बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

दाल का दलदल




















रवींद्र पांडेय का व्यंग्य



प्याज का पहाड़! दाल का दलदल!!

दोनों डींगें हांक रहे थे। पता लगाना मुश्किल कि कौन कितना बड़ा फेंकू है। प्याज अपने सुनहरे इतिहास का हवाला दे रहा था। बता रहा था कि उसकी ऊंचाई के सामने एवरेस्ट भी बौना साबित हो चुका है। एवरेस्ट फतह करने से मुश्किल माना जाता था प्याज खरीदना। प्याज एक-एक कर गिनती करा रहा था। कब-कब उसने कितनी-कितनी सुर्खियां बटोरीं। सेव भी कैसे उसके सामने शर्म से पानी-पानी हो जाता था। किस-किस सरकार को उसने प्याज के आंसूं रूलाए। विपक्ष ने कैसे उसे सर पर बिठाया! गुलाब की जगह प्याज की माला पहन अखबारों में फोटो छपवाई।

प्याज बोल चुका तो आई दाल के दलदल की बारी। बोला, तुम्हारी सभी ऊंचाइयों पर मेरी फंसाऊ शक्ति पड़ जाएगी भारी। अभी बिहार चुनाव के रिजल्ट में तूने मेरा जलवा देखा नहीं क्या। मेरा ही नाम-नाम लेकर लड़ा गया पूरा चुनाव। और, मेरी ही दलदल में रथ का पहिया पंक्चर हो गया। हाल यह कि इत्ती बड़ी पार्टी में महाभारत छिड़ गया। हार की जिम्मेवारी कोई लेना ही नहीं चाहता।

इतने में प्याज का पहाड़ मुस्कुराया। बोला, तो प्रेस कॉन्फ्रेंस करके तू ही हार की जिम्मेवारी क्यों नहीं ले लेता दलदल भाई।

दलदल बोला, अरे भाई। जब जिम्मेवारी ही लेनी है, तो जीत की जिम्मेवारी क्यों न ले लूं? उसका कारण भी तो मैं ही हूं। पर दिल है कि मानता नहीं। मैं तो आज भी जनता के हाल पर चिंतित हूं। मेरी समझ में तो यह आ ही नहीं रहा कि जनता क्यों तालियां बजा रही है? वह तो अभी भी दाल के दलदल से नहीं निकली। हां, नेताजी की नैया जरूर पार लग गई। जोर लगा के हइंसा। दोस्ती की नई परिभाषा। ऐसी ही होनी चाहिए जीतने की जिद। कल तक बैरी माने जानेवाले आज तारणहार बन बैठे।

जनता का नाम सुनते ही प्याज के पहाड़ का दिल भी रो पड़ा। बोला, भइया जनता की बात ही मत करो। जनता तो अब सिर्फ ताली बजाने के लायक ही बची है। और वह ताली न भी बजाए तो क्या फर्क पड़ता है। नया जमाना है। हर चीज नई-नई है। अब तो यह कहावत भी पुरानी हो गई है कि ताली दोनों हाथ से बजती है। आज के जमाने में इशारे से भी ताली बज जाती है। बल्कि ज्यादा जोर से बजती है। टेक्नोलॉजी का युग है। अकलमंद लोग तालियों की गड़गड़ाहट का टेप कराकर रखते हैं। जहां जरूरत हुई, रिमोट दबाया और बज उठीं तालियां। जितने भोंपू लगा दो, उतनी दूर तक गूंज उठती हैं तालियां। प्याज का पहाड़ भी अब ऊंचा नहीं रहा। नेताजी का मुर्गा उसपर चढ़कर बांग दे रहा है। बांग ही क्यों, टेक्नोलॉजी का युग है। जरूरत पड़ने पर नेताजी का मुर्गा अंडा भी दे देता है।

पहाड़ अब प्रवचन के मूड में आ गया। दलदल भक्त बन सिर्फ मुंडी हिलाता रहा।

प्याज का पहाड़ बोला, पब्लिक भी अब टेंशन नहीं लेती। सब खुश रहते हैं। प्याज का पहाड़ हो या दाल का दलदल। कोई डरता नहीं। विकास-उकास की तो कई फिक्र ही नहीं करता। सब मानकर बैठे हैं, विकास ही तो कराना है। जो गद्दी पर रहेगा, वही विकास करेगा। अपने हिसाब से करेगा। जो करेगा, उसी को विकास का नाम दे देगा। अपना-अपना नजरिया हो सकता है। किसी के लिए अस्पताल खुलना विकास हो सकता है। उसकी अपनी सोच है। पुरातन टाइप की। लोगों को गांवों में ही इलाज मिल जाए, इसलिए अस्पताल खोलवा रहे हैं। दूसरे का विजन अलग हो सकता है। वह खुल चुके अस्पतालों को बंद करा देता है। उसकी अलग सोच है। आधुनिक सोच। अस्पताल जितने कम हों, उतना अच्छा। अस्पताल होता है, तो लोग बीमार पड़ने लगते हैं। जिस गांव में अस्पताल होता है, वहां रोगियों की लाइन लगी होती है। डॉक्टर फ्री में दवा देता है। सर्दी-खांसी होने पर भी, तो लोग भागे-भागे अस्पताल पहुंच जाते हैं। कंबल ओढ़कर अस्पताल के बेंच पर अइसा चिंगुड़कर बइठते हैं, जइसे खांसी नहीं हुई, लकवा मार गया है। बेचारा डॉक्टर भी घबरा जाता है। नब्ज देखने की हिम्मत ही नहीं होती। सीधे मरीज को सदर अस्पताल रेफर कर देता है। लेकिन जहां अस्पताल नहीं होता, वहां कोई बीमार ही नहीं पड़ता। क्यों पड़ेगा! जानता है, बीमार पड़े तो पांच कोस दूर जाना होगा। अब इतनी दूर जाने के लिए कौन बीमार पड़ना चाहेगा! अगर किसी को हल्की-फुल्की बीमारी हुई भी, तो फिक्र नहीं करता। देहाती इलाज है न। ओझा-गुणी, झाड़-फूंक किस दिन काम आएगा। आखिर यह भी तो अपने देश की पुरानी धरोहर हैं।... कई चीजें हैं। देखो न, जहां बिजली होती है, वहां के बच्चे पढ़ने में फिसड्‌डी हो जाते हैं। वे इसी इंतजार में रह जाते हैं कि बिजली आएगी, तो पढ़ेंगे। और बिजली आती ही रह जाती है। पर जहां बिजली नहीं होती, वहां के बच्चे ज्यादा होनहार होते हैं। उन्हें बिजली का इंतजार नहीं करना होता। वे शाम होने पर ढिबरी जलाकर पढ़ने बैठ जाते हैं। अखबारों में अक्सर खबरें भी आती रहती हैं ढिबरी की रोशनी में पढ़कर स्टेट टॉपर बना। ऐसी खबर कहीं पढ़ने में नहीं आई कि एलईडी की रोशनी में पढ़कर किसी बच्चे ने राज्य का नाम रोशन किया हो। अरे, यह भी तो सोचिए कि बिजली रहने पर बच्चा पढ़कर बोर होना चाहेगा कि तारक मेहता का उलटा चश्मा देखकर इंज्वाय करेगा। इतने सारे कार्टून शो आते हैं। वह सब क्या बच्चे के चाचा देखेंगे? सब देखना पड़ता है भाई। नहीं देखने पर नुकसान हुआ, तो उसकी भरपाई कौन करेगा। आखिर यह भी राष्ट्र का नुकसान ही माना जाएगा न!... विकास का अपना-अपना पैमाना है। जनता अच्छी तरह जानती है कि कौन कितना फेंक रहा है। लोग कहते हैं कि गांव की सड़कें चौड़ी कर देंगे। क्या फायदा होगा? फिर तो सारी बड़ी गाड़ियां इधर से ही जाने लगेंगी। चौबीस घंटे गाड़ियों का तांता लगा रहेगा। ऐसा हुआ तब तो भारी आफत हो जाएगी। गांव की महिलाएं टट्‌टी करने किधर जाएंगी। कब जाएंगी। रखो अपनी सड़क। चौड़ी सड़कों से हमारी गाय-भैंसे तकलीफ में आ जाएंगी। गांव को गांव की तरह ही रहने दो भाई।... आप किसी भी बच्चे से पूछ लो। कोई चाहता है क्या कि मास्टर रोज स्कूल आएं। फिर आप क्यों चाहते हैं कि मास्टर जी रोज स्कूल आएं। जिसे पढ़ना है, वह तो चाहता है कि मास्टर कभी स्कूल आए ही नहीं। और आप हैं कि मास्टर जी के पीछे बायोमीट्रिक अटेंडेस सिस्टम लेकर पड़े हैं।

भक्त बनकर बैठा दलदल अचानक तालियां बजाने लगा। बहुत खूब। बहुत खूब। जब सब खुश हैं, तो हमें भी तालियां बजानी ही चाहिए। आखिर हम लोग भी लोकतंत्र को मजबूत बनाने में ही जुटे हुए हैं। जय हो। जय हो।



(लेखक-परिचय :

जन्म : 4 फ़रवरी 1971 को रोहतास(बिहार) के कोथुआं गाँव में
शिक्षा : स्नातक की पढाई आरा से की
सृजन : ढेरों व्यंग्य देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में। व्यंग्य संग्रह 'सावधान कार्य प्रगति पर है'                 प्रकाशित। विदेशी भाषाओं में अनुदित।
संप्रति : दैनिक भास्कर रांची संस्करण में मुख्य उप संपादक
संपर्क :ravindrarenu1@gmail.com)





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- अल्लामा जमील मज़हरी

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