बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 9 मई 2015

मां का एक दिन नहीं होता, सदी होती है












वसीम अकरम त्यागी की क़लम से

रिश्तों पर भारी पड़ते बाजार ने हमें एक और झुनझुना थमा दिया है, मां दिवस। पैदा होने से लेकर मरने तक के हर एक रिश्ते को हम लोग बाजार में बदलते जा रहे हैं। फेसबुक पर अधिकतर दीवारें मां की ममता पर इन दिनों समर्पित हैं। मगर क्या मां के लिए कोई दिन मुकर्र कर देना जायज़ होगा ? क्या आज के दिन वह अपनी औलाद पर प्यार नहीं लुटाएगी कि क्योंकि आज तो उसका दिन है? इसलिए आज का सारा प्यार उसे ही मिलना चाहिये। क्या आज वह अपने बच्चों के लिये खाना नहीं बनाएगी ? मां के लिए कोई खास दिन मुकर्रर देने से क्या हम उसके अहसानों का बोझ उतार सकते हैं ? क्या हम उस दर्द को कम कर सकते हैं। जब दुनिया भर का दर्द और तकलीफ झेलने के बाद हम पैदा हुऐ थे और वह हमें रोता देखकर मुस्कुराई थी? पाश्चात्य संस्कृति की ओर बढ़ते कदमों ने भी उस देश में मां के लिए खास दिन मुकर्रर कर लिया, जिसमें नदियों से लेकर जमीन तक को मां की संज्ञा दी गई है।
इधर, हर शहर में बने वृद्धाश्रम में सिसकती हजारों मां और पिता हमारी तरफ मुंह चिढ़कर कह रहे हैं कि हम Happy Mother’s Day कहने का हक ही नहीं रखते। फिर भी लोग कह रहे हैं। जिस मां को उफ्फ तक नहीं कहना चाहिये था, उसे घरों से निकाल दिया जाता है। यह भी उसी देश की उन्हीं आंगनों की सच्चाई है, जिसमें चारों ओर हैप्पी मदर्स डे प्रचारित किया जा रहा है। सदियों तक न उतरने वाले कर्ज को हमने सिर्फ साल के एक दिन पर लाकर लाद दिया है कि आज मदर्स डे है। कैसी कड़वी सच्चाई है इस पंक्ति में:
लड़के जवान पांच थे मां को न रख सके
बूढ़ा हुआ शरीर तो घर से निकाल दिया

जाहिर है, सड़कों पर, रेलवे स्टेशनों, वृद्धाश्रमों, तीर्थ यात्रा पर आपको न जाने कितनी मां मिलेंगी। जिनकी आंखों में बुढ़ापा अपने पोती-पोतियों के साथ गुजारने के सपने जिंदा हैं। मदर्स डे पर मुझे और मेरी मां को भी उसी पाश्चात्य संस्कृति में रंग जाना चाहिये था, जिसमें भारत का विशेष वर्ग सराबोर है। मगर रोजाना की तरह अम्मी का फोन मुझे नींद से जगाने के लिये आया, उन्हें पता ही नहीं था कि आज उनका दिन है। गांव की हैं न भोली हैं। उन्होंने रोजाना की तरह वही ताकीद की। बेटा नाश्ता वक्त पर कर लेना और ऑफिस जाओ, तो बाइक आहिस्ता चलाना। मगर उन्हें क्या मालूम कि मैं इनमें से किसी एक भी बात बस तभी याद रखता हूं, जब फोन पर उनसे बात कर रहा होता हूं। बाद में या तो अनदेखी कर देता हूं या भूल जाता हूं। खैर मेरे कहने का आशय सिर्फ इतना है कि जो मां एक स्कूल और सच्ची मौहब्बत की जीती-जागती मिसाल है, उसके अहसानों को हम एक दिन निश्चित करके नहीं उतार सकते। क्योंकि हम सलामत रहें, उसे तो सिर्फ यही चाहिए। हजारों माएं ऐसी होंगी, जो इस शब्द हैप्पी मदर्स डे से वाक़िफ़ भी नहीं होंगी। फिर इस लफ़्ज़ के क्या मायने रह जाते हैं?
क्या यह लफ़्ज़ मदर्स डे उस पूंजीपति वर्ग का मध्यम वर्ग पर थोपा हुआ एक शिगूफा नहीं है, जिसे रिश्तों की समझ ही नहीं होती ? जिंदगी की भागदौड़ में बाजार को भी हमने रिश्तों पर हावी कर दिया ? हर जगह बाजार है। प्यार कहां है? रिश्ते कहां हैं ? मां दिवस पर मां चिल्लाने वाले हम लोगों को क्या हर रोज मां का ख्याल नहीं रखना चाहिए? उसकी सारी ममता को एक ही दिन में लाकर खड़ा कर देने से क्या हम उसकी अहमियत को कम नहीं कर रहे हैं ?

ऐसे तो उसकी मौहब्बत में कमी होती है
मां का एक दिन नहीं होता सदी होती है।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म : उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन : समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
संप्रति : मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क : wasimakram323@gmail.com )




Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

0 comments: on "मां का एक दिन नहीं होता, सदी होती है"

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)