बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 21 जुलाई 2014

पंच को राहत देती फ़िलस्तीन में गूंजती मासूमों की चीख़















फ़राह शकेब की क़लम से

अपने ही देश में और अपनी ही मातृभूमि पर अजनबी और बेगानों की तरह रहने की तकलीफ आप शायद तब तक नहीं समझ सकते जब तक स्वयं आप दर्द की उन गलियों से गुज़रे न हों. अगर इस दर्द का जीवंत रूप देखना हो तो फ़िलस्तीन की तरफ एक बार नज़र उठाइये. छह दशकों से अधिक का समय बीत चुका है. 1948 में ब्रिटेन अमेरिका और कुछ अन्य यूरोपीय देशों की साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और दौलत अहंकार के नशे में चूर हो कर अरब शहंशाहों की खामोश हिमायत के साथ ज्यूश ( यहूद ) को जबरन पूरी दुनिया से जमा कर के अरब की सरज़मीं पर अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर बसा दिया. उस भू भाग को इस्राईल का नाम दिया गया.उस समय फ़िलस्तीन की कुल जनसंख्या नौ दस लाख के आसपास थी. इनमें से सात लाख से अधिक फ़िलस्तीनियों को उनके घर ज़मीन से बेदखल किया गया. आज भी उस समय के तक़रीबन पचास हज़ार लोग फ़िलस्तीन में मौजूद हैं. उसके बाद विगत 65 सालों से अधिक समय से अपनी ही धरती पर अत्याचार और ज़ुल्म का शिकार हो रहे हैं. जिसका सबसे बड़ा कारण शहर येरूशलम पर इस्राइलियों का कब्ज़ा है. येरूशलम यहूदी और ईसाई धर्मावलम्बियों का भी आस्था का केंद्र है. फ़िलस्तीनियों के द्वारा न केवल स्वतंत्र फ़िलस्तीन का अस्तित्व मायने रखता है बल्कि येरुशलम में मस्जिद-ए-अक़सा की हिफाज़त भी वो अपना दायित्व समझते हैं.

आज फ़िलस्तीन पर अवैध इस्राईली क़ब्ज़े के बाद वहां की तीसरी चौथी पीढ़ियां आसमान से बरसती मौत की छत्रछाया में ज़िन्दगी के कई बसंतों को देखते हुए जवान हो रही हैं. आज हर माँ अपने बच्चे को सबसे पहला सबक यही देती है की तू फ़िलस्तीनी है. फ़िलस्तीन तेरा वतन है. तुझे इसकी की इस्राइलियों से मुक्ति के नाम पर अपनी जान क़ुर्बान करनी है. माँ के पढ़ाये इस सबक का ही असर है कि तमाम विपरीत परिस्तिथियों के बाद भी फ़िलस्तीन के नागरिकों के लिए हर रात के बाद सुबह होती है और वो सुबह अपने उद्देश्य की दिशा में उन्हें एक नयी ऊर्जा और हौसला दिया करती है.


 9/11 के हमलों के बाद से अमेरिका स्वयं संस्कृतियों के टकराव और वार ओन टेरर के नाम मुस्लिम देशों से सलेबी जंग में व्यस्त है, तो इस्राईल अपने अमेरिका के संरक्षण में ग्रेटर इस्राईल  के अपने नापाक मंसूबों को अमली जामा पहनाने की कोशिश में लगा है. लेकिन गाज़ा पट्टी इस दिशा में सबसे बड़ी रुकावट है. फ़िलस्तीन की तीन चौथाई भूमि पर क़ब्ज़ा करने के बाद बाकी के हिस्सों पर भी उसका अधिपत्य किसी प्रकार हो जाए अब उसकी यही कोशिश है. अलग बात है कि विगत कुछ वर्षों से दुनिया भर में फ़िलस्तीनियों के प्रति सहानुभूति बढ़ रही है. हर वर्ष फ़िलस्तीन की स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के लिए पिछले तीस साल से 30 मार्च को आयोजित होने वाले अर्ज़ दिवस का दायरा अब लेबनान शाम मिस्र की सीमाओं से निकल कर योरोपीय और एशियाई देशों तक भी पहुँच चुका है. यह इस बात की ज़मानत है कि दुनिया भर में इस्राईल और उसकी गुंडागर्दी के विरुद्ध जनसमर्थन और असंतोष लगातार बढ़ता जा रहा है.
 शेरे फ़िलस्तीन की संज्ञा पाने वाले यासिर अराफ़ात की संदिग्ध मौत के बाद स्वतंत्रता का परचम उनके द्वारा स्थापित संगठन अलफ़तह के हाथों से निकल कर खालिद मशअल और इस्माईल हानिया के नेतृत्व में 1987 में शेख अहमद यासीन द्वारा स्थापित संगठन हमास के हाथों में आ गया है. हमास ने स्थानीय चुनाव में अपनी कुशल रणनीति की बदौलत सबसे बड़ी कामयाबी सन 2006 में हासिल की थी लेकिन कुछ स्थानीय मुद्दों पर अलफ़तह और अन्य स्थाई संगठनों के साथ उसका मतभेद हो गया. जिस कारण फ़िलस्तीन में कुछ समय के लिए गृहयुद्ध हो गया था. इनके आपसी टकराव का इस्राईल ने पूरा पूरा फायदा उठाने का प्रयास किया. ग्रेटर इस्राईल एवं मस्जिद -ए-अक़सा पर हैकल सुलैमानी ( यहूदियों का पूजा स्थल ) निर्माण की दिशा में प्रयास तेज़ कर दिया.
दुनिया के सबसे बड़े स्वयंभू दादा अमेरिका के संरक्षण में हमास को उकसाने के लिए बमबारी की. 6 August 2006 को फ़िलस्तीन लेजिस्लेटिव काउन्सिल के स्पीकर डॉक्टर अज़ीज़ विवेक को इस्राईल के द्वारा उस बमबारी के विरुद्ध एक निंदनीय प्रस्ताव पारित करने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया और वास्तव में उसे गिरफ्तारी नहीं अपहरण कहा जा सकता है क्यूंकि वो बिलकुल ग़ैर कानूनी और नाजायज़ थी. इस्राईल को आशा थी की हमास की तरफ से हिंसक जवाबी कार्रवाई होगी और दुनिया के सामने उसे स्वयं को रक्षात्मक कार्रवाई करने का मौक़ा मिलेगा लेकिन उसकी उमीदों के विपरीत फ़िलस्तीन ने वैश्विक स्तर पर अपनी कुशल विदेशनीति और कूटनीति के साथ अपने लिए जनसमर्थन को व्यापक करने की दिशा में क़दम बढ़ाये. अपनी मंशा के विपरीत फ़िलस्तीनियों की खामोशी से इस्राइलियों को किसी ऐसी स्तिथि की आशंका होने लगी, जो उसके लिए नकारात्मक होती जा रही थी और अपने उसी झुंझलाहट में 2008 2009 में उसने फ़िलस्तीनियों की ज़मीन को जीव विज्ञान की प्रयोगशाला समझ कर एक ज़हरीले रसायन का परीक्षण किया. जिसके परिणामस्वरूप हज़ारों फ़िलस्तीनी हलाक हुए. 

 दुनिया में फ़िलस्तीनियों के हिमायतियों का दायरा बढ़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका और इस्राईल कोशिशों के बावजूद उसके समर्थक देशों की संख्या बढ़ रही है. इस्राईल से संबंधित किसी मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ में वोटिंग होने पर फ़िलस्तीन को मिलने वाली वोटों की संख्या सैकड़ों में होती है तो इस्राईल को मिले मत तीस चालीस से अधिक नहीं होते. पूरी दुनिया में अमेरिका और इस्राईल की साम्राज्यवादी और पूंजीवादी नीतियों के विरुद्ध विरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं और अब तक स्तिथि यहाँ तक हो चुकी है की खुद अमेरिका और इस्राईल की धरती पर फ़िलस्तीन समर्थकों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है. वहाँ अपने ही शासकों के विरुद्ध जनमानस में असंतोष पनप रहा है. दो वर्ष पहले CIA की ख़ुफ़िया रिपोर्ट में ये रहस्योद्घाटन हो चुका है कि इस्राईल का अवैध अस्तित्व अब और अधिक दिनों तक टिकने वाला नहीं है. इस रिपोर्ट पर खुद अमेरिका के पूर्व राजनायिक कार हेनरी कसेंजर ने भी विश्वसनीयता की मुहर लगाईं है और उसी रिपोर्ट के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय राजनितिक विश्लेषक क्यूंन पार्ट ने भी प्रेस टीवी की आधिकारिक वेबसाइट पर ऐसी ही लिखित टिप्पणी की है कि जिस रफ़्तार के साथ अमेरिका में यहूदियों के विरुद्ध वातवरण तैयार हो रहा है और अमेरिकियों के अधिकारों की यहूदी हितों की रक्षा नाम पर अनदेखी की जा रही है. उससे जो असंतोष अमेरिका वासियों के मन में घर कर रहा है वो अमेरिका के अंदर यहूदी लॉबी को और अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं करेंगे.


अपने विरुद्ध बनते हुए इस नकारात्मक वातवरण से इस्राईल बौखलाया हुआ है. दुनिया के सामने खुद को पीड़ित और मज़लूम साबित करने के लिए मक्कारी और फरेब के साथ नित नई नई साज़िशें और हरकतों के साथ फ़िलस्तीन को हिंसात्मक कार्रवाई के लिए उकसाता रहता है. नवम्बर 2012 में भी इस्राईल ने ऐसे ही छेड़खानी कर हमास को कार्रवाई के लिए मजबूर किया और तब हमास ने ईरान द्वारा उपलब्ध करवाये गए अलफज्ऱ -5 रॉकेट के साथ इस्राइलियों को खदेड़ा था. उसके बाद से इस्राइलियों द्वारा कई अवसरों पर हमास को उकसाने के लिए हरकत की गयी कभी गाज़ा पट्टी में किसी फ़िलस्तीनी नौजवान को गाडी चेक पॉइंट के करीब गलत जगह खड़ी करने के लिए गोली मार दी गयी कभी फ़िदा मजीद नाम के नौजवान को तेज़ रफ़्तार गाडी चलाने के लिए मार दिया गया. जब इन घटनाओं के विरुद्ध लेबनान और शाम में प्रदर्शन हुए तो प्रतिशोधात्मक कार्रवाई में हमास के ठिकानों पर मिसाइल दागे गए. कभी रोम सागर में फ़िलस्तीनियों के जहाज़ को रोक कर उसकी तलाशी ली गयी और कारण ये बताया गया कि इन जहाज़ों में ईरान द्वारा फ़िलस्तीन को हथियार और गोला बारूद भिजवाये जा रहे हैं.

आज इस वक़्त इस्राईल की बौखलाहट केवल इसलिए चरम सीमा पर है कि अब फ़िलस्तीन के दो विभिन्न ग्रुपों  हमास एवं अलफ़तह ने हाथ मिला लिया है. इसी से घबराकर इस्राईल ने अपने तीन नागरिकों के हमास द्वारा अपहरण का इलज़ाम लगा कर फ़िलस्तीन पर हमला कर दिया है. पहले तो उसने सर्च ऑपरेशन चला कर हज़ारों फ़िलस्तीनियों को गिरफ्तार किया। औरतों के साथ घर में घुस कर इस्राईली फौजियों ने बदसुलूकी की और पांच नौजवानों को गोली मार दी और उसके बाद फिर गाज़ा पट्टी पर मिसाईली हमले शुरू कर दिए।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस अपहरण के सिलसिले में इस्राईल से प्रमाण मांगे हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के आदेश को नकारते हुए फलस्तीन पर मौत बरसाने के अपने अतिप्रिय काम में सह्यूनियों नरपिशाच लश्कर मग्न हो चूका है न तो उसे 2012 में मिस्र के सालसि में होने वाले शान्ति समझौते का लिहाज़ है और न ही वैश्विक कानून का. इस्राईल अपनी हठधर्मी के साथ वैश्विक समुदाय संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद को खुले आम चुनौती दे रहा है.

अब तक 4 सौ से अधीक फ़िलस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं. हज़ारों घर तबाह हो चुके हैं और पूरी दुनिया खामोश तमाशाई बनी बैठी है. इस वक़्त सबसे अधिक उदासीनता संयुक्त राष्ट्र संघ ने दिखाई है. संघ अब अप्रत्यक्ष रूप से पूंजीवादी साम्राज्य वादी शक्तियों के हितों की पूर्ति के लिए काम कर रहा है.लेकिन मानवाधिकार का परचम उठाने वालों के कानों में अब तक क्या उन मासूम फ़िलस्तीनी बच्चों की चीखें नहीं पहुंची. क्या इराक़ लेबनान मिस्र सीरिया यमन तेनवीस इत्यादि जैसे देशों में बर्बादी के किस्से नहीं पहुँच रहे हैं? क्या अरब देशों के शहंशाहों और सऊदी हुक्मरानों को अपनी ऐय्याशी से फुर्सत नहीं कि वो लहू होती सरज़मीं पर चीखती हुई इंसानियत के नज़ारे देख सकें ?? जब बच्चों औरतों बूढ़ों पर इस्राईल की मिसाइल गरज रही हैं तो उसी वक़्त मिस्र के राष्ट्रपति के साथ विशेष विमान में सऊदी बादशाह कौन सी बातचीत कर रहे हैं ये भी दुनिया जानना चाहती है...???

(लेखक परिचय:
 जन्म: 1 जनवरी 1981 को  मुंगेर ( बिहार ) में
 शिक्षा: मगध यूनिवर्सिटी बोधगया से एमबीए ( जारी )
 सृजन: कुछ ब्लॉग और पोर्टल पर समसामयिक मुद्दों पर नियमित लेखन
 संप्रति: अनहद से संबद्ध
 संपर्क: mfshakeb@gmail.com)

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रविवार, 20 जुलाई 2014

वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश पानी



नई पौध












 सरोध्या यादव की क़लम से

काश ये दुनिया मेरा कैनवास होता

मैं एक पेन्टर हूँ
अपनी कल्पना को कैनवास पर उतारती हूँ
मन के भाव कुछ टेढ़ी-मेढ़ी लाइनों और रंगो से
कोरे कागज़ पर सपना सवारती हूँ

काश ये दुनिया मेरा कैनवास होता
मेरा ब्रश उसमें भी कोई नई कलाकारी करता
रंग-बिरंगे प्यादों को एक खूबसूरत से दृश्य में ढालता
सुंदर रंगो को चुन उसे और  बनाता मनमोहक
फ़िर उस पेंटिंग को फ्रेम में क़ैद कर अपनी वॉल पर मैं सजाती

2.
लहू अब जम  सा गया है
वक्त भी थम सा गया है
ज़िंदगी  से है मौत सस्ती
डराती है ये वीरान बस्ती

दोबारा बचपन चाहिए

बस थोड़ा सा खुलापन चाहिए
दोबारा मुझे अपना बचपन चाहिए

वो सुख में हंसी तो,  आँसू दुःख चाहिए
वो बेफिक्री का आलम चाहिए
वो गुड्डा- गुड्डी का खेल
वो छुक- छुक करती थी रेल
वो कागज़ की नाव
वो पानी ही ठांव
तितलियों को देख उछलना
आइसक्रीम को मन मचलना
वो रंग-बिरंगे गुब्बारे फुलाना
चंदा मामा का संग सुहाना

वो दादी- नानी की कहानी
वो छन से बरस्ता पानी
वो खिलखिलाता चेहरा
तुतलाहट का घन बसेरा
लाड़ को झूठ- मुठ का रोना
माँ की गोद में सोना
रोज़ अपना घर बनाना
दीदी को आने न देना

AB से बढ़ कर बीए में है जा पहुंचे
अब आसमान छूता मकान चाहिए
तब सखियों का रोना था कितना अपना
अब हरेक को अपना मक़ाम चाहिए

नहीां चाहिए हमको नहीं चाहिए
दौलत और  शौहरत नहीं चाहिए
बस थोड़ा सा खुलापन चाहिए
दोबारा मुझे अपना बचपन चाहिए



(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 12 नवंबर 1990 को
शिक्षा: प्रारंभिक शिक्षा सिकंदराबाद के केन्द्रीय विद्यालय तिरुमालागिरी से| उसके बाद लोयला अकादमी डिग्री व पीजी.  कॉलेज से बीए. मास कम्यूनिकेशन डिग्री|
सृजन: बड़ी बहन संध्या यादव के साथ मिल कर लिखा गया उपन्यास  "आसमान को और फेलाने दो" प्रकशित
संप्रति: हैदराबाद में रहकर कनेक्शनस (Konnections) नामक PR एजेंसी में वरिष्ठ अकाउंट ऐज़ेक्यूटिव/ Sr. Account  Executive
संपर्क: sarodhya.u.d12@gmail.com)

 

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रविवार, 13 जुलाई 2014

अभाव में दम तोड़ता नन्हा फुटबॉलर जागो

झारखंड के सिंहभूम में फुटबॉल की बन सकती है नर्सरी  

फोटो: मुन्ना झा










मुन्ना कुमार झा की क़लम से 

जोगो उन बेशकीमती प्रतिभावान बच्चों में से है, जो गरीबी की मार झेलते हुए भी फुटबॉल दम लगा कर खेलता है। बिना किसी जूते के नंगे पैर. उसकी करिश्माई दौड़ के आगे शायद ब्राजील के पेले और अर्जेंटीना के माराडोना भी परास्त हो जाएं। सात साल का जोगो बिना किसी ख़ास डाइट के चट्टान की तरह फुटबॉल से जुगलबंदी करता है और जीत भी जाता है। जोगो को पानी, भात,  नमक के साथ हरा मिर्च खाना पसंद है। उसने सेब भले कभी नहीं चखा, पर जंगल के मौसमी फल उसके लिए उससे कम क़तई नहीं। जामुन,  जंगली आम,  तुंत,  महुआ जोगों की ताकत का राज है।      


सात साल का जोगो अपने घर के पास वाले मुरूम मिटटी के मैदान में अपने तीस और दोस्तों के साथ फुटबॉल खेल रहा है। बिना किसी फुटबॉली कायदे-कानून के सरपट बॉल लेकर भागता जोगो उन अरबों की आबादी वाले देश में से एक है, जो फुटबॉल में जीता है। अपनी उम्र से ज्यादा भारी वजनी फुटबॉल को लेकर भागते जोगो को आप देख कर शायद चौंक जाएंगे,  हो सकता है थोड़ी देर के लिए स्तब्ध भी जाएंगे और फिर अपने देश के नेताओं को कोस भी देंगे। इसलिए कि जोगो जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के होते हुए भी भारत फुटबॉल में आज भी निचले पायदानों में कहीं खड़ा है। बिना किसी सुविधा प्रशिक्षण, बिना किसी न्यूट्रेशन और ख़ास डाइट के उसकी तेजी और मूवमेंट करिश्माई है।

झारखण्ड उन ऐसे गिने चुने राज्यों में से एक है जहाँ फुटबॉल और हॉकी ही खेला जाता है. यहां के ग्रामीण इलाके में आज भी क्रिकेट के राजा धोनी का राज नहीं चलता बल्कि हज़ारों मील  दूर बैठे माराडोना और पेले राज करते हैं। संसाधनहीन इन आदिवासी बच्चों की फुटबॉल को लेकर दीवानगी देखते बनती है। झुण्ड में इकठ्ठा होकर खड़े ये बच्चे 2 रूपया 5 रुपया  जमा करके पास के हाट से 150 का फुटबॉल खरीद लाये हैं। पुराना फूटबाल का ब्लाडर बार-बार खेल में दुविधा उत्पन्न कर रहा था। फुटबॉल से हवा निकलने की बीमारी से निजात पाने के लिए इन बच्चों ने फुटबॉल खरीदा है।

ग़रीबी बनी बाधा, कैसे बनें पेले या भूटिया
झुण्ड में खड़े उन तीस पैंतीस बच्चों में से एक बच्चा कहता है कि हम जंगल से आम और जामुन तोड़े हैं. तोड़ने के बाद घाटी में गाड़ी से आने-जाने वाले लोगों को बेचे हैं. उसी से पैसा आया तो माँ-बाबा को दिए थे। फिर माँ- बाबा ने 5 रूपया फुटबॉल खरीदने के लिए दिया है.  इनमें से 99 फीसदी बच्चे बीपीएल यानी अति गरीब रेखा के नीचे गुजर बसर करने वाले परिवार से ताल्लुक़ रखते है। इनके परिवार और इनकी आजीविका जंगल पर टिकी हुई है. जंगल के मौसमी फलों और पत्तों के भरोसे जीवन चलाने वाले इन साधारण आदिवासी परिवार के पास ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी बदौलत वो अपने बच्चों को ऐसी सुविधा दे सकें ताकि  वे भी बन सकें पेले या भूटिया। 


धीरे-धीरे ख़त्म होते हॉकी और फुटबॉल
आदिवासियों के फुटबॉल और हॉकी का राज्य पिछले एक दशक में धोनी और क्रिकेट का राज्य बन गया है। शहर से लेकर गांव तक में क्रिकेट का दबाव बढ़ गया है। पैसे और राजनीतिक गठजोड़ की जुगलबंदी ने यहाँ के प्राकृतिक खेल को ही खतरे में डाल दिया है. यहाँ उन ग्रामीण इलाकों में पनपने वाले खेल जो बिना पैड, ग्लूबस, बैट, और बॉल के खेला जाता था, अब हाशिये पर है. धीरे-धीरे फुटबॉल और हॉकी ख़त्म होते जा रहे है.


बदल रहा मिज़ाज, क्रिकेट का होता क़ायम राज  
सालाना जोड़ा खस्सी फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन कराने वाले जेराइ बताते हैं कि, पिछले कुछ सालों में फुटबाल और हॉकी दोनों कम हुआ है. पहले तो पूरा गांव फुटबाल और हॉकी ही खेलता था. लेकिन पिछले सालों में अब गांव के आसपास में क्रिकेट का भी चलन बढ़ा है. शहर में ज्यादा खेल का मैदान नहीं होने की वजह से गांव से सटे शहरी लोगों का झुण्ड आजकल यहाँ के मैदानों में क्रिकेट का आयोजन करने लगा है. जिसकी वजह से भी हमलोग के गांव के लड़के भी क्रिकेट के पीछे भाग रहे हैं. फुटबॉल काम हो रहा है. लोग कहते हैं कि क्रिकेट से पैसा ज्यादा बनता है और नौकरी भी बहुत आसानी से मिल जाती है. आजकल रेलवे भी तो क्रिकेट से ज्यादे लोग को नौकरी में लेता है.  छोटी से छोटी कंपनी की भी क्रिकेट टीम है. इसलिए भी बच्चे नौकरी की वजह से क्रिकेट की तरफ भाग रहे हैं. आजकल यहाँ के नेता लोग भी क्रिकेट का टूर्नामेंट ज्यादा कराते हैं.
 क्रिकेट को ज्यादा सपोर्ट मिलता है. पहले वाली बात अब नहीं रही.


(लेखक-परिचय:
जन्म: 17 सितम्बर , 1987 को चाईबासा (झारखण्ड) में
शिक्षा: कोल्हान विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में जल-जंगल-जमीन एवं पर्यावरण के मुद्दे पर लेखन
संप्रति: पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर शोध कार्य एवं देश भर के आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी।
सम्पर्क: jhamunna@gmail.com)
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शनिवार, 12 जुलाई 2014

इजराइल की बेशर्म हठ खुद उसकी ज़ुबानी

 तुम मेरा कुछ भी न बिगाड़ पाओगे 




 
फोटो गूगल साभार













 शहरोज़ की क़लम से


मेरे बच्चों को तपती भट्ठियों में डाल दिया गया. उसकी मुस्कान अचानक चीखों में बदल जाती हैं, मैं चलते-चलते रुक जाता हूँ. मेरी बेटियों और बहनों की लुटी इस्मत। हमारे लाखों भाइयों को गैस चैंबर में बिलबिलाने को छोड़ दिया गया. आख़िर हम अपने ही घर-आँगन से धकिया दिए गए. यह बाबा आदम का ही वसीला रहा कि तुमने मुझे मेरे लाव-लश्कर के साथ अपनाया। अपने घर-आँगन में शरण दी. मेरे खिलखिलाते बच्चों को उड़ान भरने को खुला आसमान दिया। यह 29 नवम्बर 1947 की बात है. लेकिन पता नहीं,  तुम्हारे बच्चे का हंसना-खिलखिलाना मुझे अचानक बुरा लगने लगा. 5 मई 1948 को हमने अपने इजराइल राष्ट्र की घोषणा कर दी. हमने धीरे-धीरे तुम्हारी धरती फ़िलस्तीन पर अपना आशियाना फैलाना शुरू कर दिया। तुम्हें  पैर सिकोड़ने पर मजबूर कर दिया। तुम्हारी हालत इस शेर की शिनाख्त हुई:
 

ख़ुदा ने  क़ब्र में भी इतनी कम दी है  जगह
पावं फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है!   


अब मुझे तुम्हारे बच्चों के साथ रक्तिम-होली में बड़ा मज़ा आता है. तुम्हारी युवा बेटियों के वक्ष को हबकने और चूसने के बाद उसकी हत्या करना हम नहीं भूलते। अब तुम क्या करोगे? तुमने विरोध करना शुरू कर दिया, कुछ अरब मुल्कों ने तुम्हारा नाम-निहादी साथ दिया तो ज़रूर, लेकिन चौधरी जी के किचेन-कैबिनेट तक मेरी पहुँच का लाभ तो मिलना ही था. 1967 में महज़ तीन दिन के  हिंसक-श्रम से हमने गाज़ा पट्टी, पश्चिमी किनारा और सिनाई पेनिसुला पर क़ब्ज़ा कर लिया। हमने तुम्हें आतंकवादी घोषित कर दिया।
दरअसल विश्व के मेधा पर हमारा अधिपत्य हो चुका था. वहीँ दुनिया को हमने ढेरों वस्तुएं उपभोग के लिए दी. सभी शक्तिशाली मुल्कों के अहम निर्णय में हमारी दख़ल हो गयी. इसके लिए हमने वही तरीक़े अपनाने आरम्भ कर दिए जिसका इस्तेमाल हिटलर ने हमें बहिष्कृत करने के लिए किया था. हम चाहते थे और हैं भी कि तुम उस बड़े भाई की तरह सारी जागीर मुझे सौप दो. मेरी डांट-डपट को स्नेहिल छोटे भाई के समान सहन करो. आखिर इब्राहिम हम दोनों के अब्बा हैं. टोपी। दाढ़ी। ख़तना। हमारी साझी परंपरा है. एक रात जब बाबा आदम ने ख्वाब में कहा तो 1 अप्रेल 1992 को सिनाई पट्टी से हम सुबह हट गए. अगले वर्ष 30 अगस्त 1993 को तुम्हें सीमित फ़िलिस्तीनी स्वशासन की इजाज़त दे दी. वादा भी सियासी कर दिया, गाज़ा और वेस्ट भी तुम्हें दूंगा।

तुमने इसे सच ही समझ लिया। तुम आज़ाद देश का सपना देखने लगे. 1996 में हमारा दक्षिण पंथी नेतानयाहु  सत्ता में आया तो गरज पड़ा, अलग फ़िलिस्तीन देश कभी स्वीकार नहीं। अब क्या है कि तुम्हारा सर उठाकार चलना मुझे तनिक भी सुहाता नहीं। हमने अपने ही खलनायक से यह सीखा है कि झूठ को सौ बार बोलो तो सच हो जाएगा। हमने चौधरी जी को भी यही टिप्स दी है. देखो उन्होने कहा, इराक़ में रासायनिक हथियार है, दुनिया ने मान लिया। ताज़ा मामला इराक़ का ही, अहले हदीस के ख़रीदे लड़ाकुओं को सुन्नी आतंकवादी कहा, सब ने माना। वरना बिना चौधरी जी की मदद के यह क़रीब दो हज़ार लड़ाकू इराक़ की तीन लाख सेना के आगे टिक पाते। 

खैर! मैं मुद्दे पर आऊं अब नयी नस्ल नहीं जानती कि  तुमने मुझे शरण दी थी. यह जानती है कि तुम आतंकवादी हो. मेरे महान देश के लोकतंत्र और शांति व्यवस्था के लिए बहुत बड़ा ख़तरा हो! इसलिए हम पौधे को ही जला-भून कर ख़त्म करना चाहते हैं. तुम्हें अपने अय्याश अरबों से उम्मीद है, जिनकी फुलझड़ी रह-रह कर तुम छोड़ते रहते हो. हम उसे स्कड बताकर संसार को बताते हैं। घबराओ नहीं ! इराक़ के तीन टुकड़े होने तक हम तुम्हारे नाक में दम करते रहेंगे। कोई भी ताक़त तुम्हारे ख़िलाफ हिंसक कार्रवाई करने से हमें नहीं रोक सकती।

अब क्या है कि विश्व में बड़े-बड़े विचारक हमने ही दिए हैं, सो उनका मान भी ज़रूरी है. तुम्हारे बच्चों के लिए रोटियां देता रहूँगा, कुछ दिनों तक अमन की रैलियां अपुन साथ-साथ निकलंेगे। यह भूल जाओ कि वेस्ट बैंक, गाज़ा पट्टी से जेरुसलम तक तुम्हारा राज्य होगा ! मानवाधिकार की रट मत लगाओ। दुनिया अंधी और बहरी हो चुकी है. चौधरी जी का यह कमाल है. और तुम्हारे अरब उन्हीं के रहमो-करम पर सांस लेते हैं.   

दुनिया चाहे तो मेरे उत्पाद का बहिष्कार कर मेरी आर्थिक कमर लुंज कर सकती है. लेकिन बिना जॉनसन एंड जॉनसन के तुम्हारे बच्चे गोरे तो हो सकते नहीं। हग्गीज़ नहीं लाओगे बच्चे तुम्हारी पत्नी के  कपडे रोज़ ही नापाक करेंगे और उनका बर्थ डे किट-कैट के अधूरा ही माना जाएगा।जैसे बिना कोको कोला के तुम्हारा इफ़्तार और बिना नेस्ले के तुम्हारी सेहरी ना-मुकम्मल है. क्या आज बिना मैक डोनाल्ड के तुम बड़े शहर की कल्पना कर सकते हो!  ऐसी ढेरों चीज़ें हैं जो बनाते तो हम हैं, लेकिन उसे खरीद ती सारी दुनिया है। हालाँकि एक शायर तुम्हें कहता है: 

ये बात कहने की ऐ लोगों! एहतियाज नहीं
की बे-हिसी के मर्ज़ का कोई इलाज नहीं
जबीं-ऐ-वक्त प लिखा है साफ़ लफ्जों में
वो लोग मुर्दा हैं करते जो एहतिजाज नहीं 

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मंगलवार, 8 जुलाई 2014

पूरे-पूरे आधे-अधूरे












सईद अय्यूब की कहानी


मैं उनकी हरकतें देखकर दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गया था. कमरे में कोई कश्मीरी लोक गीत गूँज रहा था जिसके बोल समझना मेरे लिए मुश्किल था. पर गायिका शमीमा आज़ाद की आवाज़ मैं पहचान सकता था, जो इतनी मधुर थी कि किसी कबाड़ से खरीद कर और मरम्मत करवा कर इस्तेमाल किये जा रहे टेपरिकार्डर की खर-खर के बावजूद अपने में डुबो रही थी. सामने की दीवार पर एक पेंटिंग टंगी हुई थी, जिसमें सर-सब्ज़ पहाड़ियों में चरती हुई भेड़ों के झुण्ड, गड़रिये को पानी पिलाती हुई एक महिला और एक शिशु को अपने वक्ष से दूध पिलाती एक दूसरी महिला दिखाई दे रही थीं. फर्श पर एक पुराना, सस्ता कश्मीरी कालीन, किनारे पर करीने से समेत कर रखे गए चाय के कुछ बर्तन और उनके पीछे कुछ छोटे-मोटे गट्ठर. “उनमें ज़रूर कबाड़ भरा होगा.”

मैंने सोचा और अपने में मस्त दोनों भाइयों की ओर देखने लगा. दोनों एक-दूसरे से इस तरह चिपके हुए थे कि अगर कोई अनजाना व्यक्ति देखता तो यही समझता कि एक जिस्म है, जिसके दो सर हो गए हैं. दोनों सरों के नीचे एक-एक चेहरा, कुल जमा चार जोड़ी आँखें, दो नाक, दो मुँह, दोनों ही चेहरों पर हलकी दाढ़ी, बस फ़र्क इतना कि एक दाढ़ी मेंहदी में रँगी हुई और एक काली. दोनों एक-दूसरे से लिपटे हुए, गाने की धुन पर नाचने के प्रयास में मगन थे. दोनों की बैसाखियाँ उनके दाएँ और बाएँ झूल रही थीं. परवेज़ रसूल को तो बैसाखियों की मश्क थी, पर ग़ुलाम रसूल को अभी आदत नहीं पड़ी थी. वह बीच-बीच में लड़खड़ा जा रहा था. मैंने अपना कैमरा हाथ में ले लिया और अगली बार ग़ुलाम जैसे ही लड़खड़ाया कि ‘क्लिक’....

कैमरे की क्लिक और फ्लैश ने उन्हें वापस इस दुनिया में पहुँचा दिया. मुझे कैमरे से लैस देख वे इस क़द्र बदहवास हुए कि दोनों की बैसाखियाँ उनके कंधों से अलग हो गयीं और दोनों एक साथ धड़ाम से ज़मीन पर आ रहे. शुक्र था, क़ालीन कुछ मोटा था और शायद उन्हें ऐसे गिरने की आदत थी, कोई अप्रिय दृश्य पैदा नहीं हुआ. मैं हँसते हुए कमरे में दाखिल हुआ और सामने पड़ी तीन टांग की एक पुरानी कुर्सी पर बैठ गया. मैंने उन्हें उठाने की कोई कोशिश नहीं की क्योंकि गिरने के बाद दोनों हँसी से लोट-पोट हो रहे थे. उनके इस मज़ाकिया स्वभाव से मैं परिचित था. वे ऐसे ही थे, एकदम मस्त. हँसी खत्म कर वे एक-दूसरे का सहारा लेकर उठे. परवेज़ कमरे के एक किनारे स्थित छोटे से किचन की ओर बढ़ गया. मैं उसका इरादा समझ चुका था. वह मेरे लिए नून चाय बनाने जा रहा था. ग़ुलाम, क़ालीन के कोनों को, जो उनके नाचने की वजह से थोड़े थोड़े मुड़ गए थे, ठीक करने लगा. मैं उन दोनों को मना नहीं कर सकता था क्योंकि दोनों को ही मेरी इस तरह की कोई दखलंदाज़ी पसंद नहीं थी और वे इसे अपनी मेहमाननवाज़ी के खिलाफ़ भी मानते थे.

अजीब मज़ाक हुआ था उनके साथ. एक का कमर के नीचे का पूरा दायाँ हिस्सा बेकार था तो दूसरे का पूरा बायाँ. जबसे मैं उनसे मिला था उनकी कहानी जानने की हज़ार कोशिश कर चुका था. वे बहुत खुश-अस्लूबी से पेश आते. बढ़िया नून चाय पिलाते, कभी-कभी खुद की बनाई हुई कश्मीरी गोश्त खिलाते पर जैसे ही मैं उनकी ज़िंदगी के बारे में कोई सवाल करता, वे मुझे ऐसी डरी और निश्छल निगाह से देखते कि उसके आगे के सारे प्रश्न मेरे दिमाग में ही कहीं उलझ कर रह जाते. पिछले लगभग दो सालों की अपनी मुलाक़ात में मैंने उनके दिलों में कुछ जगह बना ली थी और इसलिए आज फ़ैसला करके आया था कि बिना उनकी ज़िंदगी के बारे में जाने मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा.

“परवेज़...” मैंने नून चाय की तैयारी कर रहे परवेज़ को बहुत आहिस्ते से आवाज़ दी.
“जी भाईजान” पता नहीं दोनों भाई मुझे भाईजान क्यों कहते थे जबकि मैं उनसे उम्र में छोटा था.
“आज मैं तुम्हारी बनाई हुई चाय नहीं पियूँगा.”
“क्यों? बंदे से क्या गुस्ताखी हो गयी? मैंने अपना यह हाथ ठीक से धो लिया है.” उसने मुस्कराते हुए अपना दायाँ हाथ दिखाया.
“मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि तुमने हाथ धोया है या नहीं?”
“फिर?”
“बस कह दिया ना कि नहीं पीनी.” मैंने अपनी योजना पर अमल करते हुए कुछ गुस्से से कहा.
“चलो कोई बात नहीं.” उसने ग़ुलाम को आवाज़ देते हुए कहा- “ओए गुलामे, तू बना दे. मेरे हाथ की चाय न पीने की कसम खा रखी है भाईजान ने.”
उसके लहजे में इतना भोलापन और नाटकीयता थी कि मैं और ग़ुलाम हँसे बिना न रह सके.
“देखो, चाय चाहे तुम बनाओ या ग़ुलाम , मैंने फ़ैसला किया है कि मैं अब तुम दोनों के यहाँ कुछ भी नहीं खाऊं-पियूँगा क्योंकि...” मैंने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी.
“क्यों?” दोनों भाइयों ने बेक वक़्त सवाल किया था.
“क्योंकि तुम दोनों मुझे अपना तो मानते नहीं हो?” मैंने पासा फेंका यद्यपि मैं डर भी रहा था कि शायद वे मेरे पासे में न आएँ. कश्मीरियों के बारे में आम राय तो यही है कि वे जितने भोले दिखते हैं उतने होते नहीं.
“ऐसा आपको क्यों लगता है भाईजान?” ग़ुलाम ने पूछा.
“क्योंकि मैं जब भी तुमसे कोई सवाल पूछता हूँ तुम दोनों चुप हो जाते हो?”
“आप यही जानना चाहते हो न कि हम दोनों की यह हालत कैसे हुई?”
“यही नहीं बल्कि तुम्हारी पूरी ज़िंदगी की दास्तान सुनना चाहता हूँ.”
“ज़िंदगी की दास्तान तो बहुत छोटी सी है भाईजान पर यह जो हमारी हालत हुई है, इसकी दास्तान बहुत बड़ी है. इतनी बड़ी और इतनी दर्दनाक कि कई ज़िंदगियाँ ख़त्म हो जाएँगी पर न यह दास्तान मुकम्मल होगी, न वह दर्द ख़त्म होगा.”
परवेज़ की आवाज़ कहीं बहुत दूर से आती लग रही थी.
“आपको लगता होगा कि हम अपनी कहानी आपको नहीं बताना चाहते पर असल में हम उस दर्द से फिर से गुज़रना नहीं चाहते. हम दोनों ने फ़ैसला किया है कि हम अपनी बाक़ी ज़िंदगी हँसते-गाते ही बिताएँगे. माज़ी का कोई मातम नहीं, किसी दर्द को फिर से दुहराना नहीं, सिर्फ़ मुस्तक़बिल को किसी तरह से काट देना है.”
“परवेज़, दर्द को बाँटना और दर्द को याद करना दो अलग-अलग चीज़ें होती हैं. मैं तुम लोगों से दर्द बाँटने के लिए कह रहा हूँ, दर्द को याद करने के लिए नहीं.”
“आप नहीं भी कहते तो भी हम महसूस कर रहे हैं कि किसी न किसी दिन यह दर्द आपसे बाँटना ही पड़ेगा. तो आज ही सही. पर पहले आपको हमारी चाय पीनी पड़ेगी.” पता नहीं परवेज़ की मुस्कुराहट में क्या था? मैं अंदर तक लरज़ गया.


कश्मीर की खूबसूरत वादियों में बारामूला के नज़दीक एक छोटा सा, खूबसूरत सा गाँव.साधारण से लोग. अपने में मस्त. दुनिया से कटे हुए पर दीन से नहीं. अपनी खेतों और बगीचों में काम करते हैं, जंगल से लकड़ियाँ लाते हैं, छोटी सी, बे-छत की मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं और जब दुआ के लिए हाथ उठाते हैं तो सीधे अल्लाह मियाँ से जुड़ जाते हैं क्योंकि मस्जिद की छत तो है नहीं.  ज़मीन से आसमान तक कोई रोक-टोक नहीं. औरतें और लड़कियाँ अपने-अपने घरों और घर के मर्दों का ख्याल रखती हैं, खेतों और बगीचों में उन्हें खाना पहुँचाती हैं, गाँव की तलहटी में जाकर वहाँ बहने वाले ताज़े पानी के नाले से पानी भर कर लाती हैं, मवेशियों को दाना-पानी देती हैं और जब ज़्यादा खुश होती हैं तो आपस में मिलकर नाचती-गाती हैं. कुल मिलाकर एक खुशहाल ज़िंदगी है पर इंसानों की खुशहाली उसके खुदा को कब मंज़ूर होने लगी? और जब खुदा को मंज़ूर नहीं तो ज़मीनों पर उसकी नुमाइंदगी कर रही सरकारों और दूसरे लोगों को कैसे मंज़ूर होगी? खुदा तो कहता है कि मैं तुम्हें मुसीबतों में इसलिए डालता हूँ कि तुम्हारा इम्तेहान ले सकूँ. और ये तो खुदा के नुमाइंदे हैं. इम्तेहान लेने का तो उनको हक़ है ही.

तो कई बातों की एक बात यह है कि इस खुशहाल गाँव में एक खुशहाल परिवार रहता था. पेशे से किसान और पैसे से गरीब इस परिवार को जी तोड़ मेहनत के बाद जो भी मिलता उसे अल्लाह का शुक्र अदा कर खाते, पहनते और खा-पहन कर मर्द बिना छत वाली मस्जिद में नमाज़ अदा करता, औरत घर के अंदर मुसल्ला बिछा कर अपने रब का शुक्र अदा करती और बच्चे घर से मस्जिद तक अपने खेल में मस्त रहते. मर्द का नाम था मुश्ताक़ मुहम्मद, औरत थी इसरा और तीनों बच्चे, सबसे बड़ी रुकैया, फिर जुड़वाँ ग़ुलाम रसूल और परवेज़ रसूल. जुड़वा होने के बावजूद ग़ुलाम परवेज़ से पंद्रह मिनट बड़ा था. तो बात तबकी है जबकि रुकैय्या आठ साल की थी और ग़ुलाम और परवेज़ पाँच-पाँच साल के.
सर्दियों के बाद का मौसम-ए-बहार था. बादाम के पेड़ जामुनी और किरमिजी रंग के फूलों से लद चुके थे और चारों ओर जन्नत का नज़ारा पेश कर रहे थे. घाटियों को रंग-बिरंगे फूलों ने अपने रंगों से ढक लिया था. पूरे कश्मीर में सैलानी इस तरह से फैले हुए थे जैसे वही यहाँ के मूल निवासी हों. ऐसे में एक दिन का सूरज न सिर्फ़ इस परिवार के लिए, बल्कि पूरे गाँव के लिए आफ़त की तरह नमूदार हुआ.   

जब बूटों की आवाज़ घाटी से ऊपर आकर गाँव के चारों ओर फैलने लगी, उस वक्त दूसरे गाँव वालों की तरह मुश्ताक़ अपने बगीचे में जाने की तैय्यारी कर रहा था. इसरा घर के अंदर, दो दिन बाद आने वाले अपने भाई और भाभी से मिलने की खुशी में कोई गीत गा रही थी और घर की साफ़-सफ़ाई में जुटी हुई थी. स्कूल बंद था सो तीनों बच्चे अपने-अपने खेलों में मस्त थे. बूटों से उठने वाली आवाज़ ने अचानक ही पूरे गाँव को चारों तरफ़ से घेर लिया. गाँव वालों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी. वे इसके आदी थे. ये बूट  दुश्मनों की टोह लेने के बहाने गाहे-बगाहे गाँव में घुस ही आते थे और जब दुश्मन के नाम पर कुछ नहीं मिलता था तो गाँव के कुछ लोगों के यहाँ दावत-वावत करके चले जाते थे. कभी-कभी किसी को पकड़ कर भी ले जाते और अक्सर तो वे दो-चार दिन में लौट ही आते थे पर एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि गया हुआ व्यक्ति कभी वापस नहीं आया.

ये बूट जब भी गाँव में आते गाँव वालों की साँसे अधर में टंग जाती कि न जाने कब किसकी शामत आ जाए. पर इस बार के बूटों को देखकर गाँव वाले सिहर उठे थे. उनकी थप-थप बता रही थी कि आज कुछ अनहोनी होगी. ये बूट इस से पहले इतनी संख्या में कभी नहीं आए थे. बूटों की कारवाई शुरू हुई. एक-एक को घर से बाहर निकाल कर एक गोल घेरे में संगीनों के साए में इकठ्ठा कर दिया गया. संगीने तनी हुई थीं, लोग सिकुड़े हुए थे. एक-एक घर की पूरी तसल्ली से तलाशी ली गयी और फिर मर्दों और छोटे बच्चों को घेरे से निकाल कुछ बूटों के साथ नीचे सड़क पर और फिर वहाँ से एक ट्रक में भरकर छावनी के अंदर पहुँचा दिया गया. मर्द चिल्लाते रहे, बच्चे बिलखते रहे, औरतें दुहाई देती रहीं पर सब बे-असर. ले जाते वक्त रुकैया किसी तरह से एक बूट के हाथों से छूट कर इसरा से लिपट गयी थी. वह बूट उसको पकड़ने के लिए जब दुबारा उसकी ओर लपका तो एक ऑफिसर से लगने वाले बूट ने उसे मना कर दिया. उस ऑफिसरनुमा बूट की आँखों में रुकैया को देखकर कुछ अजीब सा उभर आया था और फिर...
...और फिर तीन दिन बाद जब मर्द और बच्चे भूखे-प्यासे अपने-अपने घरों को लौटे तो सब कुछ लुट चका था. घरों का सारा सामान बिखरा पड़ा था. औरतें जहाँ-तहाँ निढ़ाल पड़ी हुई थीं, चुप...बिल्कुल चुप.
 ग़ुलाम और परवेज़ ने जब मुश्ताक़ के साथ घर में प्रवेश किया तो दौड़ कर अपनी माँ से लिपट नहीं सके. वे अपनी बहन रुकैया को भी आवाज़ नहीं दे सके. वे बस चुप-चाप अपनी माँ को देखे जा रहे थे. मुश्ताक़ भी चुपचाप बस अपने घर की दीवारों को घूर रहा था. इसरा लगभग अधनंगी हालत में, एक टूटी हुई चारपाई पर लेटी हुई थी और चुपचाप शून्य में घूरे जा रही थी. उसके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे. हाथ और पैरों पर खरोंच के निशान साफ़ दिखाई पड़ रहे थे जिनसे खून बह-बह कर काले निशान के रूप में जमा हो गया था. अचानक वह उठी और ग़ुलाम और परवेज़ को लगभग भींचते हुए ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. और ठीक उसी वक़्त, सारे गावँ की औरतों ने, जैसे वे इसरा के रोने का इंतेज़ार कर रही हों, एक साथ अपने-अपने बच्चों, पतियों और घर के दूसरे मर्दों से लिपट कर रोना शुरू कर दिया. उनके रोने की आवाज़ ने पूरे गाँव को शोक की एक चादर से ढक दिया. बादाम के पेड़ों से सारे जामुनी और किरमजी रंगों के फूल झर गए और उदासी रंग के फूलों ने उनकी जगह ले ली. गिलहरियाँ जो पेड़ों पर बादाम की फ़सलों का इंतेज़ार करते हुए खुशी से नाच रही थीं, न जाने कहाँ छुप गयीं.

कुछ देर बाद इसरा का रोना जब सुबकियों में बदल गया तो मुश्ताक़ को रुकैया का ख्याल आया. वह पिछले तीन दिनों से सबसे ज़्यादा रुकैया के बारे में सोच रहा था. घाटियों में उगने वाले फूलों से भी कोमल, अपनी बेटी रुकैया के बारे में. गाँव के और मर्दों के साथ उसको भी अंदाज़ा हो चुका था कि ये बूट अब क्या करने वाले हैं. पर वह मजबूर था. वह मर का भी अपने गाँव नहीं पहुँच सकता था. चाहकर भी रुकैया और इसरा को उन ज़ालिमों के चंगुल से नहीं बचा सकता था. वह खुद उन ज़ालिम बूटों के सख्त पहरे में था. उसने अपने बे-छत वाले अल्लाह को याद किया और मन ही मन मन्नत भी माँगी कि उसके रुकैया और इसरा को कुछ न हो. वह वापस जाकर चाहे जैसे भी हो, मस्जिद की छत तैयार कराएगा. पर न जाने क्यों, उसको अपनी ही मन्नत पर यक़ीन नहीं हो रहा था. उसे न जाने क्यों ऐसा लगने लगा था कि उसने अल्लाह को उन बूटों के साथ ही देखा था और जब वह ऑफिसरनुमा बूट उसकी बेटी को घूर रहा था तो अल्लाह कहीं आस-पास ही मुस्कुरा रहा था.
और तीन दिनों के बाद जब बूटों ने उनको घर जाने की आज़ादी दी थी, गाँव के सब मर्दों के साथ-साथ मुश्ताक़ भी तीर की तरह अपने गाँव की ओर भागा, गरचे ग़ुलाम और परवेज़ की उँगलियाँ पकड़े होने और तीन दिन से लगभग कुछ न खा पाने की वजह से वह दौड़ नहीं सकता था. और वही क्या, सारे गाँव वालों की हालत ऐसी ही थी. फिर भी जितनी तेज़ी से हो सका, वे पहाड़ों पर चढ़े, तंग घाटियों में उतरे, पत्थरों से टकराये, झाड़ियों में उलझे और अपने गाँव की सीमा पर आकर चुप-चाप खड़े हो गए. सामने गाँव की एक दूसरे से दूर खड़े हुए मकान दिखायी दे रहे थे. बादाम के पेड़ भी दिख रहे थे. घरों के सामने फूलों की क्यारियाँ भी दिख रही थीं. मकानों से लगी हुई वे सीढियाँ भी दिख रही थीं जिनपर जब वे अपने खेतों और बगीचों से लौटते थे तो उनकी औरतें उनका इंतेज़ार करते हुए खड़ी रहती थीं. पर अब सब के सब उसी गाँव की सीमा पर खड़े थे...चुपचाप. गाँव का उजाड़पन और ख़ामोशी उन्हें डरा रही थी. वे गाँव में जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे. ऐसे में मुश्ताक़ को बे-छत वाली मस्जिद की सफ़ेद दीवार दिखाई दी और साथ ही अल्लाह का मुस्कुराता हुआ चेहरा भी याद आया. उसने तेज़ आवाज़ में न जाने किसे एक गंदी गाली दी और ग़ुलाम और परवेज़ का हाथ पकड़े तेज़ी से अपने घर की ओर दौड़ पड़ा.      
घर और इसरा की हालत और फिर इसरा के रोने ने उसे और बदहवास कर दिया था पर जब इसरा की हिचकियाँ सुबकियों में बदल गयीं तो उसे रुकैया का ख्याल फिर से आया.

“रुकैया...?” वह ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था.
इसरा अब भी अपने दोनों बच्चों को अपने से चिमटाये हुए रोये जा रही थी. उसने बहुत मुश्किल से सामने वाले कमरे की तरफ़ इशारा किया. मुश्ताक़ तड़प कर सामने वाले कमरे की ओर बढ़ा. रुकैया ज़मीन पर पड़ी हुई थी. जिस्म पर कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा भी नहीं था. पूरे जिस्म पर जगह-जगह लगी हुई मिट्टी पर खून बह-बह कर जम गया था. आँखे दर्द और खौफ़ से बाहर की तरफ़ फटी पड़ी थीं. ज़मीन की पोली मिटटी कई जगह से उखड़ गयी थी. कई सालों बाद, एक दिन रोते हुए इसरा ने बताया था कि वह मरने से पहले बहुत तड़पी थी. इसरा ने जब उसको गोद में उठाने की कोशिश की थी तो वह तड़प कर गोद से बाहर चली गयी थी. उसके तड़पने से ही ज़मीन की मिट्टी अपनी जगह से उखड़-उखड़ गयी थी.
मुश्ताक़ ने कुछ नहीं किया. न रोया, न चिल्लाया. उसने एक नज़र रुकैया के बेजान जिस्म पर डाली, घर के कोने में रखा अपना बेलचा और कुदाल उठाया और बे-छत वाली मस्जिद के आँगन में पहुँच उसे खोदने लगा. गाँव के कुछ लोगों ने उसे ऐसा करते हुए देखा पर किसी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की. गाँव के पाँच घरों में मौत हुई थी. उसमें आठ साल की रुकैया से लेकर साठ साल की आमिना बी तक थीं और पाँचों को गाँव वालों ने उस बे-छत की मस्जिद में दफ़न कर दिया. न कोई नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी गयी, न कोई फातेहा. मुश्ताक़ को लगा था कि उसने रुकैया को नहीं बल्कि मुस्कुराते हुए अल्लाह को उस बे-छत वाली मस्जिद में हमेशा-हमेशा के लिए दफ़न कर दिया है.


“अब भी रुक्का याद आती है कभी-कभी. हम दोनों को गोद में बैठा कहानियाँ सुनाती हुई पर अब उसका चेहरा याद नहीं आता.” परवेज़ की आँखों के आँसू ने पूरे कमरे को नम कर दिया था. उसने जल्दी से अपनी आँखें दूसरी तरफ़ कर ली थी और हम सबके कपों में चाय डालने लगा था.
“वह ज़रूर माँ की तरह रही होगी.” ग़ुलाम की आवाज़ किसी दूसरी दुनिया से आती लग रही थी. 
मैंने अपना एक हाथ ग़ुलाम के कंधे पर रख दिया. एक शर्मिदंगी से भरा हाथ. यह कहानी सुनने के बाद भी ज़िंदा रह जाने की शर्मिंदगी से भरा हाथ. मुझमें आगे सुनने की हिम्मत नहीं थी पर यह डर भी था कि अगर आज नहीं सुन सका तो शायद फिर कभी नहीं सुन पाऊँगा. दोंनो भाइयों को यादों की इस भयानक कोठरी में धकेलने के लिए बार-बार हिम्मत भी नहीं कर सकता. पर अब बात को आगे बढ़ाने के लिए कहने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी. लगा, ग़ुलाम ने मेरे मन की बात पढ़ ली थी. वह बोला,
“भाईजान, चाय खतम कीजिए तो हम आगे बढ़ें. अब बात निकल आयी है तो आप सुन ही लीजिए. यूँ आधा दर्द बाँट कर क्या होगा?.”
और हम कपों में बची हुई आधी चाय खतम करने लगे.


उस भयानक घटना की लोकल राजनीति में क्या प्रतिक्रिया हुई, यह दोनों भाइयों को नहीं मालूम. पाँच साल की मासूम उम्र. वे तो ठीक से समझ भी नहीं पाए थे कि आखिर हुआ क्या था? रुकैया को दफ़ना कर जब मुश्ताक़ वापस आया तो दोनों ने बेक वक़्त पूछा था,
“रुक्का कहाँ है अब्बा?”
और तब पहली बार मुश्ताक़ रोया था. दोनों को अपने अगल-बगल में समेट कर और इसरा के कंधे पर अपना सर रख कर मुश्ताक़ ‘रुक्का, मेरी रुक्का’ कहकर और फूट-फूट कर रोता रहा. यहाँ तक कि उसके रोने की ताब न लाकर सूरज ढल गया और आसमान पर सितारे उग-उग कर उसके शोक में शामिल होने लगे. पर उसको दिलासा देने वाला भी कौन था? जो थे, उन सबके लिए उस रात आसमान में बहुत तारे उगे.
और ठीक तीसरे दिन, कुछ सामानों की पोटली बना मुश्ताक़, इसरा और दोनों बच्चे उस गाँव से निकल आए थे. कई दिनों के सफ़र के बाद वे श्रीनगर पहुँचे थे. इसरा के कुछ रिश्तेदार वहाँ थे. उनकी मदद से मुश्ताक़ को एक जगह खलासी की नौकरी मिल गयी. मुश्ताक़ और इसरा जब तक जीते रहे, अपनी फूल सी नाज़ुक रुक्का को याद कर रोते रहे और दोनों बच्चों के बेहतर मुस्तक़बिल के सपने देखते रहे. पर मुश्ताक़ उसके बाद किसी मस्जिद में नहीं गया. यहाँ तक कि ईद-बकरीद के दिन भी नहीं.

दोनों बच्चे होनहार थे. बड़ा ग़ुलाम दस साल का होते न होते कालीन बनाने की कारीगरी में माहिर होने लगा था और उसकी महारत को देखकर कालीनों के एक ताजिर ने उसे अपनी फैक्ट्री में जगह दे दी थी जहाँ वह नए-नए डिजाइन बनाना सीखता भी था और खुद नए-नए डिजाईन बनाता भी था. पंद्रह का होते न होते वह इस काम में अच्छा-खासा मशहूर हो गया था और हालत यह हो गई कि बाहर से उसके काम की डिमांड होने लगी. ग़ुलाम सिर्फ़ अपने काम में ही माहिर नहीं था, बिजनेस में भी होशियार था और उसकी इसी होशियारी और कारीगरी को देखकर और इस डर से कि ग़ुलाम कहीं और न चला जाए, फैक्ट्री मालिक ने उसे अपना पार्टनर भी बना लिया था. दिन बीतते रहे, ग़ुलाम मेहनत से अपना काम करता रहा, फैक्ट्री दिन-ब-दिन तरक्की करती रही और मुश्ताक़ और इसरा अपने ग़म भूल कर उसकी शादी के मंसूबे बनाने लगे. दोनों को रुकैया अब बेहद याद आने लगी थी और दोनों को लगता था कि शायद बहू की शक्ल में उन्हें रुकैया वापस मिल जाए.

छोटे परवेज़ को महीन कामों से कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसको पढ़ने का शौक़ था और एक प्रोफ़ेसर के बेटे से उसकी दोस्ती हो गई थी, जिसके ज़रिये वह अपने शौक़ को परवान चढ़ा रहा था. उसको अपने दोस्त से तालीम हासिल करने के नए-नए ज़रिये पता चल रहे थे और एक सबसे खूबसूरत ज़रिये का नाम था दिल्ली. वह दिल्ली आकर खूब पढ़ना चाहता था और पढ़-लिख कर अपने दोस्त के अब्बू की तरह एक बड़ा प्रोफ़ेसर बनना चाहता था. वह अपनी क्लास में हमेशा अव्वल आता था और उसकी कामयाबी को देखकर मुश्ताक़, इसरा और ग़ुलाम फूले नहीं समाते थे. और परवेज़ भी ग़ुलाम की कामयाबी को देखकर खुश होता रहता और मन ही मन दुआ करता कि गुलाम को खूब अच्छी दुलहन मिले जो उसे प्यार से खूब सारा खाना खिलाये. बेचारा, दिन भर खटता रहता है और सूखकर काँटा हुआ जा रहा है. ज़िंदगी ठीक-ठाक गुजरने लगी थी, दुःख कुछ कम होने लगे थे. मुश्ताक़ और इसरा अपने पुराने ग़म भूल फिर से खुश होने लगे थे और बहुत दिनों के बाद मुश्ताक़ फिर से ठहाके लगा कर हँसने लगा था.

फिर वही मौसम-ए-बहार के दिन थे. घाटियाँ फूलों से गुलरंग हो चुकी थी. बादाम के पेड़ों पर जामुनी और किरमजी रंग के फूल निकल आए थे, गिलहरियाँ बादाम की नई फ़सल का इंतज़ार करते हुए खुशी से फुदक रही थीं कि अचानक बूटों की आवाज़ ने फिर से उनके घर को घेर लिया. पर इस बार के बूटों के रंग और आवाज़ में फ़र्क था. मुश्ताक़ अपनी नौकरी पर, ग़ुलाम अपनी फैक्ट्री और परवेज़ अपने दोस्त के प्रोफ़ेसर बाप से मिलने जाने की तैयारी में थे. इसरा दो दिन बाद अपने घर आने वाले एक मेहमान जिनकी बेटी के बारे में उसे पता चला था कि वह बला की खूबसूरत है और शादी की उम्र की है, की खुशी में घर की साफ़-सफ़ाई कर रही थी और साथ ही बहुत दिनों के बाद एक गीत गुनगुना रही थी. बूटों की आवाज़ से चारों सिहर उठे. इससे पहले कि मुश्ताक़ उन बूटों से कुछ कह पाता, इससे पहले कि ग़ुलाम बेहोश होकर गिरती हुई इसरा को संभाल पाता, इससे पहले कि परवेज़ कुछ समझ पाता, बूटों ने परवेज़ को पकड़ा और बाहर खड़ी जीप में डाल कर वहाँ से किसी जिन्न की तरह गायब हो गए.
ग़ुलाम को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. अपनी बेहोश होकर गिरती हुई माँ को संभाले, जीप के पीछे बदहवाश होकर भागते अपने बाप को पुकारे, परवेज़ को कौन लोग कहाँ ले गए, यह पता करे या और क्या करे? थोड़ी देर में उसे होश आया. उसने अपनी माँ को नीचे लिटाया. बाहर भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी और उसमें से कुछ औरतें निकल कर इसरा के पास आ चुकी थीं. ग़ुलाम ने इसरा को उनके हवाले किया और बाप के पीछे तेज़ी से भागा.

इसरा तो उसी दिन दिल के दौरे में खतम हो गई. मुश्ताक़ को जैसे लकवा मार गया था. पर गुलाम ने किसी तरह से अपनी हिम्मत बचाए रखी और आखिर एक महीने की दौड़-धूप के बाद उसे पता चला कि परवेज़ पुलिस की क़ैद में है. परवेज़ के दोस्त के प्रोफ़ेसर बाप को भी पुलिस उठा ले गयी थी. उसके घर से कुछ संदिग्ध लिटरेचर मिला था और पुलिस को यक़ीन था कि उस प्रोफ़ेसर के घर से मुल्क के खिलाफ़ एक बड़ी साजिश रची जा रही थी जिसमें उस प्रोफ़ेसर के कुछ छात्र भी शामिल थे.
गुलाम अपनी सारी हिम्मत यकजा करके परवेज़ को पुलिस की गिरफ़्त से बाहर निकालने के जुगत में लगा हुआ था पर लगभग तीन महीनों तक जब वह परवेज़ से मिल भी नहीं सका तो उसकी हिम्मत टूटने लगी. वह कभी अपने गुमसुम बाप को देखता और  कभी चूड़ियों के उन टुकड़ों को जो हार्ट अटैक से गिरते वक़्त इसरा के हाथों से टूट कर बिखर गए थे और जिन्हें गुलाम ने फेंकने के बजाए, सामने एक तिपाई पर रख छोड़ा था. उन टुकड़ों को देखते-देखते उसे रुक्का की याद आने लगती और कुछ देर बाद माँ और रुक्का के चेहरे आपस में गडमड्ड होने लगते और थोड़ी देर बाद वे लंबे-लंबे बूटों में बदल जाते और तब वह बेहद डर जाता और ‘परवेज़-परवेज़’ चिल्ला कर रोने लगता और तब उसका गुमसुम बाप एक नज़र उठा कर उसकी ओर देखता और फिर आसमान की ओर मुँह उठाकर गाली जैसा कुछ बुदबुदाने लगता.

लेकिन परवेज़ को पुलिस से छुड़ाने के लिए गुलाम को ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. एक सुबह, जब उसने अपने फैक्ट्री मालिक से इस सिलसिले में बात करने जाने के लिए दरवाज़ा खोला तो एक गठरी जैसी चीज़ को अपने घर के सामने पाकर वह सन्न रह गया. शहर में होने वाली इस तरह की तमाम घटनाओं ने उसे बता दिया था कि वह गठरी नुमा चीज़ क्या हो सकती है पर फिर भी, वह मन ही मन यह बुदबुदाते हुए उस गठरी तक पहुँचा कि ‘वह न हो...वह न हो’... पर वही था. परवेज़ एक ज़िंदा लाश की तरह सामने पड़ा हुआ था. वह बेहोश था. इस क़दर बेहोश कि दर्द से कराह भी नहीं सकता था. गुलाम ने बेहोश पड़े हुए परवेज़ को अपने दामन में धीरे से उठाया जैसे वह उसकी माँ हो और परवेज़ कोई नवजात बच्चा और फिर वह जितनी तेज़ी से हो सकता था, लोकल अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा.


“मैं कुछ और चाय बनाता हूँ.” गुलाम बहुत मुश्किल से बोला. गीली हो चुकी उसकी आँखों में कोई चीज़ तैर रही थी-बेबसी, गुस्सा या कोई और चीज़, अंदाज़ा लगाना मुश्किल  था. शायद वह आगे की उस दास्तान को दुहराना नहीं चाहता था कि कैसे उसने परवेज़ की ज़िंदगी बचायी और इसके लिए उसे क्या-क्या सहन करना पड़ा.
कमरे में एक नमी सी फ़ैल गयी थी. कोई बोलना नहीं चाहता था. मैंने सर की जुंबिश से चाय के लिए हामी भर दी.
गुलाम चाय बनाने लगा. परवेज़ इस बीच चुपचाप बैठा, खला में घूरता रहा जैसे अपनी माँ और रुक्का को वहाँ देख रहा हो. इस बीच में मुझे मुश्ताक़ की याद आयी.
‘और तुम्हारे अब्बू परवेज़...?” मैंने बहुत धीरे से पूछा.
“अब्बू...वे अब वहाँ हैं.” परवेज़ ने खला में घूरते हुए ही ऊपर की तरफ़ इशारा किया.
“ओह...”
“मुझे तो पता भी नहीं चला. नमाज़-ए-जनाजा भी मुझे नसीब नहीं हुई. मैं तो तब अस्पताल में बेहोश पड़ा था. सब कुछ गुलामे को ही झेलना पड़ा था.” उसकी आवाज़ उसी ख़ला से आती लग रही थी.
“उनके साथ कुछ हुआ था क्या?”
“क्यों, अब तक जो हुआ था वह कम था क्या भाईजान?” यह चाय बनाते हुए गुलाम की आवाज़ थी.
मैं शर्म से कट सा गया. 
    “रुक्का की मौत ने ही उन्हें मार दिया था पर मेरे और परवेज़ की वजह से वे ज़िंदा बने हुए थे. जब ज़िंदगी ढंग की होने लगी थी, उनके अंदर फिर से जीने की ख्वाहिश भी जागने लगी थी. पर परवेज़ की गिरफ़्तारी और फिर अम्मी की मौत ने उन्हें बदहवास कर दिया. फिर भी किसी तरह वे ज़िंदा रहे लेकिन परवेज़ की हालत ने उन्हें एकदम से खत्म कर दिया.” वह साँस लेने के लिए रुका.
    “मैं परवेज़ को लेकर सीधे अस्पताल भागा था. उन्हें खबर नहीं दी थी. होश भी कहाँ था. न जाने उन्हें कैसे खबर हुई? न जाने वे कैसे अस्पताल पहुँचे? बस मैंने उन्हें वहाँ देखा. उन्होंने एक नज़र मेरी ओर देखा और उनकी दूसरी नज़र परवेज़ पर पड़ी और वही उनकी आखिरी नज़र थी.”
मेरी नज़रें गुलाम के हाथों में थमे हुए कप पर जम सी गयी थीं. मैं कोशिश करके भी उसकी तरफ़ नहीं देख सका. हम तीनों धीरे-धीरे नून-चाय सुड़कने लगे. मैंने परवेज़ की आँखों से कुछ बहकर उसके कप में मिलते हुए देखा. मैंने मन ही मन न जाने किसको एक गाली दी. एक भयंकर गाली.


परवेज़ को ठीक होने में सात महीने लग गए. पूछताछ के दौरान उसके जिस्म पर जिस तरह से जुल्म हुए थे उसके बदले में कमर के नीचे का उसका पूरा बायाँ हिस्सा बेकार हो गया था. डाक्टरों का कहना था कि वह बच गया है यही बहुत बड़ा करिश्मा है. इस बीच, हालाँकि डाक्टर्स और गुलाम ने बहुत छुपाने की कोशिश की थी, फिर भी न जाने कैसे उसे अपनी माँ और बाप के मौत की खबर मिल चुकी थी. पर उसने देखा कि गुलामे किस तरह, सिर्फ़ उसे सदमा न पहुँचे इस बात को ध्यान में रख कर, माँ-बाप के मौत की खबर उससे छुपाने की कोशिश कर रहा था. उसने अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर रोक लिया और गुलाम को यह एहसास नहीं होने दिया कि उसे माँ-बाप की मौत की मनहूस खबर मिल चुकी है. उसे जल्द ही यह भी पता चल गया कि उसके कमर के नीचे का पूरा बाँया हिस्सा अब काम नहीं करेगा. उसने तब भी अपने आँसुओं को बहुत ज़ब्त करके रोक लिया था पर ठीक सात महीने तीन दिन बाद, जब उसको पहली बार बेड से नीचे उतारा गया और डॉक्टर और नर्सों ने उसे बैसाखी के सहारे चलाने की कोशिश की तो वह गुलाम के कंधे पर सर रख कर  फूट-फूट कर रो पड़ा और तब गुलाम भी अपने आँसुओं पर लगाम नहीं सका. दोनों भाई एक-दूसरे से बहुत देर तक लिपटे रहे और ग़मों का एक सैलाब उनकी आँखों से निकल-निकल वहाँ मौजूद सभी गैर-मुर्दा और मुर्दा चीज़ों को अपनी आगोश में लेता रहा.   

अब गुलाम का मन कारीगरी और व्यापार में नहीं लग रहा था. उसे हर पल परवेज़ की फ़िक्र खाए जा रही थी. परवेज़ को हर वक़्त उसकी ज़रूरत थी. घर में कोई और था नहीं. बिजनेस से कमाया हुआ जो कुछ भी गुलाम के पास बचा था, उससे कहीं ज़्यादा परवेज़ के इलाज पर खर्च हो चुका था और गुलाम को परवेज़ की पढ़ाई की भी फ़िक्र थी. उसे पता था कि परवेज़ दिल्ली जाकर खूब ऊँची पढ़ाई करना चाहता था इलसिए एक दिन गुलाम ने चुप-चाप एक फ़ैसला कर लिया. परवेज़ को जब बैसाखियों की कुछ मश्क हो गयी और वह कुछ और ठीक हो गया, उसने उसे अपने फ़ैसले के बारे में बताया और बिना उसके जवाब का इंतेज़ार किए, अपना घर जिसे इसरा ने बहुत मेहनत से सजाया-संवारा था, अपने फैक्ट्री मालिक को सौंप, कुछ ज़रुरी सामान और परवेज़ को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हो गया.

   
अस्पताल में दाखिल होते ही मैंने एक स्ट्रेचर देखा जिस पर एक दुबला-पतला नौजवान पड़ा हुआ था. खून से लथपथ, लगभग अचेत. कपड़ों के चिथड़े उड़े हुए, लंबे-लंबे बिखरे हुए बाल. पर सबसे पहले जिस चीज़ ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी उसकी खून से सनी दाढ़ी.
“...दाढ़ी???” मैं धीरे से बुदबुदाया था.
“तो क्या मुसलमान भी...? पर मुसलमान कैसे घायल...?”
“देखने में तो कश्मीरी लगता है. कहीं यह बम तो नहीं फिट कर रहा था?” एक ख़ास तरह से ट्रेंड मेरे दिमाग ने काम करना शुरू कर दिया था.
मैंने कैमरा टीम को इशारा किया और स्ट्रेचर की ओर दौड़ पड़ा. बाईट शुरू हो चुकी थी. मेरे दिमाग में और चैनलों से आगे रहने की एक पूरी कहानी आकार ले चुकी थी और थोड़ी ही देर में पूरा देश सुन और देख रहा था कि राजधानी में हुए बम ब्लास्ट में एक कश्मीरी युवक घायल हुआ है और पुलिस उसे संदिग्ध आतंकवादी मान कर अपनी जाँच आगे बढ़ा रही है.
पर कुछ दिनों में यह स्पष्ट हो गया कि वह युवक आतंकवादी नहीं था. पुलिस से पता चला कि उसका नाम गुलाम रसूल है और वह दिल्ली में अपने भाई के साथ रहकर कबाड़ी का काम करता है और बम-विस्फोट वाली जगह पर वह किसी से कबाड़ के बारे में कुछ बात करने के लिए आया था.

मैंने कई बार झूठ को सच और सच को झूठ बना कर दिखाया था और कभी पछतावा नहीं हुआ था पर पहली बार न जाने क्यों, अपनी गलत रिपोर्टिंग पर पछतावा हो रहा था. मैं कई बार अस्पताल गया पर हर बार उस नौजवान के मासूम चेहरे पर नज़र पड़ते ही, एक अजीब से एहसास और डर से भर कर मैं वापस आ जाता. एक हफ़्ते हो चुके थे. वह अब ठीक होने लगा था और उसे जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया था. जनरल वार्ड में शिफ्ट होने के बाद मैंने एक लड़के को देखा जो बैसाखियों के सहारे चल रहा था और उस घायल लड़के की तीमारदारी में लगा हुआ था. पता चला कि उसका नाम परवेज़ रसूल है और वह उसका छोटा भाई है. मैं एक अजीब सी आत्म-ग्लानि से भरा हुआ था जिसे परवेज़ की बैसाखियाँ और गुलाम के मासूम चेहरे और मेंहदी रंग की दाढ़ी और घनीभूत कर रही थीं. मैंने कोशिश की पर अपने चैनल पर यह खबर चलवा पाने में असमर्थ रहा कि जिस कश्मीरी युवक के बारे में खबर चलाई गयी थी कि वह संदिग्ध आतंकवादी है, वास्तव में वह आतंकवादी नहीं बल्कि एक भोला-भाला कश्मीरी युवक है जिसकी दाढ़ी मेंहदी से रँगी हुई है और जिसका एक भाई है जिसके कमर के नीचे का पूरा बायाँ हिस्सा बेकार है और जो बैसाखियों के सहारे चल कर बम-ब्लास्ट में घायल अपने बड़े भाई की हिम्मत बढ़ाता रहता है और अकेले में न जाने किसे एक भयानक गाली देता रहता है और जिसकी बैसाखियाँ बम ब्लास्ट की शिकार एक ईमारत की खिड़कियों के बिखरे हुए शीशों की शक्ल अख्तियार कर लगातार मेरी आँखों में चुभती रहती हैं. 
और तब मैंने परवेज़ से दोस्ती करने का और दोनों भाइयों के बारे में ठीक से जानने का फ़ैसला किया. परवेज़ की तरफ़ बढ़ाया गया दोस्ती का हाथ तो आसानी से थाम लिया गया पर उनकी कहानी जानने के लिए मुझे महीनों इंतज़ार करना पड़ा.

परवेज़ को अपने पैरों पर खड़ा होने में सात महीने तीन दिन लगे थे, गुलामे ने एक महीने कम वक़्त लिया. इस दौरान वह लगातार अपने बिस्तर पर मौजूद, अपने छोटे भाई को बैसाखियों के सहारे दौड़-भाग कर अपनी खिदमत करते हुए देखता रहा. बार-बार उसकी आँखों में आँसू आते, पर वह उन्हें बहुत मुश्किल से ज़ब्त कर लेता. इस बीच उसे और परवेज़ को पता चल गया था कि उसके कमर के नीचे का पूरा दायाँ हिस्सा अब बेकार हो चुका है और परवेज़ की ही तरह उसे भी अपनी बाक़ी ज़िंदगी बैसाखियों के सहारे गुज़ारनी होगी. परवेज़ यह खबर सुनकर शून्य सा हो गया था पर गुलाम ने यह खबर बड़ी हिम्मत के साथ सुनी और खबर सुनाने वाले डॉक्टर की तरफ़ देखकर हौले से मुस्कुरा दिया पर ठीक छः महीने तीन दिन बाद जब डॉक्टर और नर्सों ने उसे बैसाखी के सहारे चलाने की कोशिश की तो वह परवेज़ के कंधे पर सर रख कर फूट-फूट कर रो पड़ा और तब परवेज़ भी अपने आँसुओं पर लगाम नहीं सका. दोनों भाई एक-दूसरे से बहुत देर तक लिपटे रहे और ग़मों का एक सैलाब उनकी आँखों से निकल-निकल वहाँ मौजूद सभी गैर-मुर्दा और मुर्दा चीज़ों को अपनी आगोश में लेता रहा.

मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरा पूरा वजूद ही नकारा हो गया हो. मैं बस चुपचाप उन्हें रोते हुए देखता रहा. मेरे अंदर इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि उनमें से किसी एक के भी कंधे पर हाथ रखकर थोड़ी सी दिलासा दे दूँ.

गुलाम ने जब टेपरिकार्डर की आवाज़ बहुत तेज़ कर दी और शमीमा आज़ाद की आवाज़ घर्र-घर्र करते हुए अचानक ही बहुत तेज़ हो गयी तो मैंने चौंक कर देखा. परवेज़ मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहा था. एक भीगी हुई मुस्कुराहट.
“लगता है आप कहीं दूर जाकर खो गए थे.” उसकी आवाज़ अब भी नम थी.

मैंने उसे बताना चाहा कि मैं कहाँ खो गया था पर कुछ कह नहीं पाया. मैं देख रहा था कि मेरे चैनल ने मुझे राजधानी में होने वाले गणतंत्र दिवस की कवरेज की ज़िम्मेदारी सौंपी है. मैं अपनी कमेंट्री तिरंगे को कैमरे में फोकस करवाते हुए शुरू करता हूँ. लहराता हुआ तिरंगा कभी पूरी तरह कैमरे की गिरफ़्त में आ जाता है और कभी आधा-अधूरा ही. फिर कैमरा भारत के मानचित्र को दिखाता है. पर अजीब बात है. मानचित्र भी कभी पूरी तरह कैमरे के फोकस में होता है और कभी आधा-अधूरा ही. अब कैमरा भारत के अलग-अलग राज्यों से होता हुआ कश्मीर तक पहुँच चुका है. पर कश्मीर भी कभी पूरा दिखता है और कभी आधा-अधूरा. 

उस कभी-कभी पूरा और कभी-कभी आधे-अधूरे दिखते कश्मीर के पीछे सेना और पुलिस के जवान अपने-अपने करतब दिखाते चले जा रहे हैं...एक बच्ची कश्मीर के मानचित्र से बाहर निकल आयी है...उसके हाथों में कई तरह के साज़ हैं जिन्हें वह बहुत ही जोश व खरोश के साथ बजा रही है और उसके होंठों से एक सुरीला नग़मा फूटकर फज़ा में मुन्तशिर (बिखर)  हो रहा है...रुकैया...नहीं...हाँ...शायद...उसके पीछे-पीछे कुछ अजीब से लोग हैं...उनके हाथों में एक फ़तवा है...साज़ हराम हैं, मौसिक़ी हराम है, रक़्स हराम है... टेपरिकार्डर से निकलने वाली मौसिक़ी तेज़ हो गयी है....गुलाम और परवेज़ उठकर नाचने लगे हैं...नाचते-नाचते वे एक दूसरे से लिपट जाते हैं...मैं उनकी ओर देखता हूँ...वे कभी पूरे-पूरे दिखाई देते हैं, कभी आधे-अधूरे.
  
      

(लेखक-परिचय:
जन्म: 1 जनवरी, 1978 को कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) में
शिक्षा: जे.एन.यू., नई दिल्ली से उच्च शिक्षा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित, आकाशवाणी व दूरदर्शन पर कविता पाठ
अन्य : ‘खुले में रचना’ व अन्य साहित्यिक कार्यक्रमों का अनवरत आयोजन 
संप्रति: हिंदी व उर्दू भाषा के विकास से संबंधित विश्व स्तर के कई कार्यक्रमों से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन
संपर्क:  sayeedayub@gmail.com

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रविवार, 6 जुलाई 2014

ख़ामोश लब की सदाएं













अनवर सुहैल की कविताएं


एक 
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मुझे
गाली और गोली से
लगता नहीं डर
क्योंकि
मेरे पास है
एक क़लम
एक सोच
एक स्वप्न
एक उम्मीद
और लाखों-लाख लोगों के
ख़ामोश लब की सदाएं ....

तुम्हारी
गालियाँ और गोलियां
मेरा कुछ भी बिगाड़ नही सकतीं....


दो
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जुर्म है
खून बहाने के लिए
धर्म-ग्रंथों की आड़ लेना

तुम पवित्र किताबों की
किन पंक्तियों के सहारे
करते हो मार-काट
बहाते हो नदियाँ खून की

मैं जानता हूँ
मेरी कविता में
ताक़त नही इतनी
कि रोक सके तुम्हें
क्योंकि मेरी कविता से भी
दर्दनाक हैं,
तुम्हारे हथियारों से हलाल होती आवाज़ें

इंसानियत को शर्मसार करने वालों
फिर भी तुम्हे यक़ीन है
कि जन्नत की खुशबूदार हवाएं
तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं....
अफ़सोस
सद-अफ़सोस....



स्त्री-देह
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कुछ चीज़ें ऐसी हैं
जो हमारे लिए
जी का जंजाल हैं
जिन्हें एक मुद्दत से
ख्वाह-म-ख्वाह ढो रहे हम
एक सलीब की तरह
अपने कमज़ोर कांधों पर
धरे-धरे घूम रहे हम...
और वही चीज़ें
तुम्हारे लिए हैं
हसरत, चाहत, हैरत का सबब
बोलो न क्या करें अब...!


चार
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अपने दुःख
अपने कष्टों को
रक्खो अपने पास
ख्वाह-म-ख्वाह, हमें न करो परेशान
अभी हमें करने हैं
तुम्हारी बेहतरी के लिए हज़ारों काम

तुम क्या सोचते हो
कि दुःख सिर्फ़ तुम्हारी जागीर है
ऐसा नही है भाइयों-बहनों
तुम्हारे दुःख तुच्छ हैं, शाश्वत हैं
लेकिन हमारी चिंताएं हैं विराट

सब्र करो....क्योंकि तुम्हे सब्र करना चाहिए...

[कवि-परिचय:
जन्म: 9 अक्टूबर, 1964 को नैला जांजगीर, छत्तीसगढ़ में
शिक्षा: डिप्लोमा इन माइनिंग इंजीनियरिंग
सृजन: कहानियों और कविताओं का प्रकाशन देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में ।
कुंजड़-कसाई, ग्यारह सितम्बर के बाद,चहल्लुम (कहानी संग्रह), और थोड़ी सी शर्म दे मौला! (कविता संग्रह), पहचान, दो पाटन के बीच (उपन्यास) इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
सम्प्रति: बहेराबांध भूमिगत खदान में सहायक खान प्रबंधक साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘संकेत’ का सम्पादन ।
संपर्क: anwarsuhail_09@yahoo.co.in ]

हमज़बान पर अनवर सुहैल की कहानी गहरी जड़ें  
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मंगलवार, 1 जुलाई 2014

फ़ारसी न ही अरबी, कहाँ से आया नमाज़ शब्द

संस्कृत शब्द है नमाज़















शहरोज़ की क़लम से

इन दिनों रमज़ान या रमादान को लेकर चर्चा ख़ूब है. जबकि इसमें महज़ उच्चारण का फ़र्क़ है. शब्द एक ही है. दरसअल अरबी में इसे रमादान कहते हैं और उर्दू में रमज़ान। ऐसा इसलिए है कि फ़ारसी या अरबी लिपि में लिखे गए इस शब्द में एक अक्षर 'ज़्वाद' आता है. इसकी ध्वनि अंग्रेजी के ज़ेड या डी+एच की होती है. भारतीत उपमहाद्वीप में ज़ेड और अरब में डी+एच की तरह इसका तलफ़्फ़ुज़ होता रहा है. ख़ैर! मैंने जब डॉ तारीक़ अब्दुल्लाह से कुछ वर्षों पहले सुना कि नमाज़ ठेठ संस्कृत शब्द है, तो मेरा चौंकना लाज़िम था.
ढेरों मुल्ला उठ खड़े हो सकते हैं कि मैं क्या बकवास कर रहा हूँ.  लेकिन जनाब सच से कब तक मुंह चुराएँगे। 

अरबी में नमाज़ के लिए सलात या सलाः का इस्तेमाल होता है. कुर'आन में भी यही शब्द आया है.क्योंकि जब किसी मस्जिद में मुआज्ज़िन अज़ान पुकार रहा होता है तो कहता है: हय्या अलस्स  सलात!  यानी आओ नमाज़ की तरफ! आओ दुआ, प्रार्थना, उपासना, पूजा की ओर. इस्लाम के जानकारों यानी आलिमों, धार्मिक विद्वानों  से जब पूछा गया कि नमाज़ शब्द कहाँ से आया? उन्होंने बताया कि यह फ़ारसी का शब्द हो सकता है. लेकिन जब फ़ारसी की तरफ निगाह दौड़ाई तो जानकार हैरत हुई कि वहाँ इस शब्द का मूल ही नहीं है.यानी जिस तरह संस्कृत में हर शब्द की एक मूल धातु होती है, ऐसा ही फ़ारसी या अरबी में होती है. फ़ारसी में मूल को मसदर कहते हैं. अगर मान  लें कि नमाज़ का मसदर नम हो तो नम का अर्थ होता है गीला या भीगा हुआ. आपने मुहावरा सुना होगा नम आँखें. वहीं अंतिम में जुड़े अज़ का अर्थ से होता है।  इस तरह ज़ाहिर है नमाज़ का अर्थ नहीं निकलता.

विश्व की एक मात्र भाषा है संस्कृत जहां से नमाज़ का अर्थ निकलता है. नम संस्कृत में सर झुकाने को कहते हैं. जबकि अज का अर्थ है अजन्मा यानी जिसने दूसरे को जन्म दिया किन्तु स्वयं अजन्मा है. इस प्रकार नम+अज के संधि से नमाज बना जिसका अर्थ हुआ अजन्मे को नमन. इस तरह इस शब्द की उत्पत्ति हुई. बाद में यह इरान जाकर फ़ारसी में नमाज़ हो गया.

ध्यान रहे कि इस्लाम का परिचय भारत में पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के जीवनकाल में ही हो गया था.अरब के मुस्लिम कारोबारियों का दक्षिण भारत में आना-जाना शुरू हो गया था.जबकि इरान में इस्लाम बहुत बाद में ख़लीफ़ा उमर के समय पहुंचा था.
भारत के शुरुआती  नव-मुस्लिमों ने सलात को नमाज कहना शुरू कर दिया .यह सातवीं सदी का समय है. भारत यानी तब के अखंड भारत से मेरा आशय है. क्योंकि सिर्फ पाकिस्तान, बँगला देश, नेपाल या श्रीलंका में ही इस शब्द का चलन नहीं है. बल्कि पश्चिम में अफगानिस्तान, इरान, मध्य एशियाई मुल्कों तज़ाकिस्तान. कज़ाकिस्तान आदि और पूर्व में म्यांमार , इंडोनेशिया,मलेशिया,थाईलैंड और कोरिया वगैरह  में भी सलात की बजाय नमाज़ का प्रचलन है.
इन सभी देशों का सम्बन्ध भारत से होना बताया जाता है. इस प्रकार नमाज़ से भी अखंड भारत का प्रमाण साबित हो जाता है.

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