बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

विभाजन की ६३ वीं बरसी पर आर्तनाद : कलश से यूँ गुज़रकर जब अज़ान हैं पुकारती














शमशाद इलाही अंसारी 'शम्स' की कविता


तुम कब समझोगे ! कब जानोगे !!



तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
घुटनों-घुटनों खून में लथपथ
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
दमघोटूं धुऐं से भरी उन गलियों में
जिसे दौड कर पार करने में वह समर्थ न था.
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे.

दूषित नारों के व्यापारियों ने
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर
जो ख्वाब तुम्हारी आंखों में भर दिये थे
तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
उसके आधे परिवार के साथ...


मैं पूछ्ता हूँ तुमसे
आखिर क्या हासिल हुआ तुम्हें
उन कथित नये नारों से
नया देश, नये रास्ते और नये इतिहास से
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से
और मुशर्रफ़ तक जाता.
पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल.
युद्ध,चन्द धामाके और बामियान में बुद्ध की हत्या.


तुम कब जानोगे
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं.
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं.

तुम कब जानोगे
कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की
प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है.
जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर
पीछे छोड कर गये थे
वहां भी कभी कभी त्रिशूल का भय सताता है.
तुम्हारे गहरे हरे रंग ने
भगवे का रंग भी गहरा कर दिया है.

तुम कब जानोगे
कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा
जो विघटन का कारण बनी
वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी
जो लोग परस्पर हत्यायें कर रहे थे
वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे
कल-कारखाने चला सकते थे
निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर
संसार को बता सकते थे कि यह है
एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान

तुक कब जानोगे
कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है
अधर में लटका है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को

तुम कब जानोगे
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे
गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य
बुद्ध का मौन और महावीर की करुणा
कबीर के दोहे, खुसरों की रुबाइयां
मंदिर में वंदना और मस्जिदों में इबादत
तुम कैसे समझोगे ?
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी

तुम कब जानोगे
कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच
अब खुद तुमसे मुक्त हो चुका है
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को

तुम कब जानोगे
कि अतीत असीम, अमर और अभाज्य है
वह सत्य की भांति पवित्र है
कब तक झुठलाओगे उसे
कितनी नस्लें और भोगेंगी
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
क्यों नहीं बताते उन्हें
कि हम सब एक ही थे
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल
मोहन जोदाडो में
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान
हमने ही बनाये थे
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएं
हम सब थे महाभारत
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें

तुम कब जानोगे
कि झूठ के पैर नहीं होते
झूठ को नहीं मिलती अमरता
तुम्हारे हर घर में रफी की आवाज़
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता
कृष्ण की बांसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा
तुम्हारे झूठ से बड़ा सच
और क्या हो सकता है

तुम कब मानोगे
कि तुम सब कुछ जानते हो
सियासी फ़रेब की रेत में
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
सच की आँधी में
बर्लिन की दीवार की भाँति
कभी भी ढह सकता है.
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
नपुंसक बन सकती हैं
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
कभी भी माँग सकता है हिसाब
उजडे़ घरों की बद-दुआयें
अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..

तुम कब जानोगे
कि हम भी खतावार हैं
हमने भी चली हैं सियासी चालें
हमने भी तोडी हैं कसमें
हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें
समझनी है जिन्नाह की नादानी
नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी
अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, शह-मात का खेल
फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द
और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..

तुम कब जानोगे
कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गये हैं
खुली आँखों में ख्वाब और आस लिये
कि तुम लौट आओगे
उनका वो जुमला मुझे भी कचोटता है
"जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा"
मैनें जब से होश सम्भाला है
मैं भी यही दोहराता हूँ
मेरे बच्चे भी अब हो गये हैं जवान
वो भी सवाल करते हैं
नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के साथ
तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल
आज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा
जवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी
हज़ारों बरस के साझें चूल्हे?
पचास साठ बरस की अलहेदगी?
तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..

तुम कब जानोगे
कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर
फ़िर आबाद हो गये हैं
वहाँ फ़िर से बस गये हैं
बचपन की किलकारियाँ,
जवानी की रौनक
और बुढा़पे का वैभव
तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी
तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त
तुम्हारी गलियाँ, वो छत
और आम जामुन के पेड़
सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है
तुम्हें वापस आना होगा
तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि
तुम्ही तो छोडकर गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
साठ बरस पूर्व









[ कवि-परिचय :   नाम: शमशाद इलाही अंसारी
उपनाम: "शम्स"
जन्म:, कस्बा मवाना, ज़िला मेरठ (उत्तर प्रदेश) के एक निम्न-मध्यवर्गीय मेहनतकश मुस्लिम परिवार में वर्ष 1966, जनवरी  की 16 वीं तारीख़, रात पौने नौ बजे
शिक्षा: दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर, 1988 में पी-एच.डी. के लिये पंजीकृत किन्तु किन्ही कारणवश  अपूर्ण

छात्र जीवन से ही वामपंथी .पूर्ण कालिक पार्टी कार्यकर्ता भी रहे
पत्रकारिता की शुरुआत 1989 में अमर उजाला से फिर  कुछ दिनों बाद स्वतंत्र राह अख्तियार कर ली .लगभग दशक भर हिन्दी अखबारों के लिए स्थायी-अस्थायी तौर पर कार्य करने के बाद दूरदर्शन के लिए कुछ दिनों स्क्रिप्ट लेखन.अमर उजाला के अलावा नवभारत टाइम्स, कुबेर टाइम्स और जनपथ मेल से सम्बद्धता रही.
.बक़ौल शम्स साहब हराम की खायी नहीं, हलाल की मिली नहीं, विवश होकर सन २००२ में दुबई चले गए यहाँ मार्च २००९ में आर्थिक मंदी के शिकार हुए .

प्रखर प्रगतिशील विचारों के लिए दकियानूसी मुस्लिमों के कोफ़्त के शिकार रहे मूलत: पत्रकार शम्स साहब के कई ठिकाने हैं जहां आप इन से संवाद कर सकते हैं यथा न्यू एज इस्लाम, इस्लाम विमर्श और यहाँ यहाँ भी.

संप्रति: कनाडा में रोज़गार.
संपर्क :Shamshad66@hotmail.com ]





IN URDU
 



 
تقسیم کی 63 و یں  بر سی پر

  شمشا د الہی انصاری شمس کی نظم







کب جانو گے!! !   تم کب سمجھو گے


تم پیچھے چھوڑ گئے تھے
 
میرے بلکھتے ، معصوم والد کو
گھٹنوں -- گھٹنوں خون میں لتھپتھ
آ دھی جلی لاشوں اور دھد کتے گھروں کے درمیان
 سے بھری ان گلیوں میں د م گھو ٹو ں د ھو یں
جسے د و ڈ کر  پار کرنے میں وہ ا ہل نہ تھا.
نفرت اور ہیوانیت کے گھنے کہا سے میں
میرے والد نے اپنے بھائیوں ، لواحقین کے
ڈ ر ے سہمےچہرے غا ئب ہوتے دیکھے تھے.




غلیظ نعر و ں کے تا جرو ں نے
تخر یب کے تلا تم پر بیٹھا کر
جو خواب تمہاری آنکھوں میں بھر دیئے تھے
تمہیں انہیں جینا تھا ، لیکن
تم پیچھے چھوڑ گئے تھے
میرے بلکھتے ، معصوم والد کو
اس کے آدھے خاندان کے ساتھ...



میں پو چھتا ہوں تم سے
آخر کیا حاصل ہوا تمہیں
ان مبینہ نئے نعر و ں سے
نیا ملک ، نئ ر اہ اور نئی تاریخ سے
جو شر و ع ہوتی قا سم ، غز نی ، لنگ سے
اور مشرف تک جا تی.
گز شتہ نصف صدی میں کیا ہوا حاصل.
جنگ ، چند د ھما کے اور بامیان میں بدھ کا قتل.




تم کب جانو گے
کہ تقسیم صرف ز مین کا ہی ممکن ہے
وراثت ، ثقافت ، تاریخ کا نہیں.
توپوں کے گولوں سے مجسمہ کشی ہے ممکن
خیال اور وجود کشی نہیں.

تم کب جانو گے
کہ تمہارے گہرے سبز رنگ عکس نعر و ں کی
بر عکس گو نج میرے گھر میں زعفر ا ن گرم کرتی ہے.
جو گھر خاندان تم بیسہارا ، مجبو ر ، مخد وش
پیچھے چھوڑ کر گئے تھے
وہاں بھی کبھی کبھی ترشول کا خوف ستا تا ہے.
تمہارے گہرے سبز رنگ نے
زعفر ا ن کا رنگ بھی گہرا کر دیا ہے.





تم کب جانو گے
کہ وہ تاریخی توانائی
جو تقسیم کی با ئث بنی
وہ نئے بھارت کی سنجیو نی بن سکتی تھی
جو لوگ باہم قتل کر رہے تھے
وہ بنجر زمین کو سبز ہ بنا سکتے تھے
کل -- کارخانے چلا سکتے تھے
تعمیر کے بلند کو ہ پر چڑھ کر
دنیا کو بتا سکتے تھے کہ یہ ہے
ایک ترقی یا فتہ ، جمہوری ، مہذب ، بلند ہندوستان




تم کب جانو گے
کہ تمہارے بغیر یہ کام اب تک نا مکمل ہے
خلا میں لٹکا ہے کیونکہ
تم پیچھے چھوڑ گئے تھے
میرے بلکھتے معصوم والد کو




تم کب جانو گے
کہ میرے پس ماند ہ والد کو سہارا دینے والے ہاتھ
ہر شام کرشن کی عبا د ت میں مربوط ہو تے تھے
گنگا کا جمنا سے ر بط کا راز
بدھ کی خمو شی اور مہا ویر کی ر حم د لی
کبیر کے دو ہے ، خسر و کی ر با ئیا ں
مندر میں پو جا اور مسجد و ں میں عبادت
تم کس طرح سمجھو گے ؟
کیونکہ تم نے اس خطے کی تمام عقل کے برعکس
سرہد یں ز ہن میں بھی بنائی تھیں



تم کب جانو گے
کہ مذہب کے نام پر تعمیر یہ شیطا ن
اب خود تم سے آزاد ہو چکا ہے
وہ ہر پل تمہارے وجود کو ختم کر رہا ہے کیونکہ
تم پیچھے چھوڑ گئے تھے
میرے بلکھتے معصوم والد کو




تم کب جانو گے
کہ ماضی لا محد و د ، تا بند ہ اور غیر منقسم ہے
وہ سچ کی طر ح مقدس ہے
کب تک جٹھلا و گے اسے
کتنی نسلیں اور بھو گیگیں
تمہارے تاریخ کے بد فعل کو
کیوں نہیں بتاتے انہیں
کہ ہم سب ایک ہی تھے
ہمارے ہی ہاتھوں نے بوئ تھی پہلی فصل
مہن جوداڈو میں
سند ھو تہذیب کے عا دم مکا ن
ہم نے ہی بنا ئے تھے
ہم نے ہی رچی تھی ویدوں
کی رچا ئیں  
ہم سب تھے مہا بھا رت
ہمارا ہی تھا رام ، کرشن ، بدھ ، مہا ویر
ہم نے ہی قبول کیا تھا محمد کا پیغام
ہم نے ہی بنائی تھی پیروں کی درگاہیں





تم کب جانو گے
کہ جھوٹ کے پاؤں نہیں ہوتے
جھوٹ کو نہیں ملتی تا  بند گی
تمہارے ہر گھر میں رفیع کی آواز
مینا ، مدھوبالا ، ایشوریہ کا حسن
کرشن کی بانسر ی پر لہر ا تی دلوں کی د ھڑکنيں
ہر نوجوان میں چھپا دلیپ ، امت ، شاہ رخ کا چہرہ
تمہارے جھوٹ سے بڑا سچ
اور کیا ہو سکتا ہے



تم کب مانو گے
کہ تم سب کچھ جانتے ہو
سیاسی فریب کی ریت میں
دبی آنکھیں ، دماغ ، دل اور وجود
سچ کی آ ند ھی میں
برلن کی دیوار کی طر ح
کبھی بھی ڈ ھہ سکتا ہے.
جھوٹ کی چادر میں لپٹے بم ، بند و قیں اور بارود
محو فر بیب کی دیواریں ، سر حدیں  ، ا فو اج
مخنث بناسکتی ہیں
لاکھوں بے گنا ہ لوگوں کا بہا خون
کبھی بھی مانگ سکتا ہے حساب
ا جڑ یں گھر و ں کی بد د عا ئیں
اپنا اثر دکھا سکتی ہیں ، کیونکہ
تم پیچھے چھوڑ گئے تھے
میرے بلکھتے معصوم والد کو..




تم کب جانو گے
کہ ہم بھی خطاوا ر ہیں
ہم نے بھی چلی ہیں سیاسی چا لیں
ہم نے بھی توڈی ہیں قسمیں
ہمیں بھی بتانی ہیں گاندھی کی جوانی کی بھولیں
سمجھنی ہے جنا ح کی نا دانی
نوسکھیا کانگریس کی جھوٹی مر د ا نگی
انگریزوں کی گھو ڑ وں کی چال ، شہ - مات کا کھیل
فیض ، فراز ، جوش ، جالب کا درد
اور ظفر کے بکھرے خواب ، کیونکہ
تم پیچھے چھوڑ گئے تھے
میرے بلکھتے معصوم والد کو..



تم کب جانو گے
کہ میرے والد کئی برس ہوئے گزر گئے ہیں
کھلی آنکھوں میں خواب اور آس لئے
کہ تم لوٹ آ و گے
ان کا وہ جملہ مجھے بھی کچو ٹتا ہے
"
جو چھوڑ کر گیا ہے ، اسے ہی لوٹنا ہوگا"
میں نے جب سے ہوش سمبھا لا ہے
میں بھی یہی دہرا تا ہوں
میرے بچے بھی اب ہو گئے ہیں جوان
وہ بھی سوال کرتے ہیں
نئی روشنی ، نئی طرز ، نئی سمجھ کے ساتھ
تمہارے یہاں بھی یہی ہے حال
آج نہیں تو کل یہ شور اور تیز ہوگا
جوان نسلیں جائز سوال پوچھیگیں
ہزاروں برس کے سا جھے چلھے؟
پچاس ساٹھ برس کی علیحد گی؟
تمہیں دینے ہوں گے جواب کیونکہ
تم پیچھے چھوڑ گئے تھے
میرے بلکھتے معصوم والد کو..





تم کب جانو گے
کہ پیچھے چھٹے  ، جلے ، بکھرے ، ٹو ٹےگھر
پھر آباد ہو گئے ہیں
وہاں پھر سے بس گئے ہیں
بچپن کی کلکاریاں ،
جوانی کی رونق
اور ضعیفی
کی  شا ن و شو کت
تمہارا پلنگ ، تمہاری کرسی
تمہاری کتابیں ، تمہارے خط
تمہاری گلیاں ، وہ چھت
اور آم جامن کے پیڑ
تمام کچھ قا یم ہیں منتظر ہیں
تمہیں واپس آنا ہوگا
تمہیں ہی لوٹنا ہوگا کیونکہ
تمہی تو چھوڈ کر گئے تھے
میرے بلکھتے معصوم والد کو..
ساٹھ برس قبل



ہند ی سے ا ر د و پیشکش شہر و ز


 
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25 comments: on "विभाजन की ६३ वीं बरसी पर आर्तनाद : कलश से यूँ गुज़रकर जब अज़ान हैं पुकारती"

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

बेहद उम्दा रचना!
यूँ होता तो क्या होता...........!!!!
शम्स साहब को मेरी दिली मुबारकबाद! और थोडा सा गुमान भी है के ख़ाकसार की पैदाईश भी मवाना की है!
--
www.myexperimentswithloveandlife.blogspot.com

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी ने कहा…

बहुत सुंदर कविता पढ़ाने के लिए धन्यवाद, ऐसी ही रचनाओं का सिलसिला बनाए रखें। कविवर, को मेरी प्रशंसा पहुँचा दें।

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

शहरोज़ साहब ..
किन लफ़्ज़ों से आपका शुक्रिया अदा करें हम....
हर बार आप कुछ नायाब ले आते हैं ..जनाब शम्स साहब की नज़्म किसी की तारीफ़ की मोहताज़ नहीं है....बस हम दिल से उनका शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने अपनी इतनी अच्छी नज़्म हमलोगों से साझा किया...उनका और आपना तहे दिल से शुक्रिया....

shabd ने कहा…

तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
घुटनों-घुटनों खून में लथपथ
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
दमघोटूं धुऐं से भरी उन गलियों में
जिसे दौड कर पार करने में वह समर्थ न था.
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
डरे सहमें चेहरे विलुप्त होते देखे थे.

shabd ने कहा…

मैं पूछ्ता हूँ तुमसे
आखिर क्या हासिल हुआ तुम्हें
उन कथित नये नारों से
नया देश, नये रास्ते और नये इतिहास से
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से
और मुशर्रफ़ तक जाता.
पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल.
युद्ध,चन्द धामाके और बामियान में बुद्ध की हत्या.

shabd ने कहा…

तुम कब जानोगे
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं.
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं.

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

आइना दिखाती हुई कविता
दिल की गहराईयों की सदा लगती है
गम्भीर मसलों को तफ़सील से
कह देने की की इनकी अदा अच्छी लगती है

आभार

talib د عا ؤ ں کا طا لب ने कहा…

तुम कब जानोगे
कि झूठ के पैर नहीं होते

shms sahab !!!!!

talib د عا ؤ ں کا طا لب ने कहा…

झूठ को नहीं मिलती अमरता
तुम्हारे हर घर में रफी की आवाज़
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता
कृष्ण की बांसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा
तुम्हारे झूठ से बड़ा सच
और क्या हो सकता है

shikha varshney ने कहा…

दिल को झकझोर कर रख दिया इस कविता ने ..बहुत शुक्रिया .

शेरघाटी ने कहा…

तुम कब मानोगे
कि तुम सब कुछ जानते हो
सियासी फ़रेब की रेत में
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
सच की आँधी में
बर्लिन की दीवार की भाँति
कभी भी ढह सकता है.
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
नपुंसक बन सकती हैं
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
कभी भी माँग सकता है हिसाब
उजडे़ घरों की बद-दुआयें
अपना असर दिखा सकती हैं,

शेरघाटी ने कहा…

धर्म और जाति, सम्प्रदाय क्षेत्र की सियासत करने वालों पढो ज़रूर पढो इस कविता को.

girish pankaj ने कहा…

तुम कब जानोगे/कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है/ विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं.
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव/विचार और अस्तित्व भंजन नहीं. ek gahri soch se labarez kavitaa ke liye kavi aur prakashak dono ko badhai...

Unknown ने कहा…

तुम कब मानोगे
कि तुम सब कुछ जानते हो
सियासी फ़रेब की रेत में
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
सच की आँधी में
बर्लिन की दीवार की भाँति
कभी भी ढह सकता है.
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
नपुंसक बन सकती हैं
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
कभी भी माँग सकता है हिसाब

Unknown ने कहा…

KYA ANDAAZ HAI.KAASH HAM SABHI LOGON KE BADE BUZURG IS BAT KO PAHLE SAMAJH GAYE HOTE !!

Rangnath Singh ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुती।

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

अच्छी लगी 'सम्श' जी की कविता .. आद्यंत वेदना की विवृति में क्रान्तिशीलता !! .. शुक्रिया !

Shahid Akhtar ने कहा…

शमशाद साहब को इस कविता के लिए साधुवाद।

कविता हमसे बहुत कहती है...हमें शिक्षित करती है, झिंझोड़ती है, गफ़लत से जगाती है और हकीकत के रूबरू ला खड़ा करती है। विभाजन की यह कहानी ना जाने कितनी बार छोटे पैमाने पर दोहराई गई...धरम और जाति के नाम अपनों को ही बेगानगी के कैदखाने में कैद कर और विकास का हुक्‍का-पानी बंद कर खुशहाला लोगों बिरादरी से दरबदर कर।

तुम कब जानोगे
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं.
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं.

ये आसान सवाल नहीं है। मन की गहरी अंतर्वेदना से फुटे हैं ये सवाल...देश को इन सवालों से रूबरू होना होगा...इन्‍हीं सवालों के हल से निकलेगा भारत की सच्‍ची खुशहाली की राह।

शमशाद भाई, तुम झूठ बोल रहे हो, तुम कनाडा में नहीं रहते, तुम्‍हारा दिल तो यहां बसता है, भारत में, उत्‍तर प्रदेश में, मेरठ में , मवाना की गलियों में और मेरठ से मलाबार तक की गलियों में विचरते लोगों के दिलों में...

Raravi ने कहा…

aapki kavita dil ko chhooti hai. kash itihas me wiasi galti hamne na ki hoti, shayad hum phir se ek saath rahne ka jeene ka tareeka seekh len.

Bharat ने कहा…

शम्स भाई ...
कहाँ छुपा के रखी थी .
एक एक वाक्य नारा है

श्रद्धा जैन ने कहा…

shamshaad ji kavita mein jahan ek taraf aag hai waha dard bhi hai .. sachchyai se labrez sabke man mein chetna laati hui kavita.. padhwane ke liye shukriya

swantrta diwas par hardik shubhkamnaayen

Shamshad Elahee "Shams" ने कहा…

मैं समस्त सुधी पाठकों का बडा शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने इस लम्बी कविता को न केवल अपने कीमती समय का अंश्दान करते हुये पढा बल्कि अपनी टिप्पणियों से भी मुझे नवाज़ा...शहरोज़ भाई और हमज़बान का भी मैं शुक्र गुज़ार हूँ कि इसके माध्यम से मैं आपके बीच तक अपनी बात रख सका. आगे भी आपका सहयोग बना रहेगा..मैं इस आशा के साथ आपका पुन: अभिवादन करता हूँ. सादर

shahbaz ने कहा…

भाई बहुत बहुत आभार! ये सिर्फ कविता नहीं है, ये इतिहास का एक पाठ है. एक ऐसा इतिहास जिसका भूत हमें पीछे से खंजर चुभाता है. हम उससे पीछा छुडाने के लिए भागने लगते हैं लेकिन जितना हम भागते हैं उतना ही अपनी पीठ पे उस खंजर की नोक को धंसता हुआ पाते हैं.
ये एक दस्तावेज है, जो सरकारी नहीं है. ये दस्तावेज है हमारे गुनाहों का, हमारे अफ़सुर्दा कारनामों का.
ये कविता हमें मज़ा नहीं देती है. बेचैन करती है, एक ऐसी बेचैनी जिससे हम इस समाज को, इस व्यवस्था को बदल देना चाहते हैं.
बधाई कवि को.. इनका हम और भी पढ़ना चाहेंगें..

kavita vikas ने कहा…

शमशाद जी ,आपकी इस रचना को पहले भी पढ़ा था ,पर याद नहीं उस समय क्यों नहीं टिपण्णी की ....आज दुबारा नही ...तिबारा नहीं ...चौथी बार लगातार पढ़ी हूँ ।मुझे नही लगता इसके आगे भी कुछ लिखने की ज़रुरत है !!! दर्द पन्नो पे बिखर गया है ...दिमाग शून्य है ।

Govind Narayan Singh ने कहा…

"तुम्हारे गहरे हरे रंग ने
भगवा का रंग भी गहरा कर दिया है "
आज के परिवेस में सटीक लग रही है ,हमारे यहाँ हिन्दुओ ने प्रसाशन से कह कर मस्जिद से लाउड स्पीकर उतरवाए और मुश्लिमो ने मंदिरों से , हिन्दू उनके जुलूस नहीं निकलने दे रहे और मुश्लिम रथ यात्राये ,दोनों तरफ रंग गहरा हो रहा है ,समाज झुलस रहा है ,हा कुछ लोग मजे ले रहे है ,खाई बढती जा रही है ,कोई समझाने वाला नहीं

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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)