अमरीका !! अमरीका !!
रम्ज़ अज़ीमाबादी की क़लम से
फ़ितरत-ए-आज़र
दस्त-ए-सफ्फ़ाक में मरहम भी है नश्तर भी है
ख़ार-ए-नफ़रत भी मोहब्बत का गुल-ए-तर भी है
परचम-ए-अमन भी है, जंग का मंज़र भी है
शाख़-ए-ज़ैतून भी है शोला-ए-जौहर भी है
एशिया वालों को हैरत है इसे क्या कहिये
दस्त-ए-क़ातिल उसे कहिये कि मसीहा कहिये
हर जगह उसने सजा रखी है साज़िश की दुकाँ
अर्ज़-ए-लेबनान पे छ जाता है रह रह के धुआँ
काट दी रिश्ते की तलवार से फ़ैसल की ज़बां
आरिज़-ए-नील पे हैं उसके तमाचों के निशाँ
सोज़-ए-इख्लास से वह प्यास बढ़ा देता है
पानी देता है, मगर ज़हर मिला देता है
कोरिया आज भी है वहशत ए डालर का शिकार
वियतनाम उसकी सितमरानी का ज़िंदा शाह्कार
है गिराँ उस पे फ़िलस्तीनी महाजिर की पुकार
एशिया उसकी तिजारत का कुशादा बाज़ार
सख्त है मशरिक़-ए-वुस्ता पे शिकंजा उस का
खून से सुर्ख नज़र आता है पंजा उसका
उंगलियाँ उसकी हैं क़ौमों को नचाने वाली
शाख़-ए-ज़ैतून के पत्तों को जलाने वाली
काले गोरे के मसायल को उठाने वाली
खून से अमन की तस्वीर बनाने वाली
मोअजज़ा अपनी सियासत का दिखा देता है
वह तो ज़ालिम को भी मज़लूम बना देता है
जो भी है मौत का ताजिर वही प्यारा उसका
सब को मफ़्लूज बनाता है सहारा उसका
यू एन ओ में है हमेशा से इजारा उसका
ज़र-ख़रीदों को नचाता है इशारा उसका
सारी दुनिया से निराली है मोहब्बत उसकी
बीच दरिया में डुबोती है मोहब्बत उसकी
उसके किरदार से मजरूह है इन्सां का वक़ार
छीनकर तख़्त अता करता है वह तख्ता-ए-दार
सुबह के नूर का दुश्मन है रफ़िके-शब्-ए-तार
हीरोशीमा पे है छाया हुआ एटम का ग़ुबार
मुन्दमिल हो न सका सीना-ए-जापान का ज़ख्म
एक रिसता हुआ नासूर है ईरान का ज़ख्म
1.फ़ितरत-ए-आज़र -दुःख देनेवाली फ़ितरत
2.दस्त-ए-सफ्फ़ाक -निष्ठुर,रक्तरंजित हाथ
3.अर्ज़-ए-लेबनान - लेबनान का इलाक़ा
4.आरिज़-ए-नील -नील नदी के गाल
5.सोज़-ए-इख्लास -व्यवहार की जलन
6.कुशादा- फैला हुआ, व्यापक ,बड़ा
7.मशरिक़-ए-वुस्ता -पूरब का इलाक़ा
8.मसायल- समस्या
9.मोअजज़ा- चमत्कार
10.ताजिर - व्यापारी
11.मफ़्लूज- शिथिल,बेकार,विकलांग
12.ज़र-ख़रीदों -पैसे से ख़रीदे हुए
13.मजरूह- ज़ख़्मी
14.वक़ार- उच्चता, स्वाभिमान
15.तख्ता-ए-दार - सत्ता ,तख़्त रखने वाला
16.रफ़िके-शब्-ए-तार - अंधेरी रात का दोस्त
17.मुन्दमिल - मद्धिम
[कवि-परिचय
ढेरों क़लमकारों और शायर-अदीब की तरह रम्ज़ अज़ीमाबादी भी कभी साहित्य के केद्र में न रहे.वह खालिस अदीब था, शायर था.ऐसे लोग संसार की चालाकियां और होशियारियाँ कहाँ जान पाते हैं.कहा जाता है कि खुदाबख्श खां पुस्तकालय के रज़ा बेदार साहब उन्हें अदीबों के दरम्यान लाये.और गुमनामी के अंधेरों में ज़रा हलकी किरण इन पर भी पड़ गयी.
रोज़ी के लिए ताज़िंदगी रिक्शा चलाते रहे.आख़िरी वक़्त में अदब-नवाज़ सियासतदाँ अब्दुल कय्यूम अंसारी की इन पर नज़र पड़ी और उन्होंने पी डब्लू डी में चपरासी के पद पर रम्ज़ को नियुक्त करवा दिया.
रम्ज़ का पूरा नाम था रज़ा अली खां.बिहार के रहने वाले थे.
जन्म भी वहीँ हुआ १९१६ ,जून का कोई दिन. और संसार से कूच भी वहीँ से हुए.तारीख बतायी जाती है १५ जनवरी १९९७ जब अदीबों के शहर अज़ीमाबाद यानी पटना में उनका देहांत हुआ.
ज़िंदगी में नग़मा-ए-संग पहली किताब प्रकाशित हुई.देहावसान के बाद सैयद फैयाज़ उद्दीन और मोइन कौसर के सम्पादन में शाख़-ए-ज़ैतून शीर्षक से उनके चयनित रचनाओं का संकलन छपा.
जीते जी उर्दू अकादमी और राजभाषा विभाग ने इनका सम्मान कर दिया था, गनीमत है.]
16 comments: on "हीरोशीमा की बरसी पर एक रिक्शा चालक"
बहुत खूब। आज के दिन इस शख्सियत से मुलाक़ात कराने का शुक्रिया। जबर्दस्त बात कही हैं।
हैरान हूँ ....उनकी किस्मत और उनके घर की वीरानी देख कर....
जनाब शहरोज़ साहब....
हम दिल से शुक्रिया अदा करते हैं ...ऐसी बेहतरीन ग़ज़ल हम पढ़ पाए...
जनाब रम्ज़ अज़ीमाबादी ने तो बस हमें अपना मुरीद बना लिया ...
उनकी कलम को हमारा दिली सलाम...
उंगलियाँ उसकी हैं क़ौमों को नचाने वाली
शाख़-ए-ज़ैतून के पत्तों को जलाने वाली
काले गोरे के मसायल को उठाने वाली
खून से अमन की तस्वीर बनाने वाली
मोअजज़ा अपनी सियासत का दिखा देता है
वह तो ज़ालिम को भी मज़लूम बना देता है
जो भी है मौत का ताजिर वही प्यारा उसका
सब को मफ़्लूज बनाता है सहारा उसका
यू एन ओ में है हमेशा से इजारा उसका
ज़र-ख़रीदों को नचाता है इशारा उसका
सारी दुनिया से निराली है मोहब्बत उसकी
बीच दरिया में डुबोती है मोहब्बत उसकी
रोजी-रिजक के लिए कोई काम छोटा नहीं है।
हम तो उनके उम्दा कलाम को सलाम करते हैं।
कई पीढियों से जिस हज्जाम का खानदान हमारी हजामत बनाता है
उसने तीन उपन्यास लिखे है,और अभी भी हजामत ही बनाता है।
आभार
...behatreen post !!!
सारी दुनिया से निराली है मोहब्बत उसकी
बीच दरिया में डुबोती है मोहब्बत उसकी...
सोचा नहीं था कि किसी देश पर भी कोई ग़ज़ल लिख सकता है ...
उर्दू के ढेर सारे शब्दों के अर्थ जाने ...
आभार ..!
बहुत ख़ूब !
शुक्रिया शहरोज़ साहब इस नज़्म को पढ़वाने का
बेहतरीन !कमाल कर दिया है शायर ने
सलाम है ऐसे शायर और कलाम ए शायर को
ज़बान की शाइस्तगी और मा’नी ओ मतालिब का असर क़ारी को नज़्म पूरी किये बग़ैर हिल्ने की इजाज़त भी नहीं देता
सुबहान अल्लाह !
दस्त-ए-सफ्फ़ाक में मरहम भी है नश्तर भी है
ख़ार-ए-नफ़रत भी मोहब्बत का गुल-ए-तर भी है
परचम-ए-अमन भी है, जंग का मंज़र भी है
शाख़-ए-ज़ैतून भी है शोला-ए-जौहर भी है
एशिया वालों को हैरत है इसे क्या कहिये
दस्त-ए-क़ातिल उसे कहिये कि मसीहा कहिये
kya kavita laye hain rajjee ko hamlog pahle padhte ,,dukh hai unke bare me sunkar.
कोरिया आज भी है वहशत ए डालर का शिकार
वियतनाम उसकी सितमरानी का ज़िंदा शाह्कार
है गिराँ उस पे फ़िलस्तीनी महाजिर की पुकार
एशिया उसकी तिजारत का कुशादा बाज़ार
हर जगह उसने सजा रखी है साज़िश की दुकाँ
अर्ज़-ए-लेबनान पे छ जाता है रह रह के धुआँ
काट दी रिश्ते की तलवार से फ़ैसल की ज़बां
आरिज़-ए-नील पे हैं उसके तमाचों के निशाँ
सोज़-ए-इख्लास से वह प्यास बढ़ा देता है
पानी देता है, मगर ज़हर मिला देता है
KYA BAT HAI SAHAB !!!
जख्मों से भरी दुनिया देख मरहम भी सहम गया है।
बहुत ख़ूब...
बहुत ही शानदार कलाम है हर बात एक दम सच है बहुत बहुत शुक्रिया इस शानदार पोस्ट के लियें.
is insaniyat ke dusman ka koi intejam karo,
isaniyat ko bachane ke liye phir qatleaam karo...
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