बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 22 मई 2014

घोड़े को जब हुआ नमोनिया














रवींद्र पांडेय का दो व्यंग्य

सब कुछ मोदियाइन-मोदियाइन हो गेलउ भइयवा

अइसनो लोकप्रिय हुआ जाता है कहीं! संसद से लेके नली-गली तक जने देखो तने खाली मोदियाइन-मोदियाइन टाइप के हो गया है। ईंटा तो ईंटा, भाई लोग बालुओ पर नमो-नमो लिखवा दिया है। गांवे से गोला पांड़े फोन किए थे। फोन का किए थे..., मिसकॉल मारे थे।
गोला पांड़े के मिसकॉल के जवाब न देबे के जुर्रत के करेगा भाई! उनका मिसकॉल तो मोदियो जी इगनोर नहीं करते हैं। एतना सीटवा अइसहीं थोड़े न जीत गए हैं। मोदियो जी को पता है कि बढिय़ा-बढिय़ा भाषण देबे और रैली में पसीना बहावे से कोई चुनाव नहीं जीत जाता।
उ तो गोला पांड़े के मेहनत, पुरुषार्थ अउर तपस्या के प्रभाव है कि मोदीजी आज पीएम बन गए। पिछला आठ महीना में एको दिन अइसा नहीं गुजरा होगा, जिस दिन गोला पांड़े सुबहे चार बजे उठ के गांव के शिवाला में न पहुंचे हों। रोज भोरहरिए में मंदिर में धो-पोंछ के एके प्रार्थना करते थे, 'हे अवघड़दानी भोलेनाथ! अबकी बार मोदी सरकार!' भोले बाबा भी का करते, सुननी ही पड़ी भक्त की पुकार।
भोले बाबा से फरियाद के बाद गोला पांड़े 'हर-हर मोदी' करते मंदिर से निकलते अउर 'नमो-नमो' करते पूरे गांव के राउंड पर जुट जाते। जिस-जिस गली से गुजरते कुत्ते उनके पीछे लग जाते। कुत्ते 'भौं-भौं' करते तो, उन्हें जोर से हड़काते, 'भाग ससुर! भौं-भौं कइले है।...नमो-नमो काहे नहीं करता है बे?' अउर मजे के बात इ कि चुनाव आवते-आवते ढेरे कुकुर 'भौं-भौं' छोड़ के 'नौं-नौं' करे लगा था।
गांव भर के चक्कर मारे के बाद गोला पांड़े नुक्कड़ के चाह दुकान पर पहुंचते। मोदी चाह बनवाते। पीते। फिर हर आवे-जाए वाला के समझाते, 'चिंता-फिकिर के जरूरत नय है। अच्छे दिन आनेवाले हैं। महंगाई के तो नामो निशान खत्म हो जाएगा। भ्रष्टाचार को लालटेन लेके खोजे पर भी नय मिलेगा। रोजगार के तो अइसा भरमार होएगा कि इंडिया के अमेरिका के लोग एने नोकरी करे वास्ते आएगा।... जे-जे बढिय़ा सोच सकते हैं, सब होने वाले हैं। आखिरकार अच्छे दिन आने वाले हैं. '
रिजल्टवा निकला, तो गोला पांड़े चहक उठे, 'देख लिए न! कांग्रेस के हाल देख के बराक ओबामा के भी चिंता बढ़ गइल है। सोच रहल हैं कि गुजरात वाला सुनमिया अभी दिल्ली पहुंचल है। उहां से कहीं अमेरिका की ओर बढ़ गवा तो का होवेगा?'


घोड़ों को तो बचा लीजिए

प्यारे बाबू का टेंशनियाया हुआ चेहरा देखते ही बुझा गया कि गाड़ी पटरी पर नहीं है। कुछ पूछने से पहले ही बोल बैठे, भइया जी, इस झारखंड का कभी भला नहीं होनेवाला। आदमी तो आदमी, अब यहां जानवर भी सुखी नहीं रहे। बताइए भला, बेजुबान घोड़ों पर तोहमत लगा दी। उन्हें बिकाऊ बता दिया। कहते हैं, बड़की एजेंसी से जांच कराएंगे। तो कराइए न, के मना कर रहा है। इहां काम-धाम थोड़े न कुछ होना है! खाली जांचे तो होनी है! आगे से काम चलता है, पीछे से जांच। न कामे पूरा होता है, न जांच। एतना दिन में केतना तो जांच कराए। कौन सी बड़की क्रांति कर लिए। बारह साल में अढ़ाइयो कोस तो नहीं चल पाए। जांच से पहिलहीं तो पूरी घोड़ा मंडी को बदनाम करके रख दिए। रेस का रिजल्ट रोक दिए। बेचारे घोड़ों की कितनी फजीहत हो रही है। कितना बढिय़ा तो ऊंट की तरह गर्दन ऊंची करके घूम रहे थे। अब मुंह छुपाने की जगह ढूंढ़ रहे हैं। उनके हाल पर गधे भी रूमाल में मुंह छुपाकर हंस रहे हैं। जैसे पूछ रहे हों, क्यों बड़े भाई, खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना।... भइया, हम तो इंसान हैं। एक-दूसरे से बतिया कर अपना मन हल्का कर लेते हैं। मगर ये घोड़े तो एक-दूसरे से सउंजा-सलाह भी नहीं कर सकते। दूरभाष पर दूर से बतियाएं, तो संकट। फोनवे टेप हो जा रहा है। कोई बीमार पड़ जाए और हाल-चाल पूछने नजदीक पहुंच जाएं, तो देश भर में हल्ला मच जाता है। सवाल पर सवाल। कहां गए थे? का करे गए थे? का बतियाए? कवनो नया समीकरण बन रहा है का? सरकार-उरकार तो नहीं न गिराइएगा? पांच मिनट किसी से मिले नहीं कि पचहत्तर गो सवाल फन काढ़ के डंसे ला तइयार है।... बड़ी आफत है। मुड़ी गड़ले-गड़ले गर्दन टेढ़ुआ गइल है। ऊपरे मुंह करते हैं, तो लोग कहता है कि सरकार बचावे ला भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं। पछिम मुंह करें, तो लोग कहेगा, हां, अब तो दिल्लिए के असरा है। उत्तर मुंह करते हैं तो लोग को लगता है कि लालू यादव से मदद मांग रहे हैं।... सच्ची कहता हूं भइया, हमसे तो इन घोड़ों का दर्द नहीं देखा जाता। आंख तो आंख, दिल भी आंसू बहा रहा है। सच में अगर इन घोड़ों को न्याय नहीं मिला, तो बड़की कयामत आ जाएगी। जैसे भी हो, इन घोड़ों को दर्द से उबारिए भइया जी। हम इंसान हैं। दर्द सहना हमारी आदत में शामिल है। ये घोड़े हैं। इनके बर्दाश्त की हद बहुत छोटी होती है। इनसे नहीं तो कम से कम इनकी दुलत्ती से तो डरिए।

(लेखक -परिचय :

जन्म: 4 फ़रवरी 1971 को  रोहतास(बिहार) के कोथुआं गाँव में
शिक्षा: स्नातक की पढाई आरा से की
सृजन: ढेरों व्यंग्य देश के  प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में। व्यंग्य संग्रह 'सावधान कार्य प्रगति पर है'  प्रकाशित
संप्रति: दैनिक भास्कर  रांची संस्करण में मुख्य उप संपादक
संपर्क:ravindrarenu1@gmail.com)


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1 comments: on "घोड़े को जब हुआ नमोनिया "

Unknown ने कहा…

bahut achchha bhai ....

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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