लंबी कहानी का पहला भाग
धीरेन्द्र
सिंह की क़लम से
एक रुकी हुई, लम्बी, चट्टानी, पतली पहाड़ी पर जिसकी टांगों के पंजों के नाखून, दूर तक फैली तवारीख़ की एक लाफ़ानी नदी में डूबे रहते.नदी- जिसने बेशुमार बदबुओं को धोते वक़्त अपने नथुने सिकोड़े होंगे, जिसने बेशुमार नंगे बदनों को देखते वक़्त अपनी आँखें मूंदी होंगी.नदी- ढेरों आलसी मगरमच्छ.नदी- बेशुमार मछलियों वाली नदी, जिसमे वे छलांगे लगातीं और वापस डूब जातीं. एक गोलाकृति किसी बिंदु से शुरू होती और दीर्घ वृत्त पर ख़त्म.नदी में डगमगाता क़िला जिसके नीले गुम्बदों को मछलियाँ उछल-उछलकर चूमा करतीं. नीली नक्काशियों वाला, सैकड़ों गुम्बदों वाला, किसी एकांतवास में विहप की पहाड़ियों की ईंटों से, मज़बूत पत्थरो से बना गेरू बालुकाश्य रंग का सात प्रवेश द्वारों वाला आठवीं सदी में बना ''किरमानियों'' का क़िला. जिसकी क्षितिज तह तीन सौ सत्तर फ़ीट, चौड़ाई आठ सौ दस फ़ीट और कुल लम्बाई अढ़ाई किलोमीटर होगी.
(इस क़िले का त'अल्लुक़ मेरी कहानी से बस उतना है जितना की बढ़े हुए नाखूनों का असल नाखूनों से होता है. वक़्त आने पर जिन्हे काट के फेंक दिया जाता है.)
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कमरे
से चीखने की आवाज़ें आयीं,
रोशनियों
का दख़ल हुआ,
खिड़कियाँ
सहम गयीं,
दरवाजे
बंद हुए,
दीवारों
से रंगों की एक महीन पर्त उतरकर
ग़ायब हो गयी.
नौकरानियों
के आग्रह शुरू हुए 'बस
मालकिन थोड़ा सा और जोर लगाइये,
बस
बस थोड़ा और,
बस
बस हो गया'
मानो
पौ फटने को थी.
क्षितिज
में होली का उत्सव मनाया जाने
वाला था.
सूरज
बारूद के गोले की तरह आसमान
में चढ़ने ही वाला था और फिर
एक विस्फोट होने वाला था.
किरणों
का विस्फोट--
और
वह हो गया,
नाभि
के रिश्ते के विस्फोट में
चीथड़े उड़ गए.
अब
बस रह गया तो आत्मा का रिस्ता.
दो
अलग-अलग
शरीर आजू-बाजू,
एक
का क़द दूसरे से दस गुना बड़ा.
बेगम
बिस्तर पर लम्बी साँसे लेते
हुए ऐसे पड़ी थी जैसे उसे सैकड़ों
टूटी हुई हड्डियों के दर्द
से अभी-अभी
राहत मिली हो.
उसके
होंठों पर मुस्कराहट ऐसे
चस्पां थीं मानो सूरज की लालिमा
ने आसमान में दो होंठ रेखांकित
किये हों.
फिर
उसके क़द के दसवें हिस्से के
बराबर नन्हे से शरीर के गले
से उड़ती 'कुआओं-
कुआओं'
की
आवाज़ें रोशनदानों से बहार
निकलकर पंछियों की टांगों
में बंधकर पूरे महल में घूम
आयीं.
उधर
किरमानियों के इंतज़ार पर अब
ताले पड़ गए.
मुबारक
हो मंसूरा बेगम ने लड़का जना
है,
रज़ा-
उमराह
ने ख़ुशी में एक छलांग मारी और
हवा के सफ़र का एक 'लघुत्तम'
हल
किया.
बाक़ी
रही सही ख़ुशी पे उमराह ने अपने
हाथों की दसों उंगलियां ख़ाली
कर दीं.
रज़ा
की गोरी,
लम्बी,
चिकनी
और हारों-
मालाओं
से भरी गर्दन हवा में तलवार
की मार्फ़त उड़ रही थी.
उसकी
मुंडी,
ढाल
सरीखी तलवार पर उल्टी पड़ी थी.
उसकी
दोनों आँखें फैलकर काले टीकों
वाले अण्डों में बदल गयीं.
और
ठहाकों वाले उसके दो मोटे
होंठों ने पंछियों की टांगों
से सारी आवाज़ें खोलकर उनमे
ठहाके बाँध दिए.
'किरमानी
पैलेस'
की
दीवारें 'ईको
पॉइंट्स'
में
बदल गयीं.
आवाज़ों
ने लम्बे वक़्त तक आवाम में
कैंचियां चलायीं। ना जाने
कितने फूलों को टहनियों से
उतार दिया गया.
ना
जाने कितने पेड़ रज़ा किरमानी
की तरह छातियाँ फुलाकर आसमान
को घूरने लगे.
घड़ी
पर एक वक़्त ऐसा आकर रुक गया
जो इतिहास का दर्जा रखता था.
जब
रूमो आईने के सामने अपने हाथों
को ढालों में फंसी तलवार की
मार्फत चिपकाकर अपनी उंगलियां
अपनी गर्दन में फेर रही थी,
तो
एक नन्हा सवाल उसके रक़्स
करते होंठों पर तेज़ाब जैसा
पड़ा.
उसके
कानो का मोम पिघलकर बाहर बह
पड़ा.
उसने
बिलकुल ठीक से सुना 'अम्मू
ये क्या लायी हो?
आज
तो आप रूमो नहीं बेग़म हुसैनी
रूमो लग रही हैं'.
श्श्श्श्श्श्श----
दोनों
होंठों के बीच अपनी जीभ फसाकर
सीने में भरी सारी हवा को पूरे
दबाव से बाहर निकालते हुए
उसने अपने सारे सुर सफ़ेद कर
लिए (राग---
की
तरह).
किरमानियों
को पोता पोता हुआ है.
महल
की रौशनी देखो--
हमारी
परछाइयाँ क्या कभी इतनी लम्बी
हुयी हैं?
क्या
तुमने अरसा भर से इतने मधुर
संगीत सुने हैं?
जैसे
हर एक मुंडेर पर तानसेन बैठा
हो.
हुसैनी
रूमो को बेग़म हुसैनी रुमो
बनाने की वजह बस यही अदना सी
ख़बर ही तो है.
जब
मैंने रज़ा-उमराह
को ये बताया कि उनको नवासा
हुआ है,
तो
मालूम है बेग़म ने अपनी सारी
उंगलियां ख़ाली कर दीं और मेरी
भर दीं.
और
नवाब साहब ने अपनी चिकनी गर्दन
को नंगा कर दिया और मेरी गर्दन
पे ये बोझ लटका दिया.
सोचती
हूँ इसे पहने रखूं लेकिन तौबा
मेरी क्या मजाल जो मैं नवाब
का दिया हुआ हार उन्हीं के
सामने पहन के जाऊं.
चलो
नवाब रज़ा तो दिन में एक-आध
दफ़ा ही मिलेंगे,
लेकिन
उमराह तो रसोई में पच्चीसों
बार टकराएंगी.
ख़ुदा
ना करे कोई पकवान बिगड़ जाये
या तरकारी में ज़रा सा नमक ही
नीचे-ऊपर
हो जाये,
तो
मुझे तो अपनी उँगलियों से ही
जाना पड़ेगा..
ना
बाबा ना
तो
आप इन्हे पहनेंगी नहीं क्या?
(रूमो
के बेटे ने पूछा)
कुछ
कहना मुनासिब नहीं और ख़ौफ़
भी तो हैं वो भी तीन-तीन.
ख़ौफ़
?
तीन-तीन?
कैसे?
देखो
पहला-
गर्दन
काटने का
दूसरा-
उँगलियों
से जाने का
तीसरा-
इसके
चोरी होने का
या
ख़ुदा ऐसे तोहफ़े भी किस काम के
किरमानियों के ये तोहफ़े बेच
लें,
तो
अच्छा वरना वापस महल में
जायेंगे.
क्या
फ़ायदा ऐसे तोहफों का--
हार
गले में नहीं डाल सकते,
अंगूठियां
पहन नहीं सकते.
तो
क्या आप वाक़ई में इन्हें बेचने
वाली हैं?
(उसके
बेटे ने फिर सवाल किया जो घुटने
टेक कर सांप की तरह पिंडी बनाये
एक स्टूल पर बैठा है.
जिसके
दोनों हाथ उसके होंठों के
दायें-बाएं
गालों पर थे.
उँगलियों
के दबाव वाली जगहों से मांस
की पतली लकीरें उभार पर थीं.
मानो
गीली मिटटी में किसी ने अपने
हाथ दबाये हों.
माथे
पे उतरे उसके रेशम जैसे बाल
जिन पर एक गोल टोपी ऐसे बैठी
थी,
जैसे
अमावस में कोई रहस्यमयी चाँद
उग आया हो.
उसकी
सवालिया आँखें उसकी माँ को
एकटक देखती रहीं और सोचती
रहीं 'यह
कितना अजीब है,
गुलाबों
को बोओ,
उगाओ,
उनकी
खुशामद भी करो,
लेकिन
जब फूल आ जाएँ तो उन्हें महकने
की इजाज़त ना दो').
क्या
अब्बू आपको ऐसा करने देंगे?
वही
तो मैं सोच रही हूँ..
मुझे
क्या उनसे पूछना होगा ?
क्या
मुझे उनसे पूछना चाहिए?
यह
आपकी ज़िम्मेदारी है,
आप
ही सोचो मैं क्या कह सकता हूँ.
रूमो
ने अपने माथे पे बल डालते हुए
उसपर तीन रेखाएं बना दीं और
फिर अपने नितम्ब एक कुर्सी
पर रख दिए.
सलवार
को घुटनों तक खींचा.
उसकी
गोरी चिट्टी टांगों पर उगे
नाबालिग रोएँ ऐसे दिख रहे थे,
जैसे
'बखिन्गम
पैलेस'
के
मैदानों में उगी शाही घास हो.
उसने
कमर को आराम देते हुए सलवार
का नाड़ा ढीला किया और दोनों
हांथो को प्रार्थना की मुद्रा
के विपरीत चिपकाकर फिर उंगलियां
गिननी शुरू कर दीं.
एक
दो
तीन
चार
पांच
छह
सात
आठ
नौ
दस
वापस
हाथों को छातियों में ऐसे रखा
जैसे ढाल के पीछे दो तलवारें.
दस
उँगलियों वाली तलवारें.
और
सारी उंगलियां गर्दन पे दौड़ने
के लिए तैयार.
हार
के हीरों पे हुज्जत लगाने की
होड़ में--
कौन
सी ऊँगली किसे छुएगी ?
कितने
हीरे..?
कितने
मोती..?
कितने
नीलम..?
और
पुखराज कितने..?
कितने
का हार..?
कितनी
दौलत..?
पूरे
क़र्ज़ पर भारी पड़ने वाली दौलत.
बादाम
का तेल है क्या ?
हो
तो ला मेरे सिर में लगा दे,
आह!
बहुत
दर्द हो रहा है.
जैसे
अभी कोई बिस्फोट होगा.
या
अल्लाह!
ये
कैसा तोहफ़ा है ?
ये
कैसी ख़ुशी है ?
और
ये दौलत कैसी ?
और
आखिर किस काम की ?
तूने
इस ख़बर के लिए मेरी ही ज़बान
क्यों चुनी ?
अब
कौन इतने बोझ को लेकर सो सकेगा--
(रूमो
अपने में ही बड़बड़ाते हुए)
उसने
अपने बालों को खोल दिया और
कुर्सी के पीछे सिर टिकाया।
फिर उस रोशनदान की तरफ देखने
लगी जहां से पैलेस की रोशनियाँ
अंदर आने की लड़ाइयां लड़ रही
थीं.
उसकी
टाँगे फैलती हुई,
पिंडलियों
पर उतरती हुई उसकी सलवार।
जैसे शाम हुई और अब घास के
अदृश्य होने का वक़्त आया,
बखिन्गम
पैलेस के दरवाजे बंद.
उसका
बेटा भूरे चमचमाते कच्चे
कद्दू (Pumpkin)
की
तरह,
रूमो
के ज़मीन पर रखे सपाट पैरों के
पास लुढ़क जाता है.
और
एक सिक्का मुह में लील लेटा
है.
लार
की धुलाई से पूरा सिक्का यूँ
नया सा हो गया कि उस पर पड़ती
शम्म'ओं
की रोशनियाँ उसे कांच की सूरत
दे रही थीं.
सिक्के
की परिधि पर अनेक छोटे-छोटे
तारे रोशन हुए.
रूमो
ने उसके हाथ से सिक्का छुड़ाया
और झल्लाते हुए बोली 'पागल
है क्या?
ये
कोई चूसने की चीज़ है?
हलक
में चला जाता तो अभी लेने के
देने पड़ जाते'.
उसका
बेटा अधखिले गुलाबों सी अपनी
आँखों से रूमो को उसी मासूमियत
से देखता है,
(जैसे
फलक पे लटका चाँद हमें देखता
है जब हम उसे देखते हैं.
जैसे
वह कुछ जानता ही नहीं.
जैसे
उसे अपने ग़ायब होने का दुःख
नहीं.
उगने
की ख़ुशी नहीं.
जैसे
वह जानता ही नहीं कि वो छोटे
से बड़ा होता है और बड़े से फिर
छोटा).
अपने
खीसें निपोरता है,
उसके
दांत बेतरतीब मगर एक घुमावदार
क़तार में मसूड़ों पर ऐसे जड़े
थे मानो समंदर किनारे बत्तीस
नारियल के पेड़ एक घेरे में
जिनमे से दो दायीं तरफ के,
दो
बायीं तरफ के लगभग अदृश्य ही
थे (अक्ल
के दांत,
अभी
अक्ल भी उतनी नहीं तो दांत भी
उतने नहीं यानि पूरे दांत
नहीं).
उसके
खुरदरे दांतों का रंग ऐसा था
मानो सिलबट्टे में किसी ने
अमचूर पीसकर उसे बिना साफ़
किये ही छोड़ दिया हो.
रूमो
उसके माथे को चूमती है और वो
बिल्ली की तरह आँखें लपकता
है.
अम्मू
अगर ये मेरे हलक़ में अटक जाता
तो?
अटका
तो नहीं ना--
अगर
अटक भी जाता तो घूंसे खाता और
उगल देता.
उससे
भी ना होता तो हकीम साहब मुह
में चिमटी डाल के खींच लेते
तब भी नहीं तो तुझे सुबह पाखाने
में अपना सिक्का ढूँढना पड़ता.
फिर
से खीसें निपोरता है--
अट्ठाइस
दांत (अक्ल
नहीं है)
खुरदुरे..
ऐसे
जैसे किसी ने सिलबट्टे में
अमचूर पीस कर बिना साफ़ किये
ही छोड़ दिया हो.
आपके
साथ कभी हुआ ऐसा?
कैसा?
आपके
हलक़ में कुछ अटक गया हो फिर
आपने घूंसे खाए हों या हकीम
साहब ने चिमटी डाल के उसे
निकाला हो या सुबह---------या---
या---
सुबह
आपने भी पाख़ाने में---------?
(उसका
ठहाका गेंद की तरह पूरे कमरे
में उछल गया).
रूमो
हँस पड़ी--
पूरे
बत्तीस दांत (अक्ल
वाले भी)
सफ़ेद
संगमरमर की तरह,
चिकनी
'टाइलों'
की
तरह (जैसे
दूध वाले दांत).
मारूंगी
तुझे (दुगने
प्यार से बेटे के गालों को
खींचते हुए).
अम्मू..
बताओ
ना?
अभी
तक तो नहीं अटका था.
पर
आज अटका है लेकिन हलक़ में
नहीं,
बाहर
गर्दन पे--
'ये
हार'
और
मेरी तो उंगलियां भी गिरफ्तार
कर ली गयीं हैं.
अब
ये भरी-
भरी
चमकदार उँगलियों से सिल में
बट्टा तो रगड़ा नहीं जायेगा,
ना
ही ये हार पहना जायेगा मुझसे.
हाय!
देखो
तो कितना भारी हार है.
उफ़
ये नवाब का ही हार है?
गुलु
बंद हार,
औरतों
जैसा..
गर्दन
से कितना चिपका हुआ है बिलकुल
ऐसे जैसे किसी शैतान का पंजा.
दरवाजे
पर से सांकल के बजने की आवाज़
आती है (खट-
खट,
खट-
खट,
खट-
खट,
खट-
खट).
ओह!
लगता
है तेरे अब्बू आ गए-----
आती
हूँ (जोर
की आवाज़ लगते हुए उठती है)
______________________
(रचनाकार-परिचय:
जन्म
:
१०
जुलाई १९८७ को क़स्बा चंदला,
जिला
छतरपुर (मध्य
प्रदेश)
में
शिक्षा
:
इंजीयरिंग
की पढाई अधूरी
सृजन
:
'स्पंदन',
कविता-संग्रह
और अमेरिका के एक प्रकाशन
'पब्लिश
अमेरिका'
से
प्रकाशित उपन्यास 'वुंडेड
मुंबई'
जो
काफी चर्चित हुआ।
शीघ्र
प्रकाश्य:
कविता-संग्रह
'रूहानी'
और
अंग्रेजी में उपन्यास 'नीडलेस
नाइट्स'
संप्रति
:
प्रबंध
निदेशक,
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी