अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
ज़ुलेख़ा जबीं की क़लम से
करीब 50 बरस पहले सारी दुनिया की औरतों ने जुल्म के खिलाफ और अपने हक हासिल करने की लड़ाई लड़ने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन की बुनियाद रखी. खवातीन के इस आंदोलन को ताकत मिली संयुक्त राष्ट्र के 1979 के कन्वेंशन फार एलीमिनेशन आफ डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट वुमेन से. कंवेंशन में शामिल बहुत सारे मुल्कों ने इसे स्वीकार किया. उनसब की रजामंदी से कंवेंशन के बाद एक कमेटी बनाई गई-कमेटी फार एलीमिनेशन आफ डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट वुमेन-सीडाॅअ. सीडाॅअ की मीटिंग साल में दो बार होती है यह जायजा लेने के लिए कि जिन मुल्कों ने कंवेंशन को रजामंदी दी है वे सब अपने देश में औरतों पे होने वाली जुल्मो ज़्यादती को रोकने के लिए और उनका, उनके जाएज़ हक़ दिलवाने के लिए क्या कोशिशें कर रहे हैं. ज़ाहिर है इस अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन का गहरा असर दुनिया के दूसरे मुस्लिम मुल्कों और ख़़ासतौर पर मुस्लिम औरतों पे पड़ना ही था. ऐसे बहुत सारे मुसलमान जो अपने समाज में बदलाव चाहते हैं, जिनका मानना है कि मुस्लिम औरतों को पीछे रखने और उनके हक न देने के नतीजे में मुस्लिम समाज को बड़ा नुक़सान पहुंचा है-बड़ी तादाद में हैं. ऐसे लोगों का यह भी मानना रहा है कि मुस्लिम औरतों की तरक़़्क़़ी के बग़़ैर पूरे मुस्लिम समाज की तरक़्क़ी नामुमकिन है जो सच भी है. आज ऐसी सोच रखनेवाले उलेमा, इस्लामिक स्कालर और बुद्धिजीवी दुनिया के कोने-कोने में मौजूद हैं.
औरतों की बराबरी की बात करने वाले अक्सर ये सवाल उठाते हैं क्या इस्लाम के दायरे में रहते हुए मुस्लिम औरतों को बराबर का हक़ मिलना मुमकिन है? इस बारे में मुसलमानों के बीच 3 तरह की सोच देखने को मिलती है. पहली सोच उन उलेमाओं की है जिनका दावा है कि इस्लाम दुनिया का पहला मज़हब है जिसने औरतों को इंसानी अधिकार दिए हैं. आज अगर इसमें कोई कमी नज़र आ रही है तो उसके लिए इस्लाम नहीं बल्कि मुसलमान ज़िम्मेदार हैं. दूसरी सोच कहती है कि इस्लाम में औरतों को बराबरी का अधिकार मिलना नामुमकिन है. ऐसी सोच रखने वाले मानते हैं कि औरतों को बराबरी का अधिकर सिर्फ सेक्यूलर-डेमोक्रेटिक समाज में ही मिल सकता है. इन सबके बीच एक तीसरी समझवाले भी हैं जिनका मानना है कि इस्लाम के बुनियादी उसूलों और सेक्यूलर-डेमोक्रेसी के बुनियादी उसूलों में कोई आपसी टकराव नहीं है. ऐसी सोच रखने वालों का मानना है कि इस्लाम की बुनियादी तालीम औरतों और मर्दो को बराबरी का हक़ देती है. दिक्क़त इस्लामी मज़हब में नहीं बल्कि मर्दवादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था में रचे बसे उन लोगों की समझ में है जिन्होंने देश की भौगोलिक परंपराओं और रुढ़ियों को इस्लाम का लिबास पहना रखा है. तीसरी सोच रखने वाले मुसलमानों का मानना है कि आज ज़रुरत इस बात की है कि मुसलमान इन रवायती, औरत विरोधी ज़हनियत (मानसिकता) को ठुकराकर क़ुरआन और सुन्नत की उस तालीम को अपना लें जो औरतों को बराबरी के हक़ देने की हिमायत करती है.
इस्लाम में औरतों को इंसानी वजूद तस्लीम किया गया है इसीलिए कुरआन में कई जगहों पर उसकी ज़िंदगी के हर-हर पड़ाव में उसके वक़ार (डिग्नटी) का ख़्याल रखा गया है. वलाक़द करमना बिल्लज़ी बनी आदमा ’’हमने आदम की हर औलाद पे बराबर से करम बख़्शी है’’’’कह कर अल्लाह ने हर मुसलमान को दुनियां से बेटी और बेटे का भेद ख़त्म कर, बराबरी से, अच्छी परवरिश और जायदाद में वारिस बनाने का हुक्म दिया है. वलाहुन्ना मिसलुल लज़ी अलैहिन्ना ‘‘औरतों का वही हक़ है मर्दो पर जो मर्दो का दस्तूर के मुताबिक अपनी औरतों पर है’’ कहकर शादीशुदा ज़िंदगी के अंदर औरत के बराबरी के हक़ों की हिफ़ाज़त मर्दो के सुपुर्द कर दी गई है. पैदा होते ही बाप की जायदाद में हक़, निकाह के साथ ही शौहर की तरफ से मेहर, पारिवारिक ज़िंदगी में शौहर की तरफ से दिया जाने वाला हाथ खर्च (पाकेट मनी-माहवार एक मुश्त जो सहुलियत हो), उसके नवजात बच्चे को अपना दूध पिलाने पर हस्बे हैसीयत कीमती गिफ्ट देना, तलाक़ हो जाने पर नान-नफ़्क़ा (भरण-पोषण)व हैसियत के मुताबिक़ मताअ ( संपत्ति-पूंजी ) देकर ससम्मान रुख़्सत करना और फिर औरत को दूसरा निकाह (उसकी मर्ज़ी से) करने की आज़ादी देना जैसे हुक्म साफ़ लफ़्ज़ों में कुरआन के अंदर मर्दो को दिए गए हैं.
एक मुसलमान औरत जिसे उसके रब ने 1400 बरस पहले ही तमाम तरह के सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक मामलों में बराबरी से नेतृत्वकारी मक़ाम और फ़ैसले लेने का हक़ देकर मर्द के साथ ही अशरफुल मख़लूक़ात (श्रेष्ठ मानुस)का दर्जा दे दिया है. वे ही मुसलमान औरतें आज इस मर्दवादी, गैर इस्लामी समाज की सड़ी-गली रूढ़ियों और परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ी, हर लेहाज़ से बेबस, माज़ूर, मजबूर (दीगर कौम की औरतें जो इंसानी हकूक से भी महरुम हैं-से भी) और बदतर नजर आ रही हैं. कुरआन में मौजूदा दौर और हालात के मुताबिक़ ग़ौरोफ़िक्र (विचारमंथन) के लिए काफ़ी गुंजाइश दी गई है. कुरआन की नजर में औरतें अछूत या दोयम दर्जे की वस्तु नहीं हैं- यहां औरतों के इंसानी वजूद को न सिर्फ तस्लीम किया गया
है बल्कि उनकी खुद्दारी, बावक़ार शख़्सियत और मानवीय अधिकारों के हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी उनके रिश्तेदार मर्दो (कुरआन में लिखित तौर पे) के सुपुर्द कर दी गई है. जो रहती दुनिया तक टलने वाली नहीं है.
(लेखिका-परिचय:
जन्म :9 अगस्त 1977, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में
शिक्षा : अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तथा पत्रकारिता व जनसंचार में उपाधि
सृजन : मानवाधिकार पर प्रचुर लेखन-प्रकाशन, देशबंधु में कुछ वर्षों नियमित रिपोर्टिंग, कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित
संप्रति : दिल्ली में रहकर कई प्रमुख महिला संगठनों में सक्रिय और स्वतंत्र लेखन
संपर्क : Jabi.Zulaikha@gmail.com)
लेखिका के और लेख हमज़बान पर
ज़ुलेख़ा जबीं की क़लम से
करीब 50 बरस पहले सारी दुनिया की औरतों ने जुल्म के खिलाफ और अपने हक हासिल करने की लड़ाई लड़ने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन की बुनियाद रखी. खवातीन के इस आंदोलन को ताकत मिली संयुक्त राष्ट्र के 1979 के कन्वेंशन फार एलीमिनेशन आफ डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट वुमेन से. कंवेंशन में शामिल बहुत सारे मुल्कों ने इसे स्वीकार किया. उनसब की रजामंदी से कंवेंशन के बाद एक कमेटी बनाई गई-कमेटी फार एलीमिनेशन आफ डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट वुमेन-सीडाॅअ. सीडाॅअ की मीटिंग साल में दो बार होती है यह जायजा लेने के लिए कि जिन मुल्कों ने कंवेंशन को रजामंदी दी है वे सब अपने देश में औरतों पे होने वाली जुल्मो ज़्यादती को रोकने के लिए और उनका, उनके जाएज़ हक़ दिलवाने के लिए क्या कोशिशें कर रहे हैं. ज़ाहिर है इस अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन का गहरा असर दुनिया के दूसरे मुस्लिम मुल्कों और ख़़ासतौर पर मुस्लिम औरतों पे पड़ना ही था. ऐसे बहुत सारे मुसलमान जो अपने समाज में बदलाव चाहते हैं, जिनका मानना है कि मुस्लिम औरतों को पीछे रखने और उनके हक न देने के नतीजे में मुस्लिम समाज को बड़ा नुक़सान पहुंचा है-बड़ी तादाद में हैं. ऐसे लोगों का यह भी मानना रहा है कि मुस्लिम औरतों की तरक़़्क़़ी के बग़़ैर पूरे मुस्लिम समाज की तरक़्क़ी नामुमकिन है जो सच भी है. आज ऐसी सोच रखनेवाले उलेमा, इस्लामिक स्कालर और बुद्धिजीवी दुनिया के कोने-कोने में मौजूद हैं.
ग़ौरतलब है कि तरक़्क़ी करते हिंदोस्तानी समाज में सामाजिक ग़़ैर बराबरी की खाई चैड़ी होने के साथ ही, औरतों के साथ की जाने वाली जुल्मो-ज़्यादतियों में भी बढ़ोत्तरी होती जा रही है. आज बड़े पैमाने पर मुस्लिम समाज का पिछड़ापन दिखाई दे रहा है. जहां एक तरफ़ दुनिया लगातार तरक्क़ी की तरफ बढ़ रही है, नित नई टेक्नालाजी सामने आ रही है वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम समाज बेतालीमी, बेरोज़गारी, झुग्गियों व गंदी बस्तियों (घेटोवाइजेशन) में रहने की वजह से गरीबी की ग़लाज़त में जीने को मजबूर हैं. यही नहीं देश और दुनिया में बढ़ रही आतंकी घटनाओं के मद्देनजर न सिर्फ मुसलमानों को मश्कूक निगाहों से देखा जा रहा है बल्कि सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक तौर पे मुस्लिम समाज ग़ैर महफूज़ भी होता जा रहा है. इस ग़ैर महफूज़ और सहमे हुए समाज की औरतों और बच्चियों की हालत जानवरों से भी बदतर दिखाई देती है.
औरतों की बराबरी की बात करने वाले अक्सर ये सवाल उठाते हैं क्या इस्लाम के दायरे में रहते हुए मुस्लिम औरतों को बराबर का हक़ मिलना मुमकिन है? इस बारे में मुसलमानों के बीच 3 तरह की सोच देखने को मिलती है. पहली सोच उन उलेमाओं की है जिनका दावा है कि इस्लाम दुनिया का पहला मज़हब है जिसने औरतों को इंसानी अधिकार दिए हैं. आज अगर इसमें कोई कमी नज़र आ रही है तो उसके लिए इस्लाम नहीं बल्कि मुसलमान ज़िम्मेदार हैं. दूसरी सोच कहती है कि इस्लाम में औरतों को बराबरी का अधिकार मिलना नामुमकिन है. ऐसी सोच रखने वाले मानते हैं कि औरतों को बराबरी का अधिकर सिर्फ सेक्यूलर-डेमोक्रेटिक समाज में ही मिल सकता है. इन सबके बीच एक तीसरी समझवाले भी हैं जिनका मानना है कि इस्लाम के बुनियादी उसूलों और सेक्यूलर-डेमोक्रेसी के बुनियादी उसूलों में कोई आपसी टकराव नहीं है. ऐसी सोच रखने वालों का मानना है कि इस्लाम की बुनियादी तालीम औरतों और मर्दो को बराबरी का हक़ देती है. दिक्क़त इस्लामी मज़हब में नहीं बल्कि मर्दवादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था में रचे बसे उन लोगों की समझ में है जिन्होंने देश की भौगोलिक परंपराओं और रुढ़ियों को इस्लाम का लिबास पहना रखा है. तीसरी सोच रखने वाले मुसलमानों का मानना है कि आज ज़रुरत इस बात की है कि मुसलमान इन रवायती, औरत विरोधी ज़हनियत (मानसिकता) को ठुकराकर क़ुरआन और सुन्नत की उस तालीम को अपना लें जो औरतों को बराबरी के हक़ देने की हिमायत करती है.
कुरआन और सही हदीस में औरतों को पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, कानूनी, नागरिक और मज़हबी नेतृत्व के मामलों में जिस तरह बेहतर दर्जा दिया गया है वो दुनिया के किसी और मज़हबी किताब में लिखित तौर पर दिखलाई नहीं पड़ता. मगर अफसोस आज मुस्लिम औरतों को हर तरह के पिछड़ेपन का चैतरफा दबाव झेलने के साथ ही घरेलू, हिंसा, झगड़े, मारपीट, छेडखानी, अपनों के जरिए किए जा रहे बलात्कार, शौहर के एक से ज़्यादा औरतों के साथ रिश्ते, ज़बरदस्ती घर बिठा देने के डर के अलावा हर वक्त 3 तलाक़ की लटकती धारदार तलवार और कई तरह के ज़हनी व जिस्मानी ज़ुल्मों का शिकार होना पड़ रहा है. अत्तलाक़ो मर्रतान ‘‘तलाक सिर्फ 2 मर्तबा है’’ कहकर कुरआन ने एक बार में 3 तलाक़ कहने वाले अरबियों के महिला विरोधी रिवाज को सिरे से खारिज कर दिया है. साथ ही मुसलमान मर्दो के दो बार तलाक कहने में (एक-एक माह के अंतराल पे) सुलह और समझौते (रुजूअ) की राह भी फराहम कर दी गई है. लेकिन एकतरफा 3 तलाक का ग़ैर इस्लामी चलन इस्लाम के नाम पर आज भी भारतीय मुस्लिम समाज में क़ायम रखा गया है. जिसका ख़मियाज़ा ज्यादातर बेक़सूर औरतें और मासूम बच्चे भुगतने को मजबूर हैं. बिना किसी जायज़ वजह के एक से ज़्यादा निकाह (मर्दो द्वारा), मामूली सी बातों पे औरतों को ज़लील करके मायके बिठा देना, मायके वालों को मज़ा चखाने के नाम पे औरतों को तलाक़ न देकर अधर में लटकाए रखना, जरा सी बात पे 3 तलाक़ कहकर घरों से बाहर खदेड़ देना, बुढ़ापे में पहुंचते तक भी बीवी का मेहर अदा न करना, शौहर के जनाज़े पर ज़बरदस्ती मेहर माफ़ करवाना, किसी भी तरह का नान-नफ़्क़ा (भरणपोषण) अदा किए बग़ैर टेलीफोन,एस.एम.एस. और डाक से तलाक़ बोल/लिखकर भेज देना इस जैसी और भी न जाने कितनी ग़ैर इस्लामी, ग़ैर इंसानी रवायतें और रुढियां मुस्लिम मर्दो ने अपना ली है जिसका कुरआन, सही हदीसों और इस्लाम से दूर का वास्ता नहीं है. इनका ख़कतरनाक पहलू तब सामने आता है जब मर्दों की ऐसी ग़ैर कुरआनी, ग़ैर इंसानी करतूतों को कुछ कम इल्म लोग जायज़ ठहराते हैं और कुरआनो दीन के जानकार लोग छोटे-छोटे सियासी मफ़ाद (राजनीतिक स्वार्थ) की ख़ातिर अपनी ज़ुबान बंद रखते हैं.
इस्लाम में औरतों को इंसानी वजूद तस्लीम किया गया है इसीलिए कुरआन में कई जगहों पर उसकी ज़िंदगी के हर-हर पड़ाव में उसके वक़ार (डिग्नटी) का ख़्याल रखा गया है. वलाक़द करमना बिल्लज़ी बनी आदमा ’’हमने आदम की हर औलाद पे बराबर से करम बख़्शी है’’’’कह कर अल्लाह ने हर मुसलमान को दुनियां से बेटी और बेटे का भेद ख़त्म कर, बराबरी से, अच्छी परवरिश और जायदाद में वारिस बनाने का हुक्म दिया है. वलाहुन्ना मिसलुल लज़ी अलैहिन्ना ‘‘औरतों का वही हक़ है मर्दो पर जो मर्दो का दस्तूर के मुताबिक अपनी औरतों पर है’’ कहकर शादीशुदा ज़िंदगी के अंदर औरत के बराबरी के हक़ों की हिफ़ाज़त मर्दो के सुपुर्द कर दी गई है. पैदा होते ही बाप की जायदाद में हक़, निकाह के साथ ही शौहर की तरफ से मेहर, पारिवारिक ज़िंदगी में शौहर की तरफ से दिया जाने वाला हाथ खर्च (पाकेट मनी-माहवार एक मुश्त जो सहुलियत हो), उसके नवजात बच्चे को अपना दूध पिलाने पर हस्बे हैसीयत कीमती गिफ्ट देना, तलाक़ हो जाने पर नान-नफ़्क़ा (भरण-पोषण)व हैसियत के मुताबिक़ मताअ ( संपत्ति-पूंजी ) देकर ससम्मान रुख़्सत करना और फिर औरत को दूसरा निकाह (उसकी मर्ज़ी से) करने की आज़ादी देना जैसे हुक्म साफ़ लफ़्ज़ों में कुरआन के अंदर मर्दो को दिए गए हैं.
एक मुसलमान औरत जिसे उसके रब ने 1400 बरस पहले ही तमाम तरह के सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक मामलों में बराबरी से नेतृत्वकारी मक़ाम और फ़ैसले लेने का हक़ देकर मर्द के साथ ही अशरफुल मख़लूक़ात (श्रेष्ठ मानुस)का दर्जा दे दिया है. वे ही मुसलमान औरतें आज इस मर्दवादी, गैर इस्लामी समाज की सड़ी-गली रूढ़ियों और परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ी, हर लेहाज़ से बेबस, माज़ूर, मजबूर (दीगर कौम की औरतें जो इंसानी हकूक से भी महरुम हैं-से भी) और बदतर नजर आ रही हैं. कुरआन में मौजूदा दौर और हालात के मुताबिक़ ग़ौरोफ़िक्र (विचारमंथन) के लिए काफ़ी गुंजाइश दी गई है. कुरआन की नजर में औरतें अछूत या दोयम दर्जे की वस्तु नहीं हैं- यहां औरतों के इंसानी वजूद को न सिर्फ तस्लीम किया गया
है बल्कि उनकी खुद्दारी, बावक़ार शख़्सियत और मानवीय अधिकारों के हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी उनके रिश्तेदार मर्दो (कुरआन में लिखित तौर पे) के सुपुर्द कर दी गई है. जो रहती दुनिया तक टलने वाली नहीं है.
ज़रुरत इस बात की है कि मुसलमान औरतें अपने घरों में रखी हुई उस किताबे हिदाया (राह दिखाने वाली) कुरआन को समझने और जानने की कोशिश करें कि उसमें लिख दिए गए उसके हक़ कौन और क्यों छीन रहा है? साथ ही कुरआन और सही हदीसों की रौशनी में अपने हक़ हासिल करें क्योंकि कुरआन उनके परिवार के जिम्मेदार मर्दो को साफ तौर पर हुक्म दे रहा है-‘‘जो कुछ उनका है उन्हें खुशी-खुशी दे दिया करो.’’ इसलिए भारतीय मुस्लिम औरतों की जिम्मेदारियां अब बढ़ गई है. उन्हें बहैसियत एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नागरिक, धार्मिक और मानवीय हक़ों को जानना होगा, पहचानना होगा और उन्हें संरक्षित करने के लिए सरकारों और अपने रिश्तेदार मर्दों को जगाना होगा. इसके लिए उन्हें संगठित होकर आगे बढ़ना होगा. महिला दिवस का यही अज़्म भी है और पैग़ाम भी. क्योंकि-खुद बदल जाएगा सब ये सोचना बेकार है-सबकुछ बदल देने की अब शुरुआत करनी चाहिए....!
(लेखिका-परिचय:
जन्म :9 अगस्त 1977, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में
शिक्षा : अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तथा पत्रकारिता व जनसंचार में उपाधि
सृजन : मानवाधिकार पर प्रचुर लेखन-प्रकाशन, देशबंधु में कुछ वर्षों नियमित रिपोर्टिंग, कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित
संप्रति : दिल्ली में रहकर कई प्रमुख महिला संगठनों में सक्रिय और स्वतंत्र लेखन
संपर्क : Jabi.Zulaikha@gmail.com)
लेखिका के और लेख हमज़बान पर
3 comments: on "कब मिलेगा मुस्लिम औरतों को उनका हक़ "
bhai, muslim samaaj m striyon ki dasha-disha ke liye lekhika n kuraan-hadis ka sahara liya h jisse ek baat zahir h k lekhika fundamental change nhi chahti. jabki mardon n bina kuraan-hadis jaane auraton k zindagi k liye rasman paabandiyaan, tohmaten, bandishen lagaai h k stree taa-umr sangharsh kare tobhi mukt n ho. aaj zarurat h k deen-iiman bachaate hue muslim striyaan bhi apne haq aur aazadi k liye ladaai laden..bulandi k saath. zmana badal gayaa h...ab aasmani kitabon se example n lekar apne dilo-dimaag aur vaajib zaruraton kliye stree khud apni aawaz bane...
लेख मे कुरान और हदीस के संदर्भ जोडकर अपनी बात आसानी से कहने की अच्छी कोशीश लेखिका की है. लेख मे सामाजिक और व्यवहारिक बुराईओको पिरोया है, पर फोकस मे ज्यादातर कुरान को आधार माना गया हैं. सामाजिक कुरितीयाँ पर ज्यादा बहस होनी चाहिए थी. उसी तरह मुस्लिम औरतो की बदलती मनोधारणा जिक्र होना चाहिए था, पश्चिमी अनुकरण के बुराईयाँ. दकीयानुसी संकल्पनाए आनी चाहिए, खैर जो भी हो. भविष्य मे मुस्लिम समाज मे महिलाकेंद्री शादी के टोटके, खामियाँ, वैवाहिक कलह, सामाजिक कुरितीयाँ/बुराईया पर काम होना आवश्यक है
कलिम अजीम
पुणे
जनाब अनवर सुहैल साहब बहुत शुक्रिया वक़्त निकल कर हमारा लेख पढ़ने और अपने बेश क़ीमती मशवरों से नवाज़ने के लिए.……!
माज़रत के साथ हम ये कहना चाहते हैं " जो सच है उसे ज़ुबान पे लाने में शर्म कैसी ?
इस्लाम की ठेकेदारी करने वाले हर तबक़े का अपना अलग इस्लाम है और अपनी अलग जाहिल फ़ोर्स……
आपके ज़हन में जो "फंडामेंटल चेंज" की तस्वीर है, ज़ाहिर है हमारे संविधान के नज़रिये से मेल खाती होगी, थोड़ी देर को आपसे सहमत हुआ भी जाय तो भी .... क्या सिर्फ लिख भर देने से लोगो को उनके हक़ मिलने लगेंगें ? क्या मौजूदा वक़्त में हमारा संविधान भारतीय मुसलमान को अपने में लिखे के मुताबिक़ *फंडामेंटल राइट* दे पा रहा है? नहीं न ?? तो फ़िर क्या करें संविधान को भगवा ब्रिगेड की तरह हम भी सिरे से ख़ारिज दें ? नहीं किया जा सकता… नहीं किया जाना चाहिए।
यहाँ ये ज़रूर सोचने का मक़ाम है कि आखिर क्यों ? भारतीय अल्पसंख्यकों को उनके मज़हबी हक़ से बाक़ायदा महरूम किया जा रहा है? हमारी समझ के मुताबिक़ ज़्यादातर नागरिकों को इसका पता ही नहीं है…… मगर जिन्हें पता है वे अदालतों के ज़रिए लड़ के अपने हक़ न सिर्फ हासिल कर रहे हैं बल्कि मौजूदा निज़ाम से उसे लागू भी करवा रहे हैं.…… बेशक ये तादाद कम है.
क़ुरआन में जो लिखा है, और समाज में जो प्रचलित है बेशक उसमें प्रैक्टिस का दूर तक समानता नहीं है चाहे औरतो की तालीम की बात हो , उनके निकाह की बात हो , शादीशुदा ज़िन्दगी में आने वाले मसअलों के हल का मामला हो, औरत के फाइनेंशियल इंडिपेंडेंसी का मामला हो, स्वयंभू ठेकेदार मज़हब के नाम पर ही मुस्लिम समाज को ठग रहे हैं, "मनमानी हदीसें" दिखा कर "गैर इंसानी शरीयत" को पुख़्ता बनाते हुए समाज में क़ायम करने के लिए कट्टरता पैदा कर रहे हैं, ऐसे वक़्त में जब हर मज़हब का पुरोहित वर्ग अपना वर्चस्व क़ायम करने के लिए ताल ठोंक रहा हो और इन्साफ पसंद जम्हूरियत के हामियों (लोकतंत्र समर्थकों) को हाशिए पे धकेलने की कोशिश में लगा हो तब ये हम जैसों का फ़र्ज़ बन जाता है किअपने समाज के अंदर की गन्दगी न सिर्फ बुहारें बल्कि इस्लामियत के "पण्डों और मठाधीशों " को बाहर का रास्ता दिखाएं और इसके लिए उनके ज्ञान के "अहम हथियार" से ही उन्हें "काटा" जा सकता है क्यूंकि अब वे तलिमयाफ्ता समाज और खासकर युवा पीढ़ी को भी अपनी ज़द (जकड़) में लेने लगे हैं ताकि उनकी पुरोहिती क़ायम रहे और जम्हूरियत, इन्साफ पसंद उदारवादी तबक़ों का ख़ात्मा हो .... हमें ये कहने में कोई झिझक या शर्म नहीं है की इस्लाम पूरी तरह से जम्हूरियत के बोलबाला वाली ज़हनियत (विचारधारा) का हामी है जो क़ुरआन में साफ़ तौर पे लिखा है. क़ुरआन के वे तमाम सूरे आयतें (आर्टिकल्स- अनुच्छेद) जिसमे democracy, peace, justice & equality का ज़िक्र है उसे सन्दर्भ के तौर पे इस्तेमाल करना कोई ग़लत और जड़ता का प्रतिक नहीं है.… अलबत्ता ये सब होते हुए भी ज़ुल्मो ज़्यादती को बर्दाश्त करते रहना, और हथियार होते हुए भी अपने /समाज के बचाओ/ बदलाओ लिए उसका इस्तेमाल न करना जड़ता ही नहीं अंधे, बहरे और अपांग होने का सुबूत देना है। । बक़ौल मरहूम डॉ असग़र अली इंजिनियर " पुरोहित वर्ग शरीयत क़ानून इसलिए लागू करवाना चाहता है क्योंकि वह जानता है कि इसी से वह ताक़तवर बन सकता है…अगर धर्म निरपेक्ष क़ानून लागू किये जाते हैं तो सत्ता धर्म निर्पक्षता व लोकतंत्र में यक़ीन रखने वाले उदारवादी तबक़े के हाथ में रहेगी और लालची उलेमा सत्ता से बाहर रखे जायेंगे। इसके बरअक्स अगर शरीयत क़ानून लागू किये जाते हैं तो शासन में धर्म निरपेक्षता व लोकतंत्र में यक़ीन रखने वाले उदारवादियों की कोई भूमिका नहीं रहेगी और सत्ता की मलाई पे लालची उलेमाओं का क़ब्ज़ा बना रहेगा।।।।
मोहतरम अनवर सुहैल साहब, हमारी नज़र में मज़हबी अक़ायद (आस्था) पर कुंडली मारे बैठे पंडो और मठाधीशों उनकी स्वयंभू ख़ानक़ाहों से बेदखल करने का बेहतरीन और अकाट्य औज़ार क़ुरआन और सही हदीस में आम मुसलमान खासकर औरतों को जागरूक बनाना ही हैं और हम उसे हर क़दम में सामने लाएंगे , हमारी ये कोशिश अगर किसी को जड़ता दिखती है तो हमें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। जबकि हम जानते हैं कि जड़ता वो है जो मर्दो के बनाए नियम कायदों को बग़ैर सवाल उठाए फॉलो किया जाए........ माफ़ कीजियेगा मज़हब से बाहर आकर ही मुस्लिम औरत को आज़ादी मिल सकती है ये किसी औरत का नहीं भारतीय मर्दों के बनाए पिंजरे का आव्हान है सो हमारी जैसी हज़ारों ज़ुलैखायें, मलालाएं, आरेफ़ा और फरहानाएं इसे अनसुना करती हैं........
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी