कितने
बदनसीब हैं जो करते हैं मां
को नाराज़
वसीम
अकरम त्यागी की क़लम से
अक्सर शनिवार को मैं अपने गांव चला जाता हूं। इस बार भी गया था। बीच में हाशिमपुरा पड़ गया वहां लोगों से मिलने के लिये रुक गया, फिर शाम को चौधरी चरण सिंह विवि चला गया। उर्दू विभाग अध्यक्ष डॉक्टर असलम जमशैदपुरी ने वहां पर एक ड्रामा रखा था। उस प्ले को देखते-देखते रात समय ज्यादा बीत गया। सोचा घर जाऊंगा, तो अम्मी को देर रात नाहक़ परेशानी होगी। इसलिए खाना भी शहर में खा लिया। इसके बाद रात को तक़रीबन 12 बजे मैं गांव पहुंचा। औपचारिक बातचीत के बाद अधूरी छोड़ रखी एक पुरानी किताब पढ़ने लगा और पढ़ते पढ़ते ही सो गया।
सुबह देर से आंख खुली। जिंदगी में एक बदलाव मैंने महसूस किया है, जब मैं 17 या 18 साल का था तब फ़ज्र की अज़ान होते ही बिस्तर छोड़ दिया करता था अम्मी खुद जगा देती थीं। उससे पहले यह ड्यूटी दादाजी के पास थी। उनके इंतक़ाल के बाद यह मामूल अम्मी बख़बी निभती रहीं। मगर अब कोई नहीं जगाता। जिस कमरे में सोता हूं, उसके पास बच्चों के आने-जाने पर पाबंदी लगा दी जाती है। अम्मी कहती हैं, वसीम सो रहा है अभी सोने दो। रात को देरी से सोया है। शहर में थक जाता होगा यहां कमसे कम आराम से तो सो लेता है।
चाय
के कप में मां की उष्मा, बेटा मेरी भी सुना कर
बहरहाल
सुब्ह आंखें खुलने के बाद छत
पर गया। अम्मी किचन में कुछ
बना रही थी। मेरी तरफ़ चाय का
कप बढ़ाते हुए बोलीं,
सुबह से
तीन बार चाय बना चुकी हूं कि
तू उठते ही चाय मांगेगा। मैंने
चाय का वही अपना वाला कप (मेरे
चाय पीने का कप औरों से अलग
है,
वह एक
ग्लास के बराबर है)
अपने हाथ
में ले लिया। उन्हें देखकर
लग रहा था कि वे कुछ अपसेट हैं।
मैंने वजह मालूम की,
तो कहने
लगीं कि आते हो और थोड़ी देर
हमारे पास बैठकर अपने कमरे
में घुस जाते हो। फिर सुबह
होते ही चलने की तैयारी करने
लगते हो। इससे बेहतर हो कि तुम
आया ही न करो। अरे कम-अज़-कम
कुछ हमारी भी सुना करो,
कुछ अपनी
कहा करो।
अम्मी
का लहजा लगा जब सख़्त
कुछ
खा़मोश अंतराल के बाद अम्मी
बोलीं,
.... मगर
तुम हो कि हर वक्त,
कभी
लैपटाप,
कभी
मोबाईल,
तो कभी
किताबों में खो जाते हो।
तुम्हारे पास दुनिया के लिये
वक्त है,
हमारे
लिये कहां है?
अम्मी
का लहजा ज़रा सख़्त था। मुझे
भी लगा कि अम्मी कुछ ज्यादा
ही कह गईं?
मगर बात
को टालते हुए मैंने कहा तुम
ख़्वाहमख़्वाह में अपनी एनर्जी
वेस्ट मत किया कीजिये। और अगर
आपको लगता है कि मेरे आने से
आप परेशान होती हैं,
तो मैं
महीने में ही एक बार आया करुंगा।
अब हर हफ्ते नहीं आऊंगा। यह
कहकर चाय का कप लिये नीचे आ
गया और अख़बार में सर खपाना
शुरू कर दिया मुझे लगा कि सुबह
उठते ही मूड ख़राब हो गया है।
मगर यह मां की ममता थी जो एक
बेटे के सामने शिकायती अंदाज़
में झलक रही थी जिसे मैं नहीं
समझ पाया।
आंख
मिलाना हुआ मुश्किल
मुझे
लगा कि मैंने ग़लती कर दी है
और उस वजह से अम्मी से आंख नहीं
मिला पा रहा था। चलते वक्त
छोटे भाई से कह दिया कि गाड़ी
निकाल और मुझे शहर छोड़ के आ
जाओ मुझे किसी प्रोग्राम में
जाना है। उसने गाड़ी निकाल
ली। अम्मी अभी ऊपर वाले कमरे
में ही थीं। एक छोटे बच्चे से
मैंने कहा कि जाकर कह दो कि
मैं जा रहा हूं। अम्मी हर बार
मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आती
है,
जिस कार
में बैठता हूं उसे तब तक देखती
रहती हैं जब तक वह उनकी आंखों
से ओझल न हो जाये। मगर उस दिन
वे नहीं आयीं। मैं भी उनके पास
ऊपर नहीं गया और दस मिनट इंतजार
करने के गाड़ी में बैठ गया,
और दिल्ली
आ गया।
बिना
मिले चला गया न!
मगर
एक बात थी जो बराबर खाये जा
रही थी,
कि मुझसे
नाराज़ होने वाली कोई और नहीं
बल्कि मेरी मां है ?
यानी
मेरी जन्नत मुझसे नाराज़ है।
पिछले चार दिन से यह सवाल मैं
अपने आपसे कर रहा था कि मैं
कितना बड़ा गुनहगार हूं..
अपनी मां
को नहीं मना सका,
तो दूसरों
को कैसे मनाऊंगा ?
मां की
मोहब्बत तो निस्वार्थ है,
यह तो
सभी जानते हैं। वह दिखावे की
मोहब्बत से बिल्कुल जुदा है।
बार–बार मुझे यह बातें खाये
जा रही थीं। आज सुब्ह आंखें
खुलते ही मैंने घर फोन किया
अम्मी से बात की उन्होंने फिर
वही शिकायत कीं तू तो चला गया
था न। अब क्यों फोन कर रहा है।
मगर
वह मां है हर गलती को माफ करने
वाली है,...
दुःखों
के पहाड़ सहकर हमें पालने
वाली...
खुद को
बूढ़ा करके हमें जवान करने
वाली। उसकी मोहब्बत से कैसे
इंकार किया जा सकता है। हम लोग
सिर्फ यह सोचकर उसे नज़रअंदाज़
कर देते हैं कि मां ही तो है
मान जायेगी और वह मान भी जाती
है। मैंने भी मना लिया,
अब कोई
टेंशन नहीं है,
काम में
मन लग रहा है। सबकुछ पहले जैसा
ही लग रहा है,
वे लोग
कितने बदनसीब होते होंगे जो
मां को नाराज़ कर देते हैं।
घर से निकाल देते हैं,
वृद्धाश्रम
में छोड़ आते हैं,
या फिर
जिनकी मां मर जाती है।
लगता है जैसे जिस्म है और जां नहीं रहीवह शख्स जो ज़िंदा है लेकिन मां नहीं रही।
शीर्षक मनव्वर राना के शेर का सानी मिसरा।
(रचनाकार
-परिचय:
जन्म
:
उत्तर
प्रदेश के जिला मेरठ में एक
छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ
बड़ा गांव में 12
अक्टूबर
1988
को ।
शिक्षा
:
माखनलाल
चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता
व संचार विश्वविद्यालय से
पत्रकारिता में स्नातक और
स्नताकोत्तर।
सृजन
:
समसामायिक
और दलित मुस्लिम मुद्दों पर
ढेरों रपट और लेख विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं
में प्रकाशित ।
संप्रति
:
मुस्लिम
टुडे में उपसंपादक/
रिपोर्टर
संपर्क
:
wasimakram323@gmail.com )
1 comments: on "माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया"
माँ की उपस्थिति को इग्नोर करके पछतावा होना अच्छी बात है, आज मैं भी सोच रहा हूँ कि कभी-कभी अम्मी को कडुवे वचन क्यूँ कह देता था, तब वे खामोश होकर एकटक निहारती थीं...और खुद को गैर-मौजूद सा पाती थीं...आज अम्मी नहीं है और आपका आलेख अम्मी की खामोश निगाहों को सामने ला दे रहा है...
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