बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 25 मार्च 2015

कहानी : दहलीज़

 युवा कवि की पहली कहानी 












संजय शेफर्ड की क़लम से 

यह लड़कियां भी ना ? ना जाने किस परिवेश और संस्कार में पलती- बढ़ती और बड़ी होती हैं ? एक अधेड़ 
व्यक्ति ने खुद से मन ही मन में प्रश्न किया और उस चौदह वर्षीय लड़की की आवश्यकता से थोड़ी ऊंची उठ 
रही  स्कर्ट के अंदर झांकने की कोशिश की। लड़की उस अधेड़ व्यक्ति की नज़रों को भांप थोड़ी सकपकाई और 
असहज महसूस करते हुए करीब छह इंच की दूरी बनाते हुए बगल में खड़ी हो गई। अब उस अधेड़ की नज़र 
सीधे- सीधे लड़की की छातियों के आसपास से घूमती हुई कुछ देर बाद लड़की के उन उभारों पर जा टिकीं जहां 
एक अधोवस्त्र के आलावा कुछ भी नहीं था। लड़की की सकपकाहट बेचैनी में परिवर्तित होने लगी थी और 
असहजता बौखलाहट का रूप लेकर अब फूटे क तब फूटे। परन्तु वह अधेड़ उस लड़की की इन तमाम 
स्थितियों से बेखबर उसकी देह के तमाम हिस्सों में अपनी नज़र इस कदर गड़ाए जा रहा था कि मानों उसकी 
देह के तमाम छिद्रों को अपनी वासना से भर देगा। लड़की की मानसिक व्यथा बढ़ने के क्रम में दैहिक पीड़ा में 
परिवर्तित होने लगी। लड़की को लगा उसकी देह के तमाम छिद्रों में एकाएक किसी ने हजारों की संख्या में 
तलवार घुसेड़ दिया है। उसकी देह की कराह चीख में परिवर्तित होकर उठी और उसके मन की कब्र में जा 
समाई।

सही मायने में यह स्थिति लड़की के संयम के दायरे से बाहर की थी फिर भी लड़की ने अपने अथाह दर्द और 
उफनते आवेग पर कायम रखते हुए थोड़ी और दूरी बनाकर खड़ी हो गई। पर उसे यह दूरी उस अधेड़ की नज़र 
से ज्यादा नहीं ले जा पाई। इस बार उसकी नज़र लड़की के वक्ष से नीचे उतर नाभि के इर्द-गिर्द ही टिकी हुई 
थी।  लड़की ने उस अधेड़ की चुभती हुई नज़र को दूबारा जैसे ही अपने नाभि में महसूसा, साथ ही यह भी 
महसूसा  कि अब यह नजरें नाभि के नीचे उतरने की कोशिश करेंगी उसकी बंद मुठ्ठियां खुली और एक जोरदार 
तमाचे की आवाज पूरे ठसमठस भीड़ भरी बस में गूंज पड़ी। किसी को कुछ समझ में ना आए इसका तो सवाल 
ही नहीं था। इस तरह की घटनाएं आये दिन दिल्ली के बसों में होती रहती हैं। करीब बीस सेकेंड तक पूरे बस में 
शांति छाई रही उसके बाद धीरे-धीरे कुछ आवाजें अपना-अपना मुंह खोलने लगी।

मारों साले को मारों, लड़की को ताड़ता है, तेरी मां- बहन नहीं है। इतना सुनते ही मानों भीड़ का पूरा का पूरा 
जत्था उस अधेड़ व्यक्ति पर टूट पड़ा। दो मिनट के अंदर उस पर कितने लात- जूते पड़े होंगे उसे इस बात का 
अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। लोगों की मार से उसके शरीर के तमाम हिस्से ज़ख्मी हो गए थे। उसके 
होंठ कट गए थे और नाक से खून टपक रहा था। लेकिन आश्चर्य की बात यह कि उस व्यक्ति ने जरा भी 
भागने  का प्रयास नहीं किया। इतनी मार खाने के बाद भी जस का तस बस की सीट पर ही पड़ा रहा। दूसरी 
तरफ लड़की जोर-जोर से सिसक रही थी। उसके आसपास कई औरतों की भीड़ जमा हो गई थी। कोई उसके 
बालों में  हाथ फेरते हुए सन्तावना के स्वर में यह कह रहा था कि चुप हो जा बेटा- चुप हो जा। कोई उल्टे उसके 
पहनावे को दोषी ठहराते हुए कह रहा था इस तरह के कपडे पहनती ही क्यों हो जब सती - सावित्री बनती हो ? 
जितने  मुंह उतनी बात ! कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ ! लोगों की कहा सुनी, आपस की घुसर-पुसर के 
मध्य यह  तिहत्तर नंबर की बस निर्माण विहार के स्टैंड पर जैसे ही पहुंची वह लड़की बस से उतर गई।

सिर्फ एक स्टेशन के बाद मुझे भी बस से उतरना था। उस लड़की के बस से उतरने के बात यात्रियों की आपसी 
सुगबुगाहट थोड़ी और तेज हो गई। कहा सुनी, आपस की घुसर-पुसर का स्वर धीरे-धीरे और ऊंचा उठने लगा। 
जो घटना महज़ पांच मिनट पहले एक घटना थी अब वह इंटरटेनमेंट से ज्यादा कुछ नहीं रह गई थी। इस बस 
में मैं करीब साल भर से सफ़र कर रही हूं। बस में अक्सर इस तरह की छेड़छाड़ की घटनाएं होती ही रहती हैं। 
और मेरे ही साथ क्या पब्लिक या फिर प्राइवेट बस में चलने वाली हर लड़की के साथ होती ही रहती हैं। फिर 
धीरे-धीरे यह घटनाएं रोजमर्रा यात्रा करने वाली लड़कियों या महिलाओं के रूटीन की एक हिस्सा बन जाती हैं। 
अब भला कामकाजी महिलाएं और लड़कियां करें भी तो क्या करें, सामान्य तरीके से अगर समझाने की 
कोशिश करें तो यह मनचले पीछे पड़ जाते हैं और असामान्य तरीके से समझाएं तो उनके जान पर ही बन 
आती है। भरी भीड़ में ही कब किस हरकत पर उत्तर आएं। और घर-परिवार ? दरअसल हम लड़कियों को 
रोटी  भी कमानी होती है और अपनी इज्ज़त भी बचानी होती है अन्यथा परिवार के लोग ही कह देंगे कि- 
नौकरी करने की कोई जरुरत नहीं घर में ही बैठी रहो ? यह कह देना सचमुच बहुत आसान है पर एक 
पढ़ी-लिखी लड़की का घर की दहलीज़ के अंदर कैद हो जाना बहुत ही मुश्किल। लेकिन मां- बाप और 
घर-परिवार वाले भी क्या करें ? उनके पास दिन- ब- दिन बढ़ते भ्रष्टाचार और सामाजिक विषमताओं ने बहुत 
ही सीमित दायरे छोड़े हैं।

दिल्ली की बसों में भीड़ एक समस्या है लेकिन आये दिन कोई ना कोई इस भीड़ का फायदा उठाकर किसी 
लड़की की कमर या छाती पर हाथ फेर ही देता है। ऐसी स्थिति में लड़कियां अपने आपको असहज महसूस 
करती हैं। पर करें भी तो क्या करें सामने वाला बंदा अपने इस कृत्य के लिए बाकायदा सॉरी भी बोलता है 
लेकिन मौका मिलते ही दुबारा कमर या पेट पर कोहनी धंसा देता है। ज्यादातर लड़कियां इस तरह कि 
घटनाओं को नज़रअंदाज करने की कोशिश करती हैं। परन्तु कुछ लड़कियां इस घटनाओं को एन्जॉय करती 
और हंसकर टाल भी जाती हैं। विस्मय तो तब होता है जब कोई 40 -45 साल का युवक 14-15 साल की 
लड़की  को छेड़ रहा होता है और बात- बात में उसकी जांघ पर हाथ रखने से नहीं चुकता। पर ऐसी घटनाओं के 
प्रति लड़कियों को गंभीर हो जाना चाहिए और कठोर लहजे में सख्त आवाज के साथ अपना विरोध दर्शना 
चाहिए।

पिछले दिनों सलोनी के साथ भी तो आखिरकार यही तो हुआ। आखिर उसने एक मुस्कराहट का जबाब एक 
मुस्कराहट से हे तो दिया। तीन लड़के करीब एक  महीने तक उस लड़की का पीछा करते-करते उसके घर और 
ऑफिस तक पहुंचते रहे थे। नौबत यहां तक आ  गई कि वह चाक- चौराहे और बाज़ार जहां भी होती वही तीन 
गिने चुके चहरे नजर आ जाते। अंतत जब वह  इस हालत से तंग आ गई तो पुलिस को फ़ोन करना पड़ा और 
तब कहीं जाकर इस मुश्किल से निजात मिल  पाई। लेकिन महिने भर भी नहीं बीते थे कि प्रतिशोधवश उन्हीं 
मनचलों ने दुबारा उसे परेशान करना शुरू कर  दिया। फिर इस बात को वह अपने घर पर भी नहीं बता पाई। 
लेकिन स्थिति जब उसके मानसिक प्रताड़ना के  रूप में असहनीय होने लगी तो एक अपने ही हमउम्र पुरुष 
मित्र के साथ पुलिस थाने पहुंच गई। उन मनचलों  के  छेड़छाड़ ने उसे सिर्फ मानसिक प्रताड़ना का शिकार 
बनाया था पर पुलिस के सवालों ने महिला सुरक्षा  कानून का बलात्कार कर दिया। कितने दिन छेड़ रहे हैं ? 
क्यों छेड़ रहें हैं ? तुम्हारे पहले से कोई आपसी  सम्बन्ध तो नहीं हैं ? सिर्फ तुम्हें ही क्यों छेड़ते हैं ? तुमने 
इतने  छोटे कपडे क्यों पहनी हो ? तुम अपने मां-बाप  के साथ क्यों नहीं आई ? तुम्हारे साथ यह पुरुष मित्र 
कौन है ?  और ना जाने क्या- क्या ?

मैं इन्हीं सभी ख्यालों में उलझी हुई थी तभी मेरी नजर उस सीट पर पड़ी तो वह अधेड़ व्यक्ति और उसके 
बगल  वाली सीट पर बैठी महिला गायब थे। बीच में तो कोई बस स्टैंड भी नहीं आया ? लग रहा है वह व्यक्ति 
भी निर्माण विहार के उसी स्टैंड पर उतर गया जहां वह लड़की उतरी थी। क्या ? कहीं वह उस लड़की का दुबारा 
पीछा तो नहीं करेगा ? मेरे अंदर एक सवाल कौंधा परन्तु तब तक बस प्रीत विहार बस स्टैंड के करीब पहुंच 
चुकी थी। मैं बस से उतरने से पहले अपने सामान को सहेजती नजर पास में पड़े लेडीज़ बैग पर पड़ी। मैंने 
अगल बगल नजर दौड़ाई आसपास दो-चार पुरुष यात्रियों के आलावा कोई और नजर नहीं आया तो मुझे यह 
समझने में तनिक भी देर नहीं लगी की यह पर्स उस पीड़ित लड़की का ही है जो असहजता की स्थिति में 
भूलवश छोड़कर चली गई होगी। मैंने उस लावारिस बैग को उठा लिया पहले जी चाहा कि कंडक्टर को दे दे 
ताकि वह वापस ढूंढने आये तो वह लौटा दे। परन्तु फिर ख्याल आया नहीं - आजकल दूसरे का सामान भला 
कौन सहेजकर रखता और लौटाता है। और कहीं कोई जरुरी डाक्यूमेंट्स हुआ तो …?

बस से उतरने के बाद पीजी पहुंची तो घडी की छोटी सुई सात और बड़ी बारह पर थी। कनॉट प्लेस से प्रीत 
विहार पहुँचाने में करीब करीब एक घंटे का समय तो लग ही जाता है। दिन भर ऑफिस की थकान के बाद यह 
आधे घंटे की कमरतोड़ बस की यात्रा पूरे शरीर को चूस लेती है। और इस बार तो पीरियड भी पता नहीं क्यों 
पांच दिन पहले आ गया। इस ईश्वर ने भी जाने क्यों सारे दर्द हम लड़कियों के हिस्से में लिख रखे हैं ? वाशरूम 
पहुंचकर मैंने चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे मारे और वापस आकर उस बैग को टटोला ताकि ऐसा कुछ मिल जाये 
जिसके आधार पर उसे वापस लौटाया जा सके। कोई डायरी, नोट बुक, विजिटिंग कार्ड कुछ भी जिसमें अमुक 
लड़की का नाम या फिर पता लिखा हो। पर बैग में एक पैकट सैनिटरी नैपकिन, एक लंचबॉक्स और पानी की 
बोतल के आलावा कुछ दिखाई नहीं दिया। लेकिन साईड पॉकेट में हाथ डाला तो एक छोटी डायरी मिल गई। 
डायरी में कोई पता तो नहीं पर कुछ टेलीफोन नंबर जरूर थे। एक नंबर पर जिसके ऊपर पापा लिखा था मैंने 
अपने फोन से डॉयल किया तो दूसरी तरह से जो आवाज़ आई वह एक महिला की थी। मैंने बिना कोई भूमिका 
बनाए बैग के बस में मिलाने की बात बताई तो उसने धन्यवाद ज्ञापन के भाव के साथ बिना पूछे ही यह बता 
दिया हां, यह मेरी बेटी का बैग है जो 73 नंबर की डीटीसी बस में छूट गया था। मैंने फ़ोन पर ही उस महिला के 
घर का पता लिया और अगले दिन पहुंचाने का आश्वासन दिया तो उसे यह कहते देर नहीं लगी कि कोई बात 
नहीं बेटी आप अपना पता दे दो आकर मैं ही ले लूंगी। पर मैंने कोई बात नहीं कहते हुए फ़ोन काट दिया।


दूसरे दिन घर से करीब पांच बजे के आसपास घर से निकल गई। उस लड़की का घर मुख्य सड़क से दस 
मिनट  की दूरी पर एक बिल्डिंग के तीसरी मंजिल पर था। मैंने थोड़ी सी पूछताछ की और तीसरे मंजिल पर 
पहुंची। अपने आपको थोड़ा आस्वश्त किया और डोरवेल बजाकर दरवाजा खुलने का इन्तजार करने लगी। 
थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला तो आवाक रह गई- यह तो वही अधेड़ आदमी था जिसे उस दिन लोगों ने बस में 
पीटा था। और उसके बगल में खड़ी महिला भी वही थी जो उस दिन इस अधेड़ के बगल वाली सीट पर बैठी थी। 
किसी अनहोनी के डर से मेरे हाथ- पैर थर- थर कांपने लगे, मुझे पल भर के लिए ऐसे लगा कि मैं किसी बहुत 
बड़ी साजिश की शिकार हो चुकी हूं। परन्तु ऐसे में अपना धैर्य खो देना किसी मूर्खता से कम नहीं था। मैंने 
अपनी आवाज़ को थोड़ा कसा तथा कठोरता और संदेह भरे लहज़े में उन दोनों की तरफ नजरे तरेरते हुए उन 
प्रश्न किया ? उन दोनों ने बिना किसी गहरे भाव के अंदर आने को कहा और एक लड़की की तरफ इशारा 
करते  हुए कहा नहीं, मेरा नहीं, मेरी बेटी का है। इसका नाम अनन्या है और यह सेकण्डरी की स्टूडेंट है।


मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था ! मेरे पैर के नीचे की जमीन अब खिसके की तब खिसके। मेरे घर के अंदर 
 की तरफ बढ़ते हुए कदम अचानक दहलीज़ के बाहर ही अटक गए- क्योंकि यह लड़की भी वही लड़की थी 
 जिसने अधेड़ को थप्पड़ जड़ा था। उस वक़्त मेरे पास एक मां- एक बेटी और एक बाप के तीन चेहरे थे। मेरे मन  में उस लड़की, उस महिला, और उस पुरुष के लिए एक जोरदार समुंद्री लहर की तरह कुछ घिनौने ख्याल आए। रिश्तों के मर्म का बिना कोई परवाह किए मैं उल्टे पैर भागी। पर इन घिनौने रिश्तों से कब तक भागा जा सकता है ? इस घटना को करीब दो साल हो गए- परन्तु ऐसा लगता है कि तब से लेकर अब तक मैं एक अंतहीन रास्ते पर भागे जा रही हूं - और एक मर्दाना आवाज़ ''उस दिन जो कुछ हुआ वह महज़ एक कमजोर लम्हा था'' आज भी मेरा पीछा कर रही है। उफ्फ ! यह लम्हें भी इतने कमजोर क्यों होते हैं ? जो एक स्त्री की ढकी अथवा खुली देह में छाती, कमर और योनि तो देखते हैं पर अपनी ही बहन- बेटियों का चेहरा नहीं तलाश पाते।

 
 
 
(रचनाकार-परिचय: 
मूल नाम: संजय कुमार पाल।
जन्म: 10 अक्टूबर 1987 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में।
शिक्षा:
स्कूली तालीम जवाहर नवोदय विद्यालय गोरखपुर से,  भारतीय मीडिया संस्थान दिल्ली से पत्रकारिता व जन संचार में स्नातक, जबकि जेवियर इंस्टिट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन मुंबई से इसी में स्नातकोत्तर किया
कार्यक्षेत्र: एशिया के विभिन्न देशों में शोधकार्य, व्यवसायिकतौर पर मीडिया एंड टेलीविजन लेखन, साहित्य, सिनेमा, रंगमंच एवं सामाजिक कार्य में विशेष रुचि।
नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन।  25 से अधिक नाटकों का लेखन।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन व प्रसारण।
संप्रति: बीबीसी एशियन नेटवर्क में शोधकर्ता एवं किताबनामा प्रकाशन, हिन्दीनामा प्रकाशन के प्रबंध निदेशक के तौर पर संचालन।
संपर्क: sanjayshepherd@outlook.com)
 
 
 
 

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