बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 18 मार्च 2015

कृषिप्रधान देश फ़िलहाल किसानों का क़ब्रगाह बना रहेगा !




   










कृष्णकांत की क़लम से 

सरकार ने 13 मार्च को संसद में जानकारी दी कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद डिवीजन में 2015 के शुरुआती 58 दिनों के भीतर 135 किसानों ने आत्महत्या कर ली. कृषि राज्यमंत्री मोहनभाई कुंडारिया ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2012 और 2013 में क्रमश: 13,754 और 11,772 किसानों ने आत्महत्या की. भारत में ज्यादातर किसान कर्ज़, फसल की लागत बढ़ने, सिंचाई की सुविधा न होने, कीमतों में कमी और फसल के बर्बाद होने के चलते आत्महत्या कर लेते हैं. 1995 से लेकर अब तक 2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
महाराष्ट्र लगातार 12वें साल महाराष्ट्र किसान आत्महत्या के मामले में अव्वल है. यहां का सूखाग्रस्त विदर्भ क्षेत्र किसानों की कब्रगाह है. अकेले महाराष्ट्र में 1995 से अब तक 60,750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बीती फरवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने बारामती में शरद पवार के किसी ड्रीम प्रोजेक्ट कृषि विज्ञान केंद्र का उद्घाटन किया और दोनों नेताओं ने एक दूसरे को किसानों का हितैषी बताया. यह गौर करने की बात है कि 1995 से अब तक बीस साल में शरद पवार दस साल कृषि मंत्री रहे और सबसे ज्यादा किसान महाराष्ट्र में मरे. जब शरद पवार के  कथित ड्रीम प्रोजेक्ट का उद्घाटन हो रहा था, तब किसानों की इन मौतों का तो कोई जिक्र नहीं हुआ, कृषि को वैश्विक बाजार में तब्दील करने की घोषणा जरूर हुई. नई सरकार आने के बाद से अब तक इस सरकार ने एक बार भी किसानों को कोई सांत्वना तक नहीं दी है कि वे कर्ज और गरीबी के चलते आत्महत्या न करें, सरकार उनकी समस्याओं को सुलझाने के कुछ उपाय करेगी.
चुनाव प्रचार के मोदी हर सभा में कहा करते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों और किसानों का है. लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनते ही अडाणी को छह हजार करोड़ का सरकारी कर्ज दिलवाना उनकी शुरुआती बड़ी घोषणाओं में से एक थी. तब से वे दुनिया भर में घूम घूम कर पूंजीपतियों को भरोसा दे रहे हैं कि उनकी सरकार पूंजीपतियों को पूरी सुरक्षा देगी. अमेरिका से परमाणु समझौते के तहत आनन फानन में भारत सरकार ने अमेरिकी कंपनियों को दुर्घटना संबंधी जवाबदेही से मुक्त कर दिया और देश के खजाने से 1500 करोड़ का मुआवजा पूल गठित कर दिया. यदि पूंजीपतियों के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा सकता है तो क्या कर्ज से मरते किसानों की जान बचाने के लिए कुछ सौ करोड़ रुपए की योजनाएं नहीं शुरू की जा सकतीं?  
जब संसद में सरकार किसान आत्महत्याओं की जानकारी दे रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्रा पर जा चुके थे. उन्होंने जाफना में श्रीलंकाई तमिलों को भारत की मदद से बने 27 हजार मकान सौंपे और इस परियोजना के दूसरे चरण में भारत के सहयोग से और 45 हजार मकान बनाए जाने की घोषणा की. मॉरीशस को  इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए 50 करोड़ डॉलर का रियायती कर्ज देने की पेशकश की. इसी तरह अनुदान और कर्ज के रूप में सेशेल्स को भी 7.50 करोड़ डालर की राशि दी गई. काश प्रधानमंत्री अपने देश में मर रहे किसानों के लिए भी कुछ करते! यदि कुछ न करते तो दिलासा देने वाली कोई घोषणा ही कर देते!
मोदी एक ऐसे देश के प्रधानमंत्री हैं जहां पांच करोड़ लोग बेघर हैं. इन बेघर लोगों के लिए मोदी सरकार ने कोई पहल की हो, ऐसा अभी सुनने में नहीं आया है. सरकार भूमि अधिग्रहण बिल के लिए जरूर पूरा जोर लगा चुकी है जिसके तहत किसानों की सहमति के बिना उनकी जमीनें लेकर कारपोरेट को सस्ते दाम में देने की योजना है. 
यह वही देश है जो स्मार्ट सिटी बनाने और बुलेट ट्रेन चलाने की बात करता है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं करता कि उसकी कितनी आबादी बेघर है, भूखी है। पहले से चल रही खटारा ट्रेनों में पानी नहीं होते. ज्यादातर जनसंख्या को पीने के लिए शुद्ध पानी तक नहीं है. यहां इस पर कोई बात नहीं होती कि हर साल करीब साढ़े तेरह लाख बच्चे पांच साल की उम्र पूरी करने से पहले मर जाते हैं. इसका कारण डायरिया और निमोनिया जैसी साधारण बीमारियां हैं. हम इन शर्मनाक आंकड़ों पर कभी शर्मिंदा नहीं होते.
जब प्रधानमंत्री उद्योगपतियों को विश्वास में लेने के लिए ताबड़तोड़ कॉरपोरेट हितैषी घोषणाएं कर रहे हैं और दुनिया भर में घूम घूम कर आर्थिक मदद बांट रहे हैं, उसी समय में स्वाइन फ्लू से अबतक 1600 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और करीब 50 हजार पर यह खतरा बना हुआ है. यदि स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी से इतनी मौतें अमेरिका या यूरोपीय देशों में ​होतीं तो क्या वहां ऐसी ही चैन की बंसी बज रही होती?
चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने किसानों को लेकर बहुत बड़ी बड़ी बातें की थीं लेकिन अब किसान उनकी चिंताओं में नहीं हैं. भाजपा ने वादा किया था कि किसानों को उनकी लागत में 50 फ़ीसदी मुनाफ़ा जोड़कर फ़सलों का दाम दिलाया जाएगा. लेकिन सरकार बनाने के बाद मोदी एंड टीम का पूरा जोर कॉरपोरेट और मैन्यूफैक्चरिंग पर है. उनकी प्राथमिकता में कृषि और किसान कहीं नहीं हैं. सरकार मेक इन इंडिया के लिए तो मशक्कत कर रही है लेकिन कृषि के लिए उसके पास कोई योजना या सोच नहीं है. देश की करीब 60 प्रतशित जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि क्षेत्र है. लेकिन इस क्षेत्र को लेकर सरकार ने अब तक किसी बड़े नीतिगत बदलाव या घोषणा से परहेज ही किया है. जबकि कृषि पर गंभीर संकट मंडरा रहे हैं. चालू वित्त वर्ष (2014-15) में कृषि विकास दर सिर्फ़ 1.1 फ़ीसदी रहने का अनुमान है.
कृषि की दयनीय हालत के बावजूद अपने पहले बजट में मोदी सरकार ने कृषि आय की बात तो की, लेकिन कृषि बजट में कटौती कर दी.बजट में किसानों के लिए कुछ खास नहीं रहा. सरकार द्वारा जिस कृषि लोन की बात की जाती है, उसका फायदा किसानों से ज्यादा कृषि उद्योग से जुड़े लोगों को होता है. हालिया बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऐलान किया कि कॉरपोरेट टैक्स को अगले चार सालों 30 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी किया जाएगा. मोदी सरकार की अब तक की नीतियों और केंद्रीय बजट का संदेश साफ है कि किसानों को वह सांत्वना मात्र देने को तैयार नहीं हैं. यह  कृषिप्रधान देश फ़िलहाल किसानों का क़ब्रगाह बना रहेगा !


(रचनाकार-परिचय:
जन्म:  30 अगस्त 1986 को  उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले में।
शिक्षा: इलाहाबाद विवि से पत्रकारिता में एमए।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं और कहानियां प्रकाशित
ब्लॉग : कृष्‍णकांत कहानियां लिखता है...
संप्रति:  दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में बतौर चीफ सब एडीटर कार्यरत
संपर्क : krishnkant1986@gmail.com)



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