ईमानदारी रखें बरक़रार आप
भवप्रीतानंद की क़लम से
गौर करें तो पार्टी अभी अनकमांड की स्थिति में है। इसमें डेकोरम का घोर अभाव है। इसमें जितने भी उच्च पदों पर लोग हैं वह सुबह उठते ही मीडिया की माइक चाहते हैं और सोने से पहले मीडिया को ब्रीफ कर सोना चाहते हैं। योगेंद्र यादव या फिर प्रशांत भूषण या फिर और और महानुभाव को जो पद आम आदमी पार्टी में दिया गया था, उसके साथ उन्होंने कभी न्याय नहीं किया। उन्हें कोई सूचना मिलती तो वह पार्टी के भीतर बहस के बजाय मीडिया को बताना उचित समझते हैं। मीडिया से ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जी को पता लगत पाता है कि पार्टी में कितना कुछ घट चुका है। अपने यहां, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उस टीनएज के दौर से गुजर रही है जहां वह अपवाह और हकीकत में फर्क नहीं कर पाती है। अपवाह को भी हकीकत की श्रेणी में लेकर शाम सात से लेकर नौ तक सभी चैनल विद्वानों के कोलाहलों से त्रस्त रहते हंै। और आप के स्वनामधन्य नेतागणों की मीडिया को लेकर लार टपकाने वाली प्रवृति अभी कम नहीं हुई है। इसका कारण एक यह भी हो सकता है कि इसमें कई विद्वान ऐसे हैं जो वर्षों वर्ष तक मीडिया में लिखते-दिखते रहे हैं। उन्हें लगता है कि पार्टी की जरूरी सूचना पार्टी के अंदर देने के बजाय पहले मीडिया को पकड़ा दिया जाए। फिर हो हल्ला शुरू। मार्च का करीब आधा पखवाड़ा आम आदमी पार्टी के मूर्खताभरे बयानों से त्रस्त रहा है। उन्होंने ऐसा कहा, तो फलाने ने वैसा किया।
पार्टी के मुखिया होने के नाते केजरीवाल को इन सब चीजों पर कड़ाई से स्टेप उठाने के दिन आ गए है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाते हैं तो चीजें उनके हाथ से निकल जाएंगी। हालांकि उन्होंने २९ मार्च को आपात बैठक बुलाकर अनुशासन समिति और लोकपाल कमेटी को लगभग पूरी तरह से बदल दिया है। पर ध्यान इसपर भी देना चाहिए कि जिन्हें यह जिम्मेदारी दी गई है वह पार्टी के दायित्वों और मीडिया ब्रीफ के तकनीकी पक्ष से पूरी तरह से वाकिफ हों। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उनमें वह स्वनामधन्यता नहीं हो जिसके कारण वे सूचनाओं को पार्टी प्रमुख तक पहुंचाने में अपना हेठी समझते हों।
इच्छा-महात्वाकांक्षा किसमें नहीं होती। जिसमें नहीं होता है वह रचनाहीन व्यक्ति होता है। राजनीति में आने से पहले अरविंद केजरीवाल एक दशक से अधिक समय तक आईआरएस थे। प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते उन्होंने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया जिसका कि जिक्र यहां पर किया जाए। एक दूसरे आम प्रशासनिक ऑफिसर की तरह वह भी थे। पर जो बातें गौर करने लायक है वह है कि इस दौरान उन्होंने ऐसा भी कुछ नहीं किया जो उनपर कीचड़ उछले। उनकी ईमानदारी पर बट्टा लगे। पर उन्होंने एक बहादुरी भरा कदम तो उठाया ही। राजनीति में आने का। जन आंदोलन से जुडऩे का। उसमें वह धीरे-धीरे सफल भी हुए और अपनी ऐसी पर्सनैलिटी बनाई कि कम-से-कम दिल्ली की जनता के तो दीवाने बन ही गए। साथ में एक सुचिता भरी राजनीति का वादा भी किया है जो अब तक तो कायम है। आगे का नहीं जानता। सिरफुटौव्वल के खेल में भी अभी तक किसी ने यह नहीं कहा है कि आप के फलां नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। या फिर जनता के पैसा का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं।
आम आदमी के लिए अभी सबसे अहम यही हो सकता है कि वह लंबे समय तक बयानबाजी करने वाली पार्टी नहीं बने। या सिर्फ बयानबाजी करने वाली पार्टी बनकर न रह जाए। मीडिया को लेकर अतिरिक्त आग्रह को कम करने की जरूरत है। पार्टी को ठोस रूप में यह बराबर बताते रहना चाहिए कि दिल्ली की जनता से जो उन्होंने वादा किया था उसमें क्या-क्या पूरा हो गया है और किस पर काम चल रहा है। यह इसलिए भी जरूरी है कि लोगों तक सिर्फ एकतरफा संदेश नहीं जाना चाहिए।
(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
हमज़बान पर पढ़ें भवप्रीतानंद को
कहां गए वे दिन। फोटो : रायटर (गूगल महाराज का सौजन्य ) |
भवप्रीतानंद की क़लम से
कुछ विद्वान लोग जब आपस में ऐसे लड़ते हैं कि बच्चों की लड़ाई फीकी लगने लगे, तो सिर्फ और सिर्फ यही कहने का मन करता है कि आप लड़े, नो प्राब्लम। पर दिल्ली की जनता ने जिस ध्येय से आपको ऐतिहासिक जनमत विधानसभा में दिया है उसका सम्मान कीजिए। अभी के झिझिर कोना, झिझिर कोना, कोन कोना, के खेल में उस ईमानदारी को मत तिरोहित होने दीजिए जिसके लिए अरविंद केजरीवाल आपको ६७ सीटें दी गई हैं।जो वर्चस्व की लड़ाई आम आदमी पार्टी में जारी है उसमें सबके के निजी हित जुड़े हुए हैं। बिना किसी लाग लपेट के कहा जाए तो अभी आम आदमी पार्टी के असली हीरो अरविंद केजरीवाल ही हैं। उन्हीं को दिल्ली की जनता ने वोट दिया है। तमाम भीतरी विरोधियों की साजिश के बाद भी, जिसका उन्होंने २८ मार्च को पार्टी की हंगामेदार सभा में जिक्र किया था, दिल्ली की जनता ने उन्हें हीरो बनाया था। इस बहुमत को देखकर उनके मुंह से भी निकला था अरे बाप रे बाप। अभी यह देखना उतना अहम नहीं है कि अरविंद केजरीवाल सत्ता लोलुप हैं कि नहीं, देखना यह जरूरी है कि जो लेटर बम, जो स्ंिटग, जो नितांत निजी एसएमएस को मीडिया के सामने रख रहे हैं उनकी मंशा क्या है। अरविंद केजरीवाल की महात्वाकांक्षा को जानना इसलिए गौण विषय-वस्तु की श्रेणी में आता है कि उन्हें तो जनता ने हीरो बनाया है। जनता अपने हीरो को जहां बिठाना चाहती थी बिठा दिया। इसके लिए उन्हें पांच वर्ष का समय भी दिया है। आज अगर अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री का पद छोड़कर पार्टी के किसी दूसरे नेता को यह जिम्मेदारी दे देते हैं तो उनकी छवि पार्टी में तो निखर जाएगी पर जनता इस स्टेप को कितना पचा पाएगी यह कहना मुश्किल है।
गौर करें तो पार्टी अभी अनकमांड की स्थिति में है। इसमें डेकोरम का घोर अभाव है। इसमें जितने भी उच्च पदों पर लोग हैं वह सुबह उठते ही मीडिया की माइक चाहते हैं और सोने से पहले मीडिया को ब्रीफ कर सोना चाहते हैं। योगेंद्र यादव या फिर प्रशांत भूषण या फिर और और महानुभाव को जो पद आम आदमी पार्टी में दिया गया था, उसके साथ उन्होंने कभी न्याय नहीं किया। उन्हें कोई सूचना मिलती तो वह पार्टी के भीतर बहस के बजाय मीडिया को बताना उचित समझते हैं। मीडिया से ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जी को पता लगत पाता है कि पार्टी में कितना कुछ घट चुका है। अपने यहां, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उस टीनएज के दौर से गुजर रही है जहां वह अपवाह और हकीकत में फर्क नहीं कर पाती है। अपवाह को भी हकीकत की श्रेणी में लेकर शाम सात से लेकर नौ तक सभी चैनल विद्वानों के कोलाहलों से त्रस्त रहते हंै। और आप के स्वनामधन्य नेतागणों की मीडिया को लेकर लार टपकाने वाली प्रवृति अभी कम नहीं हुई है। इसका कारण एक यह भी हो सकता है कि इसमें कई विद्वान ऐसे हैं जो वर्षों वर्ष तक मीडिया में लिखते-दिखते रहे हैं। उन्हें लगता है कि पार्टी की जरूरी सूचना पार्टी के अंदर देने के बजाय पहले मीडिया को पकड़ा दिया जाए। फिर हो हल्ला शुरू। मार्च का करीब आधा पखवाड़ा आम आदमी पार्टी के मूर्खताभरे बयानों से त्रस्त रहा है। उन्होंने ऐसा कहा, तो फलाने ने वैसा किया।
पार्टी के मुखिया होने के नाते केजरीवाल को इन सब चीजों पर कड़ाई से स्टेप उठाने के दिन आ गए है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाते हैं तो चीजें उनके हाथ से निकल जाएंगी। हालांकि उन्होंने २९ मार्च को आपात बैठक बुलाकर अनुशासन समिति और लोकपाल कमेटी को लगभग पूरी तरह से बदल दिया है। पर ध्यान इसपर भी देना चाहिए कि जिन्हें यह जिम्मेदारी दी गई है वह पार्टी के दायित्वों और मीडिया ब्रीफ के तकनीकी पक्ष से पूरी तरह से वाकिफ हों। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उनमें वह स्वनामधन्यता नहीं हो जिसके कारण वे सूचनाओं को पार्टी प्रमुख तक पहुंचाने में अपना हेठी समझते हों।
इच्छा-महात्वाकांक्षा किसमें नहीं होती। जिसमें नहीं होता है वह रचनाहीन व्यक्ति होता है। राजनीति में आने से पहले अरविंद केजरीवाल एक दशक से अधिक समय तक आईआरएस थे। प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते उन्होंने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया जिसका कि जिक्र यहां पर किया जाए। एक दूसरे आम प्रशासनिक ऑफिसर की तरह वह भी थे। पर जो बातें गौर करने लायक है वह है कि इस दौरान उन्होंने ऐसा भी कुछ नहीं किया जो उनपर कीचड़ उछले। उनकी ईमानदारी पर बट्टा लगे। पर उन्होंने एक बहादुरी भरा कदम तो उठाया ही। राजनीति में आने का। जन आंदोलन से जुडऩे का। उसमें वह धीरे-धीरे सफल भी हुए और अपनी ऐसी पर्सनैलिटी बनाई कि कम-से-कम दिल्ली की जनता के तो दीवाने बन ही गए। साथ में एक सुचिता भरी राजनीति का वादा भी किया है जो अब तक तो कायम है। आगे का नहीं जानता। सिरफुटौव्वल के खेल में भी अभी तक किसी ने यह नहीं कहा है कि आप के फलां नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। या फिर जनता के पैसा का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं।
आम आदमी के लिए अभी सबसे अहम यही हो सकता है कि वह लंबे समय तक बयानबाजी करने वाली पार्टी नहीं बने। या सिर्फ बयानबाजी करने वाली पार्टी बनकर न रह जाए। मीडिया को लेकर अतिरिक्त आग्रह को कम करने की जरूरत है। पार्टी को ठोस रूप में यह बराबर बताते रहना चाहिए कि दिल्ली की जनता से जो उन्होंने वादा किया था उसमें क्या-क्या पूरा हो गया है और किस पर काम चल रहा है। यह इसलिए भी जरूरी है कि लोगों तक सिर्फ एकतरफा संदेश नहीं जाना चाहिए।
एक पखवाड़े से जारी इस खेल का सबसे दुखद पहलू यह है कि पार्टी से मेधा पाटेकर ने नाता तोड़ लिया। मेधा पाटेकर ने गत लोकसभा चुनाव लड़ा था और उन्होंने बहुत अच्छे मत प्राप्त किए थे। भारतीय राजनीति को अभी ऐसे-ऐसे प्रतिभावान लोगों की आवश्यकता है जिनके पास कुछ करने का विजन है। कुछ करने की ईमानदार कोशिश उनमें बची है। मेधा पाटेकर को थोड़ा धैय रखना चाहिए था। वर्चस्व की इस लड़ाई को चुपचाप देखते रहने देना चाहिए था। राजनीति में जो चीज मीडिया में खूब चर्चा का विषय बनती है, इतिहास के कई प्रमाण गवाह हैं, वक्त के साथ उनके साथ कोई नहीं रहता है। ताजा प्रमाण बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी का है। इसलिए मेधा पाटेकर को धैर्य रखना चाहिए था। अरविंद केजरीवाल चाहें तो उन्हें मनाकर वापस ला सकते हैं। इसके लिए दरियादिली और बड़कपन दिखाने की जरूरत है। क्योंकि मेधा पाटेकर की कार्य क्षमता और उनकी दूर दृष्टि का इस्तेमाल व्यापक हित में किया जा सकता है।शुरू-शुरू में केजरीवाल भी खूब मीडिया फ्रेंडली थे। दूसरी बार सत्ता में आने के बाद उन्हें समझ में आने लगा कि क्या कहना सही होगा और क्या कहने का संदेश गलत जाएगा। इसलिए दूसरी बार शपथ लेने के बाद उन्होंने मीडिया के बचकाने स्वरूप का जिक्र करते हुए चुटकी भी ली थी। आप को भी अपने बचकाने स्वरूप की छवि को तोडऩा होगा। विद्वान और पढ़ेलिखे लोग राजनीति में जरूर आएं, यह समय-समाज की मांग है। पर राजनीति का जो शास्त्र होता है वह भी तरीके से ओढ़ें, यह नितांत जरूरी होता है।
(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
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- अल्लामा जमील मज़हरी