस दल में भी वही लोग हैं जो पहले कुंदन पाहन के दल में शामिल थे और अब प्रशासन के साथ मिलकर यह "समाजसेवक दल" बना कर काम रहे हैं.
bhai gunjeshji aap kya likh rahe hain.....kahna kya chahte hain!!!
gunjesh ji sawal iska hai ki kyon mere gulashan ko aag lagi aur lagaya kisne....
. मौत और मुआवजे के इस खेल में एक पिता फुटबाल कि तरह उछाला जा रहा है, हम गावं छोड़ बाहर आ चुके हैं लेकिन पीठ पर एक डर सा चिपक गया है. यह क्या है? ये शायद फिर कभी जान पाऊं......
bhaijaan kabhi jaan paaya mumkin bhi hoga..aap log news wale ho news chahiye..aur kam khalas !!!
Behtreen Prastuti, Shehroz bhai ka bahut-bahut dhanywad!
Behtreen Prastuti, Shehroz bhai ka bahut-bahut dhanywad
सब से बड़ी भूल साम्यवाद को लेकर हमारे देश में यह हुई कि उसे bhaartiy sandarbh में न samjha gaya न ही koshish कि gayi.
आज के समय आप वैश्वीकरण की आंधी में जितना बच सकें बचें...कोई ठेका ही ले ले तो भाई बुरा क्या है........गुन्जेश ने जिस तरह अंकन किया है ...निसंदेह सफल हैं.
गुंजेश जी की यह प्रस्तुति काबिले तारीफ है, प्रशिक्षु होते हुए भी इतनी अच्छी रिपोर्टिंग....
गुंजेश और शहरोज़ भाई आप दोनों को धन्यवाद.
GUNJESH SAHAB AAPNE SAHI REPORTING KI HAI.
SANJIV SAHAB SAHI KAH RAHE HAIN !
नक्सल वाले हो या मगध वाले..भाई आम इंसान ही तो मारा जाता है..खुफ़ कहाँ है जहाँ हम महफूज़ नहीं हैं.
jharkhand अलग हो कर किसे क्या मिला...
गुन्जेश साहब आपने हर details को लिखा है.अच्छा लगा.
यह केसी तसबीर विकास शील भारत की????
अभी खबर मिली है कि कुंदन पाहन को गिरफ्तार कर लिया गया है.इस नक्सली प़र पांच लाख का इनाम था.उसके साथ झारखंड पुलिस उसके संगठन में दूसरे नंबर की हैसियत रखने वाले संतोष मुंडा उर्फ मिथुन उर्फ संतोषजी को गिरफ्तार कर लिया है।
कल सुबह की बात है यानी शनिवार की..दोनों की गिरफ्तारी अड़की के मौसंगा जंगल से हुई। इन लोगों ने विधायक रमेश सिंह मुंडा की हत्या सहित कई कांडों में अपनी संलिप्तता स्वीकार की है। ऐसा पुलिस कह रही है!
कुंदन पाहन के इलाके को जानो..ग़ुरबत बेबसी ज़ुल्मत को जानो
@राज साहब !
हमें भारत की तस्वीर देखने की फुर्सत कहाँ रहती.....आजकल ऐसी चीज़ें देखना या देखाना गंवार और अनपढ़ की निशानी माना जाता है.
कुंदन पाहन कौन है? हमने बहुत नाम सुना है उसका?, उसके मुह से एक भी शब्द नहीं निकले
na bolo bhai pakad liya gaya!!
bahut hi achcha jayza!
गुंजेश जी की यह प्रस्तुति काबिले तारीफ है.
जय भीम
एक तो नक्सली इलाकों में जाना, और सकुशल वापस आ जाना. मैं भी खूब घूमा हूँ. पूरे समय सतर्क रहना पड़ता है. उस समय हमें भी दो पाटों के बीच से गुज़रना पड़ता है. अच्छे अनुभव आने वाले समय में हमेशा आपके आस पास खड़े मिलेंगे. सार लिखने में थोडा confuse हो गए शायद. अच्छे शब्द संयोजन के लिए बधाई.
Gunjesh ab itni shashakt lekhani ka mailk ho gaya hai jaankar behad achchca laga ....
bahut tough kaam hai is tarah mushkilo se jhoojhna
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी