बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

पूरे-पूरे आधे-अधूरे












सईद अय्यूब की कहानी


मैं उनकी हरकतें देखकर दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गया था. कमरे में कोई कश्मीरी लोक गीत गूँज रहा था जिसके बोल समझना मेरे लिए मुश्किल था. पर गायिका शमीमा आज़ाद की आवाज़ मैं पहचान सकता था, जो इतनी मधुर थी कि किसी कबाड़ से खरीद कर और मरम्मत करवा कर इस्तेमाल किये जा रहे टेपरिकार्डर की खर-खर के बावजूद अपने में डुबो रही थी. सामने की दीवार पर एक पेंटिंग टंगी हुई थी, जिसमें सर-सब्ज़ पहाड़ियों में चरती हुई भेड़ों के झुण्ड, गड़रिये को पानी पिलाती हुई एक महिला और एक शिशु को अपने वक्ष से दूध पिलाती एक दूसरी महिला दिखाई दे रही थीं. फर्श पर एक पुराना, सस्ता कश्मीरी कालीन, किनारे पर करीने से समेत कर रखे गए चाय के कुछ बर्तन और उनके पीछे कुछ छोटे-मोटे गट्ठर. “उनमें ज़रूर कबाड़ भरा होगा.”

मैंने सोचा और अपने में मस्त दोनों भाइयों की ओर देखने लगा. दोनों एक-दूसरे से इस तरह चिपके हुए थे कि अगर कोई अनजाना व्यक्ति देखता तो यही समझता कि एक जिस्म है, जिसके दो सर हो गए हैं. दोनों सरों के नीचे एक-एक चेहरा, कुल जमा चार जोड़ी आँखें, दो नाक, दो मुँह, दोनों ही चेहरों पर हलकी दाढ़ी, बस फ़र्क इतना कि एक दाढ़ी मेंहदी में रँगी हुई और एक काली. दोनों एक-दूसरे से लिपटे हुए, गाने की धुन पर नाचने के प्रयास में मगन थे. दोनों की बैसाखियाँ उनके दाएँ और बाएँ झूल रही थीं. परवेज़ रसूल को तो बैसाखियों की मश्क थी, पर ग़ुलाम रसूल को अभी आदत नहीं पड़ी थी. वह बीच-बीच में लड़खड़ा जा रहा था. मैंने अपना कैमरा हाथ में ले लिया और अगली बार ग़ुलाम जैसे ही लड़खड़ाया कि ‘क्लिक’....

कैमरे की क्लिक और फ्लैश ने उन्हें वापस इस दुनिया में पहुँचा दिया. मुझे कैमरे से लैस देख वे इस क़द्र बदहवास हुए कि दोनों की बैसाखियाँ उनके कंधों से अलग हो गयीं और दोनों एक साथ धड़ाम से ज़मीन पर आ रहे. शुक्र था, क़ालीन कुछ मोटा था और शायद उन्हें ऐसे गिरने की आदत थी, कोई अप्रिय दृश्य पैदा नहीं हुआ. मैं हँसते हुए कमरे में दाखिल हुआ और सामने पड़ी तीन टांग की एक पुरानी कुर्सी पर बैठ गया. मैंने उन्हें उठाने की कोई कोशिश नहीं की क्योंकि गिरने के बाद दोनों हँसी से लोट-पोट हो रहे थे. उनके इस मज़ाकिया स्वभाव से मैं परिचित था. वे ऐसे ही थे, एकदम मस्त. हँसी खत्म कर वे एक-दूसरे का सहारा लेकर उठे. परवेज़ कमरे के एक किनारे स्थित छोटे से किचन की ओर बढ़ गया. मैं उसका इरादा समझ चुका था. वह मेरे लिए नून चाय बनाने जा रहा था. ग़ुलाम, क़ालीन के कोनों को, जो उनके नाचने की वजह से थोड़े थोड़े मुड़ गए थे, ठीक करने लगा. मैं उन दोनों को मना नहीं कर सकता था क्योंकि दोनों को ही मेरी इस तरह की कोई दखलंदाज़ी पसंद नहीं थी और वे इसे अपनी मेहमाननवाज़ी के खिलाफ़ भी मानते थे.

अजीब मज़ाक हुआ था उनके साथ. एक का कमर के नीचे का पूरा दायाँ हिस्सा बेकार था तो दूसरे का पूरा बायाँ. जबसे मैं उनसे मिला था उनकी कहानी जानने की हज़ार कोशिश कर चुका था. वे बहुत खुश-अस्लूबी से पेश आते. बढ़िया नून चाय पिलाते, कभी-कभी खुद की बनाई हुई कश्मीरी गोश्त खिलाते पर जैसे ही मैं उनकी ज़िंदगी के बारे में कोई सवाल करता, वे मुझे ऐसी डरी और निश्छल निगाह से देखते कि उसके आगे के सारे प्रश्न मेरे दिमाग में ही कहीं उलझ कर रह जाते. पिछले लगभग दो सालों की अपनी मुलाक़ात में मैंने उनके दिलों में कुछ जगह बना ली थी और इसलिए आज फ़ैसला करके आया था कि बिना उनकी ज़िंदगी के बारे में जाने मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा.

“परवेज़...” मैंने नून चाय की तैयारी कर रहे परवेज़ को बहुत आहिस्ते से आवाज़ दी.
“जी भाईजान” पता नहीं दोनों भाई मुझे भाईजान क्यों कहते थे जबकि मैं उनसे उम्र में छोटा था.
“आज मैं तुम्हारी बनाई हुई चाय नहीं पियूँगा.”
“क्यों? बंदे से क्या गुस्ताखी हो गयी? मैंने अपना यह हाथ ठीक से धो लिया है.” उसने मुस्कराते हुए अपना दायाँ हाथ दिखाया.
“मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि तुमने हाथ धोया है या नहीं?”
“फिर?”
“बस कह दिया ना कि नहीं पीनी.” मैंने अपनी योजना पर अमल करते हुए कुछ गुस्से से कहा.
“चलो कोई बात नहीं.” उसने ग़ुलाम को आवाज़ देते हुए कहा- “ओए गुलामे, तू बना दे. मेरे हाथ की चाय न पीने की कसम खा रखी है भाईजान ने.”
उसके लहजे में इतना भोलापन और नाटकीयता थी कि मैं और ग़ुलाम हँसे बिना न रह सके.
“देखो, चाय चाहे तुम बनाओ या ग़ुलाम , मैंने फ़ैसला किया है कि मैं अब तुम दोनों के यहाँ कुछ भी नहीं खाऊं-पियूँगा क्योंकि...” मैंने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी.
“क्यों?” दोनों भाइयों ने बेक वक़्त सवाल किया था.
“क्योंकि तुम दोनों मुझे अपना तो मानते नहीं हो?” मैंने पासा फेंका यद्यपि मैं डर भी रहा था कि शायद वे मेरे पासे में न आएँ. कश्मीरियों के बारे में आम राय तो यही है कि वे जितने भोले दिखते हैं उतने होते नहीं.
“ऐसा आपको क्यों लगता है भाईजान?” ग़ुलाम ने पूछा.
“क्योंकि मैं जब भी तुमसे कोई सवाल पूछता हूँ तुम दोनों चुप हो जाते हो?”
“आप यही जानना चाहते हो न कि हम दोनों की यह हालत कैसे हुई?”
“यही नहीं बल्कि तुम्हारी पूरी ज़िंदगी की दास्तान सुनना चाहता हूँ.”
“ज़िंदगी की दास्तान तो बहुत छोटी सी है भाईजान पर यह जो हमारी हालत हुई है, इसकी दास्तान बहुत बड़ी है. इतनी बड़ी और इतनी दर्दनाक कि कई ज़िंदगियाँ ख़त्म हो जाएँगी पर न यह दास्तान मुकम्मल होगी, न वह दर्द ख़त्म होगा.”
परवेज़ की आवाज़ कहीं बहुत दूर से आती लग रही थी.
“आपको लगता होगा कि हम अपनी कहानी आपको नहीं बताना चाहते पर असल में हम उस दर्द से फिर से गुज़रना नहीं चाहते. हम दोनों ने फ़ैसला किया है कि हम अपनी बाक़ी ज़िंदगी हँसते-गाते ही बिताएँगे. माज़ी का कोई मातम नहीं, किसी दर्द को फिर से दुहराना नहीं, सिर्फ़ मुस्तक़बिल को किसी तरह से काट देना है.”
“परवेज़, दर्द को बाँटना और दर्द को याद करना दो अलग-अलग चीज़ें होती हैं. मैं तुम लोगों से दर्द बाँटने के लिए कह रहा हूँ, दर्द को याद करने के लिए नहीं.”
“आप नहीं भी कहते तो भी हम महसूस कर रहे हैं कि किसी न किसी दिन यह दर्द आपसे बाँटना ही पड़ेगा. तो आज ही सही. पर पहले आपको हमारी चाय पीनी पड़ेगी.” पता नहीं परवेज़ की मुस्कुराहट में क्या था? मैं अंदर तक लरज़ गया.


कश्मीर की खूबसूरत वादियों में बारामूला के नज़दीक एक छोटा सा, खूबसूरत सा गाँव.साधारण से लोग. अपने में मस्त. दुनिया से कटे हुए पर दीन से नहीं. अपनी खेतों और बगीचों में काम करते हैं, जंगल से लकड़ियाँ लाते हैं, छोटी सी, बे-छत की मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं और जब दुआ के लिए हाथ उठाते हैं तो सीधे अल्लाह मियाँ से जुड़ जाते हैं क्योंकि मस्जिद की छत तो है नहीं.  ज़मीन से आसमान तक कोई रोक-टोक नहीं. औरतें और लड़कियाँ अपने-अपने घरों और घर के मर्दों का ख्याल रखती हैं, खेतों और बगीचों में उन्हें खाना पहुँचाती हैं, गाँव की तलहटी में जाकर वहाँ बहने वाले ताज़े पानी के नाले से पानी भर कर लाती हैं, मवेशियों को दाना-पानी देती हैं और जब ज़्यादा खुश होती हैं तो आपस में मिलकर नाचती-गाती हैं. कुल मिलाकर एक खुशहाल ज़िंदगी है पर इंसानों की खुशहाली उसके खुदा को कब मंज़ूर होने लगी? और जब खुदा को मंज़ूर नहीं तो ज़मीनों पर उसकी नुमाइंदगी कर रही सरकारों और दूसरे लोगों को कैसे मंज़ूर होगी? खुदा तो कहता है कि मैं तुम्हें मुसीबतों में इसलिए डालता हूँ कि तुम्हारा इम्तेहान ले सकूँ. और ये तो खुदा के नुमाइंदे हैं. इम्तेहान लेने का तो उनको हक़ है ही.

तो कई बातों की एक बात यह है कि इस खुशहाल गाँव में एक खुशहाल परिवार रहता था. पेशे से किसान और पैसे से गरीब इस परिवार को जी तोड़ मेहनत के बाद जो भी मिलता उसे अल्लाह का शुक्र अदा कर खाते, पहनते और खा-पहन कर मर्द बिना छत वाली मस्जिद में नमाज़ अदा करता, औरत घर के अंदर मुसल्ला बिछा कर अपने रब का शुक्र अदा करती और बच्चे घर से मस्जिद तक अपने खेल में मस्त रहते. मर्द का नाम था मुश्ताक़ मुहम्मद, औरत थी इसरा और तीनों बच्चे, सबसे बड़ी रुकैया, फिर जुड़वाँ ग़ुलाम रसूल और परवेज़ रसूल. जुड़वा होने के बावजूद ग़ुलाम परवेज़ से पंद्रह मिनट बड़ा था. तो बात तबकी है जबकि रुकैय्या आठ साल की थी और ग़ुलाम और परवेज़ पाँच-पाँच साल के.
सर्दियों के बाद का मौसम-ए-बहार था. बादाम के पेड़ जामुनी और किरमिजी रंग के फूलों से लद चुके थे और चारों ओर जन्नत का नज़ारा पेश कर रहे थे. घाटियों को रंग-बिरंगे फूलों ने अपने रंगों से ढक लिया था. पूरे कश्मीर में सैलानी इस तरह से फैले हुए थे जैसे वही यहाँ के मूल निवासी हों. ऐसे में एक दिन का सूरज न सिर्फ़ इस परिवार के लिए, बल्कि पूरे गाँव के लिए आफ़त की तरह नमूदार हुआ.   

जब बूटों की आवाज़ घाटी से ऊपर आकर गाँव के चारों ओर फैलने लगी, उस वक्त दूसरे गाँव वालों की तरह मुश्ताक़ अपने बगीचे में जाने की तैय्यारी कर रहा था. इसरा घर के अंदर, दो दिन बाद आने वाले अपने भाई और भाभी से मिलने की खुशी में कोई गीत गा रही थी और घर की साफ़-सफ़ाई में जुटी हुई थी. स्कूल बंद था सो तीनों बच्चे अपने-अपने खेलों में मस्त थे. बूटों से उठने वाली आवाज़ ने अचानक ही पूरे गाँव को चारों तरफ़ से घेर लिया. गाँव वालों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी. वे इसके आदी थे. ये बूट  दुश्मनों की टोह लेने के बहाने गाहे-बगाहे गाँव में घुस ही आते थे और जब दुश्मन के नाम पर कुछ नहीं मिलता था तो गाँव के कुछ लोगों के यहाँ दावत-वावत करके चले जाते थे. कभी-कभी किसी को पकड़ कर भी ले जाते और अक्सर तो वे दो-चार दिन में लौट ही आते थे पर एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि गया हुआ व्यक्ति कभी वापस नहीं आया.

ये बूट जब भी गाँव में आते गाँव वालों की साँसे अधर में टंग जाती कि न जाने कब किसकी शामत आ जाए. पर इस बार के बूटों को देखकर गाँव वाले सिहर उठे थे. उनकी थप-थप बता रही थी कि आज कुछ अनहोनी होगी. ये बूट इस से पहले इतनी संख्या में कभी नहीं आए थे. बूटों की कारवाई शुरू हुई. एक-एक को घर से बाहर निकाल कर एक गोल घेरे में संगीनों के साए में इकठ्ठा कर दिया गया. संगीने तनी हुई थीं, लोग सिकुड़े हुए थे. एक-एक घर की पूरी तसल्ली से तलाशी ली गयी और फिर मर्दों और छोटे बच्चों को घेरे से निकाल कुछ बूटों के साथ नीचे सड़क पर और फिर वहाँ से एक ट्रक में भरकर छावनी के अंदर पहुँचा दिया गया. मर्द चिल्लाते रहे, बच्चे बिलखते रहे, औरतें दुहाई देती रहीं पर सब बे-असर. ले जाते वक्त रुकैया किसी तरह से एक बूट के हाथों से छूट कर इसरा से लिपट गयी थी. वह बूट उसको पकड़ने के लिए जब दुबारा उसकी ओर लपका तो एक ऑफिसर से लगने वाले बूट ने उसे मना कर दिया. उस ऑफिसरनुमा बूट की आँखों में रुकैया को देखकर कुछ अजीब सा उभर आया था और फिर...
...और फिर तीन दिन बाद जब मर्द और बच्चे भूखे-प्यासे अपने-अपने घरों को लौटे तो सब कुछ लुट चका था. घरों का सारा सामान बिखरा पड़ा था. औरतें जहाँ-तहाँ निढ़ाल पड़ी हुई थीं, चुप...बिल्कुल चुप.
 ग़ुलाम और परवेज़ ने जब मुश्ताक़ के साथ घर में प्रवेश किया तो दौड़ कर अपनी माँ से लिपट नहीं सके. वे अपनी बहन रुकैया को भी आवाज़ नहीं दे सके. वे बस चुप-चाप अपनी माँ को देखे जा रहे थे. मुश्ताक़ भी चुपचाप बस अपने घर की दीवारों को घूर रहा था. इसरा लगभग अधनंगी हालत में, एक टूटी हुई चारपाई पर लेटी हुई थी और चुपचाप शून्य में घूरे जा रही थी. उसके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे. हाथ और पैरों पर खरोंच के निशान साफ़ दिखाई पड़ रहे थे जिनसे खून बह-बह कर काले निशान के रूप में जमा हो गया था. अचानक वह उठी और ग़ुलाम और परवेज़ को लगभग भींचते हुए ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. और ठीक उसी वक़्त, सारे गावँ की औरतों ने, जैसे वे इसरा के रोने का इंतेज़ार कर रही हों, एक साथ अपने-अपने बच्चों, पतियों और घर के दूसरे मर्दों से लिपट कर रोना शुरू कर दिया. उनके रोने की आवाज़ ने पूरे गाँव को शोक की एक चादर से ढक दिया. बादाम के पेड़ों से सारे जामुनी और किरमजी रंगों के फूल झर गए और उदासी रंग के फूलों ने उनकी जगह ले ली. गिलहरियाँ जो पेड़ों पर बादाम की फ़सलों का इंतेज़ार करते हुए खुशी से नाच रही थीं, न जाने कहाँ छुप गयीं.

कुछ देर बाद इसरा का रोना जब सुबकियों में बदल गया तो मुश्ताक़ को रुकैया का ख्याल आया. वह पिछले तीन दिनों से सबसे ज़्यादा रुकैया के बारे में सोच रहा था. घाटियों में उगने वाले फूलों से भी कोमल, अपनी बेटी रुकैया के बारे में. गाँव के और मर्दों के साथ उसको भी अंदाज़ा हो चुका था कि ये बूट अब क्या करने वाले हैं. पर वह मजबूर था. वह मर का भी अपने गाँव नहीं पहुँच सकता था. चाहकर भी रुकैया और इसरा को उन ज़ालिमों के चंगुल से नहीं बचा सकता था. वह खुद उन ज़ालिम बूटों के सख्त पहरे में था. उसने अपने बे-छत वाले अल्लाह को याद किया और मन ही मन मन्नत भी माँगी कि उसके रुकैया और इसरा को कुछ न हो. वह वापस जाकर चाहे जैसे भी हो, मस्जिद की छत तैयार कराएगा. पर न जाने क्यों, उसको अपनी ही मन्नत पर यक़ीन नहीं हो रहा था. उसे न जाने क्यों ऐसा लगने लगा था कि उसने अल्लाह को उन बूटों के साथ ही देखा था और जब वह ऑफिसरनुमा बूट उसकी बेटी को घूर रहा था तो अल्लाह कहीं आस-पास ही मुस्कुरा रहा था.
और तीन दिनों के बाद जब बूटों ने उनको घर जाने की आज़ादी दी थी, गाँव के सब मर्दों के साथ-साथ मुश्ताक़ भी तीर की तरह अपने गाँव की ओर भागा, गरचे ग़ुलाम और परवेज़ की उँगलियाँ पकड़े होने और तीन दिन से लगभग कुछ न खा पाने की वजह से वह दौड़ नहीं सकता था. और वही क्या, सारे गाँव वालों की हालत ऐसी ही थी. फिर भी जितनी तेज़ी से हो सका, वे पहाड़ों पर चढ़े, तंग घाटियों में उतरे, पत्थरों से टकराये, झाड़ियों में उलझे और अपने गाँव की सीमा पर आकर चुप-चाप खड़े हो गए. सामने गाँव की एक दूसरे से दूर खड़े हुए मकान दिखायी दे रहे थे. बादाम के पेड़ भी दिख रहे थे. घरों के सामने फूलों की क्यारियाँ भी दिख रही थीं. मकानों से लगी हुई वे सीढियाँ भी दिख रही थीं जिनपर जब वे अपने खेतों और बगीचों से लौटते थे तो उनकी औरतें उनका इंतेज़ार करते हुए खड़ी रहती थीं. पर अब सब के सब उसी गाँव की सीमा पर खड़े थे...चुपचाप. गाँव का उजाड़पन और ख़ामोशी उन्हें डरा रही थी. वे गाँव में जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे. ऐसे में मुश्ताक़ को बे-छत वाली मस्जिद की सफ़ेद दीवार दिखाई दी और साथ ही अल्लाह का मुस्कुराता हुआ चेहरा भी याद आया. उसने तेज़ आवाज़ में न जाने किसे एक गंदी गाली दी और ग़ुलाम और परवेज़ का हाथ पकड़े तेज़ी से अपने घर की ओर दौड़ पड़ा.      
घर और इसरा की हालत और फिर इसरा के रोने ने उसे और बदहवास कर दिया था पर जब इसरा की हिचकियाँ सुबकियों में बदल गयीं तो उसे रुकैया का ख्याल फिर से आया.

“रुकैया...?” वह ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था.
इसरा अब भी अपने दोनों बच्चों को अपने से चिमटाये हुए रोये जा रही थी. उसने बहुत मुश्किल से सामने वाले कमरे की तरफ़ इशारा किया. मुश्ताक़ तड़प कर सामने वाले कमरे की ओर बढ़ा. रुकैया ज़मीन पर पड़ी हुई थी. जिस्म पर कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा भी नहीं था. पूरे जिस्म पर जगह-जगह लगी हुई मिट्टी पर खून बह-बह कर जम गया था. आँखे दर्द और खौफ़ से बाहर की तरफ़ फटी पड़ी थीं. ज़मीन की पोली मिटटी कई जगह से उखड़ गयी थी. कई सालों बाद, एक दिन रोते हुए इसरा ने बताया था कि वह मरने से पहले बहुत तड़पी थी. इसरा ने जब उसको गोद में उठाने की कोशिश की थी तो वह तड़प कर गोद से बाहर चली गयी थी. उसके तड़पने से ही ज़मीन की मिट्टी अपनी जगह से उखड़-उखड़ गयी थी.
मुश्ताक़ ने कुछ नहीं किया. न रोया, न चिल्लाया. उसने एक नज़र रुकैया के बेजान जिस्म पर डाली, घर के कोने में रखा अपना बेलचा और कुदाल उठाया और बे-छत वाली मस्जिद के आँगन में पहुँच उसे खोदने लगा. गाँव के कुछ लोगों ने उसे ऐसा करते हुए देखा पर किसी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की. गाँव के पाँच घरों में मौत हुई थी. उसमें आठ साल की रुकैया से लेकर साठ साल की आमिना बी तक थीं और पाँचों को गाँव वालों ने उस बे-छत की मस्जिद में दफ़न कर दिया. न कोई नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी गयी, न कोई फातेहा. मुश्ताक़ को लगा था कि उसने रुकैया को नहीं बल्कि मुस्कुराते हुए अल्लाह को उस बे-छत वाली मस्जिद में हमेशा-हमेशा के लिए दफ़न कर दिया है.


“अब भी रुक्का याद आती है कभी-कभी. हम दोनों को गोद में बैठा कहानियाँ सुनाती हुई पर अब उसका चेहरा याद नहीं आता.” परवेज़ की आँखों के आँसू ने पूरे कमरे को नम कर दिया था. उसने जल्दी से अपनी आँखें दूसरी तरफ़ कर ली थी और हम सबके कपों में चाय डालने लगा था.
“वह ज़रूर माँ की तरह रही होगी.” ग़ुलाम की आवाज़ किसी दूसरी दुनिया से आती लग रही थी. 
मैंने अपना एक हाथ ग़ुलाम के कंधे पर रख दिया. एक शर्मिदंगी से भरा हाथ. यह कहानी सुनने के बाद भी ज़िंदा रह जाने की शर्मिंदगी से भरा हाथ. मुझमें आगे सुनने की हिम्मत नहीं थी पर यह डर भी था कि अगर आज नहीं सुन सका तो शायद फिर कभी नहीं सुन पाऊँगा. दोंनो भाइयों को यादों की इस भयानक कोठरी में धकेलने के लिए बार-बार हिम्मत भी नहीं कर सकता. पर अब बात को आगे बढ़ाने के लिए कहने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी. लगा, ग़ुलाम ने मेरे मन की बात पढ़ ली थी. वह बोला,
“भाईजान, चाय खतम कीजिए तो हम आगे बढ़ें. अब बात निकल आयी है तो आप सुन ही लीजिए. यूँ आधा दर्द बाँट कर क्या होगा?.”
और हम कपों में बची हुई आधी चाय खतम करने लगे.


उस भयानक घटना की लोकल राजनीति में क्या प्रतिक्रिया हुई, यह दोनों भाइयों को नहीं मालूम. पाँच साल की मासूम उम्र. वे तो ठीक से समझ भी नहीं पाए थे कि आखिर हुआ क्या था? रुकैया को दफ़ना कर जब मुश्ताक़ वापस आया तो दोनों ने बेक वक़्त पूछा था,
“रुक्का कहाँ है अब्बा?”
और तब पहली बार मुश्ताक़ रोया था. दोनों को अपने अगल-बगल में समेट कर और इसरा के कंधे पर अपना सर रख कर मुश्ताक़ ‘रुक्का, मेरी रुक्का’ कहकर और फूट-फूट कर रोता रहा. यहाँ तक कि उसके रोने की ताब न लाकर सूरज ढल गया और आसमान पर सितारे उग-उग कर उसके शोक में शामिल होने लगे. पर उसको दिलासा देने वाला भी कौन था? जो थे, उन सबके लिए उस रात आसमान में बहुत तारे उगे.
और ठीक तीसरे दिन, कुछ सामानों की पोटली बना मुश्ताक़, इसरा और दोनों बच्चे उस गाँव से निकल आए थे. कई दिनों के सफ़र के बाद वे श्रीनगर पहुँचे थे. इसरा के कुछ रिश्तेदार वहाँ थे. उनकी मदद से मुश्ताक़ को एक जगह खलासी की नौकरी मिल गयी. मुश्ताक़ और इसरा जब तक जीते रहे, अपनी फूल सी नाज़ुक रुक्का को याद कर रोते रहे और दोनों बच्चों के बेहतर मुस्तक़बिल के सपने देखते रहे. पर मुश्ताक़ उसके बाद किसी मस्जिद में नहीं गया. यहाँ तक कि ईद-बकरीद के दिन भी नहीं.

दोनों बच्चे होनहार थे. बड़ा ग़ुलाम दस साल का होते न होते कालीन बनाने की कारीगरी में माहिर होने लगा था और उसकी महारत को देखकर कालीनों के एक ताजिर ने उसे अपनी फैक्ट्री में जगह दे दी थी जहाँ वह नए-नए डिजाइन बनाना सीखता भी था और खुद नए-नए डिजाईन बनाता भी था. पंद्रह का होते न होते वह इस काम में अच्छा-खासा मशहूर हो गया था और हालत यह हो गई कि बाहर से उसके काम की डिमांड होने लगी. ग़ुलाम सिर्फ़ अपने काम में ही माहिर नहीं था, बिजनेस में भी होशियार था और उसकी इसी होशियारी और कारीगरी को देखकर और इस डर से कि ग़ुलाम कहीं और न चला जाए, फैक्ट्री मालिक ने उसे अपना पार्टनर भी बना लिया था. दिन बीतते रहे, ग़ुलाम मेहनत से अपना काम करता रहा, फैक्ट्री दिन-ब-दिन तरक्की करती रही और मुश्ताक़ और इसरा अपने ग़म भूल कर उसकी शादी के मंसूबे बनाने लगे. दोनों को रुकैया अब बेहद याद आने लगी थी और दोनों को लगता था कि शायद बहू की शक्ल में उन्हें रुकैया वापस मिल जाए.

छोटे परवेज़ को महीन कामों से कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसको पढ़ने का शौक़ था और एक प्रोफ़ेसर के बेटे से उसकी दोस्ती हो गई थी, जिसके ज़रिये वह अपने शौक़ को परवान चढ़ा रहा था. उसको अपने दोस्त से तालीम हासिल करने के नए-नए ज़रिये पता चल रहे थे और एक सबसे खूबसूरत ज़रिये का नाम था दिल्ली. वह दिल्ली आकर खूब पढ़ना चाहता था और पढ़-लिख कर अपने दोस्त के अब्बू की तरह एक बड़ा प्रोफ़ेसर बनना चाहता था. वह अपनी क्लास में हमेशा अव्वल आता था और उसकी कामयाबी को देखकर मुश्ताक़, इसरा और ग़ुलाम फूले नहीं समाते थे. और परवेज़ भी ग़ुलाम की कामयाबी को देखकर खुश होता रहता और मन ही मन दुआ करता कि गुलाम को खूब अच्छी दुलहन मिले जो उसे प्यार से खूब सारा खाना खिलाये. बेचारा, दिन भर खटता रहता है और सूखकर काँटा हुआ जा रहा है. ज़िंदगी ठीक-ठाक गुजरने लगी थी, दुःख कुछ कम होने लगे थे. मुश्ताक़ और इसरा अपने पुराने ग़म भूल फिर से खुश होने लगे थे और बहुत दिनों के बाद मुश्ताक़ फिर से ठहाके लगा कर हँसने लगा था.

फिर वही मौसम-ए-बहार के दिन थे. घाटियाँ फूलों से गुलरंग हो चुकी थी. बादाम के पेड़ों पर जामुनी और किरमजी रंग के फूल निकल आए थे, गिलहरियाँ बादाम की नई फ़सल का इंतज़ार करते हुए खुशी से फुदक रही थीं कि अचानक बूटों की आवाज़ ने फिर से उनके घर को घेर लिया. पर इस बार के बूटों के रंग और आवाज़ में फ़र्क था. मुश्ताक़ अपनी नौकरी पर, ग़ुलाम अपनी फैक्ट्री और परवेज़ अपने दोस्त के प्रोफ़ेसर बाप से मिलने जाने की तैयारी में थे. इसरा दो दिन बाद अपने घर आने वाले एक मेहमान जिनकी बेटी के बारे में उसे पता चला था कि वह बला की खूबसूरत है और शादी की उम्र की है, की खुशी में घर की साफ़-सफ़ाई कर रही थी और साथ ही बहुत दिनों के बाद एक गीत गुनगुना रही थी. बूटों की आवाज़ से चारों सिहर उठे. इससे पहले कि मुश्ताक़ उन बूटों से कुछ कह पाता, इससे पहले कि ग़ुलाम बेहोश होकर गिरती हुई इसरा को संभाल पाता, इससे पहले कि परवेज़ कुछ समझ पाता, बूटों ने परवेज़ को पकड़ा और बाहर खड़ी जीप में डाल कर वहाँ से किसी जिन्न की तरह गायब हो गए.
ग़ुलाम को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. अपनी बेहोश होकर गिरती हुई माँ को संभाले, जीप के पीछे बदहवाश होकर भागते अपने बाप को पुकारे, परवेज़ को कौन लोग कहाँ ले गए, यह पता करे या और क्या करे? थोड़ी देर में उसे होश आया. उसने अपनी माँ को नीचे लिटाया. बाहर भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी और उसमें से कुछ औरतें निकल कर इसरा के पास आ चुकी थीं. ग़ुलाम ने इसरा को उनके हवाले किया और बाप के पीछे तेज़ी से भागा.

इसरा तो उसी दिन दिल के दौरे में खतम हो गई. मुश्ताक़ को जैसे लकवा मार गया था. पर गुलाम ने किसी तरह से अपनी हिम्मत बचाए रखी और आखिर एक महीने की दौड़-धूप के बाद उसे पता चला कि परवेज़ पुलिस की क़ैद में है. परवेज़ के दोस्त के प्रोफ़ेसर बाप को भी पुलिस उठा ले गयी थी. उसके घर से कुछ संदिग्ध लिटरेचर मिला था और पुलिस को यक़ीन था कि उस प्रोफ़ेसर के घर से मुल्क के खिलाफ़ एक बड़ी साजिश रची जा रही थी जिसमें उस प्रोफ़ेसर के कुछ छात्र भी शामिल थे.
गुलाम अपनी सारी हिम्मत यकजा करके परवेज़ को पुलिस की गिरफ़्त से बाहर निकालने के जुगत में लगा हुआ था पर लगभग तीन महीनों तक जब वह परवेज़ से मिल भी नहीं सका तो उसकी हिम्मत टूटने लगी. वह कभी अपने गुमसुम बाप को देखता और  कभी चूड़ियों के उन टुकड़ों को जो हार्ट अटैक से गिरते वक़्त इसरा के हाथों से टूट कर बिखर गए थे और जिन्हें गुलाम ने फेंकने के बजाए, सामने एक तिपाई पर रख छोड़ा था. उन टुकड़ों को देखते-देखते उसे रुक्का की याद आने लगती और कुछ देर बाद माँ और रुक्का के चेहरे आपस में गडमड्ड होने लगते और थोड़ी देर बाद वे लंबे-लंबे बूटों में बदल जाते और तब वह बेहद डर जाता और ‘परवेज़-परवेज़’ चिल्ला कर रोने लगता और तब उसका गुमसुम बाप एक नज़र उठा कर उसकी ओर देखता और फिर आसमान की ओर मुँह उठाकर गाली जैसा कुछ बुदबुदाने लगता.

लेकिन परवेज़ को पुलिस से छुड़ाने के लिए गुलाम को ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. एक सुबह, जब उसने अपने फैक्ट्री मालिक से इस सिलसिले में बात करने जाने के लिए दरवाज़ा खोला तो एक गठरी जैसी चीज़ को अपने घर के सामने पाकर वह सन्न रह गया. शहर में होने वाली इस तरह की तमाम घटनाओं ने उसे बता दिया था कि वह गठरी नुमा चीज़ क्या हो सकती है पर फिर भी, वह मन ही मन यह बुदबुदाते हुए उस गठरी तक पहुँचा कि ‘वह न हो...वह न हो’... पर वही था. परवेज़ एक ज़िंदा लाश की तरह सामने पड़ा हुआ था. वह बेहोश था. इस क़दर बेहोश कि दर्द से कराह भी नहीं सकता था. गुलाम ने बेहोश पड़े हुए परवेज़ को अपने दामन में धीरे से उठाया जैसे वह उसकी माँ हो और परवेज़ कोई नवजात बच्चा और फिर वह जितनी तेज़ी से हो सकता था, लोकल अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा.


“मैं कुछ और चाय बनाता हूँ.” गुलाम बहुत मुश्किल से बोला. गीली हो चुकी उसकी आँखों में कोई चीज़ तैर रही थी-बेबसी, गुस्सा या कोई और चीज़, अंदाज़ा लगाना मुश्किल  था. शायद वह आगे की उस दास्तान को दुहराना नहीं चाहता था कि कैसे उसने परवेज़ की ज़िंदगी बचायी और इसके लिए उसे क्या-क्या सहन करना पड़ा.
कमरे में एक नमी सी फ़ैल गयी थी. कोई बोलना नहीं चाहता था. मैंने सर की जुंबिश से चाय के लिए हामी भर दी.
गुलाम चाय बनाने लगा. परवेज़ इस बीच चुपचाप बैठा, खला में घूरता रहा जैसे अपनी माँ और रुक्का को वहाँ देख रहा हो. इस बीच में मुझे मुश्ताक़ की याद आयी.
‘और तुम्हारे अब्बू परवेज़...?” मैंने बहुत धीरे से पूछा.
“अब्बू...वे अब वहाँ हैं.” परवेज़ ने खला में घूरते हुए ही ऊपर की तरफ़ इशारा किया.
“ओह...”
“मुझे तो पता भी नहीं चला. नमाज़-ए-जनाजा भी मुझे नसीब नहीं हुई. मैं तो तब अस्पताल में बेहोश पड़ा था. सब कुछ गुलामे को ही झेलना पड़ा था.” उसकी आवाज़ उसी ख़ला से आती लग रही थी.
“उनके साथ कुछ हुआ था क्या?”
“क्यों, अब तक जो हुआ था वह कम था क्या भाईजान?” यह चाय बनाते हुए गुलाम की आवाज़ थी.
मैं शर्म से कट सा गया. 
    “रुक्का की मौत ने ही उन्हें मार दिया था पर मेरे और परवेज़ की वजह से वे ज़िंदा बने हुए थे. जब ज़िंदगी ढंग की होने लगी थी, उनके अंदर फिर से जीने की ख्वाहिश भी जागने लगी थी. पर परवेज़ की गिरफ़्तारी और फिर अम्मी की मौत ने उन्हें बदहवास कर दिया. फिर भी किसी तरह वे ज़िंदा रहे लेकिन परवेज़ की हालत ने उन्हें एकदम से खत्म कर दिया.” वह साँस लेने के लिए रुका.
    “मैं परवेज़ को लेकर सीधे अस्पताल भागा था. उन्हें खबर नहीं दी थी. होश भी कहाँ था. न जाने उन्हें कैसे खबर हुई? न जाने वे कैसे अस्पताल पहुँचे? बस मैंने उन्हें वहाँ देखा. उन्होंने एक नज़र मेरी ओर देखा और उनकी दूसरी नज़र परवेज़ पर पड़ी और वही उनकी आखिरी नज़र थी.”
मेरी नज़रें गुलाम के हाथों में थमे हुए कप पर जम सी गयी थीं. मैं कोशिश करके भी उसकी तरफ़ नहीं देख सका. हम तीनों धीरे-धीरे नून-चाय सुड़कने लगे. मैंने परवेज़ की आँखों से कुछ बहकर उसके कप में मिलते हुए देखा. मैंने मन ही मन न जाने किसको एक गाली दी. एक भयंकर गाली.


परवेज़ को ठीक होने में सात महीने लग गए. पूछताछ के दौरान उसके जिस्म पर जिस तरह से जुल्म हुए थे उसके बदले में कमर के नीचे का उसका पूरा बायाँ हिस्सा बेकार हो गया था. डाक्टरों का कहना था कि वह बच गया है यही बहुत बड़ा करिश्मा है. इस बीच, हालाँकि डाक्टर्स और गुलाम ने बहुत छुपाने की कोशिश की थी, फिर भी न जाने कैसे उसे अपनी माँ और बाप के मौत की खबर मिल चुकी थी. पर उसने देखा कि गुलामे किस तरह, सिर्फ़ उसे सदमा न पहुँचे इस बात को ध्यान में रख कर, माँ-बाप के मौत की खबर उससे छुपाने की कोशिश कर रहा था. उसने अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर रोक लिया और गुलाम को यह एहसास नहीं होने दिया कि उसे माँ-बाप की मौत की मनहूस खबर मिल चुकी है. उसे जल्द ही यह भी पता चल गया कि उसके कमर के नीचे का पूरा बाँया हिस्सा अब काम नहीं करेगा. उसने तब भी अपने आँसुओं को बहुत ज़ब्त करके रोक लिया था पर ठीक सात महीने तीन दिन बाद, जब उसको पहली बार बेड से नीचे उतारा गया और डॉक्टर और नर्सों ने उसे बैसाखी के सहारे चलाने की कोशिश की तो वह गुलाम के कंधे पर सर रख कर  फूट-फूट कर रो पड़ा और तब गुलाम भी अपने आँसुओं पर लगाम नहीं सका. दोनों भाई एक-दूसरे से बहुत देर तक लिपटे रहे और ग़मों का एक सैलाब उनकी आँखों से निकल-निकल वहाँ मौजूद सभी गैर-मुर्दा और मुर्दा चीज़ों को अपनी आगोश में लेता रहा.   

अब गुलाम का मन कारीगरी और व्यापार में नहीं लग रहा था. उसे हर पल परवेज़ की फ़िक्र खाए जा रही थी. परवेज़ को हर वक़्त उसकी ज़रूरत थी. घर में कोई और था नहीं. बिजनेस से कमाया हुआ जो कुछ भी गुलाम के पास बचा था, उससे कहीं ज़्यादा परवेज़ के इलाज पर खर्च हो चुका था और गुलाम को परवेज़ की पढ़ाई की भी फ़िक्र थी. उसे पता था कि परवेज़ दिल्ली जाकर खूब ऊँची पढ़ाई करना चाहता था इलसिए एक दिन गुलाम ने चुप-चाप एक फ़ैसला कर लिया. परवेज़ को जब बैसाखियों की कुछ मश्क हो गयी और वह कुछ और ठीक हो गया, उसने उसे अपने फ़ैसले के बारे में बताया और बिना उसके जवाब का इंतेज़ार किए, अपना घर जिसे इसरा ने बहुत मेहनत से सजाया-संवारा था, अपने फैक्ट्री मालिक को सौंप, कुछ ज़रुरी सामान और परवेज़ को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हो गया.

   
अस्पताल में दाखिल होते ही मैंने एक स्ट्रेचर देखा जिस पर एक दुबला-पतला नौजवान पड़ा हुआ था. खून से लथपथ, लगभग अचेत. कपड़ों के चिथड़े उड़े हुए, लंबे-लंबे बिखरे हुए बाल. पर सबसे पहले जिस चीज़ ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी उसकी खून से सनी दाढ़ी.
“...दाढ़ी???” मैं धीरे से बुदबुदाया था.
“तो क्या मुसलमान भी...? पर मुसलमान कैसे घायल...?”
“देखने में तो कश्मीरी लगता है. कहीं यह बम तो नहीं फिट कर रहा था?” एक ख़ास तरह से ट्रेंड मेरे दिमाग ने काम करना शुरू कर दिया था.
मैंने कैमरा टीम को इशारा किया और स्ट्रेचर की ओर दौड़ पड़ा. बाईट शुरू हो चुकी थी. मेरे दिमाग में और चैनलों से आगे रहने की एक पूरी कहानी आकार ले चुकी थी और थोड़ी ही देर में पूरा देश सुन और देख रहा था कि राजधानी में हुए बम ब्लास्ट में एक कश्मीरी युवक घायल हुआ है और पुलिस उसे संदिग्ध आतंकवादी मान कर अपनी जाँच आगे बढ़ा रही है.
पर कुछ दिनों में यह स्पष्ट हो गया कि वह युवक आतंकवादी नहीं था. पुलिस से पता चला कि उसका नाम गुलाम रसूल है और वह दिल्ली में अपने भाई के साथ रहकर कबाड़ी का काम करता है और बम-विस्फोट वाली जगह पर वह किसी से कबाड़ के बारे में कुछ बात करने के लिए आया था.

मैंने कई बार झूठ को सच और सच को झूठ बना कर दिखाया था और कभी पछतावा नहीं हुआ था पर पहली बार न जाने क्यों, अपनी गलत रिपोर्टिंग पर पछतावा हो रहा था. मैं कई बार अस्पताल गया पर हर बार उस नौजवान के मासूम चेहरे पर नज़र पड़ते ही, एक अजीब से एहसास और डर से भर कर मैं वापस आ जाता. एक हफ़्ते हो चुके थे. वह अब ठीक होने लगा था और उसे जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया था. जनरल वार्ड में शिफ्ट होने के बाद मैंने एक लड़के को देखा जो बैसाखियों के सहारे चल रहा था और उस घायल लड़के की तीमारदारी में लगा हुआ था. पता चला कि उसका नाम परवेज़ रसूल है और वह उसका छोटा भाई है. मैं एक अजीब सी आत्म-ग्लानि से भरा हुआ था जिसे परवेज़ की बैसाखियाँ और गुलाम के मासूम चेहरे और मेंहदी रंग की दाढ़ी और घनीभूत कर रही थीं. मैंने कोशिश की पर अपने चैनल पर यह खबर चलवा पाने में असमर्थ रहा कि जिस कश्मीरी युवक के बारे में खबर चलाई गयी थी कि वह संदिग्ध आतंकवादी है, वास्तव में वह आतंकवादी नहीं बल्कि एक भोला-भाला कश्मीरी युवक है जिसकी दाढ़ी मेंहदी से रँगी हुई है और जिसका एक भाई है जिसके कमर के नीचे का पूरा बायाँ हिस्सा बेकार है और जो बैसाखियों के सहारे चल कर बम-ब्लास्ट में घायल अपने बड़े भाई की हिम्मत बढ़ाता रहता है और अकेले में न जाने किसे एक भयानक गाली देता रहता है और जिसकी बैसाखियाँ बम ब्लास्ट की शिकार एक ईमारत की खिड़कियों के बिखरे हुए शीशों की शक्ल अख्तियार कर लगातार मेरी आँखों में चुभती रहती हैं. 
और तब मैंने परवेज़ से दोस्ती करने का और दोनों भाइयों के बारे में ठीक से जानने का फ़ैसला किया. परवेज़ की तरफ़ बढ़ाया गया दोस्ती का हाथ तो आसानी से थाम लिया गया पर उनकी कहानी जानने के लिए मुझे महीनों इंतज़ार करना पड़ा.

परवेज़ को अपने पैरों पर खड़ा होने में सात महीने तीन दिन लगे थे, गुलामे ने एक महीने कम वक़्त लिया. इस दौरान वह लगातार अपने बिस्तर पर मौजूद, अपने छोटे भाई को बैसाखियों के सहारे दौड़-भाग कर अपनी खिदमत करते हुए देखता रहा. बार-बार उसकी आँखों में आँसू आते, पर वह उन्हें बहुत मुश्किल से ज़ब्त कर लेता. इस बीच उसे और परवेज़ को पता चल गया था कि उसके कमर के नीचे का पूरा दायाँ हिस्सा अब बेकार हो चुका है और परवेज़ की ही तरह उसे भी अपनी बाक़ी ज़िंदगी बैसाखियों के सहारे गुज़ारनी होगी. परवेज़ यह खबर सुनकर शून्य सा हो गया था पर गुलाम ने यह खबर बड़ी हिम्मत के साथ सुनी और खबर सुनाने वाले डॉक्टर की तरफ़ देखकर हौले से मुस्कुरा दिया पर ठीक छः महीने तीन दिन बाद जब डॉक्टर और नर्सों ने उसे बैसाखी के सहारे चलाने की कोशिश की तो वह परवेज़ के कंधे पर सर रख कर फूट-फूट कर रो पड़ा और तब परवेज़ भी अपने आँसुओं पर लगाम नहीं सका. दोनों भाई एक-दूसरे से बहुत देर तक लिपटे रहे और ग़मों का एक सैलाब उनकी आँखों से निकल-निकल वहाँ मौजूद सभी गैर-मुर्दा और मुर्दा चीज़ों को अपनी आगोश में लेता रहा.

मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरा पूरा वजूद ही नकारा हो गया हो. मैं बस चुपचाप उन्हें रोते हुए देखता रहा. मेरे अंदर इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि उनमें से किसी एक के भी कंधे पर हाथ रखकर थोड़ी सी दिलासा दे दूँ.

गुलाम ने जब टेपरिकार्डर की आवाज़ बहुत तेज़ कर दी और शमीमा आज़ाद की आवाज़ घर्र-घर्र करते हुए अचानक ही बहुत तेज़ हो गयी तो मैंने चौंक कर देखा. परवेज़ मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहा था. एक भीगी हुई मुस्कुराहट.
“लगता है आप कहीं दूर जाकर खो गए थे.” उसकी आवाज़ अब भी नम थी.

मैंने उसे बताना चाहा कि मैं कहाँ खो गया था पर कुछ कह नहीं पाया. मैं देख रहा था कि मेरे चैनल ने मुझे राजधानी में होने वाले गणतंत्र दिवस की कवरेज की ज़िम्मेदारी सौंपी है. मैं अपनी कमेंट्री तिरंगे को कैमरे में फोकस करवाते हुए शुरू करता हूँ. लहराता हुआ तिरंगा कभी पूरी तरह कैमरे की गिरफ़्त में आ जाता है और कभी आधा-अधूरा ही. फिर कैमरा भारत के मानचित्र को दिखाता है. पर अजीब बात है. मानचित्र भी कभी पूरी तरह कैमरे के फोकस में होता है और कभी आधा-अधूरा ही. अब कैमरा भारत के अलग-अलग राज्यों से होता हुआ कश्मीर तक पहुँच चुका है. पर कश्मीर भी कभी पूरा दिखता है और कभी आधा-अधूरा. 

उस कभी-कभी पूरा और कभी-कभी आधे-अधूरे दिखते कश्मीर के पीछे सेना और पुलिस के जवान अपने-अपने करतब दिखाते चले जा रहे हैं...एक बच्ची कश्मीर के मानचित्र से बाहर निकल आयी है...उसके हाथों में कई तरह के साज़ हैं जिन्हें वह बहुत ही जोश व खरोश के साथ बजा रही है और उसके होंठों से एक सुरीला नग़मा फूटकर फज़ा में मुन्तशिर (बिखर)  हो रहा है...रुकैया...नहीं...हाँ...शायद...उसके पीछे-पीछे कुछ अजीब से लोग हैं...उनके हाथों में एक फ़तवा है...साज़ हराम हैं, मौसिक़ी हराम है, रक़्स हराम है... टेपरिकार्डर से निकलने वाली मौसिक़ी तेज़ हो गयी है....गुलाम और परवेज़ उठकर नाचने लगे हैं...नाचते-नाचते वे एक दूसरे से लिपट जाते हैं...मैं उनकी ओर देखता हूँ...वे कभी पूरे-पूरे दिखाई देते हैं, कभी आधे-अधूरे.
  
      

(लेखक-परिचय:
जन्म: 1 जनवरी, 1978 को कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) में
शिक्षा: जे.एन.यू., नई दिल्ली से उच्च शिक्षा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित, आकाशवाणी व दूरदर्शन पर कविता पाठ
अन्य : ‘खुले में रचना’ व अन्य साहित्यिक कार्यक्रमों का अनवरत आयोजन 
संप्रति: हिंदी व उर्दू भाषा के विकास से संबंधित विश्व स्तर के कई कार्यक्रमों से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन
संपर्क:  sayeedayub@gmail.com


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15 comments: on " पूरे-पूरे आधे-अधूरे "

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

बहुत उम्दा सईद ,,माशाअल्लाह ,,,अल्लाह करे ज़ोर ए क़लम और ज़ियादा
ख़ूब कामयाब रहो हमेशा

SAK ने कहा…

बहुत बहुत शुक्रिया Syed Shahroz bhai! आपने मेरी कहानी 'हमज़बान' के ज़रिये लोगों तक पहुँचाई इसलिए भी और आपकी खूबसूरत टिप्पणी के लिए भी. ममनून हूँ.

आपका,

सईद अय्यूब

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

बहुत उम्दा कहनी लिखी है। काश्मीर में मुस्लिमों पर जो ज़ुल्म हुए है। उन पर बेशुमार लिखा भी गया है। मगर आपके लिखने के अंदाज़ ने इस ज़िंदा बना दिया है। बहुत देर तक मुझ में भी कोई बेआवाज़ रोता रहा है।

anwar suhail ने कहा…

सईद भाई की ये कहानी दिल-दहलाने वाली है...सांगठनिक अपराधियों से मासूम नागरिको पर ज़ुल्मो-सितम की दर्दनाक तस्वीर इस कहानी के माध्यम से खुल कर सामने आई है...सईद भाई के साथ शहरोज़ कमर भी बधाई के पात्र हैं....

Unknown ने कहा…

सुन्न कर देने वाली.. शब्द शब्द दिखने वाली.....बेनाम मरने वालों की...... बेआवाज़ रोने वालों की कथा है........ये एक क्षेत्र विशेष की कथा होकर भी मानवीय त्रासिदी की कथा ज़्यादा है... एक सपने के भंग होने की कथा.............सईद जी को बधाई इस शानदार लेखन पर.. हमज़बान का आभार..

Unknown ने कहा…

is tarah tahreer kia gai hy keh ,, ek dardnaak waaqiyaa mahsoos hota hy ,, bhur achchi RACHNA hy ,, super

apnon ke beech ने कहा…

मैंने टिप्पणी की तो वह प्रकाशी क्यों नहीं की गयी ?

apnon ke beech ने कहा…

कहाँ की गयी ? अभी- २ तो मैंने भेजी थी !कहीं दिख नहीं रही है ?

شہروز ने कहा…

apnon ke beech@
apke do comment dikh rahe hain, aap jis comment ke gayab hone ki baat kar rahe hain, main bhi hairaan hun, aakhir wo kahan lupt ho gaya! Spam me bhi nahin hai!

Unknown ने कहा…

मेरा कमेन्ट कंहा गया से ..........

Unknown ने कहा…

दुबारा लिखती हूँ ........

SAK ने कहा…

Shahorz bhai Dekhiye, kai logon ke comment post nahi ho rahe hain. Kuch samasya hai.

Sayeed.

Unknown ने कहा…

ये जो आप कह रहे हैं अपनी कहानी में उसे कितनी बार हमें दिखाया और छुपाया गया है, आपकी कलम और संवेदना हर बार वंहा पहुँच जाती है जहाँ कोई मजलूम हो,जंहा अन्याय हो यूँ हीबेबाकी से कहते लिखते रहिए ,रास्ता कठिन है मंजिल दूर मगर चलते जाना है,

पंकज पाण्डे ने कहा…

सईद अयूब जी की लिखी कहानी 'पुरे-पुरे,आधे अधूरे' पढ़ी, पढ़ कर एक बार फिर शर्म से पानी-पानी हो गया हूँ, इरोम शर्मीला याद आ रहीं हैं. उनके संघर्ष को सलाम है, यह दुनिया सभी के लिए कब महफूज होगी ?

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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