बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 13 जुलाई 2014

अभाव में दम तोड़ता नन्हा फुटबॉलर जागो

झारखंड के सिंहभूम में फुटबॉल की बन सकती है नर्सरी  

फोटो: मुन्ना झा










मुन्ना कुमार झा की क़लम से 

जोगो उन बेशकीमती प्रतिभावान बच्चों में से है, जो गरीबी की मार झेलते हुए भी फुटबॉल दम लगा कर खेलता है। बिना किसी जूते के नंगे पैर. उसकी करिश्माई दौड़ के आगे शायद ब्राजील के पेले और अर्जेंटीना के माराडोना भी परास्त हो जाएं। सात साल का जोगो बिना किसी ख़ास डाइट के चट्टान की तरह फुटबॉल से जुगलबंदी करता है और जीत भी जाता है। जोगो को पानी, भात,  नमक के साथ हरा मिर्च खाना पसंद है। उसने सेब भले कभी नहीं चखा, पर जंगल के मौसमी फल उसके लिए उससे कम क़तई नहीं। जामुन,  जंगली आम,  तुंत,  महुआ जोगों की ताकत का राज है।      


सात साल का जोगो अपने घर के पास वाले मुरूम मिटटी के मैदान में अपने तीस और दोस्तों के साथ फुटबॉल खेल रहा है। बिना किसी फुटबॉली कायदे-कानून के सरपट बॉल लेकर भागता जोगो उन अरबों की आबादी वाले देश में से एक है, जो फुटबॉल में जीता है। अपनी उम्र से ज्यादा भारी वजनी फुटबॉल को लेकर भागते जोगो को आप देख कर शायद चौंक जाएंगे,  हो सकता है थोड़ी देर के लिए स्तब्ध भी जाएंगे और फिर अपने देश के नेताओं को कोस भी देंगे। इसलिए कि जोगो जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के होते हुए भी भारत फुटबॉल में आज भी निचले पायदानों में कहीं खड़ा है। बिना किसी सुविधा प्रशिक्षण, बिना किसी न्यूट्रेशन और ख़ास डाइट के उसकी तेजी और मूवमेंट करिश्माई है।

झारखण्ड उन ऐसे गिने चुने राज्यों में से एक है जहाँ फुटबॉल और हॉकी ही खेला जाता है. यहां के ग्रामीण इलाके में आज भी क्रिकेट के राजा धोनी का राज नहीं चलता बल्कि हज़ारों मील  दूर बैठे माराडोना और पेले राज करते हैं। संसाधनहीन इन आदिवासी बच्चों की फुटबॉल को लेकर दीवानगी देखते बनती है। झुण्ड में इकठ्ठा होकर खड़े ये बच्चे 2 रूपया 5 रुपया  जमा करके पास के हाट से 150 का फुटबॉल खरीद लाये हैं। पुराना फूटबाल का ब्लाडर बार-बार खेल में दुविधा उत्पन्न कर रहा था। फुटबॉल से हवा निकलने की बीमारी से निजात पाने के लिए इन बच्चों ने फुटबॉल खरीदा है।

ग़रीबी बनी बाधा, कैसे बनें पेले या भूटिया
झुण्ड में खड़े उन तीस पैंतीस बच्चों में से एक बच्चा कहता है कि हम जंगल से आम और जामुन तोड़े हैं. तोड़ने के बाद घाटी में गाड़ी से आने-जाने वाले लोगों को बेचे हैं. उसी से पैसा आया तो माँ-बाबा को दिए थे। फिर माँ- बाबा ने 5 रूपया फुटबॉल खरीदने के लिए दिया है.  इनमें से 99 फीसदी बच्चे बीपीएल यानी अति गरीब रेखा के नीचे गुजर बसर करने वाले परिवार से ताल्लुक़ रखते है। इनके परिवार और इनकी आजीविका जंगल पर टिकी हुई है. जंगल के मौसमी फलों और पत्तों के भरोसे जीवन चलाने वाले इन साधारण आदिवासी परिवार के पास ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी बदौलत वो अपने बच्चों को ऐसी सुविधा दे सकें ताकि  वे भी बन सकें पेले या भूटिया। 


धीरे-धीरे ख़त्म होते हॉकी और फुटबॉल
आदिवासियों के फुटबॉल और हॉकी का राज्य पिछले एक दशक में धोनी और क्रिकेट का राज्य बन गया है। शहर से लेकर गांव तक में क्रिकेट का दबाव बढ़ गया है। पैसे और राजनीतिक गठजोड़ की जुगलबंदी ने यहाँ के प्राकृतिक खेल को ही खतरे में डाल दिया है. यहाँ उन ग्रामीण इलाकों में पनपने वाले खेल जो बिना पैड, ग्लूबस, बैट, और बॉल के खेला जाता था, अब हाशिये पर है. धीरे-धीरे फुटबॉल और हॉकी ख़त्म होते जा रहे है.


बदल रहा मिज़ाज, क्रिकेट का होता क़ायम राज  
सालाना जोड़ा खस्सी फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन कराने वाले जेराइ बताते हैं कि, पिछले कुछ सालों में फुटबाल और हॉकी दोनों कम हुआ है. पहले तो पूरा गांव फुटबाल और हॉकी ही खेलता था. लेकिन पिछले सालों में अब गांव के आसपास में क्रिकेट का भी चलन बढ़ा है. शहर में ज्यादा खेल का मैदान नहीं होने की वजह से गांव से सटे शहरी लोगों का झुण्ड आजकल यहाँ के मैदानों में क्रिकेट का आयोजन करने लगा है. जिसकी वजह से भी हमलोग के गांव के लड़के भी क्रिकेट के पीछे भाग रहे हैं. फुटबॉल काम हो रहा है. लोग कहते हैं कि क्रिकेट से पैसा ज्यादा बनता है और नौकरी भी बहुत आसानी से मिल जाती है. आजकल रेलवे भी तो क्रिकेट से ज्यादे लोग को नौकरी में लेता है.  छोटी से छोटी कंपनी की भी क्रिकेट टीम है. इसलिए भी बच्चे नौकरी की वजह से क्रिकेट की तरफ भाग रहे हैं. आजकल यहाँ के नेता लोग भी क्रिकेट का टूर्नामेंट ज्यादा कराते हैं.
 क्रिकेट को ज्यादा सपोर्ट मिलता है. पहले वाली बात अब नहीं रही.


(लेखक-परिचय:
जन्म: 17 सितम्बर , 1987 को चाईबासा (झारखण्ड) में
शिक्षा: कोल्हान विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में जल-जंगल-जमीन एवं पर्यावरण के मुद्दे पर लेखन
संप्रति: पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर शोध कार्य एवं देश भर के आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी।
सम्पर्क: jhamunna@gmail.com)

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