बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

बिमल राय का काबुलीवाला















सैयद एस.तौहीद की क़लम से
काबुलीवाले  के पात्र से परिचित होना एक नवीन अनुभव विकसित करता है। काबुली जैसे तिजारतगुज़ारों के ज़रिये  मानवीय रिश्तों को दिखाने का ख़ूबसूरत अंदाज़ फ़िल्म में था। तिजारत के वास्ते ख़ान काबुल से हिन्दुस्तान चला आया. था। उसे इसका इल्म था कि हिन्दुस्तान में तिजारत के ज़्यादा  अवसर थे। घर-परिवार ख़ास कर प्यारी संतान से दूर चला आया था। नई मंज़िलें उसे बुला रही थी। काबुलीवाले के हालात में तिजारत करने वाले ख़ानाबदॊश दूसरे लोगों की तक़दीर भी अनुभव की जा सकती है। ज़िन्दगी फ़लसफ़ों से हो ना मेल खाती हो,  लेकिन सिर्फ़  फ़लसफ़ों के सहारे चलती नहीं। व्यापार के लिए हमे अक्सर अपनों की  तरफ़ से  दिल कठोर करना होता है. या यूं कह लें कि रोज़गार  व अर्थ पाने के लिये लिए समझौते करने पड़ती हैं. घर से निकल आने के बाद बडे लोगों से ज़्यादा वहां छूटे मासुम बच्चों को लेकर दिल को तकलीफ़ होती है. वतन से परदेस चले आए काबुली को प्यारी मिनी में अपनी बिटिया अमीना का चेहरा  नज़र आता था. मिनी को देख अमीना की याद आती थी.

विघटन पहले मज़हब से नहीं जोड़े जाते थे
दुनिया की खराबियों से अलग काबुलीवाला एक ज़िम्मेदार ज़िंदगी गुज़ारनेवाला  ख़ानाबदॊश फेरीवाला था। वतन से दूर एक दूसरे  वतन हिन्दुस्तान को अपना वतन बना लेता है। बोली व काम में खरा काबुली गलत कामों से सख्त परहेज़ करने वाला  चरित्र था। उस समय की फिल्मों का मुसलमान पात्र आतंकी या सरगना गतिविधियों में संलिप्त नहीं  हुआ करता था। पोजिटिव बातों वाले  किरदार समाज में परस्पर विश्वास बरक़रार रखा करते थे. इस वजह से हीरो अक्सर पाप का अंत करने वाले मसीहा के किरदार में नज़र आए. विघटन की ताकतों को जाति अथवा मज़हब  से नकारात्मकरूप  से जोडने का काम नहीं था। वो अत्यंत  हिंसक  व स्वार्थ का देवता नही होता था. खलनायक का हृदय परिवर्तन भी  रखा जाता था. समाज को जोड़ने  वाली कथाओं  को लोग पसंद भी ज्यादा  करते.

परदेस का दर्द भी अपना सा लगे
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की यह कहानी मानचित्र की दूरियों को पाटने में कामयाब थी। एक दूसरे को लेकर नकारात्मक पूर्वाग्रहों  को ध्वस्त करने का काम भी किया था. काबुलीवाला सरीखा पात्र लेखक को हिन्दुस्तान में कहीं जरूर मिल जाता…लेकिन अफगानिस्तान के काबुल जाना लेखक की दूरदर्शिता व नयी सोंच को इंगित करता है। यह मिनी व काबुलीवाले के साथ हिन्दुस्तान-अफगानिस्तान  या यूं कह लें कि  वतन एवम  परदेस  को जोडने की भी कहानी थी। प्रेम एवम दुआओं की डोर सरहद को धूमिल कर आदमी को आदमी के क़रीब ले आती हैं. मिनी एवम उसके घर वालों  से काबुली का महज व्यापारी  नाता नहीँ था,बल्कि परिवार का रिश्ता था.जिस बच्ची का बचपन काबुली को  आंखो से प्यारा रहा..बरसो बाद उसे सुखी जीवन की दुआएं भी देने आया, जिस तरह अपनी अमीना को दिया होगा.

 
काबुली को हिन्दुस्तान में अपने परिवार की तरह एक परिवार मिल गया…मिनी की शक्ल में अमीना मिली। प्यारा सा रिश्ता वक्त के इम्तेहान को पार कर गया…जेल से रिहा होकर काबुली मिनी व उसके परिवार के पास जाता है। बरसों बाद भी उसे वही डोर वहां खीच लाती है। कहने को काबुली मिनी का सगा बाप नहीं था… लेकिन उसमें मिनी से कुछ वैसा ही रिश्ता नजर आया। काबुली (बलराज साहनी) अपनी बिटिया अमीना (बेबी फरीदा) के साथ काबुल में रहता है । वह तिजारत से घर चलाता है। लेकिन आर्थिक हालात दुरूस्त नहीं, जमीन और मकान हांथ से फिसल कर दूसरों की जागीर हो गए हैं । कर्ज के बोझ से निजात पाना फिलवक्त बहुत जरूरी हो गया है। क्योंकि कर्ज वक्त पर अदा ना होने से जमीन व मकान देनदारों के पास चले गए हैं। हालात को देखते हुए खान तिजारत के लिए हिन्दुस्तान जाने का मन बनाता है। परदेश में अपने वतन से बेहतर अवसर हैं, वहां आमदनी ज्यादा है। अमीना भी अब्बा के साथ जाने की जिद कर रही है। लेकिन खानाबदोश  इस सफर पर वह बच्चे को साथ  ना ले जाने के लिए मजबूर है.ज़िम्मेदारी का भी उसूल है कि बड़े अपने बच्चों को वक्त की ठोकरो से महफूज़ रखे.जल्द ही वापस लौटने के वायदे के साथ वह परदेश रवाना हो जाता है। अमीना को बुआ के जिम्मे कर वतन छोडकर चला आया। यहां तिजारत के लिए ऊनी कपडे और मेवे लेकर आया है।यहां वह रोजगार में लगा है ।
हिन्दुस्तान के शहर (कलकत्ता) को रोजगार का ठिकाना बनाए हुए है। इसी शहर में उसकी मुलाकात कहानी के अन्य पात्रों से होती है। सुत्रधार मिनी के पिता, मिनी की मां तथा भोला कथा को आधार दे रहे हैं । इस संवेदनशील पटकथा (विशराम बेडेकर व एस खलील) को पूर्णता प्रदान करने के लिए बेहतरीन गीतों को जगह दी गई। मिनी में काबुली अपनी बिटिया अमीना का अक्स देखता था। मिनी से उसका नाता रवीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी कथा मे भी मुख्य आकर्षण था, फिल्म रूपांतरण में भी उसे कायम रखा गया । निर्देशक हेमेन गुप्ता व गुलजार (मुख्य सहायक) विमल राय (निर्माता) की उम्मीदों पर खरे उतरे थे । दर्शकों से भी सराहना मिली. अब्दुल जब कभी फेरी लगाता हुआ इस ओर आता मिनी ‘काबुलीवाला,काबुलीवाला’ पुकारती बाहर की ओर दौड पडती। मिनी को अपनी बिटिया मानने लगा था,बादाम-किसमिस-मेवे दिया करता । पांच साल की मिनी व चालीस बरस के काबुली की दोस्ती हर दिन के साथ ममत्व व स्नेह की मर्मस्पर्शी मिसाल बन गई । काबुली के प्रति मिनी की अभिलाषा भी देखने लायक थी। कथा के एक प्रसंग में काबुली के ना आने पर वह उसे मिठाई देने बाहर निकल जाती है । काबुली से मिलने बाहर निकली मिनी शहर की अनजान राहों में भटक कर गुम हो गई । घर के लोग मिनी के अचानक गुम हो जाने पर बेहद परेशान हैं ।

अए मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान
बाबूजी व भोला उसकी तालाश में इधर-उधर भटक रहे हैं। वाकये के बारे में जानकर काबुली भी बच्ची का पता लगाने दूर तक निकल जाता है । मिनी उसे एक कंपाऊंड के रैन-बसेरा के पास बेखबर पडी मिली। उधर भोला (असित सेन) भी बच्ची को ढूंढते हुए उस ओर आया। मिनी को काबुली के कब्जे में देखकर उसे ही अपहरणकर्त्ता मानकर शोर करके आस-पास के लोगों को इकटठा कर लेता है । बच्ची को अगवा करने के आरोप में भीड अपना आपा खो ‘मसीहा’ को पीटने लगी। वहां पहुंचे मिनी के पिता बीच-बचाव को आए, लेकिन अब तक भीड ने काबुली को पीट कर घायल कर दिया था। काबुली का पक्ष जानकर मिनी के पिता भोला की करतूत पर बहुत लज्जित हैं । मायूस दिल लेकर काबुली वहां से चला जाता है। इधर बरसात से भींग कर मिनी को तेज बुखार आ जाता है। मिनी की तबीयत को लेकर वह अपने परवरदिगार से दुआ करता है । जिस रात बच्ची को तेज बुखार था,उसके ठीक हो जाने तक वहीं मिनी के अहाते में रूक कर रात भर इबादत करता रहा। मौला के दरबार में दुआएं कबूल होने साथ मिनी के हालत में सुधार हुआ। एक बार फिर से बच्ची को हंसता मुस्कुराता देखने बाद ही इस बंदानवाज़ को तसल्ली हुई। इस पूरे घटनाक्रम ने बता दिया कि काबुली मिनी में अपनी बिटिया ‘अमीना’ की छाया देखा करता था। उसके दिल में आज जज्बात का समुद्र सा है,पीछे छूटे वतन को स्मरण करते हुए उसका दर्द कुछ यूं बयान हुआ ‘अए मेरे प्यारे वतन,अए मेरे बिछडे चमन तुझ पे दिल कुर्बान। रुपांतरित कथा में इस रचनात्मक मोड के लिए फिल्म की प्रशंसा करने का मन होगा।

   
‘ससुर को मारता,पर क्या करूं ,हाथ बंधे हुए हैं’
अपने वतन को लौटने की इच्छा काबुली में बलवती हो चली है, जगह-जगह घूम कर माल पर बकाया रकम को पाने जा रहा है। इसी क्रम में वह रामभरोसे से उधार माल लेकर उसे पहचानने से मुकर गया। उसने रामपुरी चादरें खरीदने में बेईमानी की थी ,चादर खरीद कर रूपए देने से पलट गया । एक आदर्शवादी पठान भरोसे का कत्ल सहन न कर सका। दोनों में बात बढ गई। क्रोध में रामभरोसे पर छुरा चला दिया,जिससे वह मारा गया। हत्या के इल्जाम में पुलिस काबुली को हिरासत में ले जाती है। मुहल्ले की जिन गलियों में बेखौफ फेरी लगाया करता था,मुजरिम की शक्ल में जा रहा है । इतने में ‘काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला’ पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई । अब्दुल का चेहरा पल भर के लिए खुशी से झूम उठा। उसके कांधे पर आज मेवों की झोली नहीं थी। उसे इस हालत में देखकर मिनी बरबस पूछ बैठी ‘ससुराल जाओगे? सर आन पड़ी मुश्किल घड़ी पर  पर्दा डालकर उसने मुस्कुराते हुए कहा, ‘हां वहीं तो जा रहा हूं’ । काबुली समझ गया कि उसका यह जवाब मिनी के मुखडे पर खुशी ला नहीं सका था । तब उसने बंधे हुए हांथ दिखाकर कहा ‘ससुर को मारता,पर क्या करूं ,हांथ बंधे हुए हैं’ । छूरा चलाने के जुर्म में ‘काबुलीवाले’ को लम्बी सजा होगी।

  
सत्यता  व ईमानदारी देखकर वकील ने पीटा माथा 
 बचाव पक्ष के लोग काबुली के लिए वकील करते हैं, वकील उनसे अदालत में रटा-रटाया बयान देने को कहता है। ऐसा करने पर उसे क़ैद से बचाया जा सकता था । लेकिन अदालत में घटनाक्रम को हू-ब-हू कह दिया काबुली ने। उसकी सादगी, सत्यता  व ईमानदारी देखकर बचाव का वकील माथा पीट लेता है । आज की दुनिया में खुद को ज्यादा ईमानदार  व सच्चा बता  कर मुसीबत मोल  नहीँ ली जाती.काबुली की सच्चाई को देखत हुए सुनवाई में उसे दस बरस की ही सजा मिली । बहरहाल क़ैद हो जाने से बिछ्डे रिश्तों के पास जाने की उत्कट इच्छा दिल में ही रह गई। अब अमीना व मिनी बिटिया के पास जेल से रिहा होने बाद ही जा सकता था । यह पूरी घटना कथा में नाटकीय मोड लाती है । उजाले दिनों के इंतजार में काबुली अंधेरों के दौर से गुजर रहा था।

 
मिनी ने अमीना के लिए दिए तोहफ़े
रिहा होने बाद पुराने लोगों ढूंढते हुए वह कलकत्ता के उसी मुहल्ले में पहुंचा,जहां कभी मिनी का घर हुआ करता था। वहीं  जहां  कभी  वो फेरी लगाने  अक्सर जाया करता था. उधर से गुजरते हुए उस घर पर उसकी नजर ठहर गई । आज यहां चहल-पहल का माहौल है,वह दरवाजे के पास चला आया, जहां बावूजी इंतजाम में लगे हुए हैं। बदले हुए हुलीए के कारण उसे एकदम पहचान पाना थोडा मुश्किल था,पर समझ आ गया कि यह आदमी वही ‘खान’ है। काबुली मिनी को देखने की इच्छा प्रकट करता है, जिस पर बावूजी यह कहते हुए ‘आज नहीं! बहुत काम है। बाद में आना’ उसे जाने को कह देते हैं, लेकिन अगले ही पल उन्हें काबुली के बुझे दिल का ख्याल हुआ। बाहर आने के लिए मिनी को आवाज देते हैं। उसकी आंखों में मिनी की वात्सल्य छाया अब भी शेष थी,जैसे आज भी उसी बच्ची को देखना चाहता था । आज भी 'काबुलीवाले...काबुलीवाले' पुकारते हुए मिनी दौड़ी बाहर आएगी. सयानी मिनी का आज उसका ब्याह  होने वाला है, काबुलीवाला ने उसे खुशहाली की दुआएं दी । बावूजी काबुली (खान) को अपने वतन काबुल भेजने के लिए रूपए का इंतजाम करते हैं।  मिनी के विवाह के मद से रूपए निकाल कर उसे देने का निर्णय लिया था। मिनी बावूजी के इस कदम से बहुत संतुष्ट है, वह कहती है ‘इस रूपए से चाचा अपनी बिटिया के पास लौट सकें, मेरे लिए इससे बडा आशीर्वाद क्या होगा? रूपए के साथ सौगात के रूप में वह बहन अमीना के लिए एक तोहफा भी देती है । पहले तो अब्दुल यह सब लेने को राजी नहीं था। लेकिन ‘प्यार में एहसान नहीं होता,प्यार में सिर्फ प्यार होता है। यह एक पिता का दूसरे पिता के लिए प्यार है’ कहते हुए बावूजी उसे सहायता स्वीकार करने को कहते हैं । खुशी के आंसुओं में काबुलीवाला अपने वतन काबुल रवाना हो जाता है। यात्रा के  सांकेतिक दृश्य के पार्श्व में ‘अए मेरे प्यारे वतन, अए मेरे बिछडे चमन’ की पंक्तियों में फिल्म का मार्मिक समापन हुआ ।

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(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 2 अक्टूबर 1983 को पटना (बिहार) में
शिक्षा : जामिया मिल्लिया इस्लामिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म समीक्षाएं
संप्रति :  सिनेमा व संस्कृति विशेषकर हिंदी फिल्मों पर लेखन।
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

सैयद एस. तौहीद को  हमज़बान पर पढ़ें

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- अल्लामा जमील मज़हरी

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