बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 10 मार्च 2015

दीमापुर में क़ानून भी मरा है


कीजिये बर्बरता को सलाम! 








 





वसीम अकरम त्यागी की क़लम से

नागालैंड  के दीमापुर में जो हुआ है उसे कुछ लोग समुदाय विशेष से जोड़ कर देख रहे हैं.  उसमें हिंदू -मुस्लिम खोजा जा रहा है.  इस खोजबीन के सिलसिले में वे सवाल पीछे छूट रहे हैं जो इस प्रकार की घटना के समय उठने चाहियें। शायद यह एसी पहली घटना है जिसमें भीड़ ने जेल के अंदर से किसी व्यक्ति को निकाला और आठ किलो मीटर तक उसके घसीट – घसीट कर पीटा और फिर मार दिया गया। इस घटना ने कॉलेज की दीवार पर लिखी उस पंक्ति को गलत साबित कर दिया जिसमें लिखा था ‘पाप से डरो, पापी से नहीं’ जाने वो कैसे लोग थे जिन्होंने दीवारों पर इस इबारत को लिखा था और यह कैसे लोग हैं जो उसे पढ़ नहीं पाये, समझ नहीं पाये। हजारों की भीड़ में क्या एक भी शख्स एसा नहीं रहा होगा जिसका सीना इंसानों का हो। एक व्यक्ति को मारना, और जलील करके मारना इसमें बहुत बड़ा फर्क है यह सबकुछ पुलिस की मौजूदगी में हुआ समर अनार्य के शब्दों में कहा जाये तो ‘जाति, धर्म, लिंग, भाषा- किन आधारों पर भीड़ द्वारा दीमापुर में एक बलात्कार आरोपी को जेल, यानी सरकारी अभिरक्षा, से निकाल कर मार दिया जाना कैसे 16 दिसम्बर से कम बर्बर है? कौन है जो एजेंडा सेट करता है कि कौन से अपराध उन्माद पैदा करेंगे, किन अपराधों से उन्माद पैदा करवाया जाएगा और कौन से बस यूं ही अपवाद की तरह भूल दिए जायेंगे’ ?

भीड़ का गुस्सा तो इसको नहीं कहा जा सकता बल्कि यह तो सुनियोजित तरीके से की गई एक हत्या थी जिसमें स्थानीय प्रशासन, जेल प्रशासन और क्षेत्रीय राजनीति की भूमिका सवालों में है। अगर बलात्कार के खिलाफ यह गुस्सा था तो फिर यह गुस्सा उस वक्त क्यों नहीं जब 2012 में अंडमान निकोबार में विदेशी पर्यटकों ने दो रोटी का लालच देकर आदीवासी महिलाओं को नंगा नचाया था ? उनके कपड़े उतरवाकर उनसे डांस करवाया और फिर उसकी वीडियो भी बनाई जिसे यूट्यूब पर शेयर किया गया। उन विदेशी पर्यटकों पर किसी को गुस्सा क्यों नहीं आया ? 

बहरहाल जैसा मंजर दीमापुर का रहा है वह हम सबकी आंखों के सामने है तरह – तरह की प्रतिक्रियाऐं सामने भी आई हैं। कोई व्यक्ति कानून तोड़ता है अपराध करता है उसके लिये सजा आईपीसी तय करेगी या फिर हजारों की वह भीड़ जिसने भारी सुरक्षा के बीच (भारी पुलिस बल) एक व्यक्ति को जेल से निकाला और फिर नंगा करके मारते हुऐ उसे सात – आठ किलो मीटर तक पैदल घसीटा ? जाहिर यह दूरी कोई दस पांच मिनट में तो तय नहीं हो गई होगी इसके लिये कमसे कम दो से तीन घंटे का समय लगा होगा क्या इस अंतराल में भी पुलिस का लापरवाह बने रहना उसके लिये उत्तरदायी नहीं ? अगर सबकुछ भीड़ को ही करना है तो फिर यह अदालतें, कानून की मोटी-मोटी किताबें, जज, वकील, गाऊन किसलिये हैं ? फिर इनकी जरूरत ही क्या है ? जब सब कुछ भीड़ ही करेगी तो फिर उखाड़ कर क्यों नहीं फेंक दिया जाता इन संस्थानों को जिनकी ओर पीड़ितों की आंखें न्याय मिलने की बांट में सूखी जा रही है ? दीमापुर की घटना महज एक घटना ही नहीं बल्कि इसने यह साबित किया है कि संविधान की दुहाई देने वाले राज्यों में कानून के प्रति लोगों की आस्था ही नहीं है, कुछ पुलिस बल का सहारा लेकर कुछ भी किया जा सकता है ?
तुर्रा यह कि सैयद फरीद बंग्लादेशी था यह कैसी अजीब विडंबना है मृतक के प्रति लोगों की सहानूभूति को विदेशी कहकर कम किया जा रहा है। क्या नागा काउंसिल  इस बात का जवाब दे सकती है कि अगर फरीद बंग्लादेशी था तो 1999 में कारगिल युद्ध में शहीद होने वाला उसका भाई सैयद इस्लामुद्दीन भारतीय सेना में कैसे पहुंच गया ? जिस पचास रुपये का तर्क नागा काउंसिल की तरफ से दिया गया है कि पचास रुपये में भारतीय नागरिकता मिल जाती है,  वह कितना भौंडा है! क्या पचास रुपये खर्च करने के बाद ही कोई विदेशी भारतीय सेना में पहुंच जाता है ? फिर पचास रुपये की ‘लाज’ के लिये अपनी जान भी देश के लिये दे देता है ? फरीद के पिता भी वायू सेना में रहे, यानी पिछली दो पीढ़ियों से यह परिवार सेना में रहा उसके बावजूद भी संविधान और राष्ट्र से ऊपर होते दिख रहे नागा काउंसिल को मृतक बंग्लादेशी नजर आया। 

कई बार दिमाग में यह सवाल आता है कि जब झूठा बलात्कार करने की सजा वह थी जो फरीद को मिली,  फिर उन पुलिसकर्मियों को जिनकी आंखों के सामने यह सबकुछ हुआ, बलात्कार का आरोप लगाने वाली युवती, व फरीद की क्रूरतापूर्वक हत्या करने वाले उन लोगों को कौनसी सजा दी जायेगी ? जिन्होंने खुद को देश के संविधान से बड़ा साबित किया है।


(रचनाकार -परिचय:
जन्म :  उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व  संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन : समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों  रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
संप्रति :  मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क : wasimakram323@gmail.com

हमज़बान पर वसीम अकरम त्यागी के और लेख

Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

4 comments: on "दीमापुर में क़ानून भी मरा है"

बेनामी ने कहा…

आपका लेख बंद आंखों को खोल देने वाला है। अच्‍छे और सार्थक लेख के लिए बधाई।

Shah Nawaz ने कहा…

यह वाकई विचार करने का समय है कि हमें किस ओर धकेला जा रहा है!

Imran ने कहा…

Khoob Badhiya.... Aaisy Tarah Likhtay Raha Jan Samasyaa par. Dimapur incident was a tragedy and serious lapse on the part of Jail Officers, DGP and DM of Dimapur.

शेरघाटी ने कहा…

दलित लेखक-चिंतक मेल से अपनी राय दी है, वह कहते हैं:
दीमा पुर में कानून ही नहीं इंसानियत भी मरी है .

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)