राहुल उर्फ़ शहज़ादे के नाम वाया गांधी कुंबा
भवप्रीतानंद की क़लम से
इस ट्रेंड से सत्ता में भ्रष्टाचार, कालाबाजारी को इस हद तक प्रश्रय मिला कि वह जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं गुजर गया तक तक उसे सहते रहे और वोटरों में क्रोध वृद्धि करते रहे। कांग्रेस का शीर्ष तंत्र पारदर्शिता रखने में पूरी तरह नाकामयाब रहा। बड़ी संख्या में भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए और पूरा तंत्र उसे बचाने में लगा रहा। यह सब सिर्फ इसलिए हो सका क्योंकि जो ऐसा कर रहे थे वह गांधी परिवार के बहुत नजदीकी थे और उनपर कोई एक्शन नहीं लिया जा सकता था। लालू यादव ने भी राबड़ी देवी को सत्ता में रखकर ऐसे ही शासन किया था।
पर अब २०१४ के चुनाव के बाद से भारतीय लोकतंत्र में वोटरों का ट्रेंड बदल गया है। लोकसभा चुनाव और उसके बाद कई विधानसभा चुनावों में इसे देखा जा सकता है। कांग्रेस को उस ट्रेंड में फिट होना होगा। उनका पारदर्शी होना बहुत जरूरी है। अगर पारदर्शी नहीं होंगे तो दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों की तरह नामलेवा भी कोई नहीं रह जाएगा। राहुल गांधी की राजनीति को देखकर यही लगता रहता है कि उसके साथ वोटरों का कोई आंतरिक जुड़ाव नहीं है। अगर वह कांग्रेस के अध्यक्ष बनते हैं तो उन्हें सबसे पहले वोटरों के ट्रेंड को समझना होगा। करीब सालभर पहले लोकसभा चुनाव में वोटर भाजपा को सिर-आंखों पर बिठाती है। फिर सालभर में उपजी ठोस और तरल असहमतियों के कारण दिल्ली विधानसभा चुनाव में धूल चटा देती है। झारखंड में भी आजसू साथ नहीं होता तो बहुमत के आंकड़े से पांच-छह सीटें कम ही मिलती।
(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
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चित्र: गूगल बाबा के सौजन्य से |
भवप्रीतानंद की क़लम से
यह कोई पहला मौका नहीं था कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी कहीं गायब हो गए थे। वह कहां गायब हुए, इसका कोई अनुमान पार्टी के लोगों को नहीं था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से किसी के पूछने की हिम्मत नहीं थी। कई कांग्रेसी तो इस पचड़े में पडऩा भी नहीं चाहते होंगे कि राहुल गांधी कहां हैं और क्या कर रहे हैं। पर चूंकि पार्टी में वह बहुत ऊंचे पद पर हैं इसलिए उनका न दिखना नोटिस में आता-जाता रहता है। पार्टी में यह रुतबा तब ही होता है जब उनके मौन या मुखर होने से चीजें प्रभावित होती हैं।राहुल गांधी भविष्य में कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकते हैं। क्योंकि पार्टी की गतिविधियां लोकसभा चुनाव के बाद भी गांधी परिवार के गिर्द घूम रही है। हालांकि कुछ कांग्रेसी स्पष्ट रूप से या इशारों से गांधी परिवार के गिर्द रहने की आलोचना करते रहते हैं। लोकसभा चुनाव में हार के बाद से वैसे कांग्रेसी नेता को थोड़ा बल मिला है जो कांग्रेस को गांधी परिवार से इतर भी देखना चाहते हैं। पर यह भी सच है कि ऐसे नेताओं की कोई बहुत बड़ी फौज कांग्रेस में नहीं है जो इतर देखने की दृष्टि को मजबूती प्रदान करे। इसलिए यह पानी के बुलबुले की तरह फूलते हैं, फटते हैं और तिरोहित हो जाते हैं।
क्या राहुल गांधी खुद को अध्यक्ष पद पर रखते हुए कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र को वापस ला सकते हैं। दूसरा, क्या कांग्रसे के वरिष्ठ और सामान्य सदस्य राहुल गांधी को आत्मसात कर पाएंगे। दूसरा प्रश्न इसलिए प्रासंगिक है कि चुनाव में अब कांग्रेस की भी औकात बताने की परंपरा की शुरुआत गत लोकसभा चुनाव से हो चुकी है। मतलब अब लोग कांग्रेस को गांधी परिवार से इतर भी देखना चाहते हैं। यह चीज अगर कांग्रेस को चाहने वाले वोटरों में आई है तो बिल्कुल नई है जिसे गांधी परिवार को समझ लेना चाहिए। पर जैसा कि जाहिर है गांधी परिवार के प्रति भक्ति का पैरामीटर कांग्रेस में कम नहीं है। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी मान जाती हैं तो कांग्रेस में एक मत से उन्हें अध्यक्ष मनोनीत कर लिया जाएगा, इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए। यह मतेक्य वह शुरुआत है जहां से पूजन की राजनीति शुरू होती है।कांग्रेस में अब तक जो ट्रेंड है उसके हिसाब से देखा जाए तो पार्टी में लोकतंत्र की बात गांधी परिवार के बाद शुरू होती है। गांधी परिवार खुद भी यही चाहता है कि लोकतंत्र की बात उनके बाद से शुरू हो। गांधी परिवार एक वीटो की तरह कहीं भी हस्तक्षेप कर लोकतांत्रिक स्थिति को पलट देते हैं और सब चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं- इसे हम ट्रेडमार्क कांग्रेसी ट्रेंड कहते हैं। सत्ता में रहते हुए बीते दस साल में परदे के पीछे से सत्ता चलती रही। कई बार ऐसे आरोप लगे पर कभी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्थितियों को स्पष्ट करना जरूरी नहीं समझा। जब उनसे प्रेशर देकर कोई काम करवाया गया तो एक कांग्रेसी सिपाही, गांधी परिवार के भक्त की तरह वह काम करते रहे। उनका व्यक्तित्व भी उनके आड़े नहीं आया।
इस ट्रेंड से सत्ता में भ्रष्टाचार, कालाबाजारी को इस हद तक प्रश्रय मिला कि वह जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं गुजर गया तक तक उसे सहते रहे और वोटरों में क्रोध वृद्धि करते रहे। कांग्रेस का शीर्ष तंत्र पारदर्शिता रखने में पूरी तरह नाकामयाब रहा। बड़ी संख्या में भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए और पूरा तंत्र उसे बचाने में लगा रहा। यह सब सिर्फ इसलिए हो सका क्योंकि जो ऐसा कर रहे थे वह गांधी परिवार के बहुत नजदीकी थे और उनपर कोई एक्शन नहीं लिया जा सकता था। लालू यादव ने भी राबड़ी देवी को सत्ता में रखकर ऐसे ही शासन किया था।
पर अब २०१४ के चुनाव के बाद से भारतीय लोकतंत्र में वोटरों का ट्रेंड बदल गया है। लोकसभा चुनाव और उसके बाद कई विधानसभा चुनावों में इसे देखा जा सकता है। कांग्रेस को उस ट्रेंड में फिट होना होगा। उनका पारदर्शी होना बहुत जरूरी है। अगर पारदर्शी नहीं होंगे तो दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों की तरह नामलेवा भी कोई नहीं रह जाएगा। राहुल गांधी की राजनीति को देखकर यही लगता रहता है कि उसके साथ वोटरों का कोई आंतरिक जुड़ाव नहीं है। अगर वह कांग्रेस के अध्यक्ष बनते हैं तो उन्हें सबसे पहले वोटरों के ट्रेंड को समझना होगा। करीब सालभर पहले लोकसभा चुनाव में वोटर भाजपा को सिर-आंखों पर बिठाती है। फिर सालभर में उपजी ठोस और तरल असहमतियों के कारण दिल्ली विधानसभा चुनाव में धूल चटा देती है। झारखंड में भी आजसू साथ नहीं होता तो बहुमत के आंकड़े से पांच-छह सीटें कम ही मिलती।
अब वह दिन आ गया है जब हर पार्टी के शीर्ष को अपनी अहंकारी और भक्ति-पूजन की गतिविधियों से निजात पाना होगा। चाहे उसके लिए उन्हें खुद की बलि ही क्यों ने देनी पड़ी। वैसे भी वोटर अब फर्श को अर्श और अर्श को फर्श पर करना जान गए हैं। आपकी पारदर्शिता और संवेदनशीलता ही सत्ता देगी या सत्ता से उतारेगी। राहुल गांधी युवा हैं। वह खुद से इस तरह की शुरुआत कर कांग्रेस की पुरानी और प्रतिष्ठित पार्टी में मिसाल कायम कर सकते हैं। वह इस सोच को भी धराशायी कर सकते हैं कि कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद लोकतंत्र शुरू होता है। कांग्रेस के लिए गत हार एक सबक और आत्मावलोकन साबित हो सकता है अगर वह अंधभक्ति और उससे उपजी कई विपरीत परिस्थितियों पर विजय पा ले। भाजपा से अब मात्र उसे सांप्रदायिक पार्टी कहकर लड़ाई नहीं की जा सकती है। यह विषय इसलिए स्थूल हो गया है कि भाजपा शासित राज्यों में वर्षों से ऐसी परिस्थितियां नहीं उपजी जहां उसे सिर्फ सांप्रदायिक सोच वाली पार्टी करार कर वोट लिया जा सके। एमपी, छत्तीसगढ़, गुजरात आदि राज्यों में तो भाजपा ने काम के बल पर वोट मांगे और उन्हें मिला। काम के बल पर वोट मांगने वाली स्थिति किसी भी कांग्रेस शासित राज्यों में कहां दिखी। अगले महीने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सम्मेलन है। पांच राज्यों में कांग्रेस के नए अध्यक्षों की नियुक्ति की जा चुकी है। माना जा रहा है कि राहुल गांधी की सहमति के बाद ही इन अध्यक्षों की नियुक्ति हुई है। आगामी सम्मेलन में राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की हवा भी बन रही है। ऐसी स्थिति में अगर आंतरिक लोकतंत्र और उसकी सुचिता पर बात की जाती है तो कांग्रेस को इसके दूरगामी लाभ मिल सकते हैं।यह सर्वविदित है कि परिवारवाद और हारने के बाद उसकी भक्ति से मुंह नहीं मोडऩे का ट्रेंड सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं है। मायावती, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, करुणानिधि, जयललिता, लालू यादव आदि राजनीति में ऐसे नेता हैं जो सिर्फ और सिर्फ अपने पास सत्ता रखना पसंद करते हैं। हारने के बाद भी वह जिम्मेदारी लेकर पार्टी के शीर्ष पद से इस्तीफा नहीं देते हैं। घोटालों में भी फंसते हैं तो अपनी बहू-बेटियों या फिर सबसे नजदीकी भक्त को सत्ता देते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वह शीर्ष पर नहीं रहे तो पार्टी बिखर जाएगी ओर सत्ता के कई कें्रद बन जाएंगे। पर वोटर परिवारवाद की इस परिपाटी की अतियों से बुरी तरह नाराज है। समय रहते अगर पार्टियों ने मुक्ति पाने की ईमानदार कोशिश नहीं की तो कांग्रेस वाला परिणाम उन्हें भी भुगतना पड़ेगा। फिलहाल कांगे्रस के शहजादे राहुल गांधी को भगवान सदबुद्धि दे कि राजनीति को तार्किक नजरिए से देख सकें।
(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
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- अल्लामा जमील मज़हरी