बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

नाईगीरी करते हुए बने साहित्य के डॉक्टर

रांची में है अशरफ हुसैन का सैलून, उर्दू कहानीकारों पर की पी-एच. डी






 


















सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से



कावे-कावे सख्त जानी, हाय तन्हाई न पूछ
सुब्ह करना, शाम का लाना है जू--शीर का

(सुबह से शाम तक फरहाद की तरह पहाड़ को काट कर नहर निकालने की तरह जिदंगी बीत रही है, मेरे दर्द और अकेलेपन की हालत मत पूछो)। अशरफ हुसैन ग्राहक की हजामत बनाते हुए जब उसके पूछने पर गालिब का यह शेर सुनाते हैं, तो उनकी आंखें आईना बन जाती हैं। जिसमें उनकी जद्दोजेहद को पढ़ा जा सकता है। उनका संघर्ष इस मिसाल को स्थापित करता है कि ईमानदारी और मेहनत के बल पर ही आप लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। दरअसल अशरफ रांची मेन रोड की फुटपाथ पर 1987 से नाई की दुकान चला रहे हैं। उनके जिम्मे उनके बच्चों के साथ दिवंगत भाई के बच्चों की जिम्मेवारी भी है। लेकिन विपरीत स्थितियों को उन्होंने अपने हौसले के बूते परास्त कर दिया है। नाईगीरी करते हुए उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। चार साल पहले उन्होंने रांची विवि से उर्दू साहित्य में पी-एच डी भी कर लिया। उनके शोध्य का विषय था, झारखंड के उर्दू अफसानानिगारों का तुलनात्मक अध्ययन। इनदिनों वे डी. लिट की तैयारी में लगे हुए हैं।

पिता की मौत के बाद संभाली दुकान

मेन रोड में अशरफ के पिता का सैलून था। लेकिन बाद में आय कम होने लगी, तो उन्होंने उर्दू लाइब्रेरी के पास दुकान शिफ्ट कर ली। लेकिन 1987 में जब अशरफ ने मैट्रिक पास किया, पिता का देहांत हो गया। उसी साल अतिक्रमण हटाओ अभियान के तेहत प्रशासन ने दुकान तोड़ दिया। इसके बाद से उर्दू लाइब्रेरी की दीवार पर आईना टांग कर फुटपाथ पर ही अशरफ ग्राहकों की सेवा कर रहे हैं। दूसरों की हजामत बनाते हुए उन्होंने इंटर, बीए, एम और पी-एच. डी की डिग्री हासिल की। जबकि इस बीच उनके मंझले भाई का 2010 में निधन हो गया। भतीजों की शिक्षा-दीक्षा का दायित्व भी यह बखूबी निभा रहे हैं।

महिला लेखिकाओं पर किताब प्रकाशित

गालिब और इकबाल के शेर अशरफ को भले याद हों, लेकिन उनकी हसरत शायर नहीं, लेखक और आलोचक बनने की है। पी-एच. डी करते हुए उन्होंने झारखंड की उर्दू कथाकरों पर पुस्तक लिखने का विचार किया। इसका डॉ. गुलाम रब्बानी और सरवर साजिद ने समर्थन किया। उनकी हौसला अफजाई पर अशरफ की "झारखंड की नुमाइंदा ख्वातीन अफसानानिगार' शीर्षक किताब प्रकाशित हुई। यह सूबे की चार अहम महिला अफसानिगारों पर केंद्रित है। इसमें सबूही तारीक, शीरीं नियाजी, कहकशां परवीन और अनवरी बेगम की चुनिंदा कहानियां और उनपर अशरफ की आलोचनात्मक टिप्पणी संगृहित है।


दैनिक भास्कर के में 7 दिसंबर 2015 के अंक में प्रकाशित

(इसके बाद अंजुमन इस्लामिया के पदाधिकारियों ने अशरफ हुसैन को मौलाना आजाद कॉलेज में पढ़ाने का आमंत्रण दिया। अशरफ ने कॉलेज में क्लास लेना शुरू कर दिया है। फिलहाल उनकी तदर्थ नियुक्ति हुई है, प्रबंधन ने स्थायी करने का आश्वासन दिया है। भावुक लहजे में कहते हैं कि भास्कर और अंजुमन के प्रति वे आभारी हैं।)





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