कथाकार गौरीनाथ
से संवाद व्हाया सैयद
शहरोज़ क़मर
हर काल में हर लेखक या कवि तेवरवाला नहीं हुआ है। अव्यवस्था और विपरीतताओं को लेकर आक्रमकता की तलाश हर रचनाकार में ढूंढना सही नहीं होगा। कबीर और गालिब युग में एक ही होता है। हर दौर में गोदान नहीं लिखा जा सकता। हां यह जरूर है कि समय का दबाव हर काल में रहा है, लेकिन सृजन कभी मंद नहीं पड़ा। आज निस्संदेह बाजार साहित्यकारों को प्रभावित कर रहा है। कारपोरेट संस्कृति से अछूता नहीं है। बाजार और लेखकों के तेवर के सवाल पर ये बातें मैथिली-हिंदी के सुपरिचित कथाकार गौरीनाथ ने कही। वे विद्यापति स्मृति पर्व समारोह में शिरकत करने रांची आए हुए थे। जहां मैथिली मंच झारखंड ने उन्हें विदेह सम्मान से नवाजा। भास्कर से खास संवाद में गौरीनाथ कहते हैं कि सत्ता से ज्यादा बाजारतंत्र लेखकों को प्रभावित कर रहा है। उसके शरीर और मन को बदल रहा है। लेकिन लेखन पूरी तरह शिथिल नहीं हुआ है।
जबतक
लौकिक परंपरा, विद्यापति
तबतक
मैथिली
कवि विद्यापति की प्रासंगिकता
पर गौरीनाथ बोले, महज
भक्तिकालीन कवि कहकर,
उनका मूल्यांकन
नहीं किया जा सकता। हिंदी
बेल्ट में लोकसंस्कृति के
बहाने कृषि आधारित समाज व्यवस्था
की वकालत वह बहुत पहले कर गए
थे। वे अपनी कविता में भगवान
शंकर से कहते हैं, त्रिशूल
को तोड़कर फल बनाएं और खेती
करें। विद्यापति के प्रेमगीत
जनकंठों में हैं। जन व्यवहार
में उनके गीतों की उपादेयता
है। जीवन की लौकिक परंपरा जब
तक रहेगी, विद्यापति
प्रासांगिक रहेंगे।
शहरों
की अपेक्षा भयावह ढंग से बदल
रहे गांव
बात
बाजार की चली, तो
गोदान के बहाने हम गांव भी
पहुंचे। संप्रति दिल्ली में
रह रहे मूलत: गांव
के गौरीनाथ कहते हैं,
सिर्फ शहर ही
नहीं बदल रहे, गांवों
में स्थिति और बदतर है। गांव
भयावह ढंग से बदल रहे हैं।
नैतिकता और अपनत्व का वहां
लोप हो रहा है। भाई, भाई
का हिस्सा हड़प रहा है। शहर
से अधिक अराजकता वहां है।
अपराध और हिंसा का ग्राफ शिखर
पर है। उपभोगतावादी अपसंस्कृति
अपनी समग्रता में गांव-जवार
में पैठ जमा रही है, जिससे
उसकी चौपाल और पंचायत से लेकर
रसोई और आंगन भी प्रभावित है।
प्रवासियों
में भाषा-संस्कृति
को लेकर ज्यादा ललक
बाबा
नागार्जुन मैथिली में यात्री
नाम से विख्यात हैं। गौरीनाथ
भी अनलकांत उपनाम से मैथिली
में लिखते हैं। पर उनका मानना
है कि भाषा और संस्कृति को
लेकर प्रवासियों में ललक अधिक
है। पटना के सम्मेलन में भीड़
भले कम दिखे, लेकिन
हैदराबाद, गोहाटी,
दिल्ली या
रांची में आयोजित किसी भी
समारोह मैथिली समाज काफी तादाद
में जुटता है। मैथिली में गौरी
हरिमोहन झा के बाद यात्री,
ललित और राजकमल
को प्रगतिशील परंपरा का वाहक
समझते हैं। मौजूदा समय पत्रिका
अंतिका की भूमिका उनकी दृष्टि
में महत्वपूर्ण है।
हिंदी बया के साथ मैथिली पत्रिका अंतिका का संपादन
हिंदी अकादमी, दिल्ली, भारतीय भाषा परिषद, कोलकता का युवा पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से अलंकृत गौरीनाथ का जन्म वर्ष 1969 में मार्च की किसी तारीख में जनपद सुपौल (बिहार) के कालिकापुर गांव में हुआ। 1991 ई. से निरंतर कहानियां और वैचारिक लेखन। नाच के बाहर और मानुस मशहूर कहानी संग्रह। मैथिली उपन्यास दाग के लिए उन्हें विदेह सम्मान मिला है। विभिन्न अखबारों में नौकरी। करीब दशक भर हंस' के सहायक संपादक रहे। संप्रति हिंदी बया और मैथिली त्रैमासिक अंतिका के साथ अंतिका प्रकाशन का संपादन-संचालन।
भास्कर
रांची के 26 दिसंबर
2015 के अंक
में प्रकाशित
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