नई पौध के तहत 5 कविताएं
नाज़िश अंसारी की क़लम से
आम आदमी की आम सी कविता
आंखें छत से बतियाती हैं देर तक
बनाती हैं स्केचेज़
कच्चे पक्के से
झूठे सच्चे से
किसी स्केच में तुम
सिमटे हो नींद की गोद में
और मैं सिरहाने सिर टिकाकर
देखती हूं तुम्हें एकटक
कभी उसी मासूमियत पर
टपक जाती है थोडी गीली हरारत
तुम्हारे गालों पर
कभी मेरे बचपने में चढ़ जाती एक कहानी
शुरुआत में ही जिसकी
मर जाते 'राजा-रानी '
उफ्फ्फफ़ ... ये ख़्वाब भी ना !
अपनी औक़ात नहीं देखते
ये नहीं समझते
आम सी ज़िंदगी में ख़्वाब की जगह नहीं होती
काव्य की जगह नहीं होती
स्केचेज़ में रंग भर नहीं पाते
दरअसल वे बन ही नहीं पाते
घड़ी की ठकाठक
हथौङे सी लगती है उस वक़्त
याद दिलाती है डेली रूटीन
जिसमें राशन है, ईंधन है
टिफिन, ब्रेकफास्ट, लंच है
बीमा पालिसी, बैंक, लोन
अम्मा बाऊ जीकी दवाओ का वक़्त है
सत्तर तरीक़े के बिल
पचहत्तर तरीक़े की ज़रूरतें
और बैलेंस निल है
यही सच आम सी ज़िंदगी का
ढीठ सा
कर्कश सा
और कर्कश हैं खर्राटे भी तुम्हारे
बिखरा देते हैं रंग सारे
आंखें फ़िर भी बनाती हैं स्केचेज़
कच्चे पक्के से
झूठे सच्चे से
आम लोगों की आंखें ज़िद्दी होती हैं
दिल कमबख़्त
और ज़िंदगी बेहया
क्या कीजियेगा ! !
___________________
सौतन चुप्पी
इससे पहले कि
फ़र्श पर रेंगता सन्नाटा
डंक मार दे आंखों में हमारी
हम सच में हो जाएं पत्थर के
काल्पनिक कहानियों की तरह
और ये डायन बेरहम ख़ामोशी
कतर डाले महीन-महीन
हमारे बीच का रेशम
और खुल जाए
हर सीवन हर बखिया
उस लफ़्ज़ की
जिसे हम दोनों ने
एक ही वक़्त में दोहराया था
तीन दफ़ा...
बस भी करो
मुस्कुरा दो ना ज़रा !
कि जान छूटे इस सौतन चुप्पी से !!
______________
तीसरी आंख
तुमने बांट लिये थे सपने
अपनी दोनों काली पुतलियों में
एक बडे भाई के नाम किया
एक पे छोटे का हक़ था
मैं कहीं नहीं थी...कहीं भी नहीं
क्युंकि तुम्हें "तीसरी आंख" नहीं थी
फ़िर भी जाने
किस आंख से देखते रहे तुम
उम्र से आगे
वक़्त से पहले
बढता हुआ मेरा बेढब शरीर
और फ़िर थकने लगी
तुम्हारी ज़िम्मेदार पीठ
मेरे स्त्रीलिंग के बोझ से
रोज़ टांगने लगे नींद तुम
ज़ीरो वाट के मुर्दा उजाले में
वो जलता रहा...
तुम्हारी आंखें टहलती रहीं
तलाशती रहीं कुछ
"शरीफ़", "इज़ज़तदार", "ख़ानदानी " सा कुछ
तुम घर के बाहर थे
फलाने श्री कभी ढमाके जी
तुम हमेशा घर के बाहर थे
कभी घर के भीतर देखते
मेरे भीतर देखते..
कभी पूछते तो बताती
अब नहीं है ज़रूरत
फ़िर से तुम्हारे शुक्राणुओं को
गर्भ जैसी कोठरी की
उग आये हैं उनके हाथ-पांव
उग आया है उनसे बेढंगा शरीर
और अधपके विचार भी
तुम पूछते तो बताती
तुम्हारी उंगलियों के बाद
मैं नहीं चाहती कोई हथेली
जो रौंदती रहे मेरे सपने
अन्धेरे किसी कमरे में
मैं नहीं चाहती
संरक्षण के भुलावे में मिला बंधन
जहां बेडियों के नाम पर हो पाजेब
हथकडियों की तरह कंगन
देखते तो दिख जाता तुम्हें
बिना दो नंबर चश्मे के भी कि
मैं मिटा देना चाहती हूं सारी थकान
तुम्हारी अकडी पीठ की
और उठा लेना चाहती हूं
अपने शरीर का बोझ..
तुम्हारी सारी ज़िम्मेदारिया..
सारी चिंताएं..
अपने पैरों पर
कभी तो मेरे भीतर देखते
ज़रा सी फ़ुर्सत निकालकर
"सामाजिक प्राणी" की तरह नहीं
खालिस पिता बनकर
ज़रा सी मां बनकर....
___________________________
मेरा गला दबा दो मां !
एक मध्यवर्गीय परिवार
जहां आमदनी या हैसियत से नहीं
सपने तय होते हैं
कुछ फटी-पुरानी परंपराओं से
कुछ चलताऊ पूर्वधारणाओं से
और फ़िर बंट जाते हैं लिंगों में
दो आंखों की दो पुतलियों में
तुम्हारी पुतली के एक कोने में
मेरा भी हिस्सा होगा
बंट गया होगा वो भी मगर
किसी " सुशील वर" के नाम पर
मैं जानती हूं मुझे जाना है
जीना है उस वर के साथ
मुसकुराना है और मुस्कुराते ही रहना है
ताकि तुम मेरी मौन आंखों में
उसी "वर" को सुशील पा सको
और सो सको रात में सुख से.. चिंता रहित...
यहाँ मेरे जिस्म के रेशे भी उधड़ते रहें
और बिखरते रहें फर्श पर
कुछ पागल सपनें ...
कुछ लुच्चे अरमान...
कुछ लफ़ंगी ख्वाहिशे...
और डसा जाता रहे शरीर मेरा
रात भर..
मैं मान लूं दिल कुछ नहीं
एक पम्प के सिवाय
बंद कर लूं आंखें और
सी लूं अपने होंठ
कि तेज़ दर्द में भी नीले शरीर को
हरकत की इजाज़त नहीं
याद आ रही है तुम्हारी सांत्वना
जिसमे एक राजकुमार है
और मैं एक फूल...
याद आ रहा है तुम्हारी कमर का दर्द
तुम्हारी बढी हुई शुगर
याद आ रहा है रंग
बैंक की पासबुक का
पिता के माथे की शिकन
और करवट बदलती पीठ
सब याद आ रहा है सिवाय उस दवा के नाम के
जिससे नींद आती है
इससे पहले कि
बेसाख़्ता एक चीख़ से
खुल जाएं सीवन मेरे होंठ के
अपनी आवाज़ का हाथ पकड़ा दो ना !
कि आज़ाद हो जाऊँ मैं
अन्धेरे कमरे की धीमी रोशनी से
धीमी रोशनी के काले दलदल से
जिस महल में तुम चुन गई हो मुझे
उसे तुड़वा दो ना !
तुम निभाओ आदर्श पत्नी का धर्म
सीती रहो फटी परंपरा
उससे पहले मगर
"मेरा गला दबा दो मां !! "
___________________________
अल्लाह क़सम ! हम नहीं कहेंगे किसी
अल्लाह क़सम
हम नहीं कहेंगे
नहीं कहेंगे किसी से
कितनी चालाकी से नोच लिये थे आपने
हमारी पानी वाली आंखों से
डूबते-उतराते उजले सतरंगी सपने
फ़िर कितने मीठे तरीक़ों से
कुरेद कर खुरचा उन्हें
उन्हीं पारम्परिक सामाजिक नाखूनो से
आपने काट दीये थे हमारे डैने
"मुझे चांद चाहिये" कहने से पहले
हमने देखना चाहा आकाश
आपने दिखा दी मंडराती हुई चीलें
फ़िर घुसेड दिया
घर के भीतर वाले सबसे अंधेरे कमरे में
जो सङांध मारती आज़ादी की क़ब्र पे खड़ा था
हम नहीं कहेंगे किसी से
कब कितनी
रिश्तेदारी की झक्क सफ़ेद पोशाकों में
विशालकाय मर्दानी आकृतियाँ
कमरे में आती रही
हमें पुचकारती रहीं
यहां-वहां सहलाती रहीं
हम नहीं बताएंगे किसी को
कि चौराहे का पान वाला
और चाय वाला भी
रोज़ आंखों से चुन्नी सरकाकर
झांक लेता है भीतर तलक
और नाप लेता है मन ही मन
जिस्म की हर उठान गिरान
हम नहीं पूछेंगे किसी से
खुदा से भी नहीं
शुचिता की सब परिभाषाएं
पवित्रता के सारे प्रमाण पत्र
सिर्फ हमारे ही शरीर पर आकर क्यों रुके रहें
क्यों हमारे विचार कूडे की तरह dustbin में फेंके गये
और जिस्मों की सब गुलाबी मुलामियत
और मासूमियत
क्यों अंधेरे नीले कमरो में बेचे गये
मगर हम नहीं पूछेंगे किसी से
नहीं कहेंगे किसी से
कि यहां बोलने पर तेज़ाब है
सर उठाचलने पर बलात्कार
फ़िर भी हमारी हिम्मत (बेशर्मी ?) देखिये
जियेंगे हम सौ-सौ बार
और जिला ले जाएंगे अपने बेहया सपने
पूरे सम्मान के साथ पूरा करके उन्हें
दे देंगे सारा श्रेय आपको
___________________________
(रचनाकार-परिचय :
जन्म: पहली जून 1987 को अवध में
शिक्षा: लाल बहादुर शास्त्री कॉलेज, गोंडा से मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर
सृजन : कुछ पोर्टल पर कविताएं और लेख
संप्रति : लखनऊ में रहकर स्वतंत्र लेखन
संपर्क : nazish.ansari2011@gmail.com )
नाज़िश अंसारी की क़लम से
आम आदमी की आम सी कविता
आंखें छत से बतियाती हैं देर तक
बनाती हैं स्केचेज़
कच्चे पक्के से
झूठे सच्चे से
किसी स्केच में तुम
सिमटे हो नींद की गोद में
और मैं सिरहाने सिर टिकाकर
देखती हूं तुम्हें एकटक
कभी उसी मासूमियत पर
टपक जाती है थोडी गीली हरारत
तुम्हारे गालों पर
कभी मेरे बचपने में चढ़ जाती एक कहानी
शुरुआत में ही जिसकी
मर जाते 'राजा-रानी '
उफ्फ्फफ़ ... ये ख़्वाब भी ना !
अपनी औक़ात नहीं देखते
ये नहीं समझते
आम सी ज़िंदगी में ख़्वाब की जगह नहीं होती
काव्य की जगह नहीं होती
स्केचेज़ में रंग भर नहीं पाते
दरअसल वे बन ही नहीं पाते
घड़ी की ठकाठक
हथौङे सी लगती है उस वक़्त
याद दिलाती है डेली रूटीन
जिसमें राशन है, ईंधन है
टिफिन, ब्रेकफास्ट, लंच है
बीमा पालिसी, बैंक, लोन
अम्मा बाऊ जीकी दवाओ का वक़्त है
सत्तर तरीक़े के बिल
पचहत्तर तरीक़े की ज़रूरतें
और बैलेंस निल है
यही सच आम सी ज़िंदगी का
ढीठ सा
कर्कश सा
और कर्कश हैं खर्राटे भी तुम्हारे
बिखरा देते हैं रंग सारे
आंखें फ़िर भी बनाती हैं स्केचेज़
कच्चे पक्के से
झूठे सच्चे से
आम लोगों की आंखें ज़िद्दी होती हैं
दिल कमबख़्त
और ज़िंदगी बेहया
क्या कीजियेगा ! !
___________________
सौतन चुप्पी
इससे पहले कि
फ़र्श पर रेंगता सन्नाटा
डंक मार दे आंखों में हमारी
हम सच में हो जाएं पत्थर के
काल्पनिक कहानियों की तरह
और ये डायन बेरहम ख़ामोशी
कतर डाले महीन-महीन
हमारे बीच का रेशम
और खुल जाए
हर सीवन हर बखिया
उस लफ़्ज़ की
जिसे हम दोनों ने
एक ही वक़्त में दोहराया था
तीन दफ़ा...
बस भी करो
मुस्कुरा दो ना ज़रा !
कि जान छूटे इस सौतन चुप्पी से !!
______________
तीसरी आंख
तुमने बांट लिये थे सपने
अपनी दोनों काली पुतलियों में
एक बडे भाई के नाम किया
एक पे छोटे का हक़ था
मैं कहीं नहीं थी...कहीं भी नहीं
क्युंकि तुम्हें "तीसरी आंख" नहीं थी
फ़िर भी जाने
किस आंख से देखते रहे तुम
उम्र से आगे
वक़्त से पहले
बढता हुआ मेरा बेढब शरीर
और फ़िर थकने लगी
तुम्हारी ज़िम्मेदार पीठ
मेरे स्त्रीलिंग के बोझ से
रोज़ टांगने लगे नींद तुम
ज़ीरो वाट के मुर्दा उजाले में
वो जलता रहा...
तुम्हारी आंखें टहलती रहीं
तलाशती रहीं कुछ
"शरीफ़", "इज़ज़तदार", "ख़ानदानी " सा कुछ
तुम घर के बाहर थे
फलाने श्री कभी ढमाके जी
तुम हमेशा घर के बाहर थे
कभी घर के भीतर देखते
मेरे भीतर देखते..
कभी पूछते तो बताती
अब नहीं है ज़रूरत
फ़िर से तुम्हारे शुक्राणुओं को
गर्भ जैसी कोठरी की
उग आये हैं उनके हाथ-पांव
उग आया है उनसे बेढंगा शरीर
और अधपके विचार भी
तुम पूछते तो बताती
तुम्हारी उंगलियों के बाद
मैं नहीं चाहती कोई हथेली
जो रौंदती रहे मेरे सपने
अन्धेरे किसी कमरे में
मैं नहीं चाहती
संरक्षण के भुलावे में मिला बंधन
जहां बेडियों के नाम पर हो पाजेब
हथकडियों की तरह कंगन
देखते तो दिख जाता तुम्हें
बिना दो नंबर चश्मे के भी कि
मैं मिटा देना चाहती हूं सारी थकान
तुम्हारी अकडी पीठ की
और उठा लेना चाहती हूं
अपने शरीर का बोझ..
तुम्हारी सारी ज़िम्मेदारिया..
सारी चिंताएं..
अपने पैरों पर
कभी तो मेरे भीतर देखते
ज़रा सी फ़ुर्सत निकालकर
"सामाजिक प्राणी" की तरह नहीं
खालिस पिता बनकर
ज़रा सी मां बनकर....
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मेरा गला दबा दो मां !
एक मध्यवर्गीय परिवार
जहां आमदनी या हैसियत से नहीं
सपने तय होते हैं
कुछ फटी-पुरानी परंपराओं से
कुछ चलताऊ पूर्वधारणाओं से
और फ़िर बंट जाते हैं लिंगों में
दो आंखों की दो पुतलियों में
तुम्हारी पुतली के एक कोने में
मेरा भी हिस्सा होगा
बंट गया होगा वो भी मगर
किसी " सुशील वर" के नाम पर
मैं जानती हूं मुझे जाना है
जीना है उस वर के साथ
मुसकुराना है और मुस्कुराते ही रहना है
ताकि तुम मेरी मौन आंखों में
उसी "वर" को सुशील पा सको
और सो सको रात में सुख से.. चिंता रहित...
यहाँ मेरे जिस्म के रेशे भी उधड़ते रहें
और बिखरते रहें फर्श पर
कुछ पागल सपनें ...
कुछ लुच्चे अरमान...
कुछ लफ़ंगी ख्वाहिशे...
और डसा जाता रहे शरीर मेरा
रात भर..
मैं मान लूं दिल कुछ नहीं
एक पम्प के सिवाय
बंद कर लूं आंखें और
सी लूं अपने होंठ
कि तेज़ दर्द में भी नीले शरीर को
हरकत की इजाज़त नहीं
याद आ रही है तुम्हारी सांत्वना
जिसमे एक राजकुमार है
और मैं एक फूल...
याद आ रहा है तुम्हारी कमर का दर्द
तुम्हारी बढी हुई शुगर
याद आ रहा है रंग
बैंक की पासबुक का
पिता के माथे की शिकन
और करवट बदलती पीठ
सब याद आ रहा है सिवाय उस दवा के नाम के
जिससे नींद आती है
इससे पहले कि
बेसाख़्ता एक चीख़ से
खुल जाएं सीवन मेरे होंठ के
अपनी आवाज़ का हाथ पकड़ा दो ना !
कि आज़ाद हो जाऊँ मैं
अन्धेरे कमरे की धीमी रोशनी से
धीमी रोशनी के काले दलदल से
जिस महल में तुम चुन गई हो मुझे
उसे तुड़वा दो ना !
तुम निभाओ आदर्श पत्नी का धर्म
सीती रहो फटी परंपरा
उससे पहले मगर
"मेरा गला दबा दो मां !! "
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अल्लाह क़सम ! हम नहीं कहेंगे किसी
अल्लाह क़सम
हम नहीं कहेंगे
नहीं कहेंगे किसी से
कितनी चालाकी से नोच लिये थे आपने
हमारी पानी वाली आंखों से
डूबते-उतराते उजले सतरंगी सपने
फ़िर कितने मीठे तरीक़ों से
कुरेद कर खुरचा उन्हें
उन्हीं पारम्परिक सामाजिक नाखूनो से
आपने काट दीये थे हमारे डैने
"मुझे चांद चाहिये" कहने से पहले
हमने देखना चाहा आकाश
आपने दिखा दी मंडराती हुई चीलें
फ़िर घुसेड दिया
घर के भीतर वाले सबसे अंधेरे कमरे में
जो सङांध मारती आज़ादी की क़ब्र पे खड़ा था
हम नहीं कहेंगे किसी से
कब कितनी
रिश्तेदारी की झक्क सफ़ेद पोशाकों में
विशालकाय मर्दानी आकृतियाँ
कमरे में आती रही
हमें पुचकारती रहीं
यहां-वहां सहलाती रहीं
हम नहीं बताएंगे किसी को
कि चौराहे का पान वाला
और चाय वाला भी
रोज़ आंखों से चुन्नी सरकाकर
झांक लेता है भीतर तलक
और नाप लेता है मन ही मन
जिस्म की हर उठान गिरान
हम नहीं पूछेंगे किसी से
खुदा से भी नहीं
शुचिता की सब परिभाषाएं
पवित्रता के सारे प्रमाण पत्र
सिर्फ हमारे ही शरीर पर आकर क्यों रुके रहें
क्यों हमारे विचार कूडे की तरह dustbin में फेंके गये
और जिस्मों की सब गुलाबी मुलामियत
और मासूमियत
क्यों अंधेरे नीले कमरो में बेचे गये
मगर हम नहीं पूछेंगे किसी से
नहीं कहेंगे किसी से
कि यहां बोलने पर तेज़ाब है
सर उठाचलने पर बलात्कार
फ़िर भी हमारी हिम्मत (बेशर्मी ?) देखिये
जियेंगे हम सौ-सौ बार
और जिला ले जाएंगे अपने बेहया सपने
पूरे सम्मान के साथ पूरा करके उन्हें
दे देंगे सारा श्रेय आपको
___________________________
(रचनाकार-परिचय :
जन्म: पहली जून 1987 को अवध में
शिक्षा: लाल बहादुर शास्त्री कॉलेज, गोंडा से मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर
सृजन : कुछ पोर्टल पर कविताएं और लेख
संप्रति : लखनऊ में रहकर स्वतंत्र लेखन
संपर्क : nazish.ansari2011@gmail.com )
3 comments: on "अल्लाह क़सम ! अब तो सबसे बोलेंगे "
बेहतरीन कवितायेँ
बहुत उम्दा कविताएं आज के हालत पर, स्त्री की ज़िन्दगी को शब्दों में सुन्दर तरीक़े से पिरोया है। बहुत-बहुत शुक्रिया ख़ूबसूरत कवितायेँ पढ़वाने का और नाज़िशा को उनकी बेहतरीन कविताओं के लिए मुबारकबाद।
माफ कीजिएगा, चीजें वास्तविक अर्थों में कितनी स्थिर होती है वह आपकी कविताओं से जाना जा सकता है। आपकी कविताओं में शब्द बदले हुए हैं। शब्दों का इस्तेमाल कई जगहों पर बहुत-बहुत अच्छे हैं। पर अर्थ। उसमें नयापन का घोर अभाव है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं इस तरह के अर्थ लिए, आज से एक-दो दशक पहले भी मैं कई कविताएं पढ़ चुका हूं। मैं एक कवि से इतनी तो अपेक्षा कर ही सकता हूं कि वह अपने कैनवास पर रंगों का मिश्रण ऐसा करे जो अर्थ के स्तर पर बनी लकीर के आगे का विस्तार हो। सुखद बात इतनी ही है कि आपने अभी शुरुआत की है। और भविष्य में वह चीजें दिखंेगी, जो वाकई ठिठका भी देंगी।
एक टिप्पणी भेजें
रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी