सुरेश स्वप्निल की ग़ज़लें
1.
न नींद आए न चैन आए
तो आशिक़ क्यूं हुआ जाए
लिया तक़दीर से लोहा
बहारें लूट कर लाए
हज़ारों बार दिल जीते
हज़ारों बार पछताए
ज़ुबां ख़ामोश रह लेगी
नज़र को कौन समझाए
कहां हम थे, कहां दुनिया
न आपस में निभा पाए
रहे रश्क़े-समंदर हम
हमीं कमज़र्फ़ कहलाए
चलो माना, ख़ुदा भी है
कभी तो शक्ल दिखलाए !
2.
वो अगर दोस्त कह गया होता
आपका अज़्म रह गया होता
ख़ून होता कहीं मिरे दिल में
चश्मे-नाज़ुक से बह गया होता
क़ैस ख़ुद्दार था मिरी तरहा
और भी ज़ुल्म सह गया होता
आप गर ख़्वाब में नहीं आते
दर्द क्या इस तरह गया होता
शाह तक़दीर का सिकंदर है
वर्न: आहों से ढह गया होता
शाह दुश्मन उसे समझ लेता
जो हमारी जगह गया होता
तूर पर दीद हो गई होती
तू अगर हर सुबह गया होता !
3.
1.
न नींद आए न चैन आए
तो आशिक़ क्यूं हुआ जाए
लिया तक़दीर से लोहा
बहारें लूट कर लाए
हज़ारों बार दिल जीते
हज़ारों बार पछताए
ज़ुबां ख़ामोश रह लेगी
नज़र को कौन समझाए
कहां हम थे, कहां दुनिया
न आपस में निभा पाए
रहे रश्क़े-समंदर हम
हमीं कमज़र्फ़ कहलाए
चलो माना, ख़ुदा भी है
कभी तो शक्ल दिखलाए !
2.
वो अगर दोस्त कह गया होता
आपका अज़्म रह गया होता
ख़ून होता कहीं मिरे दिल में
चश्मे-नाज़ुक से बह गया होता
क़ैस ख़ुद्दार था मिरी तरहा
और भी ज़ुल्म सह गया होता
आप गर ख़्वाब में नहीं आते
दर्द क्या इस तरह गया होता
शाह तक़दीर का सिकंदर है
वर्न: आहों से ढह गया होता
शाह दुश्मन उसे समझ लेता
जो हमारी जगह गया होता
तूर पर दीद हो गई होती
तू अगर हर सुबह गया होता !
3.
मुफ़लिसों ने जहां बदल डाला
देख लो, आसमां बदल डाला
थी हमें भी उमीद जल्वों की
'आप'ने तो समां बदल डाला
बढ़ गए ज़ुल्म जब ग़रीबों पर
क़ौम ने हुक्मरां बदल डाला
आहे-मज़्लूम के करिश्मे ने
हर भरम, हर गुमां बदल डाला
मंज़िलों पर निगाह थी जिनकी
वक़्त पर कारवां बदल डाला
आंधियों का कमाल ही कहिए
परचमों का निशां बदल डाला
तोड़ पाए न दिल हमारा जब
तो ग़मों ने मकां बदल डाला !
देख लो, आसमां बदल डाला
थी हमें भी उमीद जल्वों की
'आप'ने तो समां बदल डाला
बढ़ गए ज़ुल्म जब ग़रीबों पर
क़ौम ने हुक्मरां बदल डाला
आहे-मज़्लूम के करिश्मे ने
हर भरम, हर गुमां बदल डाला
मंज़िलों पर निगाह थी जिनकी
वक़्त पर कारवां बदल डाला
आंधियों का कमाल ही कहिए
परचमों का निशां बदल डाला
तोड़ पाए न दिल हमारा जब
तो ग़मों ने मकां बदल डाला !
4.
तुम्हारे हाथ में तलवार कब थी
अगर थी, तो बदन में धार कब थी
बचाना चाहते थे तुम सफ़ीना
हमारे सामने मझधार कब थी
गवारा हो न पाया सर झुकाना
मुहब्बत थी, मगर लाचार कब थी
किए थे मुल्क से वादे हज़ारों
अमल में शाह के रफ़्तार कब थी
ख़ुदा जाने किसी ने क्या संवारा
हमें इमदाद की दरकार कब थी
जिसे मौक़ा मिला लूटा उसी ने
वतन के वास्ते सरकार कब थी
वुज़ू थी, वज्ह थी, जामो-सुबू थे
ख़ुदा की राह में दीवार कब थी ?
5.
शायर था, दीवाना था
छोड़ो जी, अफ़साना था
तूफ़ानों से क्या शिकवा
फ़ितरत में टकराना था
दानिश्ता दिल दे बैठे
आख़िर क़र्ज़ चुकाना था
सोचो, तो मजबूरी थी
समझो, तो याराना था
ख़ूब लड़े, जीते-हारे
मक़सद जी बहलाना था
ख़ामोशी से टूट गया
शायद ख़्वाब सुहाना था
रब से कैसी उम्मीदें
क्या काफ़िर कहलाना था ?!
तुम्हारे हाथ में तलवार कब थी
अगर थी, तो बदन में धार कब थी
बचाना चाहते थे तुम सफ़ीना
हमारे सामने मझधार कब थी
गवारा हो न पाया सर झुकाना
मुहब्बत थी, मगर लाचार कब थी
किए थे मुल्क से वादे हज़ारों
अमल में शाह के रफ़्तार कब थी
ख़ुदा जाने किसी ने क्या संवारा
हमें इमदाद की दरकार कब थी
जिसे मौक़ा मिला लूटा उसी ने
वतन के वास्ते सरकार कब थी
वुज़ू थी, वज्ह थी, जामो-सुबू थे
ख़ुदा की राह में दीवार कब थी ?
5.
शायर था, दीवाना था
छोड़ो जी, अफ़साना था
तूफ़ानों से क्या शिकवा
फ़ितरत में टकराना था
दानिश्ता दिल दे बैठे
आख़िर क़र्ज़ चुकाना था
सोचो, तो मजबूरी थी
समझो, तो याराना था
ख़ूब लड़े, जीते-हारे
मक़सद जी बहलाना था
ख़ामोशी से टूट गया
शायद ख़्वाब सुहाना था
रब से कैसी उम्मीदें
क्या काफ़िर कहलाना था ?!
6.
मर्ग के बाद कोई सितम तो न हो
दिल जले तो जले रंजो-ग़म तो न हो
क़ब्र में हो सुकूं अम्न हो सब्र हो
बस हमें ज़िंदगी का वहम तो न हो
दफ़्न के बाद भी दिल धड़कता रहे
इस तरह दोस्तों का करम तो न हो
कल सभी जाएंगे मुट्ठियां खोल कर
दांव पर आज दीनो-धरम तो न हो
ताजिरों को खुली लूट की छूट है
दुश्मने-आम पर यूं रहम तो न हो
मुल्क में मुफ़लिसी बेबसी सब रहे
रिज़्क़ के नाम से आंख नम तो न हो
है ख़ुदा गर कहीं तो तग़ाफुल करे
मोमिनों पर वफ़ा की क़सम तो न हो !
7.
वक़्त की ना-कामयाबी देख ली
हर कहीं दिल की ख़राबी देख ली
तोड़ डाला पारसाई का गुमां
आईने ने बे-हिजाबी देख ली
पास आते ही पशेमां हो गए
चश्मे-जां की इल्तिहाबी देख ली
यूं हमें रुस्वा किया मंहगाई ने
शाह ने ख़ाली रकाबी देख ली
याद आती है किसी की रौशनी
तूर की रंगत गुलाबी देख ली
रात भर बारिश हुई इख़लास की
ख़ूने-दिल की इंसिबाबी देख ली
इक अज़ां पर सामने आ ही गए
आपकी भी इज़्तिराबी देख ली !
8.
शहर के इरादे ग़लत तो नहीं हैं ?
कहीं इश्क़ज़ादे ग़लत तो नहीं हैं ?
बयाज़े-नज़र में बयां कुछ नहीं है
ये: सफ़हात सादे ग़लत तो नहीं हैं ?
यक़ीं है हमें पर तसल्ली नहीं है
ये: पुरज़ोर वादे ग़लत तो नहीं हैं ?
दिए जा रहे हैं जहां को नसीहत
ये: भगवा लबादे ग़लत तो नहीं हैं ?
जहां शाह कह दे वहीं जान दे दें
ये: मजबूर प्यादे ग़लत तो नहीं हैं ?
9.
शाह जब बे-नक़ाब होते हैं
देर तक दिल ख़राब होते हैं
ख़ार हम बाज़ वक़्त होते हैं
यूं अमूमन गुलाब होते हैं
कौन चाहत करे फ़रिश्तों की
लोग भी लाजवाब होते हैं
आप आंखें खुली रखा कीजे
ख़्वाब ख़ाना-ख़राब होते हैं
दर्दे-दिल मुफ़्त में नहीं मिलते
मन्नतों का जवाब होते हैं
ताज सर पर नहीं रहा करते
ज़ुल्म जब बे-हिसाब होते हैं
कोई बतलाए, कब करें सज्दा
होश में कब जनाब होते हैं ?
मर्ग के बाद कोई सितम तो न हो
दिल जले तो जले रंजो-ग़म तो न हो
क़ब्र में हो सुकूं अम्न हो सब्र हो
बस हमें ज़िंदगी का वहम तो न हो
दफ़्न के बाद भी दिल धड़कता रहे
इस तरह दोस्तों का करम तो न हो
कल सभी जाएंगे मुट्ठियां खोल कर
दांव पर आज दीनो-धरम तो न हो
ताजिरों को खुली लूट की छूट है
दुश्मने-आम पर यूं रहम तो न हो
मुल्क में मुफ़लिसी बेबसी सब रहे
रिज़्क़ के नाम से आंख नम तो न हो
है ख़ुदा गर कहीं तो तग़ाफुल करे
मोमिनों पर वफ़ा की क़सम तो न हो !
7.
वक़्त की ना-कामयाबी देख ली
हर कहीं दिल की ख़राबी देख ली
तोड़ डाला पारसाई का गुमां
आईने ने बे-हिजाबी देख ली
पास आते ही पशेमां हो गए
चश्मे-जां की इल्तिहाबी देख ली
यूं हमें रुस्वा किया मंहगाई ने
शाह ने ख़ाली रकाबी देख ली
याद आती है किसी की रौशनी
तूर की रंगत गुलाबी देख ली
रात भर बारिश हुई इख़लास की
ख़ूने-दिल की इंसिबाबी देख ली
इक अज़ां पर सामने आ ही गए
आपकी भी इज़्तिराबी देख ली !
8.
शहर के इरादे ग़लत तो नहीं हैं ?
कहीं इश्क़ज़ादे ग़लत तो नहीं हैं ?
बयाज़े-नज़र में बयां कुछ नहीं है
ये: सफ़हात सादे ग़लत तो नहीं हैं ?
यक़ीं है हमें पर तसल्ली नहीं है
ये: पुरज़ोर वादे ग़लत तो नहीं हैं ?
दिए जा रहे हैं जहां को नसीहत
ये: भगवा लबादे ग़लत तो नहीं हैं ?
जहां शाह कह दे वहीं जान दे दें
ये: मजबूर प्यादे ग़लत तो नहीं हैं ?
9.
शाह जब बे-नक़ाब होते हैं
देर तक दिल ख़राब होते हैं
ख़ार हम बाज़ वक़्त होते हैं
यूं अमूमन गुलाब होते हैं
कौन चाहत करे फ़रिश्तों की
लोग भी लाजवाब होते हैं
आप आंखें खुली रखा कीजे
ख़्वाब ख़ाना-ख़राब होते हैं
दर्दे-दिल मुफ़्त में नहीं मिलते
मन्नतों का जवाब होते हैं
ताज सर पर नहीं रहा करते
ज़ुल्म जब बे-हिसाब होते हैं
कोई बतलाए, कब करें सज्दा
होश में कब जनाब होते हैं ?
10.
न दिल रहेगा, न जां रहेगी
रहेगी तो दास्तां रहेगी
है वक़्त अब भी निबाह कर लें
तो ज़िंदगी मेह्रबां रहेगी
तुम्हारे आमाल तय करेंगे
कि रूह आख़िर कहां रहेगी
थमा सफ़र जो कभी हमारा
ग़ज़ल हमारी रवां रहेगी
मिरे मकां का तवाफ़ करना
कि हर तमन्ना जवां रहेगी
ये दौरे-दहशत तवील होगा
जो चुप अभी भी ज़ुबां रहेगी
उड़ेगी जब ख़ाक ज़र्रा-ज़र्रा
फ़िज़ा में अपनी अज़ाँ रहेगी !
(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 10 मार्च, 1958, झांसी, उप्र में। पालन-पोषण भोपाल में ।
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी साहित्य), एम.ए.(अर्थशास्त्र), बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से; भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे से फ़िल्म-निर्देशन में स्नातक।
सृजन : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं, पहला ग़ज़ल-संग्रह 'सलीब तय है' दख़ल प्रकाशन से प्रकाशित
न दिल रहेगा, न जां रहेगी
रहेगी तो दास्तां रहेगी
है वक़्त अब भी निबाह कर लें
तो ज़िंदगी मेह्रबां रहेगी
तुम्हारे आमाल तय करेंगे
कि रूह आख़िर कहां रहेगी
थमा सफ़र जो कभी हमारा
ग़ज़ल हमारी रवां रहेगी
मिरे मकां का तवाफ़ करना
कि हर तमन्ना जवां रहेगी
ये दौरे-दहशत तवील होगा
जो चुप अभी भी ज़ुबां रहेगी
उड़ेगी जब ख़ाक ज़र्रा-ज़र्रा
फ़िज़ा में अपनी अज़ाँ रहेगी !
(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 10 मार्च, 1958, झांसी, उप्र में। पालन-पोषण भोपाल में ।
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी साहित्य), एम.ए.(अर्थशास्त्र), बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से; भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे से फ़िल्म-निर्देशन में स्नातक।
सृजन : पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं, पहला ग़ज़ल-संग्रह 'सलीब तय है' दख़ल प्रकाशन से प्रकाशित
ब्लॉग : ग़ज़लों के लिए साझा आसमान, जबकि कविता केंद्रित साझी धरती
संप्रति: स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य
संपर्क: sureshswapnil50@gmail.com )
संप्रति: स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य
संपर्क: sureshswapnil50@gmail.com )
2 comments: on "... देर तक दिल ख़राब होते हैं"
मेरी ग़ज़लों को 'हमज़बान' पर जगह देने के लिए, बहुत-बहुत शुक्रिया, भाई शाहरोज़ क़मर साहब।
सहज भाव, साफ़ ज़बान और अच्छा शेर , गज़लों में जीवन बोलता है। ग़ज़लें मोहब्बत की ज़बान में हैं.
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी