सुशील उपाध्याय की 12 कविताएं
पिता
की आंखों में
मां
को याद करते हुए पिता
वक्त
को पीछे धकेलते हैं,
अतीत
में छूटे पलों को
स्मृतियों
की ताकत से ठेलते हैं।
फिर
ठहर जाते हैं
किसी
भावुक पल में,
खोल
लेते हैं
किसी
अनकही कहानी का कोई पन्ना,
खुद
पढ़ते हैं नि:शब्द,
बह
जाते हैं समय की धार में,
भूल
जाते हैं वक्त से लड़ना,
वक्त
फिर खींच लेता है उन्हें,
आगे और आगे!
सहमकर
ठिठक जाते हैं पिता
क्योंकि
उनकी
आंखों के कोने में
यादों
का इतिहास डबडबा रहा है।
जबकि,
वे हर बार इससे
इनकार करते हैं
उनका
दावा है-
उन्हें
याद नहीं आती हमारी मां!
राष्ट्र
को नया गान मुबारक!
ताने
पर खिंची हैं
भूखी
आंतें
तेज
नाखूनों की चुभन से बज रहा है
भूख
का संगीत!
ऐंठन
और मरोड़ की जुगलबंदी से
भर
गया मस्तिष्क का हर तंतु।
स्नायुओं
को खींचकर लंबा कर रहा है
बेरहम
जुलाहा,
तनी
आंतों पर डालेगा स्नायुओं का
बाना
फिर
कसेगा, खींचेगा,
भिगोकर
और तानेगा,
मजबूती
जांचेगा
और
सरकारी रजिस्टर में दर्ज करेगा
तमाम ब्योरा
...............................
मैं
खुश हूं
क्योंकि
राजाज्ञा
में स्पष्ट हैं
खुश
रहने के नियम!
राजाधिराज
का आदेश है-
राष्ट्र
को चाहिए नया गान
और
उसी के अनुरूप
आंतों
को ताना गया है
स्नायुओं
के बाने पर।
करोड़ों
आत्माओं से बज रहा है
भूख
और बेबसी का संगीत
राष्ट्र
को नया गान मुबारक हो!
खेलता
हूं गोटियां
सब्र
तोड़ते हालात सामने हैं
पर,
ना मैं क्रोधित
हूं,
ना
कुंठित और ना ही क्षुब्ध
क्योंकि
गरीबी, बेकारी
और भुखमरी
एक
नशा है,
और
एक नारा भी,
जिसे
मैं सुविधा के लिहाज से दोहराता
हूं!
विचारों
के अर्थपूर्ण होने को
पहले
ही कर चुका हूं खारिज,
मैं
कहता हूं-
मेरी
रुचि
रंग,
संस्कृति,
भाषा
जाति,
संप्रदायजनित
भेदभाव में नहीं है,
फिर
भी
मैं
एक कुशल खिलाड़ी की तरह
खेलता
हूं गोटियां,
व्यवस्था
और सद्भाव के परम-समर्थक
की तरह।
मौन
का इस्तेमाल करता हूं,
अपने
सुभीते और हथियार की मानिंद!
तुम
खोट देखते हो
ये
दृष्टि का दोष है!
मेरे
लिए ‘मूल्य’ महत्वपूर्ण है
ये
तुम पर छोड़ता हूं
इसे
बाजार से जोड़ो
या
फिर
नैतिकता
और मर्यादा के साथ!
नगाड़े
पर नंगे शब्द
घने
सन्नाटे में ख्यालों का परायापन
चारों
तरफ से घेरे हुए है।
अकाट्य
तर्कों की मौजूदगी के बावजूद
बरसों
से ऐसा लगता है कि
रोशनी
अपने उत्स से ही काली है!
चुप्पी
के शोर से घिरा हूं,
बेसुरे
शब्द, नंगे
होकर
नगाड़ों
पर तांडव कर रहे हैं।
मुझे
ठीक-ठीक
पता है-
जिंदगी
में सहसा कुछ भी नहीं होता,
न
जन्म, न
मृत्यु, न
हत्याएं!
फिर
भी, अचानक
सिर पर उग आई घास,
घास
पर कांटे
कांटों
पर विष-फल
विष-फलों
में बीज
और
उन्हीं बीजों को बिखेर रहा
हूं
हर
दिशा में,
किसी
न किसी दिन उग जाएंगी अमरबेल!
सवाल
कभी खत्म नहीं होते
न
उन्हें छिपाया जा सकता दीवारों
के पीछे
छिपा
दो, तब
भी उचक-उचकर
चीखते हैं
अपनी
मौजूदगी के लिए,
गौर
से देखो
अनहुआ-सा
अनहोनापन घटित हो रहा है
वक्त
के साथ,
और
इस अनहोने समय में,
मैं
पंक्ति में पहले स्थान पर बैठा
हूं
सूने
अरण्य में गिद्धों के साथ।
मुझे
बिलकुल भरोसा नहीं होता
कि
मैं इंसान हूं,
जबकि,
तुमने मुझे
अभी-अभी
मुझे
आदमी कहा है।
बाजार
में रामधुन
लपटों
से घिरा है उजाला
सपनों
को मार गया है काठ
ठीक
इसी जगह पर
उस
आदमी ने, पत्थर
होने से पहले
अपना
आखिरी बयान दिया था
बयान,
जो उसकी सच्चाई
का अकेला सबूत था!
दहलीज़
के उस पार
बिखरे
हैं सीप
सीपों
में भरे हैं मोती
मोतियों
पर लपलपा रही है सर्पीली जीभ।
यहां
कोई गारंटी नहीं
गहरे
पानी पैठकर कर
पा
सकें कोई मोती!
शुरू
हो गई है यात्रा की ढलान
रास्ते
में बिखरी हैं किर्चियां,
बाजार
में बज रही है रामधुन,
जिंदगी
डरी हुई है गुलाबों की खुशबू
से
और
सतह पर डूबता आदमी
मदद
के लिए अंतिम आवाज लगा रहा है।
डूबती
आवाज को अनसुना करके
कारंवा
गुजर रहा है
जा
रहा है मिट्टी को सोना करने
ताकि
महका सके
जिंदगी
की आखिरी सांसें!
इस
अंधेरे दौर में!
एक
दिन
जब
छोड़ चुके होगे सारी उम्मीदें,
खो
चुके होंगे आकाश, उत्साह
और आग!
अनंत
पीड़ा में
काट
रहे होंगे पल, प्रतिपल।
मौसम
का सुहाना रूप
बढ़ा
देगा बेचैनी और दर्द।
खुद
की सांसों की आवाज
हो
जाएगी डरावनी,
तब,
अचानक कोई
खटखटाएगा दरवाजा!
कैसे
कर पाओगे भरोसा ?
वही
है, हां,
वही है,
ओस
की नन्ही बूंदों से भीगा चेहरा,
लटों
में उलझी उम्मीदें,
बह
निकलने को आतुर!
एक
भी शब्द नहीं देगा साथ
कि
कुछ कह सको,
कह
सको कि ‘अंदर आओ’!
अंदर,
जो कि खाली और
सुनसान है!
फूट
पड़ेगा गुब्बार,
अनायास
ही पकड़ लोगे हाथ,
तपता
हुआ हाथ,
हाथ,
जिस पर वक्त
की चोट के नि”ाान हैं।
आंखें
ही कह पाएंगी सारी बातें,
बहती
हुई आंखों के आगे
“शब्द
खो देंगे अपनी सत्ता!
‘भीतर
नहीं बुलाओगे ?’
टूट
जाएगी
बरसों
लंबी तंद्रा,
लौट
आएगा बीता हुआ वक्त,
खोया
हुआ भरोसा,
क्योंकि
तुम
लौट आई हो-
इस
अंधेरे और नाउम्मीदी के दौर
में!!!
पहले
से ज्यादा हत्याएं!
हत्याएं
हो रही हैं
और
‘विशेषण’
दिलासा के काम आ रहे हैं,
कभी
दबंग
कभी
दलित मारे जा रहे हैं
बच्चों
को किया जा रहा है
आग
के हवाले
और
हम तमाशाई हैं!
हमें,
हर रोज चाहिए
नया मनोरंजन
पहले
से बड़ी खबर
पहले
से बड़ी सनसनी
पहले
से ज्यादा हत्याएं
पहले
से घिनौना बलात्कार
पहले
से ज्यादा लापरवाही
और
उससे
भी ज्यादा बड़ी खामोशी !
हम
हर रोज नया आवरण ओढ़ते हैं
अपने
काल्पनिक किले के चारों ओर
नई
खंदक खोदते हैं
दीवार
को करते हैं
रोज-ब-रोज
और ऊंचा
उस
पर बिजली के तारों में छोड़ते
हैं
ज्यादा
से ज्यादा करंट
फिर
इस
उम्मीद में सोते हैं-
अब
नहीं कोई पार कर पाएगा
सुरक्षा
का घेरा!
ठीक
इसी तरह
कोई
तैयारी करता है
गहरी
खंदकों,
ऊंची
दीवारों
और
उच्च
तीव्रता के करंट को बेधने की।
फिर
हम पाते हैं
कुछ
और लाओ
कुछ
और बलाकृत
कुछ
और अपंग, झुलसे
शरीर
और
एक बार फिर
हम
ओढ़ लेते हैं-
अनंत
खामोशी!
यही
है हमारे चरित्र की
सबसे
अनिवार्य और पक्की विशेषता!
गंदे
बच्चे!
दूर
देहात में-
गाय
को गले की रस्सी
और
कभी
पूंछ से पकड़कर
उलट
दिशाओं में ले जाने की जिद में
जुटते
बच्चे!
बदबू
से सराबोर झोंपड़ पट्टियों
में-
दिन
भर चुनकर लाए कूड़ा,
कूड़े
से मिली
टूटी
खिलौना गाड़ी के लिए
लड़ते
बच्चे!
सड़क
किनारे के ढाबे पर-
नाक
सुड़ककर बांह से पौंछते
लबालब
भरी प्लेटों को
हसरत
से निहातते बच्चे!
और.........
किसी
बहुप्रचारित टूरिस्ट-स्पाॅट
पर
लिपे,
पुते,
सजे
यौन-कुंठाओं
के लिए
उपलब्ध
कराए गए बच्चे!
अच्छे
लोग अपने बच्चों को समझाते
हैं-
देखो,
ऐसे होते हैं-
गंदे
बच्चे!!!
चूंकि,
तुम कह रहे हो
उम्मीदों
का सूरज
सिर
पर धधक रहा है,
और
जेब के चारों तरफ
स्याह
धुंध छायी है!
बाजार
पर शैतानी ताकतों
का
साया मंडरा रहा है,
थ्री-डी
प्रिंटर से निकली हरी घास
शो-केस
में रखी है,
इसके
ठीक पीछे
तेज
धार वाला छुरा,
कंप्यूटर
की एक क्लिक का इंतजार कर रहा
है!
बकरे
अपना धैर्य खो चुके हैं,
हरी
घास लुभा रही है,
उन्हें
नहीं पता कि यहां जान दांव पर
लगी है।
न
आदमी को पता,
उसे
भी लुभाया-ललचाया
जा रहा है ताकि
ठीक
दिल पर चुभाया जा सके न”तर!
तभी
तो जियेगा बाजार,
तभी
तो मनेंगे त्यौहार!
रो”ानी
का कतरा-कतरा
और
फेफड़ों
में भरने लायक हवा का हर झौंका,
बाजार
में टंगा हुआ है,
‘भारी
छूट’ के टैग के साथ।
चूंकि,
तुम कह रहे हो-
इसलिए
मान लेता हूं कि
देश
उत्सव में डूबा है
और
चारों तरफ मंगल-गान
गाये जा रहे हैं!
कौवों
से भरा आसमान
कौवों
ने सर्वसहमति से
बगुले
को राजा चुना है।
धवल,
एकनिष्ठ,
कर्तव्यपरायण,
सिद्ध
एकदम
खामोश, निश्चेष्ट,
एक
टांग पर खड़ा,
प्रजा
के हित में!
उसे
चुना गया है-
बोलने
की आजादी के लिए
उड़ने
के हक,
तैरने
की चाहत
और
दौड़ने
की प्रतिबद्धता के लिए।
हर
तरह से पूर्ण, परिपूर्ण
बगुला राजा।
दरबार
में हो रही कांव-कांव,
पंख-नुचाई,
चोंच-भिड़ाई।
फिर
निकले कुछ आदेश
कोयलों
को किया गया दंडित
बेसुरे
रागों के लिए।
हंसों
को दिया गया देश निकाला
जो
कर रहे थे दावा
‘नीर-क्षीर-विवेकी’
होने का।
उठा
रहे थे सवाल,
मांग
रहे थे जवाब बहुमत से!
तख्त
पर बैठा है बगुला
ध्यानमग्न,
परम शांत
ज्यों
दिव्य-सत्ता
से एकाकार।
मछली
पर अपलक निगाह
बिजली
कौंधी, मछली
गप!
न
कोई प्रमाण, न
गवाह
फिर
कौन लगाए आरोप ?
वो
भी राजा पर!!!
कौवों
से भर गया आसमान
कांव-कांव,
कांव-कांव
गा
रहे राजा की विरुदावली।
जय
हो, लोकतंत्र
तेरी जय हो!
डरा
हुआ आदमी!
यूं
समझो कि
एक
ही होता है-
मरा
हुआ आदमी
और
डरा
हुआ आदमी!
दोनों
ही निष्प्राण, निर्जीव
वक्त
से हारे हुए।
दोनों
ही धरती पर पड़े,
खुली,
नंगी आंखों
से
आसमान
को ताकते।
जिंदा
आदमियों की गिनती से बाहर,
जिंदगी
की लड़ाई से भागे हुए।
ऐसे
निर्वैर, निस्पृह
कि
धरती पर हैं ही नहीं!
दोनों
ही नहीं बोलते
किसी
की जरूरत के समय,
लाख
चिल्लाओ, पुकारो
नहीं
उठाते मदद के लिए हाथ!
न
हिम्मत बंधाते
न
दिलासा का एक शब्द कहते
और
न ही बुरे वक्त की राह रोकते!
पर,
एक अंतर है-
मरे
हुए से ज्यादा खतरनाक होता
है
डरा
हुआ आदमी!
रोटियां
नहीं, सपने
बेलती है लड़की
सड़क
पर ठेला लगाकर
रोटी
बनाती, बेचती
है वो लड़की!
गोल
रोटियां, धरती
के आकार जैसी।
अक्सर
लगता है-
रोटियां
नहीं, सपने
बेलती है।
गर्म
तवे पर आकार लेती रोटियां,
फूलती,
फुस्स हो जाती।
ठीक
वैसे ही,
जैसे
कि अच्छे दिनों की उम्मीदें।
चूल्हे
की आग तवे को नहीं,
देह
को गरम करती है।
लपटे
भले ही बाहर दिखती हों,
पर,
ये भीतर से
उठती हैं!
लड़की
रोज सामना करती है
पेट
की भूख का
देह
की भूख का
नर-शिकारियों का,
जिनकी
भूख है पेट से नीचे
लटकती,
लहलहाती!
लड़की
आंखें झुकाएं रोटियां बनाती
है।
परोसती
है।
दिनों
को ठेलती है,
सड़क
पर ठेले के पीछे खड़ी होकर!
(कवि-
परिचय :
जन्म
: 27 दिसंबर,
1972 को मुजफ्फरनगर
(उत्तर
प्रदेश) में।
शिक्षा
: यूजीसी-नेट,
पीएच.डी.,
गुरुकुल कांगड़ी
वि.वि.,
हरिद्वार।
सृजन
: आउटलुक,
लोकस्वामी,
संवेद में
कविताएं प्रकाशित।
संप्रति
: प्रभारी
अध्यक्ष, हिंदी
एवं भाषाविज्ञान, संस्कृत
वि.वि.,
हरिद्वार।
संपर्क
: gurujisushil@gmail.com )
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी