दामिनी यादव की 12 कविताएं
ताल ठोक के
आज फिर तुमने मेरा बलात्कार कर दिया
और मान लिया कि
तुमने मेरा अस्तित्व मिटा दिया है
क्या सचमुच?
तुम्हें लगता है कि तुम्हारी इस हरकत पर
मुझे रोना चाहिए,
पर देखो, देखो
मेरी हंसी है कि
रोके नहीं रुक रही है।
मैं हंस रही हूं व्यवस्था पर
उसी व्यवस्था से उपजी
तुम्हारी मानसिकता पर,
मेरे कपड़ों के चिथड़े उड़ा
तुम्हें क्या लगा
कि तुमने मुझे भी तार-तार कर दिया है!
मैं भी नंगी हो गई हूं!
वैसे, मेरी नग्नता का प्रमाण ही है
तुम्हारी देह, तुम्हारा अस्तित्व
फिर क्या, क्यों देखना चाहते हो
मुझे बार-बार नंगा?
शायद मेरे अस्तित्व की गहनता
तुम्हारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है
इसीलिए उस गहनता को
तुम मेरी योनि में
सरिये, मोमबत्ती, बोतलें डालकर नापना चाहते हो।
फिर भी नाकाम ही होते हो
मुझे समझने में,
तभी क्यों नहीं नाप लिया था तुमने
इस असीमता को
जब तुम खुद इसी योनि से
गुज़रकर जनमने आए थे?
तुम तब भी मुझे
समझ नहीं पाए थे।
अपनी हताशा से उपजी तिलमिलाहट में,
भर देते हो मेरी योनि में मिर्ची पाउडर!
फिर भी नाकामयाब ही होते हो
मुझे जलाने में।
इसी झल्लाहट में
मेरे शरीर को
काटकर, नोंचकर वीभत्स कर देते हो
फिर भी नाकामयाब होते हो
मेरी आत्मा को घायल कर पाने में,
तुम कितने शरीरों को रौंदकर
मेरा अस्तित्व मिटाने चले हो?
मेरा अस्तित्व मेरे शरीर से परे है,
मैं तुमसे मिटी नहीं
मैंने तुमको मिटाया है।
यक़ीन नहीं होता तो देखो,
अब मैं तुमसे छलनी होकर भी
ताल-तलैया, कुआं-बावड़ी
ढूंढ़ने की बजाय
पुलिस स्टेशन ढूंढ़कर
एफआईआर दर्ज कराती हूं।
तुम्हारे चेहरे की पहचान कर
सज़ा देने को सबूत जुटवाती हूं।
अब आओ, आओ
कि ताल ठोककर
मैं तुम्हें चुनौती देती हूं,
करो मेरा बलात्कार फिर से
और देखो मुझे धूल झाड़कर
वीभत्स-लहूलुहान शरीर से ही सही
फिर से खड़ा होते।
मैं अब भी तुम्हें
गली-कूचों, बाज़ारों में नज़र आऊंगी
चैके-चूल्हे, आॅफिस, मीडिया
सत्ता के गलियारों में नज़र आऊंगी
अब सुनो!
ताल ठोककर मैं देती हूं तुम्हें चेतावनी
कि सुधर जाओ।
मुझे रौंदने के सपने देखने से
बाज़ आ जाओ,
वरना मैं तुम्हारे होश ठिकाने लगा दूंगी,
मर्द से बना दूंगी भू्रण
और जैसा कि करते आए हो
तुम मेरे साथ
मैं भी गर्भ में ही
तुम्हारा अस्तित्व मिटा दूंगी,
या फिर भू्रण से बना दूंगी अंडाणु
और माहवारी के ज़रिये
बजबजाती नालियों में बहा दूंगी।
छोड़ दो कोशिशें
मुझे लहूलुहान करने की
अपने लिंग की तलवार से।
बरसों खौला है मेरा रक्त
मेरी शिराओं में,
मेरे संस्कारों की दरार से
अब तुम्हारी बारी है,
बचो-बचो!
रक्तबीज बने मेरे नए अवतार से।
माहवारी
आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नज़रों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज़ लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
आॅफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बाॅस मुझे केबिन में बुलवाता हैै,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमजोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख़्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेज़ी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में ख़रीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गड़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज़ -नखरे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं,
जब अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं।
इसलिए अरे ओ मदो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।
सहभागी
मेरी पीड़ा में अक्सर
तुम सहभागी बन जाते हो
मुझे समझाते हो
कि तुम मेरी पीड़ा समझते हो,
मैं भी जानती हूं
कि तुम सचमुच मेरी पीड़ा समझते हो
मगर, तुम सिर्फ समझते-भर हो
सहते नहीं हो मेरी जैसी पीड़ा,
क्योंकि तुम जानते ही नहीं हो
मेरी जैसी पीड़ा को
सहना क्या होता है।
तुम नहीं जानते
कि कैसी होती है वो पीड़ा,
कैसे सह पाती हूं मैं वो पीड़ा
जब आशीर्वाद देता हाथ
सर से सरककर पीठ पर घिनौने, लिजलिजे सांप-सा
रेंगने लगता है।
तुम नहीं सहते उस पीड़ा को
जब बंधे हुए हाथ
तमाचा बनने से रुकने के लिए
और भी कसकर बंध जाते हैं,
क्योंकि इन हाथों से
शाम को घर लौटकर
मुझे रोटियां भी पकानी हैं
और उन रोटियों के आटे की ख़रीद-लागत
उन घिनौने हाथों से ही पानी है।
तुम नहीं सहते हो उस पीड़ा को
जब बस की भीड़ में से कोई
अचानक ‘यहां’ या ‘वहां’
छूकर, नोंचकर भीड़ में ही वापस खो जाता है,
तुम चाहकर भी
नहीं समझ पाओगे
क्योंकि तुम मेरी पीड़ा के
सिर्फ सहभागी हो
सहभोगी नहीं।
वफ़ादारी
वो अपनी बीवी से
झूठ बोलकर आया है,
और प्रेमिका के लिए तोहफ़े में,
ताजमहल लाया है,
यूं तो बीवी के बिना उसके
जूते-टाई-कच्छे-रुमाल तक
नहीं मिल पाते हैं,
सर पर चढ़ा होता है चश्मा
और वो पूरे घर में ढूंढ़ आते हैं,
पर प्रेमिका जब गले में
अपनी सुडौल बांहें सजाती है,
सारी दुनिया उसे बिन चश्मे के ही
रंगीन नज़र आती है.
बीवी को आख़िरी तोहफ़ा उसनेे
चार साल पहले दिया था,
जब तीसरी बेटी ने
घर की पांचवीं सदस्य के रूप में
इज़ाफ़ा किया था,
बीवी इस ‘गुनाह’ से अब तक
उबर नहीं पाती है,
इसीलिए सुन-सह-मान लेती है
इसकी हर बात,
खुद कभी कुछ नहीं सुनाती है,
इन ‘गुनाहों’ ने उसे काफ़ी
अंतर्मुखी बना रखा है।
बिस्तर पर भी एक बुलाहट-भर से ही
काफी बोरिंग ढंग से
पसर जाती है,
न नाज़, न नखरे
न अंगड़ाइयों के जलवे दिखाती है।
बस घरेलू कामों में
सुबह से आधी रात तक नहीं झलकता है,
वरना तो उसका ‘ढीलापन’
शरीर के हर अंग से टपकता है।
प्रेमिका में अब तक
अदाओं की गर्मी है,
सो इसमें भी उसके लिए
अब तक वफ़ाओं की नर्मी है।
तीन साल से इसके अलावा,
कहीं आंख नहीं घुमाई है,
वरना पंद्रह साल की गृहस्थी में,
यही तो इनकी तीसरी और ‘आख़िरी ’
बेवफ़ाई है,
बीवी के साथ तो सपने भी
ब्लैक एंड व्हाइट ही आते हैं,
अब तो बस प्रेमिका के नाम पर ही होंठ
रंगीनियत से मुस्कुराते हैं।
ऐसा नहीं है कि बीवी
इसकी प्रेमिका के बारे में नहीं जानती है!
इनके बालों की बदलती लट और
महकते बदन की बेवफ़ाई
वो सालों से पहचानती है।
‘ये रोज़ सुबह चाहे जितनी दूर
निकल जाते हैं,
शाम को ‘लौटकर’ तो
इसी घर में आते हैं’
बीवी बेवफ़ाई के बंटते ताजमहल को
कर देती है नज़र अंदाज
बस मनाती है इतना कि
घर से बाहर ही रहे हर आंच
अपने घर की दहलीज़ से ही वो
अंतिम चिता तक जाना चाहती है
इसीलिए हर रोज़
इस बेवफ़ा पति की सेज पर
पूरी वफ़ादारी से खुद को बिछाती है।
प्रेयसी बनाम चादर
फोन की घंटी घनघनाई
मैं दौड़ती हुई आई,
उठाते ही रिसीवर तुम्हारी आवाज़ टकराई
तुमने कहा,
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
और मैं एक पल को
ख़ामोश हो जाती हूं
मगर, इस ख़ामोशी में
मेरी वो चीख़ है जो चीख़ेगी तब तक
जब तक तुम दोबारा कहोगे
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
अपनी कार के दरवाज़े के साथ ही तुम
खोलोगे उस अलमारी का दरवाज़ा
जहां एक हफ़्ते पहले तुम मुझे
भोग कर, समेट कर, सहेज कर रख गए थे,
फिर तुम मुझे उस सफ़र पर ले जाओगे
जहां मेरे इंतज़ार का सूरज
तुम्हारी रात में खो जाएगा
और उस रात का सारा अंधेरा
एक कमरे में सिमट जाएगा,
तुम मेरी तहंे खोलकर
मुझे बिछा दोगे उस बिस्तर पर
और मैं
यूं ग़ौर से देखने लगूंगी
उस चादर को
जिसकी जगह मैंने ले ली है
और इसके पहले कि
तुम भी अंधेरे की ही तरह
मुझ पर छा जाओ
मैं भी अंधेरे का हिस्सा बन
खो जाऊं,
तड़पकर दे देना चाहती हूं
तुम्हें उस उजियारे का वो सब
जो अपने हिस्से में से मैं
तुम्हारे लिए बचा लाई हूं
बिना तुम्हारी पहल का इंतज़ार किए
खुद ही झटके से अपने बालों-सा
खोलकर बिखेर देती हूं
उस सामान को
जो तुम्हारे लिए जुटा लाई हूं,
सबसे पहले मैं तुम्हें देती हूं
वो सुनहरी पहली किरण का टुकड़ा
जो बादल से छिटककर
मेरी खिड़की पर आ बैठा था
और मैंने उसे पकड़कर
तुम्हारे लिए रख लिया था
इसी अंधियारे में दिखाने को।
एक गुनगुना उनींदा-सा सेक भी है
उस दुपहरी का, जब मैं
तपती धूप में ठंडे पानी में
पांव डाले बैठी थी
वो धूप तेरे दिए अंधेरे-सी गर्म थी
और पानी तेरी मौजूदगी-सा ठंडा।
एक खुशबू भी है
फूल पर पड़ी उस धूल की,
जिसे ओस और ज्यादा महका गई थी
एक गीलापन बारिश के
बिन बरसे चले जाने का
एक छोटी हंसी
एक लंबी उदास मुस्कुराहट
एक रात की आंख-मिचौली तारों की
एक चंाद की लाड़ भरी खिलखिलाहट
और भी ना जाने कितना कुछ
जो होना रह गया है
जो कहना रह गया है
क्योंकि तुम अचानक बीच में
मेरी बातों को, मेरे बालों-सा
समेट देते हो, कहते हो
‘‘मैं भी एक सिंदूरी शाम
तुम्हारे लिए लाया हँू।’’
और मैं झट अपनी हथेली बढ़ा देती हूं
लेकिन तुम्हारी हथेली से
मेरी हथेली तक आते-आते
वो सिंदूरी शाम ढलकर रात बन जाती है।
क्या तुम्हारी हथेली से
मेरी हथेली तक का सफ़र भी
उतना ही लंबा है,
जितना तुम्हारी चुटकी से
मेरी मांग का?
मुझे सवालों के जंगल में अकेला छोड़कर
तुम अंधेरे में खो जाते हो
पास आने की कोशिश में दूर हो जाते हो।
फिर अचानक शायद
तुम्हें एहसास होता है
मेरी ठंडी दूरी का
और तुम वापस लौट आते हो
मेरे सवालों को अधूरा छोड़
मेरी सलवटों को झाड़कर फिर से,
समेटकर, सहेजकर तह कर देते हो और दोबारा
उसी चादर को बिछा देते हो।
इस बार
वो चादर मुझे ग़ौर से देखती है
जैसे अब, उसने मेरी जगह ले ली हो।
फिर तुम वापस मुझे
उसी अलमारी में रख आते हो
और मैं उस ख़ामोशी में
उस गूंज को ढूंढ़ती हूं
जिसके साथ मुझे फिर से
तब तक रहना है जब तक
तुम फिर से कहोगे,
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
बोनसाई
मैं बरगद थी,
विशाल बरगद
इस रास्ते के किनारे पर
जो मेरे सामने से होकर
गुज़र जाता है,
मैंने युगों तक
तुम्हारी प्रतीक्षा की थी
और एक दिन तुम आए।
तुम सफ़र की थकान से चूर थे
तुम्हारे कंधे तुम्हारे ही बोझ से झुके हुए थे
मेरी छाया में तुमने
अपनी थकान मिटाई,
मेरे ओस से भीगे हुए पत्तों से
तुमने अपनी प्यास बुझाई
मेरी जटाओं में झूलकर
तुमने अपने गम भुलाए
और जब तुम तरो-ताज़ा हो
उठ खड़े हुए हुए तो जाने क्यों
मेरे क़द की ऊंचाई
तुम्हें नापसंद आई।
तुमने खुद को एक
तरकीब सुझाई,
अपनी गहरी चमकीली आंखों से
मुझेे देख कर अपनी बांहें
मेरी तरफ फैलाई,
मैं भी युगों की प्रतीक्षा के बाद
थक चुकी थी।
उन बांहों में आराम पाना चाहती थी,
सुस्ताना चाहती थी,
सो अपने वजूद को मैंने
तुम्हारी बांहों के दायरे में समेट दिया।
वाकई, तुमने मेरे वजूद को एक खूबसूरत जगह दी
चौराहे की बड़ी-सी चौपाल से उठा के
रख दिया
अपने ड्राइंग-रूम के कोने में
क्योंकि,
अब मैं विशाल बरगद नहीं
बल्कि बोनसाई बन हंू।
इंसानियत
उस बूढ़ी भिखारिन के कटोरे में,
पांच रुपये का सिक्का डाल,
मैंने जुटाई है अपने लिए
प्रेरणा बेमिसाल!
लिखूंगी कोई कविता उस पे
और कर दूंगी गोष्ठी को
अपनी ‘मानवीयता’ से निहाल!
या उडे़लंूंगी कैनवॉस पे
रंगों से ऐसा दर्द
कि इस भिखारिन का झुर्रीदार चेहरा,
किसी ड्राइंगरूम की मरकरी लाइट तले झिलमिलाए
और हो जाए मेरी जेब भी मालामाल।
या फिर इस गंदी भिखारिन का
एक फोटो ही खंीच लूं,
इससे भी हल हो सकता है
मेरी शोहरत का सवाल,
मेरे पांच रुपये से इस भिखारिन की
जिंदगी तो नहीं बदल पाएगी,
पर हां, इसकी बदहाली, भूख, बेबसी,
मेरे रचनात्मकता की दुकान के लिए
थोड़ी शोहरत और थोड़े खरीदार
जरूर जुटा लाएगी।
वेश्या
इस गंदे, बदबूदार, संकरे, अंधेरे कमरे में,
बस एक तख्त-भर का है अरेंजमेंट,
घंटे के हिसाब से चलता है यहां का रेट,
बीसियों बार खुलता है यहां दिन-भर में,
मेरे औरत होने की दुकान का ‘गेट’,
ड्राईवर, मजदूर, रिक्शावाला,
कोई भी आ सकता है,
जो भी मेरे गोश्त की,
क़ीमत चुका सकता है,
पुलिस वाला तो दाम भी नहीं चुकाएगा,
हमारे ‘संरक्षण’ के नाम पर ही
दो ग्राहकों की ‘सेवा’
अकेला मार जाएगा,
करना तो है ही,
चाहे भला हो या बुरा, ये काम,
क्योंकि मुझे भी बनाना है
अपने बच्चे को अच्छा इंसान।
बूढ़ी वेश्या
जैसे ही उस ग्राहक ने
उस पर से नज़र हटा अगली पर बढ़ाई,
वो दांत पीसकर मन-ही-मन बड़बड़ाई,
पता नहीं इन औरतखोरों को
क्या चीज भाती है,
आंख बंद करने पर तो
दुनिया की हर लड़की
एक-सी बन जाती है!
उस पोपले मुंह वाले बुड्ढे को तो देखो,
जोर नहीं है दम-भर का,
पर उसे भी चाहिए बदन
सोलहवे सावन का!
वो कोने में बैठा कलमुंहां
दूर से ही नोट दिखाता है,
पास जाने पर छूता है यहां-वहां
पर नोट से पकड़ नहीं हटाता है,
अब ये मुफ्त में ही
दिल बहलवाना चाहते हैं
तो बीवी को छोड़कर इन गलियों की
धूल क्यों फांकने आते हैं
सारी जवानी काटी यहीं मैंने
अब बुढ़ापे में कहां जाऊं?
मुझ पर लेटने को हजार पर
पर श्मशान तक लेट के जाने को
मैं अपने लिए चार कांधे कहां से जुटाऊं?
कोठा
उसने हर रात किसी की
सेज सजाई है,
फिर भी दुल्हन
किसी की नहीं बन पाई है।
कई बार उसकी हालत पर
इंसानियत ने नज़र झुकाई है,
जब सुबह बाप ने और
शाम को बेटे ने उसकी देह
अपने नीचे सजाई है।
हर रिश्ते को
लिहाज़ रिश्ता बनाता है,
इन कोठों पर
हर रिश्ते का लिहाज टूट जाता है।
किसी नौजवान को ‘ट्रेंड’ करने में
कोई बूढ़ी तवायफ़
अपनी देह नुचवाती है,
तब कहीं जा के वो उस दिन
अपने पेट की आग बुझा पाती है।
ढलते-मसले जिस्म का
खरीदार मुश्किल से मिलता है,
ये जिस्मों का कारोबार
जवानी तलक ही चलता है।
वो वेश्या मौत से पहले ही
दहशत से मर जाती है,
जिसे अपने बालों में सफेदी
और चेहरे पे झुर्रियां नजर आती है,
बिन मौत आए सचमुच मरने का
हौसला भी कम ही जुटा पाती हैं,
इसीलिए इन कोठों पर अक्सर
मांएं ही बेटियों की
दलाल भी नजर आती हैं।
दूसरा जन्म
बरसों तुम्हारे लिए तड़पकर
बरसों तुम्हारे लिए जीकर
मैं तड़पने का अर्थ भूल चुकी हूँ
मैं जीने का अर्थ भूल चुकी हूँ।
वो दर्द जिसे मैंने सीने में बसाया था
दुनिया को समझने के लिए
अपने दिल को दर्दमंद बनाया था
वो सिर्फ तुम्हारे लिए तड़पकर
चूकने लगा है,
वो सारे शब्द और जबानें
जो मैंने सीखी थीं
दुनिया की करीबी के लिए
वो सिर्फ तुम्हारा नाम लिखने
और तुम्हारी बात समझने तक ही
सिमट गए हैं।
वो बात जो तुम्हारे नाम से शुरू न हो
मुझे समझ नहीं आती है
वो खुशी जो तुम्हारे चेहरे पे न झिलमिलाए
मुझे खुश नहीं कर पाती है,
और इन सबके बदले
मैंने तुमसे तुम्हारा नाम खरीदा है
जो मेरे नाम के साथ
कभी नहीं जुड़ता है,
तुमसे तुम्हारा साथ पाया है
जो सात कदमों के फ़ासले से
बिन सात फेरों के
साथ चलता है,
और इन सबके अलावा
तुमने मेरी जिंदगी की माँग में
एक खालीपन भी भरा है
जो मेरी माँग से होकर
मेरी कोख से गुज़रकर
मेरी जिंदगी में पसर जाता है।
इस तमामतर खालीपन से
इस थके हुए तन-मन से
कुछ नया ढब जुटाते हैं
हाड़, मांस, रक्त, मज्जा की
इस जिंदगी के फर्श को चमकाते हैं,
जेहन की दीवारों से उलझनों के जाले हटा
इसे फिर से रंगवाते हैं,
खाली करा लेते हैं ये जिस्म
इस औरत से
और इस मकान में औरत नहीं,
सिर्फ एक इंसान को बसाते हैं।
एक प्रयास
तुम करो
बस एक सफल प्रयास
मेरे कई असफल प्रयासों को
सफल बनाने को,
तुम उठाओ
बस एक सही कदम
मेरे भटके कदमों को
रास्ते पे लाने को,
तुम फिर करो शुरू
कोई सफर
हो सामान इंतजार से
मुझे बहलाने को,
तुम लगाओ
कोई जिंदादिल कहकहा
मिले बहाना मेरे मुर्दा होंठों को
मुस्कुराने को,
तुम तोड़ दो कोई शीशा
बड़ी बेदर्दी से
पाए रास्ता मेरा दर्द
छलक कर बह जाने को।
(रचनाकार -परिचय :
जन्म : 24 अक्टूबर 1981, को नई दिल्ली में.
शिक्षा : हिंदी में स्नातकोत्तर
सृजन : नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, हिंदुस्तान, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, हंस, सर्वनाम, अलाव और संवदिया आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं। मादा ही नहीं मनुष्य भी ( स्त्री विमर्श), समय से परे सरोकार (समसामयिक विषयों पर केन्द्रित) और ताल ठोक के (कविता-संग्रह) प्रकाशित।
सातवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक ‘वितान’ में लेख सम्मिलित।
डी.डी. नेशनल, जी.सलाम, विश्व पुस्तक मेला व साहित्य अकादमी के काव्य पाठों में भागीदारी।कार्य-अनुभव : हिन्द पॉकेट बुक्स, मेरी संगिनी, डायमंड प्रकाशन की पत्रिका ‘गृहलक्ष्मी’ में क्रमशः सहायक संपादक व वरिष्ठ सहायक संपादक। कुछ वर्षों तक आकाशवाणी दिल्ली से भी संबद्ध।
संप्रति : स्वतंत्र लेखन, संपादन व अनुवाद।
संपर्क : medamini@rediffmail.com )
3 comments: on " ताल ठोक के बोलूंगी मर्द से बना दूंगी भू्रण"
आपकी रचनायें बहुत ही उम्दा है। रही कमियों की बात तो वो तो आपकी लेखनी में संभव ही नहीं है।
बहुत बढ़िया रचनायें।
बहुत बढ़िया रचनायें।
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी