एक
ख़त उनके लिए जो इसे पढ़ना नहीं
चाहेंगे
रवीश
कुमार रिपोर्टिंग के दौरान
एक ग्रामीण के साथ। फोटो साभार।
|
गुंजेश
की क़लम से
‘मेरे
समाज’ के नेक लोगो !
इस
ख़त को कई दिनों से टाल रहा था।
बल्कि टाल ही चुका था। लेकिन
इधर दो हफ्ते से रवीश कुमारकी पत्रकारिता ने मुझे फिर
से हिम्मत दी है। मुझे यह
स्वीकार करने में कोई हर्ज
नहीं है मैं यह ख़त रवीश के
प्रभाव में आ कर ही लिख रहा
हूँ। और अच्छा लग रहा है कि
मैं कम से कम किसी तोगड़िया,
किसी
साध्वी,
किसी
ओवैसी के प्रभाव में या
प्रतिक्रिया में कुछ नहीं
लिख रहा हूं। लेकिन,
बहुत
संभव है आप ऐसे पढ़ कर अच्छा
महसूस ना करें। एक तो इस ख़त
में बातों का इतना बिखराव
होगा,
दूसरा
इसका कंटेंट भी बहुत पुराना,
एकदम
घिसापिटा और आपकी सहिष्णुता
पर सवाल करने वाला होगा।
कहां
से शुरू करूँ ?
तारीखों
से ?
नामों
से ?
तथ्यों
से ?
बयानों
से?
या बात
से ?
बीमार
से?
बीमारी
से ?
इलाज से
?
तीमारदार
से ?
या अस्पताल
से ?
जुगनू,
आदित्य,
टूक,
ये क्रमशः
मेरी भतीजी,
भांजे
और भांजी के नाम हैं। जिनसे
मेरी खूब छनती है। पंखुरी,
गांधी
और कृति ये क्रमशः मेरे फेसबूक
मित्रों गिरीन्द्रनाथ जी,
सत्येन्द्र
भाई और विमल भाई के बेटे-बेटियों
के नाम हैं। इसमें विमल भाई
को छोड़ कर गिरीन्द्रनाथ जी
और सत्येन्द्र भाई से मेरी
ज़्यादा बातचीत भी नहीं है।
लेकिन पंखुरी और गांधी के
माध्यम से मैं इन्हें बहुत
जानने लगा हूं और एक जुड़ाव सा
महसूस भी होता है।
नेक लोगों, आपको यह बात सीनिकल लग सकती है लेकिन पिछले कुछ दिनों से मैं डरा हुआ और शर्मिंदा हूं। अविनाश, अमन, तान्या, मेनका या अंकित अब सिर्फ नाम नहीं रह गए हैं ? ये किसी आरटीआई के जवाब जैसे हैं ? अविनाश की माँ डाक्टर से कहती रही कि वह उसके बिना ज़िंदा नहीं रह पाएगी, वह रही भी नहीं। मेनका और अंकित के पिता दिनेश के दुख की सीमा के सोचना ही अथाह लगता है। आप सोच सकते हों तो बताइयेगा जिसने 2010 में डेंगू से अपना 11 साल के बेटा खोया हो यदि पांच साल बाद उतनी ही बड़ी उसकी बेटी भी उसी बीमारी की शिकार हो जाए, तो उसके दुख की क्या सीमा होगी। और यह सिर्फ राजधानी से निकलने वाले तथ्य हैं। भागलपुर, गोड्डा, दुमका, रांची, पटना, कहलगांव, बांका, वर्धा, नांदेड़, नागपुर, अकोला, यवतमाल, राऊरकेला, भिलाई इनके बारे में बात ही कहां हो रही है ? इनसब जगहों में तो बुखार को आत्महत्या और आत्महत्या को शराबखोरी साबित करना बहुत आसान है। और किया ही जाता है। इस सिस्टम से तो चिढ़ होती है। लेकिन मैं इससे डरा हुआ नहीं हूं? मुझे डर है और मैं शर्मिंदा हूं तो इसबात से कि 16 सितंबर को दुमका के एक स्कूल में एक क्लास फोर का बच्चा हार्ट अटैक से मारा गया? मैंने पूछा नहीं लेकिन 10-11-12 साल उम्र रही होगी शुभनील की। ठीक है, उसके दिल में कोई खराबी रही होगी। लेकिन 10-12 साल की उम्र में दिल की खराबी? यहां भागलपुर में 15 तारीख को अपने डेस्क पर मैंने जो खबर एडिट की, वो एक चार साल की बच्ची के बारे में थी जो पिछले 2 साल से लगातार दस्त से पीड़ित थी। डॉक्टरों ने जांच में पाया कि दो साल पहले उसने गेहूं का कोई पकवान खाया होगा, जिससे उसको यह बीमारी हुई। मुझे अभी उस बीमारी का नाम याद नहीं आ रहा। और नाम कुछ भी हो ज़रा सोचिए, एक तो वह पकवान किन कारणों से इतना जहरीला हो गया होगा, और फिर दो साल की बच्ची ने खाया भी कितना होगा? फिर डॉक्टरों को इस परिणाम तक पहुँचने में दो साल का वक़्त लग गया कि उसे बीमारी क्या है। वो भी भागलपुर जैसे शहर में जहां की चिकित्सा व्यवस्था पर आस-पास के करीब 6-7 जिले निर्भर हैं। प्राथमिक तौर पर तो ज़रूर ही।
मैं
शर्मिंदा होता हूं जब 17
तारीख़
को एनडीटीवी के लिए लिखे एक
लेख में आम आदमीपार्टी के नेता
और पुराने पत्रकार आशुतोष
बेशर्मी से अपनी गलती स्वीकारते
हुए भी यह कहने से नहीं चूकते
कि दुनिया के कुछ ही देशों में
स्वस्थ्य सुविधाएं मानकों
पर खरी उतरती हैं?
हम मानकों
पर खरे उतारने कि नहीं बल्कि
न्यूनतम स्वस्थ्य जरूरतों
की बात कर रहे हैं?
और उसकी
चाहत रखते हैं?
खैर,
दो हफ्ते
लगातार प्राइमटाइम देखते हुए
मुझे यह तो भरोसा हो ही गया है
कि सरकार स्वस्थ्य सिस्टम
तत्काल नहीं सुधार सकती। बहुत
ईमानदारी से कोशिश करले तो
भी नहीं। लेकिन क्या हमने कभी
सोचा है कि हम अपनी पीढ़ियों
के लिए कैसी हवा,
कैसी
जमीन,
कैसा
पानी,
कितना
जंगल छोड़ जाएंगे?
और यह भी
सरकार को ही सोचना है क्योंकि
जंगल जिनके थे उनको तो वहाँ
से बेदखल करने की प्रक्रिया
चल रही है या वो बेदखल हो चुके
हैं?
रवीश
कुमार को दोहराऊँ तो यह कि
हिन्दू-मुसलमान-पाकिस्तान-आरक्षण-बुलेट
ट्रेन में उलझे रहने वाले नेक
लोगों क्या आपने कभी सोचा है
कि वह क्या वजह है कि आने वाले
समय में हम 25000
करोड़ के
पीने के पानी के कारोबार का
बाज़ार बनने वाले हैं?
क्या
इसमें समाज का कोई दोष नहीं
है कि पिछले तीन साल में (अगर
मेडिकल रिपोर्ट और पुलिस की
जांच को सही मानें तो )
मेरे चार
से ज़्यादा दोस्तों और परिचितों
ने या तो आत्महत्या करली या
इसका प्रयास किया। मानसिक
स्वस्थ्य के लिए कभी कोई चिंता
मंदिर-मस्जिद
बनवाने वाले हमारे नेताओं ने
दिखाई है क्या?
मैं इसलिए
डरा रहता हूं कि कल जब जुगनू
थोड़ी और बड़ी हो जाएगी और समाज
से वही सब त्रासद अनुभव मेरे
सामने बिखेर कर रख देगी (जिससे
आज भी मेरे संवेदनशील दोस्त
और सहेलियाँ गुज़रती हैं)
और मुझसे
सवाल करेगी कि समाज ऐसा क्यों
है तो मैं क्या जवाब दूंगा?
आपने कभी
सोचा है कि आप अपनी बेटियों
को क्या बताएँगे ‘साली आधी
घरवाली कैसे होती है?
(विषयांतर
है,
लेकिन
यह मानसिक स्वस्थ्य से जुड़ा
है)
नेक
लोगों ज़रा सोचिएगा,
एक डेंगू
तो यह है ही जो फैला हुआ है,
जिसने
अविनाश के साथ उसके माँ-पिता
को भी लील लिया। लेकिन एक
संस्थागत डेंगू भी है,
जिससे
निपटने के लिए हम जन प्रतिनिधियों
को चुनते हैं?
और अगर
आप यह मानते हैं कि कुछ नहीं
बदलने वाला तो एक बार पीछे पलट
कर देखिये कितना कुछ आउट कितने
बुरे तरीके से बदल चुका है ?
और अपनी
हवा,
पानी,
मिट्टी
के लिए सवाल कीजिये। वरना घर
अस्पताल में तब्दील हो जाएगा,
जब हम
स्वस्थ्य रहेंगे तो वह एक खबर
होगी।
रवीश जी,
आप समाज का पक्ष जानना चाहते हैं? किस समाज का जिसमें हम रहते हैं, या जिसमें हम रहने को मजबूर हैं ? आप इतना सब कुछ जानते हैं। यह भी जानते होंगे कि आपके इस ब्लॉग का जवाब दो ही तरह के लोग देंगे। एक जो आपको बहुत प्यार करते हैं और जिनसे आपको डर लगता है, दूसरे जो आपसे, और इस समाज में हर किसी से जो उनके जैसे नहीं हैं से, नफ़रत करते हैं। तीसरे तरह के भी लोग होंगे, जिनको शायद आप चाहते हैं, जो आपकी हर एक बात से सहमत नहीं हैं, लेकिन आप पर नज़र रखते हैं। जैसे जब आप बार-बार पैसों के लिए नौकरी नहीं बदलने की दलील देते हैं, तो मेरे जैसा पत्रकार जिसने अखबार की नौकरी में पचास महीने नहीं पूरे किए हैं और तीन संस्थान और चार नौकरियां बदल चुका है, वो आपसे पूछना चाहता है कि क्या नौकरी बदलने और पैसों के लिए नौकरी बदलना दलाल हो जाना है। हालांकि, मैं जानता हूं आपका यह मतलब बिलकुल नहीं रहा होगा। लेकिन हम ऐसे ही दीवाने लोग हैं, आपको एक-एक शब्द पर चेक करेंगे॥
लेकिन रवीश जी, आपका फेसबुक बंद करना एक गलत फैसला है। मैं नहीं मानता कि आपको पता नहीं होगा। लेकिन आप जानिए कि समाज, वह समाज जिसमें हम रहने को मजबूर हैं, में आम लोगों को क्या-क्या सहना और सुनना पड़ता है। एक अख़बार के दफ़्तर में अख़बार का स्थानीय संपादक और न्यूज़ एडिटर, डिप्टी न्यूज़ एडिटर जब यह तय करने लगें कि आप कहाँ रहेंगे और कहां नहीं। जब सवाल करने की प्रवृति की तारीफ भी आपको नक्सली कह कर होने लगे। जब पत्रकारिता में आपकी उम्र जितना समय गुज़ार चुका व्यक्ति जो आपके केआरए को भी प्रभावित कर सकता हो, आपके किसी मुसलमान के साथ खाना खाने पर आपसे सवाल करे। मुस्लिम मोहल्ले में रहने के आपके फैसले पर जब आपके साथ काम करने वाले यह कह कर शाबाशी दें कि मुस्लिम लड़कियां बहुत खूबसूरत होती हैं ? या कहें कि ज़रूर किसी मुस्लिम लड़की से तुम्हारा चक्कर होगा। या वो आपसे ऐसे ही पूछ दें खाने के दौरान कि तुम तो गाय का मांस भी खाते होगे? और रवीश जी यह सब तब हो, जब आपने घर वालों को समझा-बुझा कर। बहुत हद तक उन्हें नासमझ क़रार देकर, आपने अपने ड्रीम करियर की शुरुआत की हो। आपके ऊपर लालबहादुर वर्मा, एरिक होब्स्बाम, नोम चोमसकी, जॉन रीड, देरीदा, राही मासूम रज़ा, हरीशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, केदार नाथ सिंह, कुंवर नारायण, विनोद कुमार शुक्ल हावी हों। आपको अनिल चमड़िया और सुभाष गताड़े जैसे लोगों ने बिगाड़ा हो। तब आप क्या करेंगे। नौकरी को लात मारने का साहस सब में नहीं होता न!!!
रवीश जी, कोई माने या न माने मैं मानता हूं कि सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक असहिष्णुता हमारे समाज की गलियों में गंदी नालियों के साथ-साथ बहती है। इससे भी ज़्यादा जो भी सुनने की स्थिति में है, वह अपनी ही आवाज़, अलग-अलग सुर में, अलग-अलग गलों से सुनना पसंद करता है। उसे आवाज़ की विविधता चाहिए। बात की नहीं। यह बात मैंने इस समाज से कई बार, कम से कम मेरे हिस्से में अबतक जो समाज आया है, उससे हासिल की है। रवीश जी अभी भी जिस न्यूज़ रूम में आठ घंटे या उससे ज़्यादा ही बिताता हूं। वहाँ आज कल चुनाव का माहौल है। कई साथी पत्रकारों की चिंता यही है कि फलां व्यक्ति उम्मीदवार बन जाये, तो मैं उसका मीडिया प्रभारी बन जाऊंगा। फलां उम्मीदवार जीत जाये, तो मैं उसका पीए हो जाऊंगा। समाज का पक्ष यही है कि जो चल रहा है उसे बदलने की कोशिश मत करो। हिन्दू-मुसलमान अलग-अलग रहते आए हैं, तो एक साथ घर मत ढूंढो। न हिन्दू मुसलमान मोहल्ले में, और न मुसलमान हिन्दू मोहल्ले में। दोनों मिलकर तो इस देश के किसी मोहल्ले में घर न ढूंढे।
लेकिन रवीश जी, हम अपने अनुभव जुटा रहे हैं। आप हमसे, जाहिर है अपनी मेहनतों के कारण, बेहतर स्थिति में हैं। कोई आपसे सीधे ये पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता है कि क्या किसी मुस्लिम लड़की से चक्कर है क्या? कोई आपसे जबरदस्ती यह कहलवाने की ज़िद नहीं करेगा कि कहो, मोदी ज़िंदाबाद। अगर आपने जवाब में कह दिया कि हम तो कुत्तों को भी ज़िंदा और आबाद देखना चाहते हैं, मोदी तो फिर भी आदमी है। तो आपके बारे गॉसिप नहीं फैलाये जाएंगे, आपको दफ़्तर में उपेक्षित नहीं कर दिया जाएगा।
तो नमस्कार रवीश कुमार जी, प्लीज़ समाज को, देश को उंसकी गति प्राप्त करने दीजिये। आप डांटिए तो कभियो नहीं। कहिये ना कभी कि कभी रवीश कुमार मत बनना... हम सुनेंगे और मानेंगे। कौन आपको सेलिब्रिटी कहता है। हम तो पकड़ लेते हैं किस प्राइम टाइम में आपके मेहमान पलट गए या आप ठीक वैसा शो नहीं कर पाये जैसा आपने सोचा था। और आप इस गलतफ़हमी में तो मत्ते रहिएगा गा टीवी पर कुछ महान कर रहे हैं। वो जैसे आपसे अपनी किताब पर बातचीत के दौरान राजदीप ने कहा था ना कि नरेंद्र मोदी को मनमोहन सिंह को कम से कम एक बार धन्यवाद ज़रूर देना चाहिए कि वो बिलकुल नहीं बोले। वैसे ही आप वाई सिक्योरिटी वाले संपादकों को धन्यवाद दीजिये कि वो कुछ नहीं कर रहे हैं। बाप रे बाप देखते देखते, मतलब लिखते लिखते 870 शब्द हो गया, इसमें कितनी वर्तनी की गलतियाँ होंगी उसको ठीक कर के पढ़ लीजिये गा। इतना ही ठीक ना !!!
और बाकी, गोली मार भेजे में की भेजा शोर करता है।
(किसका ये मत पूछिए गा )
(रचनाकार-परिचय :
जन्म :
बिहार
झरखंड के एक अनाम से गाँव में
9
जुलाई
1989
को
शिक्षा :
वाणिज्य
में स्नातक और जनसंचार में
स्नातकोत्तर महात्मा गांधी
अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्व
विद्यालय,
वर्धा
से। प्रभात खबर व भास्कर से
संबद्ध रहे।
सृजन :
अनगिनत
पत्र-पत्रिकाओं
व वर्चुअल स्पेस में लेख,
रपट,
कहानी,
कविता
संप्रति :
हिंदुस्तान
के भागलपुर संस्करण के संपादकीय
विभाग से संबद्ध
संपर्क :
gunjeshkcc@gmail.com )
1 comments: on "रवीश की रविश पर युवा पत्रकार की रनिंग"
सही लिखा है गुंजेश. बहुत से लोगों के सवाल इसमें मौजूद हैं और इसे पढ़ कर बहुत से सवाल दस्तक दे रहे हैं.
अभी तो यही गीत याद आ रहा है उन सभी साथियों के लिये जो अपने-अपने समय से मुठभेड़ करने का माद्दा रखे लड़ रहे हैं...हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम के ख़िलाफ...हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम के ख़िलाफ...
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी