संदर्भ : कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ऐ लड़की
राकेश बिहारी की क़लम से
आसमान के
गहरे
काले
सन्नाटे
पर
धीरे-धीरे
चिड़ियों
की
चहचहाहट
उतर
रही
है. लगभग
सारी
रात
के
दूरभाषी
अभिसार
के
बाद
दूसरे
छोर
पर
अधलेटी
मेरी
प्रेमिका
की
नींद
से
भारी
पलकें
खुद-ब-खुद
किसी
स्वप्न-लोक
में
खोने
लगी
हैं
और
मैं
खिड़की
से
बाहर
भोर
के
सितारों
को
एकटक
देख
रहा
हूं...
दूर
टिमटिमाते
तारों
में
सहसा
अम्मी
की
ठहरी
आवाज़
खनक
उठती
है- "लड़की,
भोर
बड़ी
संपदा
है. जिसने
सोकर
इसे
गंवाया,
उसने
बहुत
कुछ
खो
दिया. आंखों
से
न
रात
और
दिन
का
मिलन
देखा
और
न
उनका
अलग
होना. पंछी
जब
चहचहाते
हैं
ऊषा
की
ललाई
में, तो
पूरी
सृष्टि
गूंज
उठती
है."
मीलों
दूर
सपनों
के
हिंडोले
में
झूलती
अपनी
स्वपन-सुंदरी
को
मैं
हौले
से
जगाना
चाहता
हूं... उठो!
भोर
की
इस
अकूत
संपदा
को
हम
साथ-साथ
अपनी
अंजुरियों
में
भर
लें...
पंछियों
का
शनैं-शने:
तेज
होता
कलरव
मेरे
भीतर
किसी
मीठे
सोते
की
तरह
उतरने
लगा
है
और
मैं
जैसे
अपने
लिंग
से
मुक्त
हुआ
जा
रहा
हूं. रात
का
छंटता
अंधेरा
मेरे
पुरुष
को
अपने
साथ
लिये
जा
रहा
है
और
मेरे
अंतस
के
किसी
सुदूर
कोने
में
दुबकी
कोई
स्त्री
ऊषा
की
लालिमा
में
नहाकर
रक्तिम
हो
उठी
है...
मेरे
ठीक
सामने
की
दीवान
पर
अम्मी
लेटी
हैं- क्लांत
शरीर, पर
मन-मिजाज
पर
गजब
की
कांति, जैसे
मृत्यु
की
आगोश
में
जीवन
का
अनुराग
गुनगुना
रही
हों... मुंदी
हुई
पलकों
पर
मुस्कुराहट
की
लेप
को
देख
ऐसा
लगता
है
जैसे
तुरन्त
ही
उठ
कर
बैठ
जायेंगी
और
जीवन
की
अतल
गहराइयों
से
निकालकर
नाना
प्रकार
के
सिखावन
के
मोतियों
से
हमारी
तलहथियों
को
भर
देंगी.
मसलन-
"अपनी
समरूपा
उत्पन्न
करना
मां
के
लिये
बड़ा
महत्वकारी
है. पुण्य
है. बेटी
के
पैदा
होते
ही
मां
सदाजीवी
हो
जाती
है. वह
कभी
नहीं
मरती. हो
उठती
है
वह
निरंतरा..."
मेरे
भीतर
की
स्त्री
जैसे
अम्मी
की
बेटी
हुई
जा
रही
है... अम्मीजी
की
मान्यतायें
जैसे
सीधे
उसके
भीतर
तक
उतर
रही
हैं. वह
सिर्फ
उनके
सवालों
का
जवाब
नहीं
दे
रही, बल्कि
खुद
से
एक
वायदा
कर
रही
है- "जरूरत
पड़ने
पर
मैं
किसी
ऐरे-गैरे
को
आवाज़
नहीं
दूंगी. मैं
अम्मीजी
की
बेटी
हूं, अपनी
दौड़
खुद
दौड़ूंगी..."
अम्मीजी
का
चेहरा
दर्प
से
चमकने
लगा
है. उनका
तेज
उसकी
आंखों
से
होता
हुआ
नाभि
तक
को
आलोकित
कर
रहा
है
और
वह
एक
बार
फिर
नये
संकल्पों
से
भर
उठती
है... मैं
दिन-रात
बेगार
के
खाते
में
नहीं
खटूंगी...
पूरे
ब्रह्मांड
से
शक्ति
खींचकर
जो
बच्ची
मुझे
जननी
है
उसे
किसी
और
के
सहारे
नहीं
छोडूंगी...
उसे
हमारी
देह
की
उपज
भर
ही
नहीं
होना
है, वह
तो
मेरी
आत्मा
का
सपना
है... उसे
अपनी
ताकत
का
अहसास
कराऊंगी
किसी
के
हाथ
का
झुनझुना
कभी
नहीं
बनने
दूंगी...
अम्मीजी
की
उंगलियों
में
हरकत
हुई
है... पलकें
जैसे
सोये
में
भी
चमकने-सी
लगी
हैं. जीवन
के
तीखे-कसैले
अनुभवों
को
कहती-सुनती
अचानक
उन्होंने
मेरे
भीतर
मुखर
होती
लड़की
की
तरफ
एक
प्रश्न
उछाला
है- "एक
बात
सच-सच
कहना! क्या
किसी
ने
तुम्हारी
इच्छानुसार
तुम्हें
जाना
है? चाहा
है?" …कितना
तीखा
है
यह
सवाल.. कुछ
पल
में
ही
जैसे
मेरे
भीतर
की
लड़की
अपनी
तरुंणाई
से
युवा
दिनों
तक
की
परिक्रमा
कर
आती
है... 'दूसरों
की
इच्छाओं
को
पूरा
करती-करती
मैंने
कभी
अपनी
इच्छाओं
का
तो
ध्यान
ही
नहीं
दिया...
अम्मीजी
के
इस
सवाल
ने
जैसे
मेरे
भीतर
चाहनाओं
की
एक
गुननुनी
नदी
उतार
दी
है..' लड़की
की
नसें
पहली
बार
अपनी
इच्छा
से
तनना-सिकुड़ना
चाह
रही
हैं... उसके
अंदर
की
हरित
लतायें
परिवेश
में
एक
मनचाहा
आत्मीय
आलंबन
खोजने
लगी
हैं. वह
सोचती
है- 'अम्मी
ने
सिर्फ
सवाल
ही
नहीं
पूछे
हैं
बल्कि
मेरे
अंतस
में
अपूरित
इछ्छाओं
की
बेल
रोप
दी
है...'
दिन
और
रात
की
अभिसंधि
पर
खड़ी
अम्मी
अपना
यौवन
फिर
से
जीना
चाहती
है..."कहीं
से
ले
तो
आओ
उस
ताज़ा
लड़की
को, जिसने
शादी
का
जोड़ा
पहन
रखा
था. ला
सकती
हो
कहीं
उसे! नहीं
ला
सकती
न! नहीं..."
लड़की
मां
के
बेडरूम
की
तरफ
भागती
है... उसने
उनकी
पेटी
से
उनके
सुहाग
का
जोड़ा
निकालकर
पहन
लिया
है... सिंगारदान
के
आगे
खड़ी
वह
जैसे
खुद
ही
अम्मी
हो
गई
है... होठों
पर
दहकते
लिप्स्टिक
के
रंग
को
उसने
थोड़ा
हल्का
किया
है
और
काजल
की
रेखा
को
तनिक
और
गहरी... भाग
के
अम्मी
के
पास
आई
है
वह... "अम्मीजी
ये
लीजिये...
मैं
उस
लड़की
को
ले
आई
. पहचानिये
इसे... ये
आप
ही
हैं
न?"
अम्मी
कुछ
बोलती
ही
नहीं... उनकी
बन्द
पलकें
अब
भी
मुस्कुरा
रही
हैं
जैसे
अब
बोलेंगी,
तब
बोलेंगी...
लगातर
पुकारते-पुकारते
लड़की
की
आवाज़
की
चहक
रुलाई
में
बदलने
लगी
है...
अम्मी
के
नहीं
होने
का
अहसास
मेरे
भीतर
की
लड़की
को
मर्मांतक
वेदना
से
भर
रहा
है... मैं
धीरे-धीरे
अपने
बाने
में
लौटने
लगा
हूं
और
उनसे
पूछना
चहता
हूं
मृत्यु
की
दहलीज
पर
बैठकर
ज़िंदगी
की
परतें
उघाड़ना
कितना
सुखद
या
तकलीफदेह
होता
है...?
अम्मी
चुप
हैं
और
मैं
मीलों
दूर
नींद
के
हिंडोले
में
झूलती
अपनी
सखि
के
लिये
बेपनाह
दुआओं
से
भर
गया
हूं...
***
(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 11 अक्टूबर 1973 को शिवहर (बिहार) में।
शिक्षा : एसीएमए (कॉस्ट अकाउन्टेंसी), एमबीए (फाइनान्स)
सृजन
: प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख। वह सपने बेचता था
(कहानी-संग्रह) और केंद्र में कहानी
(आलोचना) नामक दो पुस्तकें प्रकाशित।
चर्चित ब्लॉग समालोचन के लिए कहानी केन्द्रित लेखमाला
संपादन : स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन)
पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ (निकट पत्रिका का विशेषांक)
समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी (संवेद पत्रिका का विशेषांक)
बिहार और झारखंड मूल के स्त्री कथाकारों पर केंद्रित आर्य संदेश' का विशेषांक
अकार – 41 (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केंद्रित)
संप्रति : एनटीपीसी लि. सिंगरौली, (म. प्र.) में (प्रबंधक-वित्त)
संपर्क : brakesh1110@gmail.com)
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी