बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

राजधानी की सड़कों पर लेक्चरर रिक्शावाला

























सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से

कुड़ुख भाषा के विद्वान एडवर्ड कुजूर की जिंदगी की तरह ही उनके बिखरे बाल और दाढ़ी बेतरतीब है। हालांकि सांसों को वापस खीचने के यत्न में करीब 23 सालों से वे रोज पैडल चलाते हैं। लेकिन गढ़ाटोली, कोकर स्थित उनके किराये के घर वाले आंगन जितनी हरियाली भी उन्हें नसीब नहीं। गुमला के नटावल गांव से वे रांची परिवार के कई सपने लेकर आए थे। चार भाई-बहन के परिवार में एडवर्ड 1984 में एमए करने वाले इकलौते सदस्य बने। रांची विवि के जनजातीय भाष विभाग के पहले बैच के छात्र थे। प्रथम श्रेणी में जब उत्तीर्ण हुए तो उसी साल जेएन कॉलेज धुर्वा में जनजातीय भाषा पढ़ाने के लिए लेक्चरर के अस्थायी पद हेतु वेकैंसी निकली। एडवर्ड की लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के बाद कुड़ुख के लिए नियुक्ति कर ली गई। वे अरसा का स्वाद आज भी नहीं भूले हैं, जब इस खुशखबरी पर उनके घरवालों ने गांव में बंटवाया था।

पहली नौकरी का पहला वेतन आज तक नहीं मिला

पहली नौकरी तो एडवर्ड कुजूर को मिल गई, पर उन्हें पहला वेतन आज तक नहीं मिल सका। अबतो उन्होंने आस भी छोड़ दी है। एक माह से दो माह, फिर एक साल से दूसरा साल। इस तरह वे छह वर्षों तक छात्र-छात्राओं को नि:शुल्क कुड़ुख भाषा व साहित्य पढ़ाते रहे, कि कभी तो उन्हें स्थायी किया जाएगा। लेकिन 1991 तक जब उनकी जेब पहले वेतन के इंतजार में खाली ही रह गई। इस बीच कॉलेज में नागपुरी और मुंडारी के लिए लेक्चरर पद सैंकशन हो गए, और इनके साथ वहां बहाल हुए इनके मित्र-संगी की नौकरी स्थायी हो गई, तो एक दिन वे चुपचाप कॉलेज छोड़कर घर आ गए।


रात भर सोचा, सुबह चलाने लगे रिक्शा

बिना त्याग पत्र दिए एडवर्ड ने कॉलेज जाना तो छोड़ दिया, लेकिन अब क्या करें। कर्ज लेकर घर की चूल्हा-चौकी कबतक चलती। इस बीच ग्रेजुएट पतरीसिया से लेक्चरर एडवर्ड की शादी 1989 में हो चुकी थी। बड़ा बेटा एगनासिस भी बड़ा हो रहा था। कुछ दिनों शिक्षा परियोजना में जुड़े, लेकिन बात नहीं बनी। सर्दी की एक रात वे यही सोचते रहे कि क्या किया जाए। जब सूरज निकल आया, तो रिक्शा गैरेज जा पहुंचे। तब सेहत थी। दिनभर के परिश्रम का फल जब पत्नी को शाम में पकड़ाया, तो पतरीसिया बहुत खुश हुई। लेकिन ज्योंही उन्हें पति के रिक्शा चलाने की बात पता चली, रोने लगीं।

आइटीआई बेटा नौकरी से, पिता वृद्धा पेंशन से वंचित

एडवर्ड ने कुछ सालों बाद अपना रिक्शा खरीद लिया। क्योंकि आरयू वीसी से लेकर राज्यपाल तक का दरवाजा खटखटाया, स्थायी नौकरी के लिए महज आश्वासन के उन्हें कुछ न मिला। जब दूसरा बेटा पवन उनकी जिंदगी में आया, तो पत्नी ने भी प्रायवेट काम पकड़ लिया। आज वह हॉली क्रॉस में साफ-सफाई का काम करती हैं। बड़े बेटे को किसी तरह आइटीआइ कराया। पर उसकी किस्मत में भी सरकारी नौकरी हाथ न आई। आर्मी कैंप में वह अस्थायी तौर पर जुड़ा है। एडवर्ड कहते हैं कि नौकरी में रहते तो रिटायर हो गए होते। पर जीवन में ऐसा कहां, पर न ही उन्हें वृद्धा पेंशन मिलती है, न राशन।

दैनिक भास्कर के रांची संस्करण में 3 दिसंबर के अंक में संपादित अंश प्रकाशित




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