बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल का ताज़ा स्टेटस मुखिया कुरुवा


जीवन पर बनी फिल्म ‘बुरू-गारा’ को मिल चुका है राष्ट्रीय पुरस्कार
 




















सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से


धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिए मैं
दौड़ती-हांफती-भागती
तलाश रही हूं सदियों से निरंतर
अपनी जमीन, अपना घर
अपने होने का अर्थ।

स्त्री के अस्तित्व की खोज करती यह काव्य पंक्तियां संताली व हिंदी कवयित्री निर्मला पुतुल की हैं। जद्दोजेहद की एक और मंजिल उन्होंने हासिल की है। जिसे पंचायती जबान में मुखिया कहा जाता है। बीती सदी के अंतिम दशक में धुमकेतु की तरह उभरी झारखंड की इस आदिवासी बाला ने साहित्य संसार के सभी तीसमारों को चकित कर दिया था। स्त्री, तिस पर आदिवासी। लेकिन साहस के पंख के सहारे उन्होंने कला, प्रतिभा और आंदोलन की उड़ान जारी रखी। तीन-चार किताबों, दर्जन भर पुरस्कारों और देशी-विदेशी कई भाषाओं में अनुवाद उनके नाम दर्ज होते गए। लेकिन धरती आबा बिरसा मुंडा को आदर्श मानने वाली झारखंड की यह बेटी महज साहित्य तक सीमित कैसे रहती। उसने ग्रामीण महिलाओं को उनका वाजिब अधिकार दिलाने के लिए पंचायत चुनाव में शामिल होने का निर्णय लिया। पहले से ही उनके जमीनी संघर्ष के अनुभव ने उनका साथ दिया। भारी मतों से जीत कर वह दुमका जिला की कुरूवा पंचायत की मुखिया बन गईं। उन्होंने 1037 वोट हासिल कर पुनिका टुडु और अनिल मरांडी को पराजित किया।

हौसले से किया संकटों को परास्त

निर्मला पुतुल का जन्म 6 मार्च, 1972 को हुआ। लेकिन घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। इस संकट से पार पाने के लिए उन्होंने नर्सिंग का कोर्स किया। बाद में उन्होंने इग्रू से स्नातक की डिग्री हासिल की। ग्रामीण आदिवासी जीवन की त्रासदी ने उन्हें लिखने को प्रेरित किया। पहले संताली में उन्होंने कविता लिखना शुरू किया। देश की पत्र-पत्रिकाओं में जब उनकी कविताएं छपीं, तो तहलका मच गया। उसके बाद वह हिंदी में भी लिखने लगीं। उनके जीवन पर आधरित ‘बुरू-गारा’ नामक फिल्म बनाई गई है, जिसे 2010 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला।

नगाड़े की तरह बजते शब्द

उनके शब्द नगाड़े की तरह बजते हैं। यही वजह है कि भारतीय ज्ञानपीठ जैसे संस्थान से प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह का नाम भी ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ है। इसके बाद रमणिका फाउंडेशन ने उनका काव्य संग्रह ‘अपने की घर की तलाश में’ छापा। ‘फूटेगा एक नया विद्रोह’ उनका तीसरा संग्रह है। ओनोंड़हें में उनकी संताली कविताएं संगृहित हैं। उनकी कविताएं अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उडिय़ा, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी व नेपाली सहित अनेक भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं।

झोली में हैं कई राष्ट्रीय सम्मान

निर्मला के व्यक्तित्व और कृतित्व को कई पुरस्कार और सम्मानों से नवाजा जा चुका है। 2001 में उन्हें केंद्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने ‘साहित्य सम्मान’ प्रदान किया। झारखंड सरकार ने 2006 में ‘राजकीय सम्मान’, तो 2008 में महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, 2014 में हिमाचल प्रदेश हिंदी साहित्य अकादमी ने उन्हें सम्मानित किया। पहला शैलप्रिया स्मृति सम्मान समेत उन्हें मुकुट बिहारी सरोज स्मृति सम्मान, भारत आदिवासी सम्मान और राष्ट्रीय युवा पुरस्कार मिल चुका है।

दैनिक भास्कर के रांची संस्करण में 15 दिसंबर 2015 के अंक में प्रकाशित












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