बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

2015 अलविदा खुश आमदीद 2016

गुज़रे साल का सरसरी आकलन

 



















सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से


उजियारा कभी, तो कभी घुप्प अंधेरा। बात जब भी होगी, तो सवेरे की होगी, क्योंकि रौशनी में हर वो चीज दिख जाती है, जिसे आप देखना चाहें या न चाहें। पिछले दिसंबर में हम 2015 का सूरज देख रहे थे। जिसके सफर के साथ हमने कई मंजिलें तय कीं। इसमें सियासत की कलाबाजियां थीं, तो विकास का दौड़ता रथ भी। जगह-जगह बनते खून के बादल थे, तो उस बारिश से बचने के लिए गंगा-जमनी संस्कृति की बरसों पुरानी हमारे पास छतरी भी थी। माइक से जगह-जगह असिहष्णुता के प्रचारक थे, तो मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना गाने वाली टोलियां भी थीं। इनमें कलमकार थे, तो फनकार भी। कल-कारखानों के मजदूर थे, तो आम अवाम भी। इस दौरान मुल्क की करीब सभी जबानों में लाखों किताबें आईं। उनमें इतिहास, भूगोल, समाज और साहित्य समेत कई अनछुए विषय हमारे सामने आए। राष्ट्रीय और अंतररराष्ट्रीय इनामों से लेखकों और शायरों को नवाजा गया। लेकिन कहीं-कहीं सांप्रदायिकता की आग की लपटों ने उनके संवेदनशील मन को प्रभावित किया। कईयों ने भावुकता में आकर बरसों पहले मिले इनामों-एकराम को लौटाने का एलान किया। वहीं असिहष्णुता के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन हुए। यह दिगर है कि इसमें नामवर न हुए। न कोई मनव्वर हो सका। रानाई अपनी जगह कायम रही। इसका असर यह हुआ कि सरकार को भी सांप्रदायिकता के खिलाफ कड़े कदम उठाने पड़े। हालांकि इसमें मुल्क की इल्मो-मोहब्ब्त का कंट्रीब्यूशन सबसे ज्यादा रहा।


बिस्मिल अजीमाबादी की मशहूर गजल सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, की नेक नियत आजादी की जंग के वक्त हर हिंदुस्तानी के दिल में जोर मारा करती थी। इसमें उर्दू के सहाफी और अखबार भी थे। लेकिन आज उर्दू सहाफियों की हालत बदतर है। हालांकि रोजनामों और हफ्तारोजा अखबारों की कमी नहीं। पर उसमें खूनजिगर एक करने वाले परेशान हाल हैं। इस साल उर्दू पत्रकारों ने कई शहरों में कॉन्फ्रेंस और सेमिनार कर अपने दर्द को सरेआम किया।

इधर, दिल्ली से लकर रांची और पटना तक कई बुक फेयर लगे। जो मुल्क में तहजीबी और अदबी फिजा बरकरार रखने के बायस बने। तालीमी बेदारी का कारवां भी स्कूली बच्चो से लेकर युनिवर्सीटियों में लोगों के जेहन का मरकज बना। डिजिटल इंडिया की चमक गांवों में भी इस साल पहुंची। राजस्थान के रेगिस्तान हों या झारखंड के सारंडा। नौजवानों में इल्मो-हुनर की हरियाली फैली। वहीं वजीरेआजम नरेंद्र मोदी के सफाई मिशन का सिला यह हुआ कि लोग सड़कों पर कूड़ा-कचरा फेंकने से परहेज करने लगे हैं। शहर की स्लम बस्तियों और गांवों में हाजत के लिए अब औरतों और बुजुर्गों को झाड़ या पेड़ के झुरमुटों या सूरज ढलने का इंतजार खत्म हुआ। सरकार ने जगह-जगह पब्लिक टॉयलेट बनवाने शुरू किए हैं। औरतों के लिए बैंकों में खाते खुलवाए जा रहे हैं, यह कदम भी आने वाले दिनों में सुनहरी सुबह की तरफ गामजन होगा। औरतों को लकर मर्दों का नजरिया आज भी दकियानूसी है। वजह जो भी रही हो, उनका जिस्मानी इस्तहसाल खूब बढ़ा। रेप की खबरें साल भर सुर्खिंयां बनती रहीं। लेकिन जाते-जाते 2015 ने इस सिलसिले में सख्त कानून दे दिए। अब ऐसे मामले में 16 साल तक की उम्र सजा के लिए तय कर दी गई। साल की खुशखबर यह भी रही कि भारत के मंगलयान का सफर जारी है ही, चंद्रयान 2 को भी कामयाबी मिली। सेमी बुलेट ट्रेन का ट्रायल हुआ, कामयाब रहा। कुछ बड़े शहरों में ग्रीन कॉरीडोर जैसी पहल मरीजों के लिए ऑक्सीजन बनी। दरअसल इमरजेंसी केसों में मरीजों को वक्त पर अस्पताल पहुंचाने में अक्सर रोड की रश ट्रैफिक जानलेवा होती है। लेकिन कुछ शहरों में एक सायरन के बाद लोगों ने एंबुलेंस को जाने के लिए ट्रैप्िक रोकने की शुरुआत की। इससे कई लोगों की जानें बचीं। कई खतरनाक ऑपरेशन वक्त पर हो सके।


हालांकि गुजरे साल में ऐसी शख्यियतें भी हमसे बिछुड़ गईं। जिनका होना, हिंदुस्तानियत की शिनाख्त थी। डॉ. अबुल पाकिर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम जिन्हें मिसाइल मैन का लकब मिला, नहीं रहे। वे मुल्क के सदर भी रहे। लेकिन अवामी सदर के नाते उन्हें शोहरत मिली। वहीं आम आदमी को पहचान देने वाले और कॉमनमैन को हीरो बनाने वाले कार्टूनिस्ट रसिपुरम कृष्णस्वामी अय्यर लक्ष्मण (आर.के. लक्ष्मण) साल की शुरुआत में ही हमसे जुदा हो गए। उनके कार्टून ने भारत की दुनिया में अलग पहचान बनाई। आम इंसान की बात चली है, तो मदर टेरेसा का जिक्र जरूरी समझता हूं। उनके ही गरीब-मजदूर बेसहारा बच्चों को सहारा देने वाली मिशनरीज ऑफ चैरिटी की चीफ सिस्टर निर्मला जोशी का इंतकाल भी इसी साल हो गया। आउटलुक के बानी शोहरतयाफ्ता सहाफी विनोद मेहता की रहलत भी मुल्क की अमनो-सलामती में एक झटका की मानिंद है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के जनरल सेक्रेटरी रहे अमीर--शरीअत मौलाना सैयद निजामुद्दीन भी आखिरी सफर पर कूच कर गए। उनकी कमी बरसों तक उनके चाहने वाले महसूस करते रहेंगे।


सड़क और रेल हादसों में कई जानें हलाक हुईं। लेकिन आइंदा इनमें कमी आए इसके लिए सरकार ने कई प्लान बनाए। अब रेलवे एक तयशुदा अवकात के साथ जीरो हादसा मिशन शुरू करेगा।इसका मकसद हादसों को टालना और मौतों की तादाद को रोकना है। इसके लिए रेलवे को हाइटेक किया जाएगा। इन खुशनुमा खबरों के दरम्यान कइ्र सूबों में कुर्सियां बदलती रहीं, सुबह-शाम जलसे-जुलूस होते रहे। आम आदमी लुटता रहा, खास जेबें भरती रहीं। हाईवे बने, तो कई सड़कें गउ़ढों में तब्दील भी हुईं। कारों ने कहीं फर्राटे भरे, तो कहीं गाड़ियां रह-रहकर उछलती भी रहीं। भ्रष्टाचार की तोंद तंदरुस्त होती रही, तो वहीं कइयों को इसके इल्जाम में जेलों की चक्कियां भी पीसनी पड़ रही हैं।

खिलाड़ी देश का नाज़ होते हैं। दुनिया के कोने-कोने में जाकर मुल्क का नाम रोशन करते हैं। इस साल भी टेनिस सितारा सानिया मिर्जा और बैडमिंटन स्टार शइना नेहवाल ने इस मिथ को मटियामेट किया कि लड़कियां पीछे रहती हैं। सानिया ने ग्रैंड स्लैम, तो शाइना ने पहली मर्तबा टॉप पर पहुंची। शानदार प्रदर्शन के लिये टेनिस स्टार सानिया मिर्जा को खेल का सबसे बड़ा सम्मान मुल्क के सदर ने दिया। हॉकी एशिया कप (जूनियर) में भारत ने चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान को 6-2 से हराकर खिताब अपने नाम किया।


बुजुर्गवार कह गए हैं, बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेय। 2015 की बिदाई पर आप हाथ हिलाएं या तालियां बजाएं। पर खोया-पाया का हिसाब न लगाएं। जो बुरा हुआ, उसे भूल जाएं। जो अच्छा हुआ, उसे ताकत बनाएं। कुछ सीख लें, तो कुछ सीख दें। नए साल का इस्तकबाल करें। नया सूरज आपके लिए कई सौगातें लेकर आ रहा है। जल्द ही शहर से गांवों तक 24 घंटे बिजली मिलने लगेगी। वहीं इस पॉवर का इस्तेमाल तेज रफ्तार बुलेट ट्रेन में आप करेंगे।

नेक तमन्नाओं से भरी अपनी इस दुआईया नज्म के साथ आपसे इजाजत चाहूंगा:


सब की फरियाद हो
गांव शाद-बाद हो
इरादा चट्‌टान हो
खुला आसमान हो।

जिंदगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो।


हर होठ पे गुलाब हो
पके आम सा शबाब हो
खूबसूरत मकान हो
मुट्‌ठी में जहान हो।

जिंदगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो।


हर गाल पे गुलाल हो
रिश्ता न महाल हो
मां का ख्वाब हो
आंगन शादाब हो।

जिंदगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो।

कोयल का साज़ हो
सब की आवाज़ हो

मसला न सवाल हो
हर हाथ में कुदाल हो।

जिंदगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो।

नदी की रवानी हो
न कभी बदगुमानी हो
वक्त न होलनाक हो
हर सोच ताबांक हो।


जिंदगी खुशहाल हो
ऐसा नया साल हो।


रांची आकशवाणी से यह मक़ाला 25 दिसंबर की सुबह 9:30 बजे प्रसारित हुआ।







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सोमवार, 28 दिसंबर 2015

सत्ता से ज़्यादा बाज़ार कर रहा लेखकों को प्रभावित





  













कथाकार गौरीनाथ से संवाद व्हाया सैयद शहरोज़ क़मर



हर काल में हर लेखक या कवि तेवरवाला नहीं हुआ है। अव्यवस्था और विपरीतताओं को लेकर आक्रमकता की तलाश हर रचनाकार में ढूंढना सही नहीं होगा। कबीर और गालिब युग में एक ही होता है। हर दौर में गोदान नहीं लिखा जा सकता। हां यह जरूर है कि समय का दबाव हर काल में रहा है, लेकिन सृजन कभी मंद नहीं पड़ा। आज निस्संदेह बाजार साहित्यकारों को प्रभावित कर रहा है। कारपोरेट संस्कृति से अछूता नहीं है। बाजार और लेखकों के तेवर के सवाल पर ये बातें मैथिली-हिंदी के सुपरिचित कथाकार गौरीनाथ ने कही। वे विद्यापति स्मृति पर्व समारोह में शिरकत करने रांची आए हुए थे। जहां मैथिली मंच झारखंड ने उन्हें विदेह सम्मान से नवाजा। भास्कर से खास संवाद में गौरीनाथ कहते हैं कि सत्ता से ज्यादा बाजारतंत्र लेखकों को प्रभावित कर रहा है। उसके शरीर और मन को बदल रहा है। लेकिन लेखन पूरी तरह शिथिल नहीं हुआ है।

जबतक लौकिक परंपरा, विद्यापति तबतक

मैथिली कवि विद्यापति की प्रासंगिकता पर गौरीनाथ बोले, महज भक्तिकालीन कवि कहकर, उनका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। हिंदी बेल्ट में लोकसंस्कृति के बहाने कृषि आधारित समाज व्यवस्था की वकालत वह बहुत पहले कर गए थे। वे अपनी कविता में भगवान शंकर से कहते हैं, त्रिशूल को तोड़कर फल बनाएं और खेती करें। विद्यापति के प्रेमगीत जनकंठों में हैं। जन व्यवहार में उनके गीतों की उपादेयता है। जीवन की लौकिक परंपरा जब तक रहेगी, विद्यापति प्रासांगिक रहेंगे।

शहरों की अपेक्षा भयावह ढंग से बदल रहे गांव

बात बाजार की चली, तो गोदान के बहाने हम गांव भी पहुंचे। संप्रति दिल्ली में रह रहे मूलत: गांव के गौरीनाथ कहते हैं, सिर्फ शहर ही नहीं बदल रहे, गांवों में स्थिति और बदतर है। गांव भयावह ढंग से बदल रहे हैं। नैतिकता और अपनत्व का वहां लोप हो रहा है। भाई, भाई का हिस्सा हड़प रहा है। शहर से अधिक अराजकता वहां है। अपराध और हिंसा का ग्राफ शिखर पर है। उपभोगतावादी अपसंस्कृति अपनी समग्रता में गांव-जवार में पैठ जमा रही है, जिससे उसकी चौपाल और पंचायत से लेकर रसोई और आंगन भी प्रभावित है।

प्रवासियों में भाषा-संस्कृति को लेकर ज्यादा ललक

बाबा नागार्जुन मैथिली में यात्री नाम से विख्यात हैं। गौरीनाथ भी अनलकांत उपनाम से मैथिली में लिखते हैं। पर उनका मानना है कि भाषा और संस्कृति को लेकर प्रवासियों में ललक अधिक है। पटना के सम्मेलन में भीड़ भले कम दिखे, लेकिन हैदराबाद, गोहाटी, दिल्ली या रांची में आयोजित किसी भी समारोह मैथिली समाज काफी तादाद में जुटता है। मैथिली में गौरी हरिमोहन झा के बाद यात्री, ललित और राजकमल को प्रगतिशील परंपरा का वाहक समझते हैं। मौजूदा समय पत्रिका अंतिका की भूमिका उनकी दृष्टि में महत्वपूर्ण है।

हिंदी बया के साथ मैथिली पत्रिका अंतिका का संपादन

हिंदी अकादमी, दिल्ली, भारतीय भाषा परिषद, कोलकता का युवा पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से अलंकृत गौरीनाथ का जन्म वर्ष 1969 में मार्च की किसी तारीख में जनपद सुपौल (बिहार) के कालिकापुर गांव में हुआ। 1991 . से निरंतर कहानियां और वैचारिक लेखन। नाच के बाहर और मानुस मशहूर कहानी संग्रह। मैथिली उपन्यास दाग के लिए उन्हें विदेह सम्मान मिला है। विभिन्न अखबारों में नौकरी। करीब दशक भर हंस' के सहायक संपादक रहे। संप्रति हिंदी बया और मैथिली त्रैमासिक अंतिका के साथ अंतिका प्रकाशन का संपादन-संचालन।

भास्कर रांची के 26 दिसंबर 2015 के अंक में प्रकाशित




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नगाड़ों पर तांडव कर रहे हैं शब्द






















सुशील उपाध्याय की 12 कविताएं


पिता की आंखों में

मां को याद करते हुए पिता
वक्त को पीछे धकेलते हैं,
अतीत में छूटे पलों को
स्मृतियों की ताकत से ठेलते हैं।
फिर ठहर जाते हैं
किसी भावुक पल में,
खोल लेते हैं
किसी अनकही कहानी का कोई पन्ना,
खुद पढ़ते हैं नि:शब्द,
बह जाते हैं समय की धार में,
भूल जाते हैं वक्त से लड़ना,
वक्त फिर खींच लेता है उन्हें, आगे और आगे!
सहमकर ठिठक जाते हैं पिता
क्योंकि
उनकी आंखों के कोने में
यादों का इतिहास डबडबा रहा है।
जबकि, वे हर बार इससे इनकार करते हैं
उनका दावा है-
उन्हें याद नहीं आती हमारी मां!


राष्ट्र को नया गान मुबारक!

ताने पर खिंची हैं
भूखी आंतें
तेज नाखूनों की चुभन से बज रहा है
भूख का संगीत!
ऐंठन और मरोड़ की जुगलबंदी से
भर गया मस्तिष्क का हर तंतु।
स्नायुओं को खींचकर लंबा कर रहा है
बेरहम जुलाहा,
तनी आंतों पर डालेगा स्नायुओं का बाना
फिर कसेगा, खींचेगा,
भिगोकर और तानेगा,
मजबूती जांचेगा
और सरकारी रजिस्टर में दर्ज करेगा तमाम ब्योरा
...............................
मैं खुश हूं
क्योंकि
राजाज्ञा में स्पष्ट हैं
खुश रहने के नियम!
राजाधिराज का आदेश है-
राष्ट्र को चाहिए नया गान
और उसी के अनुरूप
आंतों को ताना गया है
स्नायुओं के बाने पर।
करोड़ों आत्माओं से बज रहा है
भूख और बेबसी का संगीत
राष्ट्र को नया गान मुबारक हो!


खेलता हूं गोटियां

सब्र तोड़ते हालात सामने हैं
पर, ना मैं क्रोधित हूं,
ना कुंठित और ना ही क्षुब्ध
क्योंकि गरीबी, बेकारी और भुखमरी
एक नशा है,
और एक नारा भी,
जिसे मैं सुविधा के लिहाज से दोहराता हूं!
विचारों के अर्थपूर्ण होने को
पहले ही कर चुका हूं खारिज,
मैं कहता हूं-
मेरी रुचि
रंग, संस्कृति, भाषा
जाति, संप्रदायजनित भेदभाव में नहीं है,
फिर भी
मैं एक कुशल खिलाड़ी की तरह
खेलता हूं गोटियां,
व्यवस्था और सद्भाव के परम-समर्थक की तरह।
मौन का इस्तेमाल करता हूं,
अपने सुभीते और हथियार की मानिंद!
तुम खोट देखते हो
ये दृष्टि का दोष है!
मेरे लिए ‘मूल्य’ महत्वपूर्ण है
ये तुम पर छोड़ता हूं
इसे बाजार से जोड़ो
या फिर
नैतिकता और मर्यादा के साथ!


नगाड़े पर नंगे शब्द

घने सन्नाटे में ख्यालों का परायापन
चारों तरफ से घेरे हुए है।
अकाट्य तर्कों की मौजूदगी के बावजूद
बरसों से ऐसा लगता है कि
रोशनी अपने उत्स से ही काली है!
चुप्पी के शोर से घिरा हूं,
बेसुरे शब्द, नंगे होकर
नगाड़ों पर तांडव कर रहे हैं।


मुझे ठीक-ठीक पता है-
जिंदगी में सहसा कुछ भी नहीं होता,
न जन्म, न मृत्यु, न हत्याएं!
फिर भी, अचानक सिर पर उग आई घास,
घास पर कांटे
कांटों पर विष-फल
विष-फलों में बीज
और उन्हीं बीजों को बिखेर रहा हूं
हर दिशा में,
किसी न किसी दिन उग जाएंगी अमरबेल!


सवाल कभी खत्म नहीं होते
न उन्हें छिपाया जा सकता दीवारों के पीछे
छिपा दो, तब भी उचक-उचकर चीखते हैं
अपनी मौजूदगी के लिए,
गौर से देखो
अनहुआ-सा अनहोनापन घटित हो रहा है
वक्त के साथ,
और इस अनहोने समय में,
मैं पंक्ति में पहले स्थान पर बैठा हूं
सूने अरण्य में गिद्धों के साथ।
मुझे बिलकुल भरोसा नहीं होता
कि मैं इंसान हूं,
जबकि, तुमने मुझे अभी-अभी
मुझे आदमी कहा है।



बाजार में रामधुन

लपटों से घिरा है उजाला
सपनों को मार गया है काठ
ठीक इसी जगह पर
उस आदमी ने, पत्थर होने से पहले
अपना आखिरी बयान दिया था
बयान, जो उसकी सच्चाई का अकेला सबूत था!


दहलीज़ के उस पार
बिखरे हैं सीप
सीपों में भरे हैं मोती
मोतियों पर लपलपा रही है सर्पीली जीभ।
यहां कोई गारंटी नहीं
गहरे पानी पैठकर कर
पा सकें कोई मोती!


शुरू हो गई है यात्रा की ढलान
रास्ते में बिखरी हैं किर्चियां,
बाजार में बज रही है रामधुन,
जिंदगी डरी हुई है गुलाबों की खुशबू से
और सतह पर डूबता आदमी
मदद के लिए अंतिम आवाज लगा रहा है।
डूबती आवाज को अनसुना करके
कारंवा गुजर रहा है
जा रहा है मिट्टी को सोना करने
ताकि महका सके
जिंदगी की आखिरी सांसें!


इस अंधेरे दौर में!


एक दिन
जब छोड़ चुके होगे सारी उम्मीदें,
खो चुके होंगे आकाश, उत्साह और आग!
अनंत पीड़ा में
काट रहे होंगे पल, प्रतिपल।
मौसम का सुहाना रूप
बढ़ा देगा बेचैनी और दर्द।
खुद की सांसों की आवाज
हो जाएगी डरावनी,
तब, अचानक कोई खटखटाएगा दरवाजा!
कैसे कर पाओगे भरोसा ?
वही है, हां, वही है,
ओस की नन्ही बूंदों से भीगा चेहरा,
लटों में उलझी उम्मीदें,
बह निकलने को आतुर!
एक भी शब्द नहीं देगा साथ
कि कुछ कह सको,
कह सको कि ‘अंदर आओ’!
अंदर, जो कि खाली और सुनसान है!
फूट पड़ेगा गुब्बार,
अनायास ही पकड़ लोगे हाथ,
तपता हुआ हाथ,
हाथ, जिस पर वक्त की चोट के नि”ाान हैं।
आंखें ही कह पाएंगी सारी बातें,
बहती हुई आंखों के आगे
शब्द खो देंगे अपनी सत्ता!
भीतर नहीं बुलाओगे ?’
टूट जाएगी
बरसों लंबी तंद्रा,
लौट आएगा बीता हुआ वक्त,
खोया हुआ भरोसा,
क्योंकि
तुम लौट आई हो-
इस अंधेरे और नाउम्मीदी के दौर में!!!


पहले से ज्यादा हत्याएं!


हत्याएं हो रही हैं
और
विशेषण’ दिलासा के काम आ रहे हैं,
कभी दबंग
कभी दलित मारे जा रहे हैं
बच्चों को किया जा रहा है
आग के हवाले
और हम तमाशाई हैं!
हमें, हर रोज चाहिए नया मनोरंजन
पहले से बड़ी खबर
पहले से बड़ी सनसनी
पहले से ज्यादा हत्याएं
पहले से घिनौना बलात्कार
पहले से ज्यादा लापरवाही
और
उससे भी ज्यादा बड़ी खामोशी !
हम हर रोज नया आवरण ओढ़ते हैं
अपने काल्पनिक किले के चारों ओर
नई खंदक खोदते हैं
दीवार को करते हैं
रोज--रोज और ऊंचा
उस पर बिजली के तारों में छोड़ते हैं
ज्यादा से ज्यादा करंट
फिर
इस उम्मीद में सोते हैं-
अब नहीं कोई पार कर पाएगा
सुरक्षा का घेरा!
ठीक इसी तरह
कोई तैयारी करता है
गहरी खंदकों,
ऊंची दीवारों
और
उच्च तीव्रता के करंट को बेधने की।
फिर हम पाते हैं
कुछ और लाओ
कुछ और बलाकृत
कुछ और अपंग, झुलसे शरीर
और एक बार फिर
हम ओढ़ लेते हैं-
अनंत खामोशी!
यही है हमारे चरित्र की
सबसे अनिवार्य और पक्की विशेषता!



गंदे बच्चे!

दूर देहात में-
गाय को गले की रस्सी
और
कभी पूंछ से पकड़कर
उलट दिशाओं में ले जाने की जिद में
जुटते बच्चे!
बदबू से सराबोर झोंपड़ पट्टियों में-
दिन भर चुनकर लाए कूड़ा,
कूड़े से मिली
टूटी खिलौना गाड़ी के लिए
लड़ते बच्चे!
सड़क किनारे के ढाबे पर-
नाक सुड़ककर बांह से पौंछते
लबालब भरी प्लेटों को
हसरत से निहातते बच्चे!
और.........
किसी बहुप्रचारित टूरिस्ट-स्पाॅट पर
लिपे, पुते, सजे
यौन-कुंठाओं के लिए
उपलब्ध कराए गए बच्चे!


अच्छे लोग अपने बच्चों को समझाते हैं-
देखो, ऐसे होते हैं-
गंदे बच्चे!!!


चूंकि, तुम कह रहे हो

उम्मीदों का सूरज
सिर पर धधक रहा है,
और जेब के चारों तरफ
स्याह धुंध छायी है!
बाजार पर शैतानी ताकतों
का साया मंडरा रहा है,
थ्री-डी प्रिंटर से निकली हरी घास
शो-केस में रखी है,
इसके ठीक पीछे
तेज धार वाला छुरा,
कंप्यूटर की एक क्लिक का इंतजार कर रहा है!
बकरे अपना धैर्य खो चुके हैं,
हरी घास लुभा रही है,
उन्हें नहीं पता कि यहां जान दांव पर लगी है।
न आदमी को पता,
उसे भी लुभाया-ललचाया जा रहा है ताकि
ठीक दिल पर चुभाया जा सके न”तर!
तभी तो जियेगा बाजार,
तभी तो मनेंगे त्यौहार!
रो”ानी का कतरा-कतरा और
फेफड़ों में भरने लायक हवा का हर झौंका,
बाजार में टंगा हुआ है,
भारी छूट’ के टैग के साथ।
चूंकि, तुम कह रहे हो-
इसलिए मान लेता हूं कि
देश उत्सव में डूबा है
और चारों तरफ मंगल-गान गाये जा रहे हैं!


कौवों से भरा आसमान

कौवों ने सर्वसहमति से
बगुले को राजा चुना है।
धवल, एकनिष्ठ, कर्तव्यपरायण, सिद्ध
एकदम खामोश, निश्चेष्ट,
एक टांग पर खड़ा,
प्रजा के हित में!
उसे चुना गया है-
बोलने की आजादी के लिए
उड़ने के हक,
तैरने की चाहत
और
दौड़ने की प्रतिबद्धता के लिए।
हर तरह से पूर्ण, परिपूर्ण बगुला राजा।
दरबार में हो रही कांव-कांव,
पंख-नुचाई, चोंच-भिड़ाई।
फिर निकले कुछ आदेश
कोयलों को किया गया दंडित
बेसुरे रागों के लिए।
हंसों को दिया गया देश निकाला
जो कर रहे थे दावा
नीर-क्षीर-विवेकी’ होने का।
उठा रहे थे सवाल,
मांग रहे थे जवाब बहुमत से!
तख्त पर बैठा है बगुला
ध्यानमग्न, परम शांत
ज्यों दिव्य-सत्ता से एकाकार।
मछली पर अपलक निगाह
बिजली कौंधी, मछली गप!
न कोई प्रमाण, न गवाह
फिर कौन लगाए आरोप ?
वो भी राजा पर!!!
कौवों से भर गया आसमान
कांव-कांव, कांव-कांव
गा रहे राजा की विरुदावली।
जय हो, लोकतंत्र तेरी जय हो!



डरा हुआ आदमी!

यूं समझो कि
एक ही होता है-
मरा हुआ आदमी
और
डरा हुआ आदमी!
दोनों ही निष्प्राण, निर्जीव
वक्त से हारे हुए।
दोनों ही धरती पर पड़े,
खुली, नंगी आंखों से
आसमान को ताकते।
जिंदा आदमियों की गिनती से बाहर,
जिंदगी की लड़ाई से भागे हुए।
ऐसे निर्वैर, निस्पृह
कि धरती पर हैं ही नहीं!
दोनों ही नहीं बोलते
किसी की जरूरत के समय,
लाख चिल्लाओ, पुकारो
नहीं उठाते मदद के लिए हाथ!
न हिम्मत बंधाते
न दिलासा का एक शब्द कहते
और न ही बुरे वक्त की राह रोकते!
पर, एक अंतर है-
मरे हुए से ज्यादा खतरनाक होता है
डरा हुआ आदमी!



रोटियां नहीं, सपने बेलती है लड़की


सड़क पर ठेला लगाकर
रोटी बनाती, बेचती है वो लड़की!
गोल रोटियां, धरती के आकार जैसी।
अक्सर लगता है-
रोटियां नहीं, सपने बेलती है।
गर्म तवे पर आकार लेती रोटियां,
फूलती, फुस्स हो जाती।
ठीक वैसे ही,
जैसे कि अच्छे दिनों की उम्मीदें।
चूल्हे की आग तवे को नहीं,
देह को गरम करती है।
लपटे भले ही बाहर दिखती हों,
पर, ये भीतर से उठती हैं!
लड़की रोज सामना करती है
पेट की भूख का
देह की भूख का
नर-शिकारियों का,
जिनकी भूख है पेट से नीचे
लटकती, लहलहाती!
लड़की आंखें झुकाएं रोटियां बनाती है।
परोसती है।
दिनों को ठेलती है,
सड़क पर ठेले के पीछे खड़ी होकर!



(कवि- परिचय :

जन्म : 27 दिसंबर, 1972 को मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) में।
शिक्षा : यूजीसी-नेट, पीएच.डी., गुरुकुल कांगड़ी वि.वि., हरिद्वार।
सृजन : आउटलुक, लोकस्वामी, संवेद में कविताएं प्रकाशित।
संप्रति : प्रभारी अध्यक्ष, हिंदी एवं भाषाविज्ञान, संस्कृत वि.वि., हरिद्वार।
संपर्क : gurujisushil@gmail.com )


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