बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

2015 अलविदा खुश आमदीद 2016

गुज़रे साल का सरसरी आकलन   सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से उजियारा कभी, तो कभी घुप्प अंधेरा। बात जब भी होगी, तो सवेरे की होगी, क्योंकि रौशनी में हर वो चीज दिख जाती है, जिसे आप देखना चाहें या न चाहें। पिछले...
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सोमवार, 28 दिसंबर 2015

सत्ता से ज़्यादा बाज़ार कर रहा लेखकों को प्रभावित

   कथाकार गौरीनाथ से संवाद व्हाया सैयद शहरोज़ क़मर हर काल में हर लेखक या कवि तेवरवाला नहीं हुआ है। अव्यवस्था और विपरीतताओं को लेकर आक्रमकता की तलाश हर रचनाकार में ढूंढना सही नहीं होगा। कबीर और गालिब युग...
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नगाड़ों पर तांडव कर रहे हैं शब्द

सुशील उपाध्याय की 12 कविताएं पिता की आंखों में मां को याद करते हुए पिता वक्त को पीछे धकेलते हैं, अतीत में छूटे पलों को स्मृतियों की ताकत से ठेलते हैं। फिर ठहर जाते हैं किसी भावुक...
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)