नई पौध के तहत आठ कविताएं
वर्षा गोरछिया 'सत्या' की क़लम से
कार्बन पेपर
कार्बन पेपर
सुनो न
कहीं से कोई
कार्बन पेपर ले आओ
खूबसूरत इस वक़्त की
कुछ नकलें निकालें
कितनी पर्चियों में
जीते हैं हम
लम्हों की बेशकीमती
रसीदें भी तो हैं
कुछ तो हिसाब
रक्खें इनका
किस्मत
पक्की पर्ची तो
रख लेगी ज़िंदगी की
कुछ कच्ची पर्चियां
हमारे पास भी तो होनी चाहिए
कुछ नकलें
कुछ रसीदें
लिखाइयां कुछ
मुट्ठियों में हो
तो तसल्ली रहेगी
सुनो न
कहीं से कोई
कार्बन पेपर ले आओ
चादरें वक़्त की
आओ दोनों मिलकर
जला दें
वक़्त की वो चादरें
बीच है जो हमारे
और
जो आने वाली है
गवारा नहीं मुझे ये
बेतुकी दलीलें वक़्त की
तुम भी कहाँ उस के
हक़ में फैसला चाहते हो
तो क्यों न मिलकर
एक साज़िश रचें
वक़्त के खिलाफ
दिलों की दियासलाई से
कुछ मोहब्बत की तिल्लियाँ निकालें
जज्बातों की परतों से
एक चिंगारी निकालें
और सुलगा दें
ये काली चादर
आओ न दोनों मिलकर
जला दें
वक़्त की चादरें
चूड़ियाँ
जानते हो तुम?
मुझे चूड़ियाँ पसंद हैं
लाल ,नीली ,हरी ,पीली
हर रंग की चूड़ियाँ
जहाँ भी देखती हूँ
चूड़ियों से भरी रेड़ी
जी चाहता है
तुम सारी खरीद दो मुझे
मगर तुम नही होते
ना मेरे साथ
ना मेरे पास
खुद ही खरीद लेती हूँ नाम से तुम्हारे
पहनती हूँ छनकाती हूँ उन्हें
बहुत अच्छी लगती है हाथो में मेरे
कहते रहते हो तुम
कानो में मेरे चुपके से
जानते हो तुम ?
आओ दोनों मिलकर
जला दें
वक़्त की वो चादरें
बीच है जो हमारे
और
जो आने वाली है
गवारा नहीं मुझे ये
बेतुकी दलीलें वक़्त की
तुम भी कहाँ उस के
हक़ में फैसला चाहते हो
तो क्यों न मिलकर
एक साज़िश रचें
वक़्त के खिलाफ
दिलों की दियासलाई से
कुछ मोहब्बत की तिल्लियाँ निकालें
जज्बातों की परतों से
एक चिंगारी निकालें
और सुलगा दें
ये काली चादर
आओ न दोनों मिलकर
जला दें
वक़्त की चादरें
चूड़ियाँ
जानते हो तुम?
मुझे चूड़ियाँ पसंद हैं
लाल ,नीली ,हरी ,पीली
हर रंग की चूड़ियाँ
जहाँ भी देखती हूँ
चूड़ियों से भरी रेड़ी
जी चाहता है
तुम सारी खरीद दो मुझे
मगर तुम नही होते
ना मेरे साथ
ना मेरे पास
खुद ही खरीद लेती हूँ नाम से तुम्हारे
पहनती हूँ छनकाती हूँ उन्हें
बहुत अच्छी लगती है हाथो में मेरे
कहते रहते हो तुम
कानो में मेरे चुपके से
जानते हो तुम ?
मोहब्बत का घर
याद रहे
चाहतों का ये शहर
ख़्वाबों का मोहल्ला
इश्क़ की गली
और कच्चा मकां मोहब्बत का
जो हमारा है
खुशबुओं की दीवारें हैं जहाँ
एहसासों की छतें
हंसी और आंसूओं से
लीपा-पुता आँगन
हरा-भरा
गहरी छाँव वाला
प्यार का एक पेड़ है जहां
किस्सों के चौके में
बातों के कुछ बर्तन
औंधे हैं शर्मीले से
तो कुछ सीधे मुस्कुराते हुए
कुछ बर्तन काले भी हैं
शिकायतों के धुंए से
वो हमारा मुँह ताकते हैं
कि क्यों नहीं हमने
रगड़कर उन्हें साफ़ किया
भीतर एक ट्रंक भी है
लम्हों से भरा
रेशमी चादरों में
यादों की सलवटें हैं
आले में जलता चिराग़
वो खूंटियों पर लटकते
दो जिस्म
जंगलों और खिड़कियों से
झांकते चाहतें हमारी
दरवाज़े की चौखट से
टपकती हुई
बरसातों की पागल बूँदें कुछ
हवा के कुछ झोंके
और न जाने क्या क्या
सब बिक जाएगा इक दिन
समाज के हाथों
रिवाज़ें बोलियाँ लगाएंगी
ज़ात भाव बढ़ाएगी अपना
और खरीद लेंगे
जनम के जमींदार
वो मकां हमारा
रात गुजर गई
रात गुजर रही है
कमरे की बिखरी चीजें उठाते हुए
सब कुछ बिखरा है
तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारी चहल कदमी
घूमती रहती है आँगन में
सांसे कुछ फुसफुसा जाती है
कानो में मेरे
बिस्तर की सलवटें अकेली हैं
नाराज है तुमसे
बातों के ढेर लगे है एक एक को लपेटती जाती हूँ
और रखती जाती हूँ अलमारी में
गठरियाँ हैं कुछ
मुस्कुराहटो की
अलमारी के ऊपर रख दी है
कमरे का फर्स ठंठा है
गीला है मेरे आंशुओ से
उफ़ ! बालकनी में चाँद भी तो है
कितना कुछ बिखरा है
थककर चूर हूँ
कितनी यादे बगल में लेटी हैं
नींदे माथे को चूम रही हैं
रात गुजर गई
कमरे की बिखरी चीजे उठाते हुए
संकरी सी उस गली में
संकरी सी उस गली में
दोनों तरफ हजारों जज्बातों की
खिड़कियां खुलती है
जुगनू टिमटिमाते है
रूई के फ़ाहों से
लम्हे तैरते हैं
शाम रंग सपने झिलमिलाते हैं
तितिलियों के पंखो का
संगीत घुलता है
रेशमी लफ्जो की खुशबू महकती है
संकरी सी उस गली में
तेरी आँखों से
मेरे दिल तक जो पहुचती है ..
याद रहे
चाहतों का ये शहर
ख़्वाबों का मोहल्ला
इश्क़ की गली
और कच्चा मकां मोहब्बत का
जो हमारा है
खुशबुओं की दीवारें हैं जहाँ
एहसासों की छतें
हंसी और आंसूओं से
लीपा-पुता आँगन
हरा-भरा
गहरी छाँव वाला
प्यार का एक पेड़ है जहां
किस्सों के चौके में
बातों के कुछ बर्तन
औंधे हैं शर्मीले से
तो कुछ सीधे मुस्कुराते हुए
कुछ बर्तन काले भी हैं
शिकायतों के धुंए से
वो हमारा मुँह ताकते हैं
कि क्यों नहीं हमने
रगड़कर उन्हें साफ़ किया
भीतर एक ट्रंक भी है
लम्हों से भरा
रेशमी चादरों में
यादों की सलवटें हैं
आले में जलता चिराग़
वो खूंटियों पर लटकते
दो जिस्म
जंगलों और खिड़कियों से
झांकते चाहतें हमारी
दरवाज़े की चौखट से
टपकती हुई
बरसातों की पागल बूँदें कुछ
हवा के कुछ झोंके
और न जाने क्या क्या
सब बिक जाएगा इक दिन
समाज के हाथों
रिवाज़ें बोलियाँ लगाएंगी
ज़ात भाव बढ़ाएगी अपना
और खरीद लेंगे
जनम के जमींदार
वो मकां हमारा
रात गुजर गई
रात गुजर रही है
कमरे की बिखरी चीजें उठाते हुए
सब कुछ बिखरा है
तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारी चहल कदमी
घूमती रहती है आँगन में
सांसे कुछ फुसफुसा जाती है
कानो में मेरे
बिस्तर की सलवटें अकेली हैं
नाराज है तुमसे
बातों के ढेर लगे है एक एक को लपेटती जाती हूँ
और रखती जाती हूँ अलमारी में
गठरियाँ हैं कुछ
मुस्कुराहटो की
अलमारी के ऊपर रख दी है
कमरे का फर्स ठंठा है
गीला है मेरे आंशुओ से
उफ़ ! बालकनी में चाँद भी तो है
कितना कुछ बिखरा है
थककर चूर हूँ
कितनी यादे बगल में लेटी हैं
नींदे माथे को चूम रही हैं
रात गुजर गई
कमरे की बिखरी चीजे उठाते हुए
संकरी सी उस गली में
संकरी सी उस गली में
दोनों तरफ हजारों जज्बातों की
खिड़कियां खुलती है
जुगनू टिमटिमाते है
रूई के फ़ाहों से
लम्हे तैरते हैं
शाम रंग सपने झिलमिलाते हैं
तितिलियों के पंखो का
संगीत घुलता है
रेशमी लफ्जो की खुशबू महकती है
संकरी सी उस गली में
तेरी आँखों से
मेरे दिल तक जो पहुचती है ..
सौदा
चलो हम ये दुनिया बेच दें
खरीद ले बदले में
वो चांदनी की रात
बुने रेशम की एक चादर
लगाए किस्मत की छत पर
सफेद बिछौना
ज़ख्मों का एक तकिया भरें
तकिया वो मेरे सिरहाने रहे
तुम मेरे सीने पे
सर रख कर सो जाओ
तो ज़ख्मों की चुभन कहाँ होगी
तेरे मेरे दर्द का
एक चकोर खाने वाला
कम्बल बुनें
एक टुकड़ा दर्द तेरा
एक टुकड़ा मेरा
चकोर खानों में दर्द भरें
एक खाना तेरा
एक खाना मेरा
ओढ़कर सो जाएं दोनों
आ मर्ज़ी का सौदा करें
ये दुनिया आज बेच दें
चलो हम ये दुनिया बेच दें
खरीद ले बदले में
वो चांदनी की रात
बुने रेशम की एक चादर
लगाए किस्मत की छत पर
सफेद बिछौना
ज़ख्मों का एक तकिया भरें
तकिया वो मेरे सिरहाने रहे
तुम मेरे सीने पे
सर रख कर सो जाओ
तो ज़ख्मों की चुभन कहाँ होगी
तेरे मेरे दर्द का
एक चकोर खाने वाला
कम्बल बुनें
एक टुकड़ा दर्द तेरा
एक टुकड़ा मेरा
चकोर खानों में दर्द भरें
एक खाना तेरा
एक खाना मेरा
ओढ़कर सो जाएं दोनों
आ मर्ज़ी का सौदा करें
ये दुनिया आज बेच दें
हरियाणा
गाँव भर में
चर्चा है
वो भाग गयी
बदचलन थी
कई दिनों से लक्षण ठीक नहीं थे
मटक मटक कर चलती
ओढ़नी कभी सर पे नहीं रखती
कुल को डुबो गयी
आकर देखे कोई अब
तीन हफ़्तों से
मिट्टी-तले सो रही है
कहाँ गयी
यहीं तो है
-----
(रचनाकार-परिचय :
जन्म : 14 फ़रवरी 1989 को फ़तेहाबाद (हरियाणा) में
शिक्षा : स्नातक (Bachelor in tourism management)
सृजन : पहली बार हमज़बान में
संप्रति : स्वतंत्र लेखन
संपर्क : varshagorchhia89@gmail.com )
गाँव भर में
चर्चा है
वो भाग गयी
बदचलन थी
कई दिनों से लक्षण ठीक नहीं थे
मटक मटक कर चलती
ओढ़नी कभी सर पे नहीं रखती
कुल को डुबो गयी
आकर देखे कोई अब
तीन हफ़्तों से
मिट्टी-तले सो रही है
कहाँ गयी
यहीं तो है
-----
(रचनाकार-परिचय :
जन्म : 14 फ़रवरी 1989 को फ़तेहाबाद (हरियाणा) में
शिक्षा : स्नातक (Bachelor in tourism management)
सृजन : पहली बार हमज़बान में
संप्रति : स्वतंत्र लेखन
संपर्क : varshagorchhia89@gmail.com )
6 comments: on "गाँव भर में चर्चा है वो भाग गयी"
वरिष्ठ लेखिका इला प्रसाद ने मेल किया है :
अच्छा लिखती हैं ,बधाई!
इला
कार्बन पेपर, चादरें वक़्त की और हरियाणा -- ये तीनों कविताएँ बेहद अच्छी हैं।
बहुत नयी तरह की दृष्टि है आपकी... प्रशंसक रहा हूँ... यहाँ देखकर अच्छा लगा.
@शेरघाटी जी, बहुत शुक्रिया आपका. और इला जी तक मेरा प्रणाम और धन्यवाद पहुंचा दें.
@जनविजय जी, बहुत शुक्रिया.. आपने मेरी कविताओं को पसंद किया. आभार
@आदित्य जी, बहुत शुक्रिया आपका भी. आपने मुझे और लिखने को प्रेरित किया.
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी