प्रोमिला
क़ाज़ी की कविताएं
1.
मै
तुम्हें प्रेम करना चाहती थी
कुछ
इस तरह कि
तुम
झूठ और सच का समीकरण
इस
रिश्ते में भुला देते
पाप
और पुण्य का झंझट
कहीं
पर दबा आते
तुम
न वो बनते,
न यह बनते
बस
सहज जैसे मां के सामने थे
वैसे
ही मेरे सामने आते
मैं
तुम्हें आकाश कर देना चाहती
थी
और
उस पर होने वाली उड़ानों को
आँख
भर ,
सांस रोक
देखना चाहती थी
एक
खिड़की भर हिस्सा अपने लिए
और
तुम्हें खाली छोड़ देना चाहती
थी
मैं
चाहती थी कि कोई सत्य न तुम
मुझको
बताओ
जब
कोई रंग बस मेरे लिए
पक्षियों
के परों से चुराओ
जब
लड़ पड़ो समुंदरों से
और
मेरे लिए रास्ता बनाओ
मैं
चाहती थी बस शब्द भर होना
तुम्हारे
काव्य में
तुम्हारी
उन प्रेम कविताओं में
जो
मेरे लिए नहीं थी
मै
चाहती थी कि मुझको तुम बताओ
यह
सब तुमने लिखा किसके लिए है
सच
कहना आसान कब था
पर
सच को सुनने के लिए
मै
पत्थर हो जाना चाहती थी
हमारे
रिश्ते में
वैसे
ही आसान क्या था
पर
जो भी था मै उसको ही
सत्य,
सुंदर
मानती थी
बात
इतनी सी थी,
मेरे
समुंदर
मै
बस तुम्हारी लहर भर होना चाहती
थी
पर
तुम्हें अपनी लहरों से नहीं
हर
दिशा से आती नदियों से प्रेम
था II
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2 . जाने क्यों ?
रिश्ते-नातों
का
अनचाहा
बंधन
सिकुड़ते
कमरे
व्यथित
मन
कैसे होंगे कभी
अपने
पराये?
सोचे
जब
मन
भर आये …
चलो छोड़ो अब
सोंचेंगे
अपने लिए
आँगन
की चौखट पर
चाँद
सपने लिए …
मिल जाये चलो
सब
सीमओं से परे
भीचती
आँखें
जागने
से डरे।
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3 . तुम्हारा प्रेम
तुम्हारा प्रेम मेरे लिए
बचे
रंगो की प्लेट जैसा है
जिसे
कलाकार सोते-जागते
कोई
मास्टरपीस बनाने का
सपना
देखता है
और
सहेजे रहता है
सूखते
रंगों को
अपनी
अधमुंदीं आँखों में !
तुम्हारा
प्रेम
भरपूर
ज़िंदगी जी चुके
उस
जीवन की अंतिम हिचकी सा है
जिसमें
जाने वाले को पूरा इत्मीनान
होता है
कि
अब कुछ भी छूटा नहीं है
कि
अब शांति से जाया जा सकता है
I
तुम्हारा
प्रेम
मेरे
कानों में लगे उस एयर प्लग सा
है
जो
बाहर की तमाम अनचाही
आवाज़ों
को बंद कर देता है
और
बहा देता है एक खामोश नदी मेरे
भीतर I
तुम्हारा
प्रेम
मेरे
लिए
बसंत
के आखिरी खिले फूल सा है
जो
भूल गया हो
आते
पतझड़ में मुरझा जाना !
तुम्हारा
प्रेम मेरे लिए
कोई
अनदेखा स्वर्ग नहीं
बल्कि
दोबारा जनम लेने की
तुम्हारे
साथ रहने की
एक
बचकानी ज़िद है
जिसके
लिए अस्वीकारा जाएगा
हर
मोक्ष I
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4.
आते समय वो गिन के रखती है
बटुवे
में अपनी स्वतंत्रता के पल
और
ताकीद करती है अपने आप से
कि
इससे ज्यादा खर्च नहीं करेगी
उन्हें I
लौटते
समय देखती है
खाली
हुए रास्ते,
खाली
बाजार
खाली
चेहरे और अपना खाली बटुवा भी
फिर
मूँद लेती है अपनी भरी-भरी
आँखें
भरा-भरा
मन
आँखों
की कोर पे अटका
भरा
हुआ सावन
और
एक अव्यक्त सी ख़ुशी
और
हिसाब लगाती है
फिर
बटुवे को कैसे भरा जाए ?
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5.
बाजार
की लड़की !
उसकी
ऊँगलियाँ आस-पास
के हर शीशे पर
उकेरती
तितलियों सी आकृतियाँ
फिर
वह अपनी अधखुली आँखों से
और
हलके गोल घुमाते होंठो से
फूंक
मार उन्हें उड़ा देती
उसकी
आँखे आस्मां से ज्यादा विस्तृत
हो जाती
और
बरस पड़ती मानसून सी उसकी हँसी
I
उसकी
उँगलियाँ धीमे-धीमे
बजातीं
धुंधलाये
शीशो पर ढेरो राग
वो
गुनगुनाती प्रेम और भीग जाती
आँखें उसकी I
यह
सब सीखा नहीं था उसने
फिर
अचानक से उसे बड़ा घोषित कर
दिया गया
उसका
हाथ पकड़ सिखाया गया उसे
बालों
में उलझना,
देह पर
फिसलना
सासो
का बिखरना,
बिना
संगीत के शब्द
वो
सीखती रही और सूखता रहा उसके
अंतर का मानसून
खोता
रहा उसकी पलकों के नीचे छुपा
आसमान
और
अदृश्य होती गयी उकेरी तितलियाँ
उसकी
आँखें देख नहीं पाती अब कुछ
और
यह खोजती है कोई खाली दर्पण
उकेरने
की कोशिश में दर्पण चटख जाता
है
कोई
बेहूदा सा पैटर्न उभर आता है
जो
मिलता है,
ठीक उस
निशाँ से
जो
उसकी देह पर अब जहाँ-तहाँ
है।
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(रचनाकार-परिचय:
जन्म :
18 जून
1966
को हिमाचल
प्रदेश में।
शिक्षा
:
मनोविज्ञान
में स्नातकोत्तर,
आगरा।
सृजन
:
हिंदी
और अंग्रेजी के लगभग 25
कहानी
व् कविता-संग्रहों
में रचनाएं। मन उगता ताड़ सा,
मन होता
उजाड़ भी शीर्षक कविता-संग्रह
प्रकाशित। इसके अतिरिक्त
पत्र-पत्रिकाओं
और पोर्टल्स पर कविताएं।
संप्रति
:
स्वतंत्र
लेखन हिंदी व् अंग्रेजी में,
और एक
वेब पोर्टल में मुख्य संपादक
संपर्क
:
promillaqazi@gmail.com )
5 comments: on "चाहती तुम्हारी प्रेम कविताओं में शब्द भर होना "
bahut sundar abhivyakti hai ......
गजब... लिखती हैं आप..My favorite promilla ji
Abhaar aapka mitr
Zara nawazi aapki mohtarma :)
Zara nawazi aapki mohtarma, :)
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- अल्लामा जमील मज़हरी