संग्रह
उर्फ़ इतिहास से चार कविताएं
शहरोज़
पापा
मैं बेटा हो गई हूं
(दाया
के लिए)
बहादुरगढ़
मेले से
तुम्हारी
लाई मेरी चॉकलेटी क़मीज़
उसी
पुराने बक्से में रक्खी है
हर
दीवाली, दशहरे
पर
उसे
बदन में अटाने की कोशिश करती
हूं
पापा ! अब मैं बड़ी हो गई हूंलेकिन क़मीज़ की छूअन पूरे जिस्म मेंतुम्हारी गर्माहट को पुनर्जीवित कर देती है।
तुम
सब कुछ तो ले गए
लेकिन
ईमानदारी, साहस
और सच्चाई
इस
अमानवीय होते समय में भी
तुम्हारी
ये अनमोल धरोहर
अब
भी हमारी सहचर हैं।
तुम्हारी
ही तरह हर साल-छह
महीने बाद
स्वाभिमान
गलियों में भटकाता है
रोज़
बसों और दफ़्तरों की लपलपाती
जिव्हाएं
सभ्यताओं
पर तमांचा जड़ जाती हैं।
अम्मा और छोटू को गांव छोड़ आई हूंछोटू ने आठवीं पास कर लिया है, अच्छा लगा न!और मैं दिल्ली में हूं पापाऔर बेटा हो गई हूंतुम यही चाहते थे न!
प्रसंग
बनाम संबंध उर्फ़ इतिहास
दूर
देस से आया परिंदा
रोज़
दाने चुगता और हम चुगाते रहे
अचानक
हमारे ही पत्थर से हुआ ज़ख़्मी
वह
छटपटाता, फड़फड़ाता
रहा।
सुबह
से दूसरी सुबह तक
हम
बढ़ते रहे अनजान
पास,
पड़ोस की चीत्कारों
और राग-विरागों
को
तजते, रखते
रहे पग डग-डग।
बच्चों
के घरौंदों का टूअना आप जानते
हैं
हम
भी ख़्यालों में घर बनाते रहे
और
रोज़-रोज़
उसका टूटना देखते रहे।
हंसते-बतियाते
यकबयक
हो गए हम चुप्प
स्टेशन
आते ही, बिना
पता पूछे उतर गए
पीछे
मुड़कर भी नहीं देखा
बमुश्किल
एक मुस्कान हवा में उछाली
और
बढ़ गए कि फिर मिलेंगे।
दिशाएं
सब कांप रही हैं
मेज़ों,
कुर्सियों पर
श्मसान पसरा है।
पूछताछ
पर अघोषित प्रतिबंध है।
कंकड़ को ख़ुद ही निबटना हैपहाड़-पहाड़ वृततियों से।
खड्गसिंह
बस्स
धुन में चढ़ते जाना
पहाड़ों
और पेड़ों पर
इससे
बिल्कुल अनजान कि
वहां
कांटे और ज़हरीले जीव भी हैं।
बचपन की आदतें कहीं छूटती भी हैं।
हम
सब कुछ भला-भला
सा
समझने
के आदी जो ठहरे
जानती
तो थी कि वह कई अस्तबलों में
जाता है
अब
उबकाई आती है कहते कि
वह
बिल्कुल पिता की तरह था
हर
संकट में साथ देने को तत्पर
उसकी
डांट भी कभी बुरी नहीं लगी।
सुल्तान
पर उसकी दृष्टि तो थी
पर
मैंने सदैव उसे वात्सल्य समझा
उस
शाम जरूरी निर्देश समझाते-समझाते
उसके
हाथ पीठ पर रेंगे
तो
उसकी कुटिल मुस्कान की हिंसा
मेरी
आंखों से काफ़ी दूर थी कि
अचानक उसकी पकड़ मज़बूत हो गईसुल्तान को मुझसे ज़बरदस्ती झपटने केप्रतिकार में मैं बुक्का मार दहाड़ी।
वह
आज का खड्गसिंह है, मां
देर
तक मुझे समझाता रहा
और
नए-नए
प्रलोभनों की साजिशें बुनता
रहा।
मां,
लोग मुझे सहनशील
कहते हैं
उन्हें
पता है इसमें छुपी यातनाओं
का।
मदद
को बढ़ा हर हाथ अब सर्प-सा
लहराता है
अपनत्व
से निहारतीं निगाहें चिंगारियां
उगलती हैं।
हे
प्रभु ! मुझे
क्षमा करना
मैंने
सभी संपर्क ख़त्म कर लिए हैं
पर,
मां हर कोई
खड्गसिंह तो नहीं होता।
मुझे
गर्भ में छुपा लो मां
बहुत-बहुत
डर लगता है!
अपना-अपना
चांद
गर
पेड़ होते तो हवा और
सूरज
से पेट भर लेते
कंप्यूटर
होते तो सब कुछ
सिलसिलेवार
करते जाते क़ैद
रात
के गहराने के साथ-साथ।
इक
मन ही तो है जो
सुनता
है अपनी और दूसरों की भी।
कहने
की जागीर
वर्जनाओं,
संस्कारों और
महत्वकांक्षाओं
के पास है।
जो
तुम लिखते हो
जो
मुझसे पढ़ा जाता है
या
जो ख़ुद से सुना जाता है
कितने
मानीख़ेज़ और ख़ूबसूरत हैं
ये
अल्फ़ाज़।
नामी
और बदनामी की डोर थामे
सरपट
भागते जा रहे हैं हम
अपने-अपने
चांद के लिए।
1 comments: on "गुज़रे दिनों को याद करते हुए"
बहुत संवेदनशील रचनाएं ... दिल को छूती हुए भाव ....
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
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- अल्लामा जमील मज़हरी