फ़राह
शकेब की क़लम से
विकराल रूप धारण कर समस्त विश्व के लिए आतंकवाद निश्चित ही चुनौती बन चुका है। देश, समुदाय, जाति, धर्म इत्यादि से हट कर इसकी निंदा की जानी चाहिए। यह इस्लाम के नाम पर हो या हिंदुत्व के नाम पर। जिहाद हो या क्रूसेड। इसका समूल नष्ट होना जरूरी है। लेकिन आतंकवाद के नाम पर एक समुदाय विशेष के विरुद्ध वातावरण तैयार करने की साजिश का भी उतना ही विरोध भी होना चाहिए।
भारतीय
संदर्भ में देखें,
तो
इसमें
मीडिया,
पुलिस
और
राजनेताओं
की
भूमिका
संदिग्ध
रही है। भारत
में
विगत
कई
वर्षों
से
लगातार
देश
के
विभिन्न
राज्यों
की
पुलिस
के
द्वारा
आतंकवाद
के नाम
पर पहले
से
निर्धारित
Targetted
Goal के
साथ
एक
समुदाय
विशेष
पर
क्रैक
डाउन
का
सिलसिला
चल रहा
है।
बार
-बार
अदालत
के
सामने
मुंह
की खाने
के बाद
भी इस
रवैय्ये
में
कोई
तब्दीली
दिखाई
नहीं
देती।
जिन-जिन
युवाओं
को
कुख्यात
आतंकी
बता
कर
फ़िल्मी
कहानी
की
स्क्रिप्ट
के साथ
गिरफ्तार
कर
वर्दी
पर
सितारों
की
गिनती
बढ़ाई
गयी।
पुरस्कार
जीते
गए।
वो सब
आज
एक-एक
कर
अदालत
के
सामने
निर्दोष
साबित
हो रहे
हैं।
जिसे
आधार
बना
कर उन
युवकों
को जेल
की
चहारदीवारी
में
क़ैद
रखा
जाता
है,
वो,
सुरक्षा
एजेंसियों
और
पुलिस
की बनाई
हुई
कहानियां
अदालतों
की
चहारदीवारी
में
दम
तोड़ती
जा रही
हैं।
एक साल
के
अंदर-अंदर
कई
धमाकों
के
आरोपी
अदालतों
में
निर्दोष
साबित
हुए
और
अदालतों
ने ये
स्वीकार
किया
है के
उनके
साथ
अन्याय
हुआ।
उन
युवाओं
की पूरी
ज़िन्दगी
कई-कई
साल
तक जेल
में
रखकर
तबाह
कर देने
वाली
सुरक्षा
एजेंसियां
अपने
कुकर्मों
पर
सिर्फ "
गलती
हुई
का कवच
चढ़ा
कर फिर
दूसरे
शिकार
की तलाश
में
लग जाती
हैं।
इसे सियासी शब्दावली में
प्रेशर पॉलिटिक्स कहा जाता
है। दिल्ली
पुलिस
के
द्वारा
अंसल
प्लाजा
एन्कोउन्टर,
बटला
हाउस
इंकॉउंटर
घटित
होने
के पहले
घंटे
से ही
संदिग्ध
और
फ़र्ज़ी
होने
की चुगली
करता
रहा
है।
लियाक़त
शाह
की
गोरखपुर
से
गिरफ्तारी
और
रेस्ट
होउस
में
हथियार
ज़ब्ती
की
मनोरंजक
कहानी
औंधे
मुंह
गिर
चुकी
है।
लियाक़त
को
एनआईए
द्वारा
क्लीन
चिट
देते
हुए
दिल्ली
पुलिस
को
कठघरे
में
खड़ा
किया
जा चुका
है।
इस जैसे
कई
केसेज़
में
दिल्ली
पुलिस
बार-बार
बैकफुट
पर आ
चुकी
है।
लेकिन
पुलिस
मोरल
डाउन
होगा
जैसे
जुमले
की आड़
में
इनके
कुकर्मों
को
छुपाते
सत्ताधारी
और
विपक्ष
सब
एकजुट
हो जाते
हैं।
यही
एकजुटता
और खादी
का
संरक्षण
ख़ाकी
को एक
धर्म
विशेष
एक
समुदाय
विशेष
पर देश
की
आंतरिक
सुरक्षा
की आड़
में
अत्याचार
करने
को
प्रोत्साहित
कर रहा
है।
एक मई को विभिन्न बम धमाकों के आरोप में कई वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे अपनी अँधेरी हो चुकी ज़िन्दगी का बोझ उठाते 17 नौजवान देश की अदालत में निष्कलंक और निर्दोष साबित हुए और ठीक 11 दिन बाद दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के द्वारा एक बार फिर "" इंडियन मुजाहिदीन का इरफ़ान"" नामक फ़िल्म रिलीज़ की गयी। इसकी पटकथा लिखने वाले ने गिरफ्तारी के लिए उत्तर प्रदेश के बहराइच को चुना और अपराध के नाम पर 1993 में होने वाले कई बम धमाकों के आरोप का झूमर उसके माथे पर लगा कर अपनी वर्दी पर सितारों के शृंगार का प्रयास किया गया है। जिस तरह 2002 के बाद होने वाले तमाम बम धमाको को पुलिस और एजेंसियों द्वारा मुस्लिम युवकों को आरोपी बनाने की मुहिम में बल देने के लिए गोधरा और गुजरात का प्रतिशोध जैसा कवच चढ़ाया जाता रहा है, उसी तरह इरफ़ान अहमद को 1993 में होने वाले बम धमाके का आरोपी बताते हुए इसे बाबरी विद्ध्वंस का प्रतिशोध बताते हुए कहानी में थोड़ा थ्रिल पैदा करने की कोशिश की गयी है। बाक़ी पूरी कहानी उसी घिसे-पिटे पुराने पैटर्न पर है।
अगर
आप 12
मई
2015,
दिल्ली
से
प्रकाशित
दैनिक
हिन्दुस्तान
के
पृष्ठ
3
को
बांचने
का कष्ट
करें,
तो
आप कुछ
भी नया
नहीं
पाएंगे।
हो सकता
है,
कुछ
समय
बाद
इरफ़ान
भी
निर्दोष
साबित
हो जाए।
अगर
वो दोषी
है,
तो
उसे
अदालत
में
कड़ी से कड़ी सज़ा
मिलनी
चाहिए।
लेकिन
अदालत
में
पेशी
से पहले
जिस
तरह
हिंदी
मीडिया
ने
सुरक्षा
अधिकारियों
के
द्वारा
उपलब्ध
करवाई
गयी
जानकारी
को
ईश्वरीय
आकाशवाणी
समझते
हुए
गिरफ्तार
युवक
को
परंपरागत
तरीके
से
कुख्यात
आतंकी
घोषित
कर दिया
है।
क्या
ये
न्यायसंगत
केवल
इसलिए
मान
लिया
जाए
ये
मामला
किसी
इरफ़ान
का है।
क्या
मीडिया
हॉउसेज़
की
वातानुकूलित
केबिनों
में
बैठे
भ्रष्ट
कॉर्पोरेट
के वेतन
भोगी
कर्मचारी
देश
की
अदालतों
से भी
सर्वपरि
हैं,
जो
किसी
दानिश
या
जावेद
की
गिरफ्तारी
पर उसे
केवल
पूर्वाग्रह
के आधार
पर
मुल्ज़िम
से
मुजरिम
बना
देने
के लिए
स्वतंत्र
हैं।
विगत आठ वर्षों में आज तक कोई हिंदी तो क्या उर्दू अखबार ऐसा नहीं मिला, जिसने साध्वी प्रज्ञा पुरोहित पांडे असीमानंद को अभिनव भारत का कुख्यात आतंकवादी लिखा हो। क्योंकि यहां मालेगांव धमाकों के आरोपी शब्द का इस्तेमाल होता है। सवाल क्या मौजूं नहीं कि यही मापदंड किसी इरफ़ान या किसी दानिश के साथ क्यों नहीं। इस देश में नियम-नीतियां सबके लिए समान हैं या जाति,, समुदाय और धर्म के आधार पर उनमें फेरबदल किया जा सकता है???? मुस्लिम है, तो आतंकवादी कहो। आदिवासी है, तो नक्सली कहो। ईसाई है, तो मिशन चला कर धर्मांतरण करवाने वाले कहो। सिख है, तो खालिस्तानी अलगाववादी कहो और देशभक्त....... केवल.... ।
सिस्टम
और इस
तंत्र
की
जवाबदेही
जनता
के
प्रति
कब
प्रायोगिक
तौर
पर तय
की
जायेगी
???
चोटी
तक
भ्रष्टाचार
दलाली
और
पूंजीवादियों
की
गुलामी
में
आकंठ
तक डूबा
भ्रष्ट
सामंती
मीडिया
कब अपने
नैतिक
दायित्वों
के साथ
न्याय
करेगा..???
जनता
के
रक्षक
कब तक
इस देश
में
जन
भक्षक
कि
भूमिका
निभाएंगे
..??
इन
प्रश्नों
का जवाब
कब
मिलेगा..??
अगर
ये सब
नहीं
होगा,
तो
आप
सरकारें
बदलते
रहें
स्तिथि
ढाक
के तीन
पात
से कुछ
इतर
नहीं
होने
वाली।
दिल्ली
में
चेहरे
बदलेंगे
देश
नहीं....
और
यही
मूल
कारण
है के
आज मंगल
पर
पहुँचने
वाले
देश
में
किसी
दलित
के घर
शादी
में
दूल्हा
घोड़ी
चढ़
जाए,
तो
देश
को
सदियों
से अपने
द्वारा
रचे
गए
विद्ध्वंसक
पाखंड
का
मानसिक
गुलाम
बना
कर रखने
वाले
नीच
पाखंडियों
को उस
पर
पत्थर
बरसाने
में
देर
नहीं
लगती।
""मंगल
पर
पहुँचने
का
गर्व""
वहीँ
इस
भारतीय
संस्कृति
और समाज
पर
हंसता
मुंह
चिढ़ाता
दिखाई
देता
है।
यह एक
सच है।
बेड़ियां टूटे हुए ज़माना हो गया,फिर भी रुख़ बदला नहीं हालात काहम कल भी तारीकियों में थे, आज भी हैंसिलसिला बाक़ी है, अब भी रात का।
(लेखक
परिचय:
जन्म:
1 जनवरी
1981
को
मुंगेर (
बिहार
)
में
शिक्षा:
मगध
यूनिवर्सिटी बोधगया से एमबीए
सृजन:
कुछ
ब्लॉग और पोर्टल पर समसामयिक
मुद्दों पर नियमित लेखन
संप्रति:
अनहद
से संबद्ध
संपर्क:
mfshakeb@gmail.com)
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी