बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

दलितों के क्रीमी लेयर का उच्छ्वास

छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय दलित सम्मलेन का तुष्टिकरण




 






संजीव खुदशाह की क़लम से 



गत १७ सितंबर को छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर में देश भर के दलित जुटे.जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में उनके अधिकार विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन में वे खूब बोले. लेकिन अपनी भदेस भाषा में नहीं. न ही राष्ट्रभाषा या क्षेत्रीय बोली में. उन्होंने अपना बक अंग्रेजी में खूब उगला.इस मौके पर स्थानिय लोग काफी संख्या में उपस्थित थे। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के रूप में खड़गपुर आई.आई.टी के प्रोफेसर श्री आनंद तेलतुम्डे उपस्थित थे. शेष वक्ता भी प्रोफेसर ही थे. सभी टाटा इन्टीटूयूट आफ सोशल सांईस एवं उड़ीसा के महाविद्यालय से यहां आये थे। इसे दलित प्रोफेसर वक्ताओं का तथा आम संघर्षशील दलित श्रोताओं का सम्मेलन कहना ज्यादा उचित होगा। लगभग सारे के सारे श्रोता अंग्रेजी में ही अपना उद्बोधन देना पसंद कर रहे थे। शायद हिन्दी या अपनी मातृ भाषा मे बोलना वे अपनी शान के खिलाफ  समझ रहे थे। दिन भर के पूरे कार्यक्रम में आम दलित अपने आपकों इन वक्ताओं से नहीं जोड़ पाया। न ही इस कार्यक्रम में आम दलितों की कोई सहमागिता रही। पूरा का पूरा कार्यक्रम फंगीस आईडीयाज की सीमाओं में बंधा दिखा। जिस विषय पर कार्यक्रम रखा गया उससे भी ज्वलंत समस्या एक आम दलित झेल रहा है लेकिन तथा कथित सवर्ण हो चुके दलित प्रोफेसरों ने इन मुद्दो पर झांकना भी मुनासिब नही समझा। दूर-दूर से आये श्रोता अपने समय और धन की बर्बादी को लेकर दुखी रहे एवं आपस में चर्चा करते रहे। उन्हे सिर्फ एक बात की तसल्ली थी कि वे एक भीड़ के रूप में पहली बार इकट्ठा हुए।
ये बात मुझे इसलिए भी लिखनी पड़ रही है क्योंकि आयोजन समिती दलित मुक्ति मोर्चा के कर्ताधर्ता श्री गोल्डी एम जार्ज मेरे मित्र हैं. और वे छत्तीसगढ़ में दलित कर्याक्रमो के सफल आयोजन के लिए जाने जाते हैं। यहां सभी दलितों को एक मंच पर लाने श्रेय उन्हे जाता है।

वे बातचीत के दौरान कहते हैं कि डी.एम.एम. आपका है, आपका है, लेकिन निर्णय लेते वक्त किसी की राय शुमारी मुनासिब नही समझते। उन्होने पता नही किस मजबूरी के तहत इस समिती में डमी अध्यक्ष सचिव की परंपरा शुरू की।

एक खास बात जिसकी चर्चा में यहां करना जरूरी समझता हूं वह यह कि कार्यक्रम में डा. अम्बेडकर की फोटो के साथ गुरू घासिदास की फोटो भी लगाई गई। डॉं अम्बेडकर के साथ जनेउ-धारी गुरूघासीदास की फोटो लगाना दलित आंदोलन को एक भ्रमित संदेश देता दिखाई पड़ रहा था। आयोजन समिती का झुकाव किसी एक दलित जाति की ओर है यह इंगित करता है। साथ ही अन्य दलित जातियों के लिए यह गुप चुप बहिष्कार किये जाने जैसा संदेश देता है। जो कि दलित आंदोलन की भावनाओं के खिलाफ है। लेदेकर यह प्रोग्राम प्रोफेसरों के लिये भड़ास निकालने का एक बड़ा अड्डा बन गया। पूरे प्रोग्राम में आनंद जी की चर्चा रही वह यह की वे अपने कृत्यों से कम अम्बेडकर जी के भांजी दमाद हाने पर ज्यादा प्रचारित किये जा रहे थे। बातचीत के दौरान वे किसी को तरजीह नही दे रहे थे। दुख हुआ हिन्दी में खाने,बोलने एवं छिछी करने वाले हिंगलीस में बोलने मे बड़प्पन समझ रहे थे। वो भी जब मुद्दा प्राकृतिक संसाधनों के अधिकार पर था। जब आनंदजी से पूछा गया कि वे कितनी किताबे लिख चुके है तो उन्होने कहा गिनता कौन है? ऐसा दंभ नये दलित ब्राम्हण में ही देखा जा सकता है। कुल मिलाकर पूरे कार्यक्रम में लोगों ने आपस में मेल मिलाप कर कार्यक्रम को सार्थक किया।

बेहतर होता यदि आम-भाषा में आम दलितों कि समस्याओं पर बात होती। आज एक दलित सम्मान, रोजी-रोटी, जाति प्रमाणपत्र, जातिगत प्रताड़नाओ से जूझ रहा है। लेकिन इन मुद्दों को दर किनार कर दिया गया। जो मुद्दा था भी वो वक्ताओं की बोझिल भाषाशैली की भेट चढ़ गया।



 (लेखक-परिचय:
जन्म: 12 फरवरी 1973  बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
शिक्षा: बी.काम., डी.बी.एम.एस., एम..समाज शास्त्र, एल.एल.बी
सृजन: लेख, कहानी, एवं कविताएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित               
कृतियां : सफाई कामगार समुदाय और आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` नामक दो पुस्तकें चर्चित
ब्लॉग: www.sanjeevkhudshah.blogspot.com
संप्रति:राजस्व विभाग में प्रभारी सहायक प्रोग्रामर
संपर्क:
sanjeevkhudshah@gmail.com)



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